बुधवार, 1 नवंबर 2023

मगर कब तक- वीरेन्द्र आस्तिक

मगर कब तक वीरेन्द्र आस्तिक का सातवाँ नवगीत संग्रह है। ५१ गीतों के इस संग्रह में सामंतशाही व्यवस्था का प्रतिरोध, समय बोध, सामयिक सन्दर्भ व वंचितवर्ग की पीड़ाओं की संलग्नता व्यक्त हुई है। सहज कहन लिए नवगीतों का कथ्य पूरी तटस्थता व चेतना के साथ पाठक को प्रभावित करता है। इस संग्रह में वर्तमान परिवेश के हर पहलू की सार्थक व समर्थ अभिव्यक्ति हुई है चाहे राजनीतिक विद्रूपता हो, व्यवस्थाओं की जमीनी हकीकत हो या आम जनमानस की आर्थिक व सामाजिक विषमताएँ व पीड़ाएँ, प्रत्येक विषय पर आपकी क़लम समान रूप से चली है। वैसे तो आप को प्रेम का कवि कहा जाता है किन्तु आपके गीतों से गुजरते हुये पाया कि - वस्तुत: आप प्रेम और जन सरोकारों के कवि हैं। 

आप मानते हैं कि "नवगीत मूलत: ऋग्वेद से विरासत में मिले गीत की आधारशिला पर ही खड़ा हुआ है और इसीलिये आज गीत अपनी यात्रा में कई पड़ावों को पार कर नवगीत के रूप में समकालीन लोक-जीवन की संवेदना, संस्कृति एवं सरोकारों को मुखरित कर रहा है।" उपरोक्त कथन के निकष पर देखें तो उनके नवगीतों में लोक जीवन की संवेदना व जन सरोकारों की संलग्नता प्रबलता के साथ उपस्थित है, जिसमें आम आदमी की दुरूह स्थितियों पर बेबाक बात हुई है इतना ही नहीं वर्तमान समय में पूँजीवाद के विकराल विस्तार पर वह वाज़िब चिंता और संवेदना व्यक्त करते हैं ..

इस धरा का दोष ही क्या 
है शिकायत आदमी से

यह बड़ा बाजार ठगने में निपुण है वाकपटु 
धैर्य उसका जादुई कर दे नरम हर शब्द कटु
दैत्य उसकी भूख लेकिन किस कमी से ? ( आदमी हारा -पृष्ठ -३४)

सामयिक परिस्थितियों के सच को उजागर करते उनके नवगीत इस हताश समय में आशा का संचार भी करते हैं-'फिलहाल गाएँ' व 'रोज तमाशा 'नवगीत इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हैं ..

एक छलिया मोहिनी के भेष में कब तक छलेगा
जीत सच की है बहुत नजदीक फिर उत्सव मने गा
गुम हुए इस आदमी को कुछ हँसाएँ
गुदगुदाएँ। ......(फिलहाल गाएँ -पृष्ठ २८ )

लघु जन हों या हों भारी भरकम पद वाले
संघर्ष सभी का जीवन को ही मथ डाले
घोर तिमिर में भी कोई सूरज की भाषा जीता है ......( रोज़ तमाशा -पृष्ठ ४६)

पीढ़ी दर पीढ़ी सामंतवाद की दासता से आजिज़ आ चुका कविमन समय के जरिए अपने उद्वेलन को दर्ज़ करता है और समय के जरिए ही पूँजीवादी व्यवस्था में बदलाव का आह्वान कहिए या अनुरोध करता है-
दासता करते कुबेरों की थका मैं समय हूँ 
अब बदल डालो मुझे …

वक्ष पर मैं काल-पुरुषों की कथा टंकित किए
शीश कितने ही, युगों ने सृष्टि के खण्डित किए
मेरे आसन पर जमा क्यों झूठ है इस प्रथा से
ऐ सच उबारो मुझे। ( मैं समय हूँ - पृष्ठ ५२)

राजनीति को फिलवक्त साम्प्रदायिकता का पर्यायवाची कहा जाए तो असहमति बनती नहीं दिखती, कुछ अपवाद छोड़ कर। ऐसी विस्फोटक स्थिति में वे कुछ वाज़िब सवाल करते हैं।
सिर पर संकट पर रहते तुम बहके-बहके

