गुरुवार, 1 अगस्त 2019

नयी सदी के नवगीत - संपादक - डॉ. ओमप्रकाश सिंह

हिन्दी कविता के आधुनिक रूपों मे नवगीत हमारे समय, समाज और जीवन संघर्षों को पूरी संपूर्णता और ईमानदारी से अभिव्यक्त करनेवाला सर्वाधिक सशक्त काव्यरूप है, जिसमे पारंपरिक गीत की भंगिमा से अलग हमारे जीवन के दुख-सुख, विसंगतियाँ –विद्रूपताएं सर्वथा नए विम्ब विधान और प्रतीकों के साथ हमारे सामने उपस्थित होते हैं । नवगीत का समूचा चिंतन समष्टि के एक-एक पल का हिसाब रख कर चलता है। ‘शिविरीय प्रतिबद्धता’ अथवा वैयक्तिक अनुभूतियों के लिए स्पेस यहाँ न के बराबर है। ‘सर्वतोमुखी दायित्व’ अथवा ‘लोक’ ही सर्वोपरि है यहाँ । नवगीत का रिश्ता जन और जीवन के संघर्षों से बहुत गहरा है। इसका यह रिश्ता मानवीय संवेदनाओं के धरातल पर किसी भी प्रकार के वाद-विवाद से अपने आप को हमेशा दूर रखता है।

छायावादी कविता से इतर नवगीत वैज्ञानिक–दृष्टिबोध का प्रबल पक्षधर है। ‘अनुभूतगत यथार्थ’ की उपस्थिति नवगीत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अनुभूत सच को जीवन की लय बनाकर उसे गाने की ललक नवगीत मे यत्र तत्र सर्वत्र महसूस की जा सकती है। नवगीत मे सवाल भी हैं और जवाब भी। पारंपरिक गीत मे हमारे समय के सवालों के प्रति जहां उदासीनता और उपेक्षा है, वहीं नवगीत इन सवालों से निरंतर होड़ लेता हुआ समय की आँख मे आँखें डालकर खड़ा है। पारंपरिक गीतों मे वैयक्तिकता, चाक्षुस सौंदर्य और मांसलता के प्रति आग्रह और आकर्षण सहज रूप मे विद्यमान है, वहीं नवगीत मे जीवन की विसंगतियों से संघर्ष का आह्वान देखा जा सकता है। यहीं पर नवगीत,गीत से अलग खड़ा दिखाई देता है। आज़ादी के बाद भारतीय जनमानस मे उपजी निराशा को नवगीत ने अपनी अंतर्वस्तु के रूप मे अपनाया और उसे समाज के निम्न और मध्यम वर्ग के जीवन-संघर्षों तक ले जाकर ईमानदार स्वर प्रदान किया। आज नवगीत हर उस उपक्रम के पक्ष मे मुस्तैद है, जो आदमी की बेहतरी के लिए ज़रूरी है। वह व्यवस्था की विद्रूपताओं और विसंगतियों से टकराता है, सत्ता की मनमानियों और शोषण की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के लिए दिन-रात जूझता है -लड़ता है। तमाम वाधाओं और अवरोधों के बावजूद वह अपना प्रतिपक्ष स्वयं रचता है। दरबारों मे आश्रय पाने और राजपथ पर विचरण करने की अपेक्षा नवगीत, जीवन की सच्चाईयों के साथ रहते हुये, उनके बीच से गुजरते हुये, पथरीले और सर्वथा काँटों भरे पथ पर अपने लहूलुहान पैरों से चलने का अभ्यस्त है। उसकी जन पक्षधरता उसे अभिव्यक्ति के प्रति कभी लापरवाह नहीं होने देती। ‘अभिव्यक्ति की यथार्थ-व्यंजना’ नवगीत का सशक्त हथियार है।

भाषा और शिल्प के स्तर पर भी नवगीत ‘लोक’ अर्थात ‘जन’ के ही पक्ष मे खड़ा दिखाई देता है। लोक द्वारा अपनाई जाने वाली भाषा, बोली और इस भाषा मे घुले-मिले अन्य भाषाओं के शब्द नवगीत को जहाँ आम आदमी के प्रति संवेदनशील बनाते हैं, वहीं जन स्वीकार्यता भी बढ़ाते हैं। नवगीत मे किसी भाषा के प्रति दुराग्रह या परायेपन का भाव नहीं है। सब के साथ और सब को साथ लेकर चलने के कारण ही नवगीत हमेशा अपने आपमे गतिमान और तरोताज़ा दिखाई देता है।

ठाकुर प्रसाद सिंह, डॉक्टर शम्भूनाथ सिंह से लेकर आज तक की साठ-पैंसठ वर्षों की सुदीर्घ यात्रा मे नवगीत ने कभी कहीं पीछे मुड़कर नहीं देखा है। जैसे-जैसे हमारा समय और समाज बदल रहा है,भाषा बदल रही है, जीवन–संदर्भ बदल रहे हैं, सरोकार बदल रहे हैं, वैसे –वैसे नवगीत का स्वरूप बदल रहा है। ठहराव उसकी प्रकृति मे है ही नहीं। नवगीत की यह अविरल –अविराम यात्रा उसे वैश्विक फ़लक तक ले जाती है। नवगीत मे अभिव्यक्ति और शिल्प की बनावट और बुनावट ने पारंपरिक रूढ़ियों और बंधनों को एक तरह से ध्वस्त कर दिया है। छंद का बंधन भी उसे एक सीमा तक ही पसंद है। इसके आगे वह छन्दशास्त्र की जड़ता से अपने आप को मुक्त करते हुये अपनी परंपरा मे से ही नयी राह बनाने वालों के प्रवक्ता के रूप मे खड़ा दिखाई देता है। अब आप ‘ विहंगम दृष्टि ‘ डालकर नवगीत के मर्म तक नहीं पहुँच सकते । नवगीत अपने पाठक से गहन दृष्टि बोध की अपेक्षा करता है । यही उसका वैशिष्ट्य है।

