मंगलवार, 1 अगस्त 2023

धूप खुलकर नहीं आती- जयप्रकाश श्रीवास्तव

 

जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के निश्चल जीवन, सकारात्मक सोंच, निर्मल व्यक्तित्व, विनम्र, सदाचारी दिनचर्या ने उनके काव्य रचना को भी उसी उदात्त परिधि में बाँध दिया हैं, जहाँ जीवन निष्काम और कलुष रहित हो उठता है, ऐसे गरिमामय मानवता के उद्धार के लिए लिखे गये शब्द, स्वयमेव शिव, सत्य और सुंदर हो उठते हैं। जय प्रकाश जी ने अपनी अवधारणाओं को, मन की निर्मितियों को, एक विशेष आकार में शब्द बद्ध किया है, अपनी गहन पीड़ा की लय को, अश्रुओं से सँवारा है, तभी उनके नवगीतों में जो उद्वेग है, वह किसी को भी अपने साथ बहा ले जाने में सक्षम है। जीवन का प्रवाह कभी रुकता नहीं, पर बची रह जाती हैं, ये रचनाधर्मिता, जो किसी के मनोभावों को, विवशताओं को, सुदूर नभ तक, अनंत ब्रह्माण्ड तक, कालखंड के अंतिम पड़ाव तक, मार्मिक स्वराघात से गाती रहती है। 

जयप्रकाश श्रीवास्तव नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश के सेवा निवृत शिक्षक हैं, उनके चार नवगीत संग्रह प्रकाशित हैं, और एक कविता संग्रह भी। ’धूप खुल कर नहीं आती’ उनका पाँचवाँ नवगीत संग्रह है। मनुष्यत्व की खोज में संलग्न इनके तपःपूत शब्द नवगीत को इतना रसमय, इतना मनस्वी बना देते हैं, कि नवगीत स्वयं सिद्ध से लगने लगते हैं। उनके नवगीत सहृदय को, भावक को, अपनी भावानुभूति में बहा ले जाते हैं। जो रचना मर्मस्थल को छू ले, और मनुष्य की सोई संवेदना को जगा दे, वही श्रेष्ठ रचना है। काव्य का कार्य भी वही है, संवेदना को जाग्रत करना!

जय प्रकाश श्रीवास्तव की निराश मन कह उठते है, की जीवन हमारे हाथ से फिसल रहा है, और हम मन चाहा कुछ भी न कर पाए, अब पश्चाताप के सिवा और क्या बचा है हमारे आसपास!

‘रह गया है 
अब हमारे पास गाने बस समय का बीत राग

शब्द के संबंध भावों की धरा पर हो गये हैं कैसेले
नागफनियों के कटीले बाग में उगे काँटे विषैले
चुग गया है खुद अहेरी सभी दाने 
गा रहा खग कुल विहाग

धूल आँधी के पहाड़े पढ़ रही है, थरथराता है हृदय
थाप मौसम की उछल आकाश पर लिख रही हरदम विजय’

लुट गया है माटी का हर ऋण चुकाने
गंध का वैभव पराग।

इसलिए बहुत आवश्यक है, कि हम नदी की धार की मानिंद उसी के साथ बहते रहें। सुख दुख की दोनों धाराएँ जीवन में समान बहती हैं, रास्ता बहुत कठिन और दुर्गम भी है, लक्ष्य के लिए अभी मीलों भटकना शेष है, उल्टी हवाओं में संतुलन साधना आसान नहीं, पर हिम्मत से सब कार्य संपन्न हो जाते हैं, जीवन में दर्द की उद्दाम लहरों के बीच किनारा खोजना संभव नहीं, तो बहुत श्रम साध्य और दुरूह अवश्य है, लेकिन जिन्हें विपरीत दिशा में हवाओं से लड़ना आता है, उनके लिए ठहर जाता है कुछ देर वक्त भी —

‘आवश्यक है 
तट नदिया के बन कर रहना 

हवा प्रदूषित धार समय की उल्टी पड़ी मचान
खींच रहें हैं हमको भीतर घर आँगन दालान 
आदेशों तक दूर रहो सब 
सुख से कहना 

कठिन डगर है पग पग खतरा अनुशासन की कील
पता नहीं है यात्राओं को चलना कितने मील
दौर कठिन है हर पीड़ा को 
हँस कर सहना’

