शुक्रवार, 1 मार्च 2024

आलाप (समवेत संकलन)- सं. अनामिका सिंह एवं मनोज जैन

‘नवगीत’ कविता आज की अतिमहत्त्वपूर्ण विधा है।इसने अपने में समय सापेक्ष उन सभी स्थितियों को समेट लिया है, जो मानव जीवन को विस्तृत और उपयोगी बनाती हैं। नवगीत में समकालीन विषमताओं, विद्रूपताओं, लोकजीवन को विकृत कर रहे यथार्थ, व्यक्तिगत यथार्थ, आतंरिक अनुभूतियों आदि की अभिव्यक्ति द्वारा आज के संवेदनात्मक सन्दर्भों को उठाने और उनके समाधान के प्रति भी एक जागरूक पहल का प्रयत्न है।

नवगीत समवेत संकलन ‘आलाप’ के सम्पादन में सम्पादक द्वय का प्रयास स्तरीय नवगीतों का संचयन रहा है।इस संकलन में तीन खण्ड हैं –
1. नवगीत के पक्ष को उजागर करता आलोचना का ‘आलोक’

2. नवगीत के आधार स्तम्भ – ‘धरोहर’ और
3. नवगीत के ‘सहयात्री’
संकलन त्रिवेणी की तरह महत्त्वपूर्ण है।

‘गीतांगिनी’ से लेकर ‘आलाप’ तक सात-आठ दशकों में हुए कार्यों तथा संकलनों का लेखा-जोखा यदि सामने रखें तो सभी संकलनों में कुछ न कुछ नया और आवश्यक अवश्य जुड़ा है। कुछ विशेष चर्चा के बिन्दु रहे हैं और कुछ गौण, किन्तु प्रत्येक प्रयास समय की जड़ता को तोड़ने में उस आघात की तरह है जो जडता को तोड़ तो नहीं पाता पर उसे स्थान से हिला अवश्य देता है। अतएव सभी के अवदान सराहनीय हैं। इसी क्रम में ‘आलाप’ का प्रदेय भी नवगीत को एक नई गति, एक तेवर और जज्बा प्रदान करता है। इसी प्रयास में सम्पादक द्वय को बहुत-बहुत बधाई। ‘आलाप’ के इस संकलन में नवगीत पर चार आलेख, धरोहर के रूप में पुरोधा ग्यारह नवगीतकार तथा सहयात्री के अंतर्गत बत्तीस नवगीतकारों के गीतों को बानगी रूप में प्रस्तुत किया गया है। तीन सौ बत्तीस पृष्ठों का यह वृहत संकलन शुभदा बुक्स, साहिबाबाद से प्रकाशित एक संग्रहणीय संकलन है।

‘आलाप’ का पहला आलेख वीरेंद्र आस्तिकजी का –गीत – नवगीत काव्य के फाइन आर्ट है – पर है। इसमें आस्तिकजी ने छन्द और उसके प्रति नई कविता के समर्थकों और आलोचकों द्वारा गद्यात्मक कविता की ताकत और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के तर्क को नकारते हुए छन्द की सार्थकता को स्थापित किया है तथा सम्प्रेषणीयता के लिए कलाविधानों, वास्तु एवं रूप तत्त्व की महत्ता पर प्रकाश डाला है। वे मानते हैं कि गीत और कविता की यदि कथ्याभिव्यक्ति समाज भी हो तो भी सम्प्रेषण  क्षमताएँ एक-सी नहीं होंगी।गद्यात्मक कविता बौद्धिकता से संचालित होती है पर गीत-नवगीत फाइन आर्ट है, जिसमें छंद, प्रास, तुक, लय, गति आदि भी अपनी शक्ति से वास्तु को सम्प्रेषणीय बनाते हैं।गीत-नवतीत में अभिव्यक्ति प्रक्रिया अधिक ताकतवर होती है।

