शनिवार, 1 जून 2024

नेपथ्यों में कोलाहल- विज्ञानव्रत

विज्ञान व्रत ग़ज़ल के जाने माने हस्ताक्षर हैं।  छोटी बहरों की ग़ज़ल में उनका अपना विशिष्ट स्थान है।  इस तथ्य से आज का साहित्यिक जगत भली भांति परिचित है।  दोहाकार के रूप में भी उन्होंने हिंदी साहित्य में उन्होंने अपनी उपस्तिथि दर्ज की हुई है। इसी कड़ी में "नेपथ्यों में कोलाहल" उनका सद्यप्रकाशित प्रथम गीत संग्रह है।  

जैसा ऊपर कहा गया है वे प्रतिष्ठित ग़ज़लकार हैं। अतः यह अनुमान लगाना अथवा आशा करना कि लेखन के कविता के मूल सरोकारों से वे भली प्रकार अवगत हैं, बड़ा स्वाभाविक है।  किसी भी सच्चे, सही रचनाकार की तरह उनका रचनाकार भी अपने समय के ठोस धरातल पर खड़ा रचनाकर है। उसकी दृष्टि में अपने समय का अच्छा -बुरा, झूठा -सच्चा, खट्टा -मीठा, व्यष्टि -समष्टि नैतिक अनैतिक सब सहज रूप से आता है। उनके आत्म संवेदन से टकराता, बतियाता आत्मस्थ से विश्वस्थ होता है और बाह्यांतारिक रूपों में संलयित होकर अन्ततः समष्टिपरक रूप में ही परिणति को प्राप्त होता है। 

आज हम जिस दुनिया के साक्षी हैं, वह इकहरी दुहरी तो क्या इतनी तहदार और बहुआयामित है कि किसी एक रचनाकार के लिए उसे सांगोपांग अपने रचना संसार में समाहित कर पाना लगभग असंभव है। यह रचनाकार जब फुटकल रचनाएँ जैसे गीत ग़ज़ल मुक्तक आदि लिखता हो तो यह काम और भी कठिन हो जाता है। अतः इस पारिवेशिक सचाई का जितना ही अधिकाधिक कोई रचनाकार अपने रचना संसार में समाहार कर पता है, कथ्यगत रूप से सफल कहा जा सकता है। इस रचनाकार के रचना संसार से गुज़रते हुए हम पाते हैं की विषयों के वस्तुगत सन्दर्भ में उसने वैविध्य का परिचय दिया है।  इसे सुखद संकेत की तरह लिया जाना चाहिए। 

नवगीत के पुरोधा, आचार्य, अपने समय के गीत नवगीत के ब्रह्मर्षि वशिस्ठ देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी ने प्रस्तुत संग्रह की अपनी भूमिका में कहा है कि विज्ञान व्रत के गीतकार की आनुभूतिक रागात्मकता कितनी पारंपरिक है और कितनी आधुनिक यह कहना युक्तिसंगत नहीं होगा l उनका यह कथन सही है, किन्तु फिर भी यह कहना तर्कसंगत होगा कि अपने कथ्य को लेकर उनका रचनाकार अपने समय से समुचित टकराया है। अपने आस पास फ़ैली पसरी मारक स्थितियों, कारुणिक दृश्य भित्तियों, दमघोटूं कुहरिल उपत्यकाओं, धुंध, धुंए से भरी वीथियों को उन्होंने ठीकसे देखा है। इन सब विपरीत यथास्थितियों के चलते टूटते, सरकते, लंगड़ाते मानव जीवन के दर्शन उन्होंने भरपूर किये हैं। इनकी स्वाभाविक परिणति से जन्मी विडम्बनाओं, विद्रूपताओं संत्रास, हताशा, निराशा ने उन्हें भरपुर झकोरा है।  परिस्थितियों के इस कुटिल कुचाली जाल में फंसे मानव जीवन की पीड़ा , दुःख दर्द, एकाकीपन सूनेपन निरीहता, विवशता, बेचैनी को उन्होने भली प्रकार अनुभव किया है और अनुभूतिजन्य रस का प्रयोग अपने रचना संसार में किया है। 