जीवन में कठिन संघर्षों की प्रताड़ना और साँसों की नियति समान गति से चलती है, दर्द की परछाई बन कर यह जन्म रह गया है, करुणा विगलित मन अश्रु जल धारा में, सब कुछ खत्म कर देना चाहता है, पर अलिखित भाग्य फिर फिर आड़े आता है, कवि की वेदना एक बार पुन:मन को मथने लगती है—

‘बाँसुरी के छेद या साँसों का क्रम 
बज रहें हैं हम 

दर्द के आधीन तन और मन रहे हैं, 
एक करुणा सिक्त सब अराधान रहें हैं 
नियति के हर नियम 
भज रहें हैं हम

आलिखित से मौन स्वाहा यज्ञ समिधाएँ 
मूक से सब मंत्र हुई आहत ऋचाएँ 
हो रहे आखेट मरते नित्य ही श्रम
चुप रहे हैं हम’

शहरों की भीड़ में नाना प्रकार के प्राणियों, के लिए तो जीवन कठिन है ही, पर मनुष्यों के लिए भी दूभर है, छोटे छोटे सीखचों में बटे तंग गलियारे से रहवास कैदखाना अधिक लगते हैं, घर कम। मनों में कड़वाहट है, और अधरों पर मुस्कान, यही है, आज के शहरों की पहचान। इंसानियत का गला घोंट कर जीती हमारी असहनशील पीढ़ियाँ जीवन के द्वन्द में, कैसी आगे जीत हासिल कर पायेंगी ? जब उन्होंने पहले ही पायदान पर निराश होकर हार मान लिया, फिर भी कवि आशान्वित है, कि उजाले जरूर लौट आयेंगे, और अंधेरे जीवन से फिर से दूर भाग जाएँगे—-

‘पंछियों ने फिर बनाये 
दूर वन में घोंसले

शहर ओढ़े घूमता है तंग गलियों के लिबास 
दूरियाँ मन से निभाते तन भलें हों पास पास 
आज निकले पंख फैला 
गगन में हौसले

धो तनिक अच्छाइयाँ सब पोंछ कर गुजरा समय
फिर लिखें इतिहास अपना भूल कर सारा अनय
घर उजाले लौट आये
तम के दावे खोखले’

सन्नाटा और अकेलापन अब मनुष्य की जैसे शाश्वत नियति में परिवर्तित होता जा रहा है, आज की जीवन शैली अनेक विद्रूपताओं से भरी हुई हैं। सब कुछ स्वाहा होते हम देख रहें हैं , और मौन रहने की विवशता भी है। भय और पराजय में सिसकती, अनुभूतियों की दरकती दीवारें इंसानियत को कब तक बचाए रखेंगी ?

‘बैठ अधर पर मौन जुगाली करते हैं
कुछ तो बोलो सन्नाटे भी डरते हैं

भय की छाया मुट्ठी बंद उजालों की 
तम के हाथों मरहम पट्टी छालों की 
देख देख कर
करतब रोज सिहरते हैं

भाग हमारे मरघट पर फूटी गागर
नदी उलीचे खाली रेता का सागर
आँखों में ही सारे
स्वप्न दरकते हैं’

खेतों और खलिहानों की दुर्दशा भी आज सर्वव्यापी है। प्रयासों के सारे बाँध टूट जाते हैं , पर कोई तदवीर काम नहीं आती, दुनिया दुष्टों का पक्ष सुनती है, और सरल मन अभागा अपने भाग्य पर रोया ही करता है—
‘मेड़ पीठ पर लाद
घूमता लाचारी में खेत

छोड़ उचक्के बटमारों की खूब कटी चाँदी
शासन जिनके पाँव पखारे सत्ता हो बाँदी
झूठी कसमें खाकर कहते 
मूरख इधर न चेत’

जीवन रूपी नदी में कितना जल वह चुका है, यह तो कोई नहीं जानता, पर अभी तिरना बाकी है, जीना बाकी है, तो उद्यम करने ही होंगे। डूबने का अंदेशा हो, तो भी हाथ पैर अंतिम क्षण तक हर कोई मारता है, जिजीविषा बहुत विकट वस्तु है, सब तरफ निराशाएँ मन को कचोटती हैं, गाँवों का मन शहर की तरफ झुकता जा रहा है, और शहर बजबजाती भीड़ से, कचरे से, पटे जा रहें हैं, साँस साँस भारी है, फिर भी धार में बहने को बाध्य है, जीवन की जर्जर नौका—-

‘कितना कुछ बह गया 
नदी में ढहे किनारे

लहरों पर तन गये मकान रेतीले मन
फिसल रहे सड़कों पर गाँव ले खालीपन 
पतवारों से डूब रही है नाव
किसे पुकारे ?