विगत लगभग सात दशकों से भी अधिक समय से हिन्दी कविता मे नवगीत की चर्चा किसी न किसी रूप मे होती रही है। कभी इसके कथ्य को लेकर, कभी भाषा और शिल्प को लेकर, कभी इसके नाम को लेकर, तो कभी इसकी भंगिमा को लेकर। हालांकि यह भी सही है कि नवगीत को लेकर जैसा और जितना विमर्श हिन्दी साहित्य मे होना चाहिए था, वैसा अब तक नहीं हो सका । डॉक्टर शम्भूनाथ सिंह द्वारा संपादित नवगीत दशक १, २, ३ तथा नवगीत अर्द्धशती के पश्चात पिछली शताब्दी के अंतिम दशक मे वरेण्य नवगीतकार दिनेश सिंह द्वारा संपादित ‘नये पुराने’ के सात ऐतिहासिक अंकों, निर्मल शुक्ल द्वारा संपादित नवगीत: नयी दस्तकें, शब्दपदी और शब्दायन जैसे संकलनों तथा कुछ प्रतिष्ठित लघु पत्रिकाओं के नवगीत केन्द्रित विशेषांकों सहित प्रारम्भ से लेकर आज तक के नवगीत को विभिन्न आयामों से समझने मे डॉक्टर इंदीवर पाण्डेय द्वारा लिखित वर्ष -२००२ मे प्रकाशित ‘नवगीत मे लोकचेतना’, वर्ष -२०१७ मे प्रकाशित ‘गीत, नवगीत और शम्भूनाथ सिंह’, ‘नवगीत का दस्तावेज़’, वर्ष -२०१८ मे प्रकाशित ‘सार्थक कविता की तलाश’ और नवगीतनामा ‘ तथा ‘अपनी सदी के स्थविर : अज्ञेय और शंभूनाथ सिंह’ जैसी समीक्षा–कृतियों का महत्वपूर्ण योगदान है ।

इसी क्रम मे प्रतिष्ठित नवगीतकार डॉ. ओमप्रकाश सिंह द्वारा हाल ही मे पाँच खंडों मे संपादित ‘नयी सदी के नवगीत’ का प्रकाशन नवगीत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। प्रत्येक खंड मे मौजूदा समय मे नवगीत–लेखन से सक्रियता के साथ जुड़े पंद्रह-पंद्रह नवगीतकारों के दस-दस प्रतिनिधि नवगीतों, परिचय एवं नवगीत पर उनके संक्षिप्त वक्तव्य के साथ संपादक डॉ. ओमप्रकाश सिंह की नवगीत के विभिन्न पहलुओं पर केन्द्रित सुचिन्तित भूमिकायेँ इन पांचों खंडों को ऐतिहासिक महत्व प्रदान करते हैं। पहले खंड मे ‘समकालीन नवगीत के सरोकार’, दूसरे खंड मे ‘नवगीत के नये संदर्भ’,तीसरे खंड मे ‘नवगीत का वैश्वीकरण’,चौथे खंड मे ‘समकालीन नवगीत : संवेदना और नव सृजन’ तथा पांचवें खंड मे ‘नवगीत का आत्म मंथन और नवगीतकार’ शीर्षकों के अंतर्गत डॉ. सिंह की विस्तृत टिप्पणियों से नवगीत के अभ्युदय से लेकर अब तक के कालकाण्ड मे आए कथ्य, शिल्प तथा भाषागत परिवर्तनों एवं परंपरा को बखूबी समझा जा सकता है।

नयी सदी के नवगीत के पहले खंड की भूमिका मे “नवगीत के सरोकार“ शीर्षक से अपनी भूमिका मे संपादक ने नवगीत पर अपना दृष्टिबोध और नवगीत की अवधारणा प्रस्तुत करते हुये लिखा है –“समकालीन नवगीत हिन्दी कविता की धरती पर न तो कोई घटना है और न ही कोई आंदोलन, बल्कि यह एक ऐसी भारतीय संस्कृति के खेत की लहलहाती हुयी नयी फसल है जो जन मानस को नए युग की उर्वर भूमि पर ऊर्जावान बनाती है, और जन-जन की पीड़ा को सुखद मनोभूमि देकर भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है। उसमे नवता के प्रति आग्रह है और सामाजिक संवेदना के प्रति जागरूकता ।“ उनके इस बयान से ‘नवगीत’ से पहला परिचय करने वालों को काफी कुछ मदद मिल सकती है। इस खंड मे संकलित कई नवगीतकार कवि सम्मेलनों के न सिर्फ सम्मानित कवि हैं, अपितु डॉक्टर शम्भूनाथ सिंह द्वारा १९८३ मे संपादित नवगीत दशक -२ ( कुमार शिव, राम सेंगर, अनूप अशेष, गुलाब सिंह,कुमार रवीन्द्र, माहेश्वर तिवारी ) तथा १९८४ मे संपादित नवगीत दशक-३ (राजेन्द्र गौतम, योगेन्द्रदत्त शर्मा, बुद्धिनाथ मिश्र ) के नवगीतकार भी हैं। अतः कहा जा सकता है कि इन सबने पारंपरिक गीत-रचना से वर्षों गुजरते हुये नवगीत तक की सुदीर्घ यात्रा तय की है। खंड मे शामिल अन्य नवगीतकार सत्यनारायण, अवधबिहारी श्रीवास्तव, अश्वघोष, शांति सुमन, श्यामसुंदर दुबे तथा ओमप्रकाश सिंह भी हमारे समय के प्रतिष्ठित और अत्यंत वरिष्ठ नवगीतकार हैं, जो चार-चार दशकों से सृजनरत हैं और जिंहोने “गीत” और “ नवगीत” के बीच की महीन विभाजक रेखा को न सिर्फ बेहद करीब से देखा और समझा है, अपितु इसके निर्धारण मे भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। सत्यनारायण के नवगीत जहां आम आदमी के दुखों, चिंताओं और अभावों के मार्मिक दस्तावेज़ हैं, वहीं उनमे शासक वर्ग की संवेदनहीनता भी पूरी ईमानदारी और शिद्दत के साथ अभिव्यक्त हुई है :

“साधो,/ यह अजीब संकट है । असी घाट पर / सहमे, सिमटे / तुलसीदास पड़े हैं । बीच हमारे / बिना लुकाठी / दास कबीर खड़े हैं । मीरा का / इकतारा चुप है / सब कुछ उलट-पुलट है। “