ऊपर जिस विपरीत वातावरण का उल्लेख किया गया है, उसके चलते हुआ यह है की पारदर्शी उजालों ने भी मानव जीवन को ठगा है, छला है। इस छल, बल, छद्म और ठगी की जहां अनगिनत परिणतियाँ हैं, उनमें बहुत सी आम व्यक्ति को ठीक से दिखाई भी नहीं देतीं।  किन्तु कुछ विकृतियाँ, विडम्बनाएँ स्पष्ट रूप से दृश्यमान होती हैं। इतनी स्पष्ट होती हैं की 'जुम्मन चाचाओं' को भी अर्थात निहायत भोले भाले आम आदमी को भी दिखाई देतीं हैं। इस जुम्मन चाचा को भी साफ दिखाई देने का एक अर्थ यह भी है की सूत्रधार इतना नंगा हो गया है की उसका नंगापन सहज रूप से उजागर हो गया है, उघर गया है।  समय के इस सूत्रधार की यह नंगी ठगी, छल छद्म ही समय के कुटिल कुत्सित यथार्थ का एक प्रकार से रोजनामचा है।  इसे विज्ञानं व्रत के कवि ने बिना लाग लपेट के सीधे सीधे उकेरा है। 

 जुम्मन चाचा / सच कहता है /मुश्किल लगता /अब तो जीना /

 जीवन का / हिल रहा सफीना / ..........

 एक समस्या / हो तो बोलूँ / मन की गठरी / कैसे खोलूं 

इस गठरी को कैसे खोला जाये, अर्थात आदमी की, आम आदमी की पीड़ा का, दुःख का विवशता की रामकहानी का कहाँ से प्रारंभ हो और कहाँ अंत, यह तय कर पाना भी आसान नहीं।  कुल मिलाकर इस कहानी से बचने के उपाय में इस आदमी का अपना किला बनाना भी असफल ही रहता है। 

छल छद्म की परत को विज्ञान व्रत का रचनाकार थोड़ी सूक्ष्मता से उघारता है और बताता है की आम आदमी को वायदों के नाम पर केवल लुभाया और भरमाया गया है।  यह काम इस खूबसूरत अदाके साथ किया गया है कि इस आम आदमी की पीठ पर एक झूठ ही अनवरत लदा रहा जिसे उसने सहर्ष भ्रमवश ढोया है।  पीड़ादायक बात यह है कि इस सारे खेल में आम आदमी को यह आभास तक नहीं होने दिया गया है कि उसे खिलौने की भांति इस्तेमाल किया गया है।  इस खेल के मंचन में रचनाकार भोक्ता के भोलेपन तथा उसे मूर्ख बनाने वाली काइयां प्रवृत्ति और इस प्रवृत्ति की निरंतरता को ख़ूबसूरती से उकेरने में कामयाब रहा है काइयांपन से चली गयी चाल के चलते केवल इतना ही नहीं हुआ।  समय के इस दौर ने यह भी देखा कि उपर्युक्त भोलेपन से विमुक्त चेतना संपन्न आदमी के हिस्से केवल हाशिए आये। समय की विडम्बना देखिये कि विकल्प अत्यल्प हो गए।  या तो भीड़ का हिस्सा हो जाइये या हाशिये पर पड़े चुपचाप द्रष्टा मात्र रहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि जोड़ तोड़ जुगाड़ की अतिशयता से भरे इस दौर में यही कथा सर्वत्र व्याप्त है l इस कथा का वैशिष्ट्य यह है कि शातिर उजाले सिर्फ धुंधली रोशनी बांटते हैं।

इस व्यथा कथा का सांकेतिक, प्रतीकात्मक चित्रण 'नेपथ्यों में कोलाहल ' नामक गीत में बड़ी खूबसूरती से किया गया है। 

 मंचों ने ख़ामोशी ओढी /नेपथ्यों में कोलाहल है
 सभी पात्र हैं गूंगे बहरे / सिर्फ दिखाई देते चेहरे 