नियति नटी दर्पण दिखलाए चेहरे मैले
वन कानन सब ओर तबाही रूप कसैले 
नहीं दिखाई पड़ती कोई राह
बुझे उजारे’

यात्राएँ ठहरी हुईं हैं, मछलियाँ अकुला रहीं हैं, आज श्वास श्वास में प्रदूषण जानलेवा हो रहा हैं, जटिल और कठोर समय आज सभी के लिये है, मनुष्य ने विकास के नाम पर विनाश की दिल दहला देने वाली कथा जो लिखी है, उसका तिलमिलाता दर्द, लम्हे लम्हे को सालता है, सीने में बस चुकी है, एक अथक उदासी सदा के लिए— 

‘बहुत भीतर तक समंदर हुआ दूषित
मछलियों पर समय भारी

किनारों पर बैठ कर रोती लहर है
ज्वार भाटे से डरा सारा शहर है
हवाओं के नम हुए 
चेहरे प्रकम्पित
झलकती हर ओर लाचारी

मनुजता की लाश पर गिद्ध मँडराते
तटों और साजिशें जलयान थर्राते
यात्रा के पाँव ठहरे से अचंभित 
मंजिलों के ठाँव सरकारी

धार है मँझधार जल सारा प्रदूषित
नाव ढोती व्यथाएँ सारी’

गीत लिखना एक पुनीत कार्य है, गीतों के माध्यम से लोक व्यथा, लोक चिंता, सर्व व्यापिनी होती है, और शब्दों के निकष पर सच्ची भावनात्मकता की सही परख भी होती है, शुद्ध और निर्विकार चिंतन में लोक हित ही सर्वोपरि होता है, और वही काव्य तुलसी का कालंजयी राम चरित बन सकता है, तब वह जन जन के कल्याण के निमित्त, प्राण प्राण में ऊष्मा का संचार करने लगता है। वही अभिनंदनीय है लेखनी, जो हाशिए पर पड़ी लहू लुहान मानवता की पीड़ा को, गरल सा शिव की भाँति स्वयं पी सके, और विश्व मन में नूतन ऊर्जा का संचरण करके, नये सूर्य की अगवानी कर सके—-

गीत भगीरथ जब तक न हों 
गंगा केवल एक नदी है

चिंतन से चिंता उपजाई, सुबह लिखी संझा दुलराई
सूरज के हाथों में सौंपी, दिन भर की कुल सार कमाई
पुण्य फलित सब जब तक न हों
बोझ पाप से दबी सदी है

शब्दों से साधे संसाधन 
आखर आखर कथा पुरातन
स्वार्थ सिद्धि साधे मंसूबे
पावन पूजा हुई अपावन
शुद्ध आचरण जब तक न हो 
हर नेकी भी लगे बदी है’

ग्रामीण परिदृश्य का सरल और तरल समीकरण साधने में भी जय प्रकाश जी की लेखनी स्पष्टतः परिमार्जित और परिष्कृत रही है। वे गाँव की जमीन से जुड़े व्यक्ति हैं, और सम्पूर्ण जीवन भी उनका जमीन से जुड़ा ही रहा है, अतः वहाँ की संस्कृति और रीतियों, रिवाजों को अच्छी तरह समझते हैं, गाँव की दिनचर्या शहरों से बिलकुल भिन्न होती है, शहर अपनी विलासिता और अमीरी में, दिखावे में, इंसानियत का भी पल्ला झटक देते हैं, पर गाँवों की आँखों में अभी भी थोड़ी शर्म है, परंपरा का लिहाज बहुत हद तक बचा हुआ है, हालाँकि नई पीढ़ियों बहुत कुछ भूलती भी जा रही है —-

‘सीख बड़ों की टँगी अरगनी
बंजर जोते नई पीढ़ियाँ

कटा हुआ दिन ठूँठ पेड़ का, सूरज डूबा बुढ़ा मेंढ़ का
रात उनींदीं आलस भरती, उतर रही
कुल वधू सीढ़ियाँ

बारह दादा रगड़े दिन भर बैठे-बैठे फटी एड़ियाँ
खरपत उपजी घर आँगन में, खड़ी दिवारें सबके मन में
गाय रंभाती बँधीं खूँट से बछिया लाँघे
रोज ड्योढ़ियाँ’