अवधबिहारी श्रीवास्तव पारिवारिक रिश्तों को सहेजते हुये जीवन के संघर्षों को और मानवीय संवेदनाओं को ज़्यादातर अपने नवगीतों के केंद्र मे रखते हैं। ‘लोक‘ की अनुभूतियाँ उनके सृजन का व्यापक हिस्सा हैं। पारिवारिक रिश्तों पर उनके नवगीत प्रेम और संवेदना का अनूठा संसार रचते हैं। इसी प्रकार माहेश्वर तिवारी भी संवेदना को गीत का मूल तत्व मानते हैं। वे कहते हैं,-“सन २००० के बाद किसी हद तक इस संवेदना का क्षरण दिखता है। “बोलों मे, बातों मे / दिन-दुपहर, रातों मे / कितने-कितने अरण्य जीते हैं “ जैसी पंक्तियाँ उनके दर्द को बयान करती हैं। वे इस बात से भी आहत हैं कि “इधर के नवगीतों मे संगीतात्मक अनुगूँज छीजती जा रही है।“ गुलाब सिंह अपनी मिट्टी से गहरे तक जुड़े हुये नवगीतकार हैं। यूँ तो उनके अनेक नवगीतों मे वैश्विक बोध, भूमंडलीकरण से लेकर अंधे पीसें कुत्ते खायेँ की निरीहता, बाजारवाद, भुखमरी, महानगरीय जीवन की त्रासदी आदि की मार्मिक अभिव्यक्ति दिखाई देती है, किन्तु उनके अधिकांश नवगीत गाँव मे रहने वालों, जिनमे अधिकतर किसान हैं, के जीवन-संघर्षों, उनके दुखों, अभावों और व्यवस्था द्वारा किए जा रहे उनके शोषण की अंतहीन व्यथा-कथा कहते हुये दिखते हैं -

“खेती हुयी /गले की फांसी / गया कबाड़ों मे हल ढेंगा
गुमसुम/ कला शिल्प पुश्तैनी/ गूँजे मनरेगा मनरेगा”

कुमार रवीन्द्र के नवगीतों मे भारतीय दर्शन और प्रकृति के मनोहारी चित्रों को बड़ी खूबसूरती के साथ उकेरा गया है। उनका रचना संसार बहुआयामी है, जिसमे उतरकर कोई भी संवेदनशील पाठक जीवन को अनेक आयामों से देख सकता है। क्षीर सागर/ आँख मे है / उसे खोजो नहीं बाहर “ जैसे नवगीत अपनी कहन और अर्थवत्ता मे बेजोड़ हैं। “ बिना बोले / डायरी के पृष्ठ खोले “ “ आज की सच्ची कथाएँ “ लिखने वाले नवगीतकार अश्वघोष के यहाँ सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा गरीबों और वंचितों के शोषण के प्रति चिंता और आक्रोश के स्वर यत्र-तत्र –सर्वत्र विद्यमान हैं। डॉ. शांति सुमन देश की उन विरल गीत-कवयित्रियों मे हैं जिन्होने वामपंथी विचारों से प्रभावित होकर अपना लेखन शुरू किया और यहाँ तक आते-आते नवगीत के सम्पूर्ण चरित्र को अपनी अभिव्यक्ति प्रदान की। मंच की वे अत्यंत समृद्ध मौलिक कवयित्री है, और उतनी ही मौलिकता उनके लेखन मे भी है। व्यष्टि से लेकर समष्टि तक को उन्होने अपने लेखन के केंद्र मे रखा है।

समकालीन नवगीत की बिम्बधर्मिता पर डॉ. श्यामसुंदर दुबे की अवधारणा अत्यन्त महत्वपूर्ण है : ‘नवगीत अब अपने आस-पास से ही बिंबों का चयन कर रहा है। बदलते परिवेश की छबियों मे यह अपने बिंबों की तलाश करता है। एक तरह से नवगीत की बिम्बधर्मिता मे जहां कल्पना का फैंटेसी परक प्रयोग है, वहीं उसमे बौद्धिक आधार पर विन्यासगत विशेषता भी रूपाकार ग्रहण करती है। इस रूप मे नवगीत अधिक प्रयोगधर्मी हुआ है“(पृष्ठ १३४)।

नवगीत की विकास यात्रा मे जनपक्षधरता के स्वर को पूरी ऊर्जा और ईमानदारी से जिन नवगीतकारों ने लगातार तेज़ से तेजतर बनाए रखा है, उनमे राम सेंगर का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। उनके नवगीतों मे युगीन यथार्थ को उसके वास्तविक प्रभाव के सम्प्रेषण की दिशा मे पकड़ कर बात कहने का हुनर और हौसला सर्वत्र विद्यमान है। एक उदाहरण देखें:

“बिना खाये/बिना पिये/ सारा दिन लोहे से लड़कर / लौटा तेरा बाप /
सुन बेटा,/अधपेटा /उठ न जाए थाली से / तू ही अब हो जा चुपचाप । “

डॉ. लोहिया के समाजवाद के प्रबल पक्षधर अनूप अशेष नवगीत को लोक का दीर्घ महाकाव्य मानते हैं। उनके नवगीतों मे समय के समस्त अंतर्विरोध समाहित हैं। वे कहते हैं – ‘ नवगीत रचना समय मे हम अपने मूल भाव बोध से कट नहीं सकते। ‘(पृष्ठ १६६ )। नवगीत और पारंपरिक गीत को लेकर कनफ़्यूज्ड या गीत नवगीत को ‘एक’ मानने के दुराग्रही लोगों को वे ‘असमर्थ और थके हुए लोग’ कहकर दृढ़तापूर्वक नकारते हैं। छोटे-छोटे शहर-कस्बों मे रहने वाले निम्न मध्यमवर्गीय लोगों की त्रासद ज़िंदगी का अक्स उनके नवगीत मे किस तरह उभरता है, देखिये-

‘सब सोये हैं अपनी नींदों / दिन भी सोये हैं । बर्तन-भंड़वे/ धरे माँजने / मुँह बिन धोये हैं । कंडे की है राख़ पड़ी / हाथों का रोना है / गैस चुकी / दूध नहीं / चूल्हे का धोना है । महतारी की काँख दबे / बच्चे कुछ खोये हैं।‘

कुमार शिव के नवगीतों मे प्राकृतिक उपादानों का मानवीकरण अत्यंत सुंदर ढंग से हुआ है। “आधे मुख पर धूप खिली है / आधे पर काला बादल । गीले केश सुखाती / छत पर दोपहरी “