क्यों टुकड़े -टुकड़े राजनीति
क्यों नहीं किसी की नई रीति
अलग -अलग क्यों सम्प्रदाय में
दहके-दहके। ( सिर पर संकट - पृष्ठ -६२)

शीर्षक गीत 'मगर कब तक' में आप छद्म प्रगति की कलई खोलते होते हुए पूँजीवादी व्यवस्था के परिणाम-संवेदनहीनता से उपजे खालीपन पर विचलित होते हैं -
प्रगति के देश में अब
दिन नहीं कटते सहजता से

ठिकाना प्यार का था जो वही अब लापता है
नई तकनीक के सामान से ये घर लदा है
बढ़ी पूँजी मगर दूरी
बढ़ी है क्यों मनुजता से। ( मगर कब तक - पृष्ठ -४८)

कितना दुखद है कि ' दृष्य देखकर' शीर्षक नवगीत में उन्हें कहना पड़ा -
सेक्स उतर आया हिंसा पर
बालाओं का करता मर्डर।

दुराचार की ख़बरों से है पेपर लथपथ
महिलाओं का सड़कों पर है आंदोलन-रथ
कोमल -कोमल हाथों में है
गैंगरेप का खूनी बैनर ! ( दृष्य़ देखकर -पृष्ठ-४० )

घात-अपघात और प्रतिभा मूल्यांकन में काट-छाँट कर कमतर को सर्वोत्कृष्ट का प्रमाण पत्र दे, कंधों पर पालकी ढोने वालों की समाज और विशेषकर साहित्यिक समाज में कमी नहीं - शायद ऐसी ही परिस्थितियों पर हुआ होगा गीत 'शिल्पी हैं वे' 

शिल्पी हैं वे लम्बे कद को 
छोटा करने के

शब्द -यज्ञ की चौखट-चौखट चाकरी बजाते हैं
नीलम के सम्मुख पाथर को बहुमूल्य बताते हैं
ख्यातिलब्ध हैं इतिहासों के 
क्षेपक गढ़ने में। (शिल्पी हैं वे-पृष्ठ-६०)

नवगीत समीक्षा, समालोचना परिदृश्य पर अक्सर सजग और चिंतित रहने वाले आस्तिक जी जब लिखते हैं -
खून-पसीने से सींचा था
गीत -वृक्ष ये बड़े हुए

जड़ें जमा ली थीं आँधी में -
छंदों ने इतिहास रचा
क्रूर समय के प्रति विरोध में
जन-जन का संत्रास रचा

जटिल प्रश्न के सहज-सरल -से 
उत्तर लेकर खड़े हुए
गीत -वृक्ष ये बड़े हुए। ( गीत वृक्ष ये-पृष्ठ -९० )

तब उनकी गीत निष्ठा पर बरबस स्नेह एवम् सम्मान उमड़ आता है। 'मगर कब तक' संग्रह से गुजरना हुआ हो, परस्पर साहित्यिक संवाद रहा हो या अब तक का उनका सृजन या समीक्षाएँ -समालोचना, हमने कभी उन्हें हड़बड़ी या उग्रता में नहीं पाया। बेहद धैर्यवान रहकर बड़ी सहूलियत से सृजन और समालोचना के क्षेत्र में आपने मजबूत और स्थाई क़़दम रखे हैं। 

संग्रह के लगभग अंत में ’माँ! तुझे बुलाऊँ’ एक बेहद भावप्रवण गीत है। यह गीत माँ के वात्सल्य का और कवि के समाधि भाव का गीत है जो मुझे बहुत पसंद है, प्रस्तुत करना चाहूँगी-
माँ रह-रह मैं, तुझे बुलाऊँ
यहीं कहीं तूहै फिर भी क्यों 
देख न पाऊँ

खोज-खोज कर हार गया मैं
इस माया में बहुत थक गया, 
प्राण न जैसे इस काया में
नींद लगे जो चौंक पड़ूँ मैं
उठ-उठ जाऊँ