चन्द्रमा रात को कितना खूबसूरत कर देता है, यह पूर्णिमा की रात स्वयं बता देती है। सुख की एक उजली सी खिड़की जैसे खुल जाती है, मनुष्य कविता जीवी हो उठता है, साँसों में मृदुल संभावनाएँ तलाशने लगता है, मौसम सौंदर्य का अनोखा शास्त्र रचने लगता है, सब कुछ एक बार फिर मनभावन सा लगने लगता है—

‘कुछ कहो मत
चाँद लेकर रात उतरी है जमीं पर

बैठ कर चुपचाप सन्नाटा बुनो, खोल दो सब खिड़कियाँ
आँगनों छत पर चाँदनी तानों, सितारों की पन्नियाँ 
उम्र बाँधों धार के संग, रचो कविता आदमी पर
धड़कनों से बाँध धड़कन
गीत गाओ चाँदनी पर’

भीड़ आजकल एक बहुत ही आम समस्या है, भीड़ में आदमी खो चुका है, और आदमीयत भी। मनुष्य का श्रम आज व्यर्थ सा हो चुका है, जीवन अनेक विसंगतियों में फँस कर बिलकुल निरुपाय सा हो गया है, शब्दों के निविड़ जंगल हैं, सारे ग्रंथ पुस्तकें, कहीं से भी रोटी की, रोजगार की, समस्या नहीं हल करते, लेकिन चिरंतन सत्य तो रोटी है न! और आज का समय, सरकारें उस पर भी ग्रहण लगा रहीं हैं, सब अपने अपने में मस्त हैं, कोई भी व्यक्ति किसी की कोई सहायता नहीं करना चाहता, स्वार्थ ही स्वार्थ और अब कुछ भी शेष नहीं—-

‘भीड़ खोकर रह गई बस हादसों में
आदमी जिंदा मरा
है आजकल

हवाओं के पर लगा उड़ता समय है
हो गया कमजोर क्षेपक से विषय हैं
ग्रंथ ढोते काल को परछाइयों को 
शब्द का जंगल घिरा
है आजकल

रोटियों पर है घिरी बाज की दृष्टि
गान विप्लव का सुनाती शाश्वत सृष्टि
भूख बदले रोज वस्त्रों की तरह घर
अहं है कि सिरफिरा 
है आजकल

काट डाले हाथ तम की डोर से
रह गये सब बँधे अंतिम छोर से 
सूर्य खोले बैठ जाता धूप की गठरी 
श्रम नकारा हो गया 
है आजकल’

कविता के विषय में जय श्रीवास्तव जी कहते हैं, कि साँठ गाँठ और गुट बाजी ने कविता को भी व्यापार बना दिया है आजकल ! गहरे अन्तर्द्वन्द्व और मानसिक विचलन के मध्य पनपती साजिशें ! किसी को किसी की नहीं पड़ी है, सिर्फ अपनी रचना ही सबको सर्वोत्तम लगती है, बाकियों को इधर उधर खिसकाना, शतरंजी मुहरों की तरह, और सारी बाजी अपने हक में करना ही एक मात्र नीति है सबकी, आलोचक, प्रकाशक और पुरस्कार, अधिकांशतः ये सब भी एक विशेष कूटनीति वाले प्रछन्न तिकड़मी चाल के माहिर खिलाड़ी हैं, लेखक भी इनके लिए एक मुहरा ही है—

‘संवेदन से हुई खोखली 
कविता तो व्यापार हो गई

घाल मेल है नहीं कहीं भी तालमेल है
उठापटक है बाजीगर का खुला खेल है
सत्ता का सुख भोग दोगली 
कलम भोथरी धार हो गई

...