या फिर
“ किए जो प्रश्न मैंने सूर्य से / उनका मिला उत्तर ।

खुली खिड़की, लिफाफा धूप का / आकर गिरा भीतर “ जैसे नवगीतों मे कथ्य और शिल्प की जो खूबसूरत पच्चीकारी दिखाई देती है, वह नवगीतकार को भीड़ से अलग खड़ा करती है।

डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र अपने सृजन और व्यक्तित्व मे विशुद्ध भारतीय परम्पराओं के पक्षधर हैं। कविता की वाचिक-परम्परा से उनका सुदीर्घ रिश्ता रहा है। नवगीत को वे समकालीन हिन्दी कविता की मुख्य धारा मानते हैं। उनके नवगीत प्रेम, प्रकृति और जीवन के शाश्वत मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते हैं । एक अंश देखें: “रात चैत की/ देख रही है प्यार से । पीला चाँद उगा है / पर्बत पार से।“

अनूप अशेष की ही तरह योगेन्द्र दत्त शर्मा भी मंच के मोह से ग्रस्त उन गीत-कवियों से खासे नाराज़ हैं जो नवगीत के वारे मे अपनी समझ और अध्ययन को विकसित करने के बजाय अपने पारंपरिक और मंच धर्मी गीतों को ‘नवगीत’ मनवाने का दुस्साहस करते हैं, या फिर ‘गीत गीत ही होता है, उसमे ‘नव’ जोड़ने का क्या तुक है?’ जैसे कुतर्क देकर दोनों तरफ घुसे रहते हैं। शर्मा जी की यह नाराजगी बिलकुल जायज़ है। कहना न होगा कि गीत-नवगीत को गड्ड-मड्ड करके हर जगह खुद को प्रतिस्थापित करने वाले लोगों ने गीत और नवगीत दोनों का भरपूर नुकसान किया है। शर्मा जी के नवगीतों के वारे मे उन्हीं के एक नवगीत का अंश दृष्टव्य है- ‘इस समय की डाल पर मैं / फूल-सा अटका । मैं क्षितिज पर रश्मियों का / बिम्ब हूँ टटका।“

डॉ. राजेन्द्र गौतम के नवगीतों मे युग बोध के स्वर यत्र तत्र सर्वत्र सुने जा सकते हैं। कुंठित श्रंगारिकता,कृत्रिम भावुकता और जीवन से कटी हुई भाषा से उन्हें परहेज है । वे नवगीत को ज़िंदगी के करीब रखकर उसे रचना और बाँचना चाहते हैं, ताकि वह दोनों एक–दूसरे के बन सकें, एक-दूसरे को सुन सकें। ज़िन्दगी की भाग-दौड़ और आपा-धापी मे मन के एकांत कोने मे छुपी उदासी को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए जब वे कहते हैं “ आज भी चुभता रहा दिन-भर / शोर किरचों–सा / पर नहीं टूटीं / उदासी की साँवली परतें“ तो यह उनकी व्यक्तिगत पीड़ा न होकर सब की पीड़ा बन जाती है। कविता का यही लक्ष्य है। डॉ. ओमप्रकाश सिंह इस खंड के अंतिम नवगीतकार हैं। उनके नवगीतों मे युगीन यथार्थ के साथ-साथ आदमी को आदमी होने की तमीज़ तक ले जाने और राष्ट्र-निर्माण की उद्दाम ललक पूरी शिद्दत के साथ महसूस की जा सकती है। नवगीत को वे ‘क्लास’ का नहीं ‘मास’ का गीत मानते है। इसीलिए नवगीत की रचना वे लोक के बीच लोक की भाषा मे लोक के लिए करते हैं ।

दूसरे खंड मे संकलित कवियों जगदीश श्रीवास्तव, मुकुट सक्सेना,मधुकर अष्ठाना, मधुसूदन साहा, मयंक श्रीवास्तव, इसाक अश्क, राधेश्याम शुक्ल, भगवत दुबे, धनंजयसिंह,वीरेन्द्र आस्तिक, निर्मल शुक्ल, रामसनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’, माधव कौशिक, रविशंकर पाण्डेय और यश मालवीय मे से कई ने अपनी सृजन-यात्रा मे पारंपरिक गीत और नवगीत दोनों के साथ कदम मिलाकर चलने की कोशिश की है। यही कारण है कि इस खंड के बहुत सारे नवगीतकार भाषा,शिल्प और कथ्य के स्तर पर पारंपरिक गीत के बहुत नजदीक खड़े दिखते हैं। हिन्दी-गीत का यही वैशिष्ट्य है कि प्रत्येक गीत भले ही नवगीत न हो, किन्तु प्रत्येक नवगीत मे गीत अवश्य होता है। इस खंड की भूमिका मे ‘नवगीत के नए संदर्भों’ पर विचार करते हुए डॉक्टर ओमप्रकाश सिंह लिखते हैं –‘नयी सदी के नवगीत ‘ का दूसरा भाग नवगीत के विकास का दूसरा चरण है। इसमे वे नवगीतकार हैं जिन्होने समय और परिस्थिति के यथार्थ को नयी सदी के आलोक मे उतारा है।‘ इसी क्रम मे वे आगे लिखते हैं – ‘ जब परिस्थितियाँ बदलती हैं, विसंगतियों की हवा के झोंके चलते हैं और समय की भट्ठी से अनेक विचारों की चिनगारियाँ फूटती हैं तो गीत, नवगीत और कविता ही नहीं,समाज और सहित्य मे नए कोंपल निकलने से पहले उन्हें हवा के गर्म थपेड़ों से जूझना पड़ता है । यही कारण है कि इन नवगीतों मे सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं के चित्र भी देखने को मिलते हैं । नवगीतकारों ने जहां वर्तमान संदर्भों मे मिथकों की सहायता से यथार्थ को प्रस्तुत किया है, वहीं उन्होने अपनी संस्कृति और जीवन-मूल्यों को भी व्यापक रूप मे प्रस्तुत किया है । कुछ उदाहरण देखें :

भूमिकाएँ बदली गईं / परिशिष्ट भी जोड़े गए
आदमी के नाम पर बस/ हाशिये छोड़े गए . -जगदीश श्रीवास्तव

मुझको प्राण वायु / देने को राज़ी नहीं हुई
दिल मे सदा परायेपन की/ चुभती रही सुई
बहुत कहा / मेरे आँगन मे / डोली नहीं हवा . – मयंक श्रीवास्तव