राजेन्द्र गौतमजी के पुरोवाक ‘नवगीत और जातीय अस्मिता में देश से जुड़ने, उसके भौगोलिक परिचय प्राप्त करने और उसे प्रगाढ़ करने की मनःस्थिति व्याप्त है, जो संस्कृति से नवगीत के जुड़ने के भाव को स्पष्ट करती है।आज के नवगीत की यह अपनी एक विशेष पहचान है, जो जड़ीभूत नहीं एक प्रवहमान धारा है। प्रकृति और संस्कृति का विस्तार है। दृश्यमान प्रकृति लोक-चेतना, आंचलिकता, लोकाचार, पर्व-उत्सव आदि सभी सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान और मानवीयता के उपकारक हैं।गौतमजी मानते हैं कि नवगीत आधुनिकतावादी होने के साथ-साथ देश-काल सापेक्ष भी हैं। वे यह भी मानते हैं कि नवगीत दृष्टि-भ्रम नहीं बल्कि पलायन विरोधी संघर्षशील प्रवृत्ति है।

तीसरे आलेख में नवगीत को रेखांकित करते हुए रामकिशोर दाहियाजी ने नवगीत को शरीर के बाहर तलाशने की बजाय हृदय से फूट कर निकलने वाली भाषा के रूप में कोमल और मनोरम कहा है साथ ही उसके यथार्थ की जमीन की कठोरता का भी उल्लेख किया है। उनके आलेख में कविता और नवगीत में फर्क, नवगीत के पहले कविता होने की अनिवार्यता आदि विविध बिन्दुओं को छूने का प्रयास है।

‘नवगीत क्या है’ आलेख में राजा अवस्थीजी ने गद्यकविता और नवगीत के अन्तर के बीच से होकर नवगीत को अबाध लययुक्त ऐसी छन्दाश्रयी कविता कहा है ,जिसमें बिम्बधर्मिता, अर्थगर्भी... समकालीन युगबोध की अभिव्यक्ति हो। इसप्रकार अवस्थीजी ने अपने समूचे कथ्य का निचोड़ प्रस्तुत किया है। कुल मिलाकर ‘आलेख’ खण्ड में नवगीत की सिद्धि और समीक्षा की दिशा में एक अच्छी पहल है।

‘धरोहर’ खण्ड के अंतर्गत नवगेत के वे ग्यारह महारथी सम्मिलित हैं, जिन्होंने नवगीत की धारा को सतत प्रवाहमान रख कविता के वास्तविक स्वरुप को प्रभावी और संवेद्य बनाए रखा और गद्य होने से बचाया। सभी पुरोधाओं के दो-दो गीत इस संकलन में संगृहीत किये गए हैं। डॉ. शम्भूनाथ सिंह के गीत – “यों अंधेरा पी रहा हूँ” में जहां संत्रास और संघर्ष का स्वर है वहीँ “हँस-हँस कर डसते हैं लोग” में खूनी डाढ़ों वाली लोक स्थिति का वर्णन है। ठाकुर प्रसाद सिंह जी के गीतों में संथाल जीवन की धड़कन अभिव्यक्त हुई है।उमाकान्त मालवीय के एक गीत में अंधी,गूंगी, बहरी निष्क्रियता को रूपायित किया गया है और दूसरे में अंधों का अभिनन्दन करते कजरौटों  में चाटुकारिता का चित्रांकन है।भगवान स्वरुप ‘सरस’ जहाँ आग से खेलने से रोकते हैं वहीँ औरों की/सीढ़ियाँ उधार ले/हाथी की पीठ पर चढ़ रहे देश के गलत पड़ते पाँवों अर्थात विसंगति को आरोहित करते हैं।

नवगीत के पथ प्रकाशक देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ के पहले गीत –“अब न यहाँ कोई आएगा” में एक अनवरत प्रतीक्षा और थककर डूबने का दंश है तो वहीं दूसरे गीत में “हम जीवन के महाकाव्य हैं/ केवल छन्द प्रसंग नहीं हैं”  - में एक संघर्ष और दृढ़ता का बीज है। नईम जी के गीतों में एक ओर समय को साधने की प्रेरणा है तो दूसरे गीत में परम्परा और परिपाटी में तेल नहीं रह गया के रूप में निस्सारता का अभिव्यक्तीकरण है। रमेश रंजक में एक ओर उपेक्षा का संत्रास है तो दूसरी ओर सुख की हरीतिमा का वर्णन है। इसीप्रकार ओमप्रभाकर, कैलाश गौतम, अनिरुद्ध नीरव और दिनेशसिंह जी के गीत भी नवगीत की परम्परा को संपोषित और परिवृद्ध करते हैं। उक्त सभी नवगीतकारों ने नवगीत के कथ्य के साथ-साथ उसके स्वरूप और शिल्प को एक नवता प्रदान की है  तथा समय को एक दिशा दी है।