सम्मानों की लगा दुकानें बाँट रहे हैं
बना कसौटी पकी फसल को काट रहे हैं
हर स्तर और मची धाँधली
रचना खर पतवार हो गई’

अनंत सागर की तरह व्यथा भी कवि की अनंत है, लहरों की तरह बार बार लौट आती है, निरुपाय कवि की संवेदना भी निरुपाय हो जाती है। ढाँढ़स कौन बँधाए? चाहना भी अकिंचन हो गई, मन बार-बार आशाओं के बंदन वार सजाता है, पर बार-बार उसकी लड़ियाँ टूट टूट कर बिखर जाती हैं— ‘लौट उलटे पाँव आई है व्यथा, हमने दुख गाया कहाँ था? संचेतनाओं के हाथ बँधे हैं, स्वार्थ नग्न होकर तांडव कर रहा है, रजनीगंधा किसी और के आँगन में महक तो रही है, पर उसकी खुशबू अब बाहर नहीं आ पाती, खुशबुएँ कैद कर की गई हैं। दुनिया त्राहिमाम कर रही है अफरातफरी मची है, दहशत और ऊहापोह, संशय और अविश्वास, धोखा और कपट, हिंसा और व्यभिचार, पतन और अधोपतन की सीमा रेखा अब समाप्त हो चुकी है। लोग जाने किस नशे में बौराये घूम रहे हैं। कोई किसी का नहीं है, इंसानियत का खून हो रहा है, करुणा, प्रेम और कोमल कांत भावनायें सब बीते युग की बातें है, कोई तड़प रहा हो, तो लोग अस्पताल नहीं ले जाते, मोबाइल से वीडियो बनाते हैं, तब तक वह तड़पता रहता है. हम उस बर्बर युग में जी रहे हैं, दुनिया आज बिलकुल बदल चुकी है-


‘टूट रहीं हैं परंपराएँ 
रिश्तों की बुनियाद हिली है 
जीवन मूल्य सभी खंडित हैं

व्यक्तिवाद की सोच के आगे खड़ी व्यवस्था निर्मम सारी
दर्शक बन कर देख रही है जड़ संवेदन की लाचारी
स्वार्थ सभी महिमा मंडित है 

प्रथम पुरुष से अन्य पुरुष तक शब्दों के भोगे बँटवारे
अक्षर बिखरे पड़े हैं मन के अब तक तन के घाव सँवारे 
श्रद्धाओं के फल दंडित हैं’

कवि की व्यथा, जग की व्यथा सब आपस में गुँथी हुई है, क्योंकि मनुष्य मनुष्य की भावनाएँ, पीड़ाएँ सब काल में, सब कहीं एक सी हैं, ह्रदय का रुदन, देह का, मन का, परिवर्तन और विषाद की तीखी चुभन सब एक सा है, दर्द से लबालब भरा हुआ। जीवन में एक दिन थक कर बैठना ही सबकी नियति रही है, और फिर जीवन से प्रयाण ! यही शाश्वत सत्य है, फिर तो उस पार की वह यात्रा है जिसके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते। 

‘पेड़ो की छाया के नीचे 
बैठ गये थक चलते चलते 

पेड़ लगाए हमने सींचा खून पसीना
नेह धार की कोशिश फिर भी नदी बही ना
घाट कहाँ कब ढहे अकारण 
रेतीले मन रहे फिसलते’

नवगीत की रचनाप्रक्रिया एक विशेष मनः स्थिति और भावावेग का परिणाम है, जैसे उमड़ घुमड़ कर बादल घिरते हैं, तो वर्षा होती है, उसी प्रकार जब मनोवेगों का, अनुभूतियों का और संवेद जनित पीड़ाओं का दबाव बढ़ता है, अपने दर्द और दुनिया की क्रूर विसंगतियाँ जब बाँध तोड़ने लगती हैं, तो कवि का मन अभिव्यक्ति को विवश हो जाता है, टूट कर तब कुछ शब्द भावों को सहारा लेते हैं, तभी काव्य मर्म बेधी हो जाता है। इस संग्रह में नवगीत के वस्तु परक, तथ्य परक और भाव परक तत्वों का पूर्ण निवेश है। उत्कृष्ट शिल्प, प्रांजल भाषा, उनके नवगीतों में एक अलग सा वैशिष्ट्य भरती है, विभिन्न मनः स्थितियों और दुनिया की पीड़ाओं को, हाशिए के समाज को, अभिव्यक्त करते उनके नवगीत, नवगीत साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। 

---------------------

नवगीत संग्रह-धूप खुलकर नहीं आती, रचनाकार- जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सिहोर, प्रथम संस्करण-२०२३, मूल्य-२६५ रु. , पृष्ठ-१०४ , परिचय- केवल प्रसाद सत्यम, ISBN: 9788119018215

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

क्या आपने यह पुस्तक पढ़ी है? यदि हाँ तो उसके विषय में यहाँ टिप्पणी करें। उपरोक्त समीक्षा पर भी आपके विचारों का स्वागत है।