आजकल / हँसना मना है । देखते ही देखते /
सब नग्न संज्ञायेँ हुयी हैं । जन्म से ज़्यादा /
यहाँ पर /भ्रूण हत्याएं हुयी हैं । वृक्ष की जड़ का विरोधी /
हो गया / उसका तना है. - माधव कौशिक

नवगीत की संप्रेषण शक्ति को मधुकर अष्ठाना कुछ इस तरह से महसूस करते हैं : ‘नवगीत शब्दों का परमाणु बम है जो विखंडित होकर दूर-दूर तक प्रभाव डालता है। वर्तमान समय न्यूक्लियर और नैनो का है, नवगीत समयानुसार लघुतम कलेवर, न्यूनतम शब्दावली और छोटे छंदों का प्रयोग कर अधिक सक्षम रूप मे अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा है।‘ समय की विद्रूपता का एक चित्र देखें “

सन्नाटे को चीर / अचानक / यहाँ गूंजतीं चीखें
मिल जातीं हैं/ साथ दूध के/ यहाँ घृणा की सीखें
सबके सीने मे / ज़िंदा बम ढला हुआ. – मधुकर अष्ठाना

संवेदनाओं के क्षरण के ऐसे ही मार्मिक चित्र मधुसूदन साहा के यहाँ भी जगह-जगह उपस्थित हैं :
‘मर गईं संवेदनाएं / आदमी की / रक्तरंजित हो गई हैं भावनाएं
लोग सारे / खून मे डूबे हुए हैं / किस तरह के आज मंसूबे हुए हुए हैं
फूल के संबंध टूटे / ख़ुशबुओं से / कंटकों-सी उग रहीं दुर्भावनाएं’.

रामसनेही लाल शर्मा आज के नवगीत को ‘आनुभूतिक व्यंजनाओं ‘ से जुड़ रहे नवगीत के रूप मे देखते हैं, ‘जहाँ न लोक जीवन के प्रति रोमानी आकर्षण है, न महानगरीय जीवन के प्रति ऊब। यहाँ समग्र जीवन की यथातथ्य पीड़ायेँ और त्रासदियाँ हैं । .... मूल्य क्षरण की विवशताएँ हैं, भ्रष्टाचार की लपलपाती जिह्वायेँ हैं और आदमखोर वक़्त से जूझने के हौसले हैं :

मॉल है, बाज़ार है / कालोनियाँ हैं / ऊबते दिन, रात की / रंगीनियाँ हैं
भीड़ मे कुचली / मरी संवेदनाएं / ढूंढते स्वर मातमी / क्या बावले हो / इस शहर मे ?

मुकुट सक्सेना नवगीत को गीत का ही विकसित रूप मानते हैं । वह कहते हैं कि ‘ उसमे ताज़ी अनुभूति और शिल्प की नवता है और आज वह व्यक्ति पीड़ा का समाजीकरण करने मे सक्षम है। ‘
उनके नवगीत का एक अंश दृष्टव्य है:
‘पन्नों को पलट गई चंचल वातास/मुखर हुआ एक ओर कच्चा इतिहास/
सभ्य कहे जाने को पहने थे वस्त्र/ सत्य मगर छिपा नहीं फैला सर्वत्र /
टूट गया कुर्ते के कालर का/ आखिरी बटन’.

आचार्य भगवत दुबे, इशाक अश्क, डॉ. राधेश्याम शुक्ल के नवगीत, आचार्य भगवत दुबे के शब्दों मे ‘हमारे वर्तमान की विरूपता की एक ओर पक्की पड़ताल करते हैं तो दूसरी ओर उस सांस्कृतिक अस्मिता का भी हवाला देते हैं जिनके द्वारा इंसानियत को तमाम पाशविक एवं आसुरी शक्तियों से बचाया जा सकता है।’ कुछ उदाहरण देखें:

‘पोस्टर विज्ञापनों मे / देश मेरा, बंधु मेरे /
फिक्र मत करना / बड़ा खुश हाल है।
हर समस्या फाइलों मे कैद /फीतों से बंधी है /
यह न कहना / सिर्फ यह तो भ्रष्ट लोगों की सदी है ‘ - इशाक अश्क

‘ एक अंधी भीड़ का / भूगोल है मेरा शहर /
आँधियाँ / विज्ञापनी इतिहास रचतीं हैं। ‘ -राधेश्याम शुक्ल

वीरेंद्र आस्तिक भूमंडलीकरण की साम्राज्यवादी –उदारवादी नीति-नियतियों के शहरों से गांवों की तरफ पड़ते हुए प्रभाव-कुप्रभाव और जन-मानस के उसके प्रति स्वरबद्ध होते हुए आक्रोश को समकालीन नवगीत का स्वर मानते हैं। धनंजय सिंह नवगीत के ‘नव’ शब्द को ‘गीत’ के साथ लगाया गया विशेषण मानते हैं । वे कहते हैं, ’नए कलेवर मे आने वाला गीत नवगीत कहा जा सकता है, किन्तु आज के बहुत से नवगीत कुछ वर्षों के पश्चात, बहुत संभव है कि नवगीत कहलाने का अधिकार खो दें। ‘(पृ.१४३)

अपने हिस्से के समय को भोगते – देखते हुए हमारा कवि अपनी अनुभूतियों को जब अपने नवगीतों मे पिरोता है, तो मानों पूरा का पूरा युग समेट लेता है एक-एक नवगीत मे । नवगीत का यह युग बोध ही गीत के पारंपरिक आभूषणों को उतारकर उसे नये तरीके से सजाता–संवारता है। ‘ इन बस्तियों के रंग सारे / हो चुके मैले / तुम्हें दिखते नहीं क्या ? ( निर्मल शुक्ल ), ‘या फिर ‘दिन गुजरते दबे पाँवों / चोर जैसे / बीततीं चुपचाप तारीखें । सुस्त कदमों / बीतते इस दौर से / हम भला सीखें तो क्या सीखें । (रविशंकर पाण्डेय)’ जैसे नवगीतों से पाठक अपने आप को अपने दौर की सम्पूर्ण परिस्थितियों से गुज़रता हुआ महसूस करता है।

इस खंड मे संकलित यश मालवीय वय के हिसाब से सबसे छोटे हैं, किन्तु उनके नवगीत उन्हें बहुत बड़ा नवगीतकार बनाते हैं। न सिर्फ कथ्य, बल्कि भाषा और शिल्प के स्तर पर वे सबसे अलग खड़े दिखाई पड़ते हैं :