‘सहयात्री’ के अन्तर्गत वर्तमान में लोक संवेदना को उद्बुद्ध करते तथा समय की नब्ज को टटोलते समृद्ध नवगीतकारों को स्थान दिया गया है। इस खण्ड के पहले कवि अवधबिहारी श्रीवास्तव लोक संवेदना के चितेरे कवि हैं और गीत में अपने को खोलने की बात करते हैं। माहेश्वर तिवारी के गीतों में प्रकृति का उल्लास और स्निग्धता अधिक है – “हँसो भाई पेड़” तो मंयक श्रीवास्तव आमजन की पीड़ा के कवि हैं। वे लिखते हैं – “आग लगती जा रही है अन्न-पानी में” और “अपना राजा यशगाथा सुनने का आदी है” । राम कुमार कृषक और शान्ति सुमनजी में जनपक्षधरता का झुकाव है तो रामसेंगरजी हासिये में पड़े आम आदमी की पीड़ा को अलग ही अन्दाज में प्रस्तुत करते हैं। सुभाष वसिष्ठ में लयात्मकता का अपना आकर्षण है तो रमेश रंजक की व्यंजनात्मक शैली की अपनी प्रभाविता और टटकापन। महेंद्र नेह में सर्वहारा की आवाज है और योगेन्द्रदत्त शर्मा के गीतों में वैचारिक परिपक्वता तथा गहन चिंतन। गोपाल कृष्ण शर्मा ‘मृदुल’ के गीत हाशिये पर खड़े लोगों की पीड़ा की अभिव्यक्ति हैं तो जगदीश ‘पंकज’ के गीतों में सशक्त व्यंजना है और पूर्णिमा वर्मन के गीतों में माटी की गंध। इस प्रकार इस संकलन में संकलित विनय भादौरिया, जय चक्रवर्ती तथा भारतेन्दु मिश्र के गीत जीवन की विसंगतियों और समय की संवेदनहीनता की सघन अभिव्यक्ति हैं।योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, यश मालवीय आदि सभी अन्य नवगीतकारों में भी समय की विभीषिका, भूख, बेबसी, मानवीय संवेदनाओं को देखने परखने और बुराइयों पर चोट करने की प्रभावी क्षमता विद्यमान है। मनोज जैनजी के गीत भी युगीन यथार्थ को उधेड़ते आगे बढ़ते हैं तो अनामिका सिंह पाखण्डों और रूढ़ियों पर प्रहार करतीं नवगीत की यशस्वी लेखिका हैं।

कुल मिलाकर नवगीत का यह समवेत संकलन ‘आलाप’ नवगीत क्या है ? जैसी जिज्ञासाओं को शमन करने के साथ ही नवगीत के विकास की धारा को – ‘धरोहर’ से लेकर ‘सहयात्री’ अर्थात आज के नवगीतकारों के रचना विधान और उनके दिशाबोध तक के सम्यक आकलन का प्रयास है, एक सफल प्रयास। मैं इस प्रकाशन के लिए दोनों ही सम्पादकों को बहुत-बहुत बधाई देता हूँ।

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नवगीत संकलन- आलाप, संपादक- अनामिका सिंह, मनोज जैन, 
प्रकाशक- शुभदा बुक्स, बी-१४०/एस-२, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-२, साहिबाबाद २०१००५, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०२३, मूल्य- रु, ५०० पेपर बैक, रु. ५५० हार्ड बाउंड,  पृष्ठ-३३०  , परिचय- डॉ. वीरेन्द्र निर्झर,ISBN-10 ‏ : ‎ 9390708133, ISBN-13 ‏ : ‎ 978-9390708130