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 भाषा है संवाद नहीं है /अभिनेता आजाद नहीं है

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 सारा मंजर लगे अधूरा / 
 पूरा नाटक ही असफल है

इस गीत की सुन्दरता इस बात में है कि नेपथ्यों में कोलाहल और मंचों की खामोशी कहकर जैसे पूरे विश्व पटल के पारिद्र्श्य को ही उजागर कर दिया है।  वस्तुस्थितियां रचनाकार के अपने परिवेश की सीमाओं का अतिक्रमण कर पूरे विश्व को अपने दायरे में लेतीं हुई नजर आती हैं। अपने रंगों, ध्वनियों में समूचे सामयिक विश्व से जैसे बात करतीं हुईं विश्वव्यापी हो जाती हैं। मंच और नाटक के सभी पात्र गूंगे और बहरे हैं लेकिन दक्ष अभिनेता नहीं।  कहने का तात्पर्य यह है कि जो दिख रहा है वह भी पूरा सच नहीं है, वह भी एक प्रकार का छद्म है। इस छद्म के चलते ही असली सूत्रधार तक आम तौर पर दृष्टि नहीं जाती। अपने इस दौर की यह भयावह विडम्बना है। यह मारक भी है छलने वाली भी। 

ऊपर जिन बातों का उल्लेख हुआ है, इसका मतलब यह नहीं कि रचनाकार इन्हीं विषयों तक सीमित रहा है। तमाम विषम परिस्थितियों में भी उसने कहीं कहीं अपनी तरह वर्ग चेतना को दिखाया है और पीड़ितों में प्राण फूंकने का काम भी किया है। 'अपनी ताकत को पहचान ' नामक गीत इसका उदहारण है। आशा का संचार करते गीतों में' 'हौसले जागने लगे हैं ' ; 'भोर खिलेगी ' आदि गीत उल्लेखनीय हैं।  'कामनाएँ तोडती हैं' ;मन मृग हारा ' में दार्शनिकता का पुट है तो 'सच्चाई से खुद्दारी है ' में सूक्तिपरकता के दर्शन होते हैं।  इसी कड़ी में 'संवेदन से जोड़ें ' में उपदेशात्मकता दिखाई देती है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रकार के गीत पारंपरिक ढांचे में ही रखे जा सकते हैं। आत्म संवाद और नोस्टाल्जिक प्रवृत्ति भी एकाधिक गीतों में देखी जा सकती है।  मानवीय संबंधों के चरमराते ढांचे और उससे जन्मी पीड़ा, दुःख कातरता एकाकीपन, खालीपन आदि पर 'ढह गए विश्वास ', 'झर गयीं संवेदनाएँ ', अँधा तहखाना ' आदि गीतों की रचना भी उल्लेखनीय है। 

जैसा कहा जा चुका है विज्ञान व्रत मूलतः ग़ज़लकार हैं। अतः उनके गीत संसार में भी उनके इस ग़ज़लकार की घुसपैठ देखने को मिलती है। उनका यह पहला गीत संग्रह है अतः ऐसा होना स्वाभाविक लगता है क्योंकि एक प्रकार से संक्रमण की स्थिति भी है। उनके कहन, भाषा, शिल्प में उनके ग़ज़लकार की घुसपैठ दिखाई देती है। किन्तु, 'शब्दों की रंगत मुरझाई', 'छंदों की अनबुझी प्यास', 'जिन्दगी कुछ तो बता', जीवन एक फजीता', 'गांधी जी के धुले लंगोटे' जैसे वाक्यांशों का गीतों में यथोचित प्रयोग उनकी गीत यात्रा के लिए शुभ लक्षण है। 

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नवगीत संग्रह- नेपथ्यों में कोलाहल, रचनाकार- विज्ञानव्रत, 
प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, २३२ बी-१, लोकनायक पुरम, बक्करवाला, नयी दिल्ली-११००४१, प्रथम संस्करण-२०२३, मूल्य- रु, १५० पेपर बैक, पृष्ठ-१००  , परिचय- वेद प्रकाश शर्मा, ISBN-978-93-91081-06-5