चीख सुनें क्या / मेज़ों पर रखी पसलियों की
मोमबत्तियाँ जलतीं / पीठ पर मछलियों की
भेड़िये भुखाए हैं तारीखें नंगी हैं /चर्चे क़ानूनों के बातें बेढंगी हैं
उलझी-सी डोरी है / वक़्त की तकलियों की .
यहाँ ‘मछलियों की पीठों पर मोमबत्तियों का जलना’ और ‘वक्त की तकलियों की डोरी का उलझना’ हमारे मौजूदा सामाजिक–राजनैतिक विद्रूप को जिस मार्मिकता के साथ उजागर करता है, वह बेजोड़ है।

खंड–तीन के लगभग सभी नवगीतकार आज़ादी के बाद के जन्मे हैं,अर्थात अपने रचनाकर्म की शुरुआत करते हुए जहां इन रचनाकारों को अपने पूर्ववर्ती नवगीतकारों को पढ़ने और नवगीत की भाषागत और शिल्पगत विशेषताओं को ठीक से समझने का पर्याप्त आधार और अवसर मिला, (क्यों कि १९७५ -८० आते-आते शम्भूनाथ सिंह, राजेन्द्र्प्रसाद सिंह,ठाकुरप्रसाद सिंह, वीरेंद्र मिश्र, देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, उमाकान्त मालवीय, नईम, डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया, माहेश्वर तिवारी आदि गीतकार अपने आप को नवगीत के प्रति पूरी तरह समर्पित कर चुके थे और उनके समवेत प्रयासों से हिन्दी कविता मे नवगीत को पर्याप्त पहचान और प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी थी। ), वहीं आपातकाल, लंबे समय से देश की सत्ता पर आसीन काँग्रेस पार्टी की करारी हार, जनता पार्टी का अभ्युदय, फिर जल्दी ही उसका पतन और इन्दिरा गांधी जैसी अंतरराष्ट्रीय ख्याति की राजनीतिक–हस्ती की अपने ही सुरक्षा रक्षकों द्वारा नृशंस हत्या, मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू किए जाने से नाराज़ समाज के एक वर्ग का राष्ट्र व्यापी विरोध, राम मंदिर आंदोलन, बाबरी मस्जिद ध्वंस जैसी अनेक राजनैतिक–सामाजिक घटनाओं से एक वारगी उस समय परिचय हुआ जब ये रचनाकार जवान हो रहे थे।

नयी सदी के आते-आते, जहाँ सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियाँ बद से बदतर होती गईं, वहीं भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण जैसी नीतियों की आहट से देश के मजदूरों, किसानों, छोटे व्यापारियों और मध्यम वर्गीय लोगों की आजीविका पर प्रतिकूल प्रभावों की पीड़ा ने समाज और साहित्य को गहरे तक प्रभावित किया। अपनी वय और रचनात्मकता के स्तर पर प्रौढ़ हो रहे इन नवगीतकारों ने इस परिवर्तन को महसूस करते हुए आम जन के दुखों - तकलीफ़ों, सत्ता-प्रतिष्ठानों द्वारा किए जा रहे शोषण और अनवरत वादा-फरामोशी के प्रतिरोध के लिए नवगीत की नयी भाषा गढ़ने के लिए प्रेरित किया। यही कारण है कि इस खंड के ज़्यादातर नवगीतकारों की भाषा और भंगिमा नवगीत के फॉर्मेट को अनेक आयामों से पिछली सदी के नवगीतों से अलग करती है। डॉ. अनिलकुमार, रमेशदत्त गौतम, उदयशंकर सिंह ‘उदय’, ब्रजनाथ श्रीवास्तव, राघवेंद्र तिवारी, शीलेन्द्रकुमार सिंह चौहान,रमेशचंद्र पंत, मधुप्रसाद, ओम धीरज, जय चक्रवर्ती, अजय पाठक, जगदीश व्योम, यशोधरा राठौर, डॉ. विनय मिश्र और जयकृष्ण राय तुषार ‘नयी सदी के नवगीत’ के इस तीसरे खंड के रचनाकार हैं।

‘नवगीत के वैश्वीकरण’ शीर्षक से डॉ. ओम प्रकाश सिंह इस खंड की भूमिका मे नवगीत की सीमाओं और संभावनाओं के वारे मे लिखते हैं, ‘ समकालीन नवगीत जितना ही वैश्विक और मानवीय होता जाएगा, उतनी ही उसके विकास की संभावनाएं बढ़ती जाएंगी। वह वर्तमान मानव के अंतर्वाह्य का अवलोकन करते हुए प्रेम, प्रकृति,सौन्दर्य, सामाजिक एवं वैश्विक चिंतन की यात्रा करेगा। वह देश एवं समाज की विकृतियों, विद्रूपताओं और विसंगतियों के विरुद्ध संघर्ष करेगा। यही नहीं, वह मनुष्य की भाँति प्रकृति के अन्य जीवों, पेड़-पौधों, सागर, नदियों, परबतों के साथ सूरज-चाँद आदि ग्रहों-उपग्रहों तथा उनपर रहने वालों के प्रति भी संवेदनशील दिखेगा। “ डॉ. सिंह की इन अपेक्षाओं और आशाओं की वानगी खंड-तीन के इन नवगीतकारों के नज़रिये और उनकी भाषा के कनविक्शन मे साफ तौर पर देखी जा सकती है । इन रचनाकारों के दिल मे सिस्टम की बदहाली के प्रति आक्रोश है, तो छीजते मानवीय मूल्यों के प्रति पीड़ा भी ।

समय की ज़्यादतियों से जूझने का हौसला है, तो सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस भी । कुछ उदाहरण :

मील के / कुछ पत्थरों की / नज़र मे थे स्वप्न कल के
अधखिले/ वे मर गए सब / पाँव के नीचे कुचल के
रास्ता जर्जर बहुत है / हादसा कब हो न जाने - अनिल कुमार

रात-भर जागे / सुबह को / नींद की कुछ गोलियां लीं
सो गए / और उत्तर आधुनिक / हम हो गए . - उदयशंकर सिंह ‘उदय’

आसानी है शहर जलाकर / शांतिदूत बनना
अंध-भक्ति का अगर कहीं / थोड़ा भी जनमत है . - ओम धीरज