बढ़ता जाता भार बहुत मन में चिंतन का
व्यर्थ लगे सब भाव न उसमें तेरे मन का
फेंक सभी, बस तेरी छवि में
ध्यान लगाऊँ

सकल सृष्टि में ब्रह्म सरीखी तेरी गोदी
मधुर-मधुर वह मन्द पवन -सी तेरी लोरी
शब्द-निशब्द सभी सुन-सुन 
शिशुवत सो जाऊँ

कविता, गीत और नवगीत सृजन के सम्बंध में आपका कहना है कि कथ्यात्मक स्तर पर कविता और गीत में कोई भेद नहीं है, भेद है तो रचना प्रक्रिया का और उसके एहसास का। हमें सपाट अर्थों वाले नवगीत न रच कर ऐसे नवगीत रचने चाहिए जिनमें रस-निष्पत्ति हो। नवगीत की यथार्थ-भाषा भी सुन्दर, सुष्ठु हो। वरिष्ठ कवि और आलोचक अजीत कुमार राय के शब्दों का सहारा लेते हुए कहूँ तो गहरी भाव संपदा वाले आप के गीत गहरे विचारों की कोख से जन्मते हैं। 

यों तो आस्तिक जी के गीतों की भाषा बोलचाल की भाषा होती है जिसमें वे अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों के प्रयोग भी खूब करते देखे गए हैं। रचना प्रक्रिया के अंतर्गत वे ध्वन्यात्मक तुकांतों को भी महत्व देते हैं। उनका कहना है कि अत्यधिक जड़ताओं और पूर्वाग्रहों से नवगीत का बहुत भला होने वाला नहीं, मायने यह रखता है कि कहा क्या जा रहा है और जो कहा जा रहा है वह सहज संप्रेषणीय है कि नहीं, और इस सबसे ऊपर यह कि जो कहा जा रहा है वह सामयिक मुद्दों, जनसरोकारों से जुड़ भी रहा है या नहीं। 

भाषा के स्तर पर वह इतना सहज है कि नहीं कि अर्थ खोलने को मानसिक मशक्कत तो नहीं करनी पड़ रही। यह समय ज़रा-ज़रा सी बात को लेकर बहुत आग्रही होने का नहीं वरन सामाजिक, मानसिक, पारिवारिक सन्दर्भों से जुड़ने का है, निःसंदेह वीरेन्द्र आस्तिक जी के गीतों में इन सबकी संवेदनशील उपस्थिति है। 

आपकी साहित्यिक यात्रा पर बात करें तो परछाईं के पाँव (१९८२) इसके पहले आनन्द ! तेरी हार है (१९८७), तारीखों के हस्ताक्षर (१९९२), आकाश तो जीने नहीं देता (२००२), दिन क्या बुरे थे (२०१२), गीत अपने ही सुने (२०१७) प्रकाशित हो चुके हैं। आपका कौशल न सिर्फ़ स्वयं के सृजन भर तक ही सीमित रहा, अपितु आपके कुशल सम्पादन में धार पर हम (१९९८), धार पर हम -दो (२०१०) जैसे महत्वपूर्ण समवेत संकलन भी आए। इसके अतिरिक्त आलोचना के क्षेत्र में नवगीत समीक्षा के नये आयाम (२०१९) पुस्तकों पर किया गया काम नवगीत के इतिहास व विकास में अंकित है। आपके कृतित्व पर आधारित पुस्तक 'समकालीन गीत और वीरेन्द्र आस्तिक ' डॉ कृष्ण गोपाल मिश्र जी के सम्पादन में प्रकाशित हुई है। इस सबके अतिरिक्त उम्र के इस पड़ाव पर आप आलोचना, समीक्षा आलेख व भूमिका आदि पर सतत क्रियाशील हैं।
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नवगीत संग्रह-मगर कब तक, रचनाकार- वीरेन्द्र आस्तिक, प्रकाशक- कल्पना प्रकाशन, बी – १७७०, जहाँगीर पुरी, दिल्ली – ११००३३, प्रथम संस्करण-२०२२, मूल्य- ३९५ रु. , पृष्ठ-१२६  , परिचय- अनामिका सिंह, आय.एस. बी.एन. : 978-93-91709-33-4

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