साँप-सीढ़ी खेलते / बंधक हुए शुभ आचरण
एक काली देह करती / रोशनी का अपहरण . – रमेश गौतम

समकालीन नवगीत के वारे मे बृजनाथ श्रीवास्तव की यह टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण है कि ‘ नवगीत सामयिक विसंगतियों से आहत होती लोक संवेदना की कथा है । सच मे आहत हो रहा है लोक जीवन एवं लोक संस्कृति । ‘जियो और जीने दो’ का मूल मंत्र कहीं इन सबकी भीड़ मे गुम हो गया है। नवगीत, वक़्त के ऐसे समरांगण मे लोकचेतना के अस्त्र-शस्त्र लेकर उतरता है वक़्त से दो दो हाथ करने के लिए और दो दो हाथ करने कि कला मे नवगीत ने न तो संयम के बांध तोड़े हैं और न ही अतिरेक की दिशा मे भटका है ‘(पृ. ८२) ।

ऐसा नहीं है कि नवगीत मे सिर्फ दुख, चिंता, आक्रोश और भूख ही है ; उसमे जीवन के प्रति अटूट निष्ठा, जिजीविषा और संघर्ष पोर-पोर मे विद्यमान है। ..... भाषा का आडंबर यहाँ बिलकुल नहीं है। ‘लोक’ सर्वोपरि है । लोक के शब्दों मे, लोक की बात को लोक के ही बीच से उठाए गए बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से आज का नवगीत आम जन के मर्म तक सहज और संप्रेष्य रूप मे पहुँच रहा है। पल-पल छीज रहे मानवीय मूल्यों, दरक रहे सामाजिक रिश्तों और रागात्मक सम्बन्धों को लेकर नवगीत की चिंताएँ सर्वत्र पढ़ी जा सकती है:

‘दुनिया–भर से जीते / खुद से हारे मगर पिता
सफर पाँव मे और/ आँख मे सपनों की नगरी/
छाती पर संसार / शीश पर / रिश्तों की गठरी
घर की खातिर / बेघर भटके / सारी उमर पिता’ -जय चक्रवर्ती

‘सन्नाटा अवसादहीन / मुसकानों मे चिंता
आँसू मे चुक गया कहीं / आँखों का अभियंता
धूप हुई ठंडी प्रसंगवश / बर्फ लगी तपने’ –राघवेंद्र तिवारी

सिमट गई / सूरज के / रिशतेदारों तक ही धूप / जाने क्या होगा.
काल-चक्र रट रहा ककहरा/ गूंगा वाचक, श्रोता बहरा /
तौल रहे तुम बैठ / तराजू से दुपहर की धूप / न जाने क्या होगा ! –जगदीश व्योम

अनुभूत सच्चाई और भोगे हुए यथार्थ को जीवन की लय के साथ एकाकार करते हुए कथ्य और शिल्प की जैसी नवता इन नवगीतकारों मे दिखाई दे रही है, वह इस बात की आश्वस्ति है कि आने वाले समय मे हिन्दी कविता के केंद्र मे नवगीत ही होगा। नवगीत समय का दर्पण बन चुका है ।

नवगीत सत्ता –शासन मे बैठे बेईमान और भ्रष्ट शासकों के काले कारनामों और व्यवस्था की विद्रूपताओं के खिलाफ ‘मुकम्मल बयान’ है :
अव्यवस्था कुर्सी पर बैठी / लरज़ रही हर पल
प्रजातन्त्र के प्रश्नों को / फिर कौन करगा हल ? -शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

बगुलों की मौन-सधी / हर क्षण ही घातें हैं
संशय मे बीत रही / कैसी ये रातें हैं
सपनों पर / विषदंती साँपों के पहरे हैं’ - रमेशचंद्र पंत

आदतों मे इक मशीनी / है कवायद
आदमी से चेतना की / गंध गायब
चेहरे मे है कोई / बहुरूपिया –सा। - विनय मिश्र

पन्ने-पन्ने फटे हुए हैं / उधड़ी जिल्द पुरानी
अपनी पुस्तक मे लिक्खी है / दुख की राम कहानी
भूख हमारा अर्थशास्त्र है / रोटी है इतिहास - अजय पाठक

आज का नवगीत प्रेम, श्रंगार, प्रकृति चित्रण और भावात्मक राग-विराग जैसे पारंपरिक गीत की सीमाओं के पार विज्ञान, तकनीकी, राष्ट्रीय और वैश्विक घटनाओं-परिघटनाओं आदि को असाधारण रूप से अभिव्यक्त कर रहा है। इन नवगीतों की भाषा, कन्टेन्ट और विम्ब योजना से इस बात की स्पष्ट आहट मिलती है कि आज का नवगीत बीस साल –पच्चीस साल पहले के नवगीत से बहुत आगे निकाल चुका है और उसकी यह यात्रा आगे भी इसी तरह गतिमान रहने वाली है।

चौथे खंड मे “समकालीन नवगीत: संवेदना और सृजन” शीर्षक से अपनी भूमिका मे डॉ.ओमप्रकाश सिंह पारंपरिक गीत और समकालीन नवगीत के अंतर को स्पष्ट करते हुये नवगीत की प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- “ गीत मे भाव या हृदय प्रधान है और विचार या बुद्धि गौड़ है परंतु नवगीत मे हृदय और बुद्धि या भाव और विचारों मे सामंजस्य दिखाई पड़ता है। पारंपरिक गीत आदर्श प्रधान है, यथार्थ सहायक है परंतु समकालीन नवगीत मे यथार्थ प्रधान है और आदर्श सहायक। नवगीत मे सांकेतिकता अर्थव्यंजना को विस्तार देने मे कहीं उपयुक्त है । नवगीत मे सम्पूर्ण जीवन की संवेदनाओं विसंगतियों की अभिव्यक्ति एवं सामाजिक सरोकार केंद्र मे हैं।“ आगे वे लिखते हैं “नवगीत अपनी परंपरा मे गीत की ही संतान है, गीत का बेटा है। जैसे दो वटवृक्ष हैं, एक पुराना एक नया । एक अपनी जड़ों, शाखों, पत्तों से, अपने आकार से पुराना है, और दूसरा अपनी ताज़ी शाखों, पत्तों, फूलों-फलों कोमल,सुंदर और युगबोध लेकर खड़ा है। .. दोनों के मध्य एक पीढ़ी का अंतर है –दैहिक और चिंतन के स्तर पर। गीत मे मनुष्य के दैहिक जीवन की प्रधानता है, नवगीत मे उसका सामाजिक सरोकार अधिक मुखर हुआ है। ...... एक ने अपनी परंपरा से जुड़कर प्रेम, करुणा,सहयोग, लोक कल्याण और मानवता की अभिव्यक्ति की है, तो नवगीत ने उसके आगे वैश्वीकरण, बाजारवाद, वैज्ञानिक बोध, जीवन मूल्यों का क्षरण, जातीय एवं सांप्रदायिक विद्वेष आतंकवाद आदि पर न सिर्फ अपनी चिंताओं को उजागर किया है, अपितु इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी संघर्ष का भी आह्वान किया है। ....इसमे संक्षिप्तता, सांकेतिकता, मानवीकरण, यथार्थबोध, बिंबों की नवीनता, मिथकों-प्रतीकों के प्रयोग, सामान्य बोलचाल की भाषा, आंचलिकता आदि को प्रधानता दी गई है।“

इस खंड मे जिन पंद्रह नवगीतकारों को शामिल किया गया है उनके नाम हैं- कौशलेंद्र, हरिशंकर सक्सेना,रामनारायण ‘रमण’, शिवानंद सिंह सहयोगी, श्रीराम परिहार, जगदीश पंकज, गणेश गंभीर, पूर्णिमा बर्मन,संजय पंकज, संध्या सिंह, आनंद कुमार गौरव, राम शंकर वर्मा, रामकिशोर दाहिया, रामचरण राग, और मधु शुक्ला। इनमे से ज़्यादातर रचनाकार अपने सुदीर्घ जीवनानुभवों और रचनात्मक ऊर्जा से लैस हैं। जीवन और समाज को देखने,समझने अभिव्यक्त करने तथा संवेदनाओं के धरातल पर उसे जाँचने-परखने और उसकी बेहतरी के लिए संघर्ष करने की उनकी क्षमताओं को उनके नवगीतों मे पूरी शिद्दत के साथ महसूस किया जा सकता है। हालाँकि इस बात पर बहस और मतभेद की पूरी गुंजायश है कि रचना और शिल्प के स्तर पर इन रचनाकारों मे से कई की पहचान नवगीतकार के रूप मे कम और पारंपरिक गीतों के रचनाकार के रूप मे अधिक है, तो इन्हें नवगीत के इस महत्वपूर्ण संकलन मे किस आधार पर सम्मिलित किया गया गया है । चूँकि संकलन के प्रकाशन का उद्देश्य नयी सदी अर्थात सन दो हज़ार के बाद के नवगीत-परिदृश्य को प्रस्तुत करना रहा है, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि संपादक ने रचनाकार की पहचान को कम, संकलन के लिए उपलब्ध कराये गए उसके गीतों पर ज़्यादा ध्यान केन्द्रित किया है और जिनके गीत ‘नवगीत’ संरचना और शिल्प-सौन्दर्य के तत्वों पर खरे उतरे, उन्हें शामिल कर लिया गया है। बहरहाल, संकलन के ज़्यादातर नवगीत हमारे समय की आँख से आँख मिलाते हुए जीवन की विसंगतियों, विद्रूपताओं और विडंबनाओं से संघर्ष करते दिखाई देते हैं।

कुछ उदाहरण :
“हो गया खूँखार सूरज / रुग्ण फिर /शीतल हवाओं की कहानी ।
मछलियों के भाग्य / बदहाली लिखी /अब लुप्त क्षिति का रंग धानी - हरिशंकर सक्सेना

‘ मुँह मे राम /बगल मे छूरी / बचकर रहना जी ।
असली चेहरे /छिपे हुए हैं / इन बटमारों के ।
अद्भुत भेष/ बदलते ये / मारीच विचारों के ।
मृग-मरीचिकाओं /के पीछे /अब मत चलना जी’ - रामनारायण रमण

वय की दृष्टि से कौशलेन्द्र इस खंड के सबसे वरिष्ठ रचनाकार हैं । उनके नवगीतों मे भी सामाजिक–यथार्थ का निर्मम सच अपने सम्पूर्ण विद्रूप के साथ दिखाई देता है-:
भला देखिये कैसे दिन हैं /
आँखों मे पलते अँधियारे / अँधियारे ही गहराते हैं /
सीधी राहें बहुत कठिन हैं।

नवगीत के शिल्प पर एक आरोप यह लगता रहा है कि इसमे गेयता का अभाव है । इस आरोप की आड़ लेकर बहुत से आलोचक नवगीत को गीत का वंशज मानने से इंकार कर देते हैं । इस संकलन के नवगीतकारों ने इस आरोप को पूरी तरह खारिज करते हुये नवगीत को सर्वथा ‘छंदयुक्त रचना’ माना है । शिवानंद सिंह सहयोगी के शब्दों मे “नवगीत मे छंदमुक्तता तो क्षम्य है किन्तु छंदहीनता नहीं । गेयता भंग नहीं होनी चाहिए। “- (पृ. ७८)। उनके नवगीतों मे क्षरित हो रहे जीवन मूल्यों और सत्ता प्रतिष्ठानों की मनमानियों को बड़ी स्पष्टता के साथ देखा जा सकता है । संकलन के एक और रचनाकार डॉ. श्रीराम परिहार भी नवगीत के वारे मे ऐसी ही अवधारणा को व्यक्त करते हुए कहते हैं –“ नवगीत तथाकथित नयी कविता से इन्हीं अर्थों मे पृथक है कि वह निसर्ग की तरह छंद और लय से अनुशासित और गत्यात्मक है। तथाकथित कविता के पास न निसर्ग का छंद है, न जीवन की लय । “ (पृ.९३)



जगदीश पंकज के नवगीतों मे उनके जीवन-संघर्षों,अभावों और भोगे हुए यथार्थ की पीड़ा को बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया जा सकता है । “अधनंगे,अधभूखे /बचपन की गिनती / जाने किस रेखा के ऊपर-नीचे है। खोज रहे बच्चे /कचरे के ढेरों मे /मिले कहीं आंतों की आग बुझाने को । जूठी पत्तल लिए /उमड़ती मानवता / तरस रही है अब भी दाने-दाने को ।“ गणेश गंभीर के नवगीत गहन आत्मिक दृष्टि बोध से सम्पन्न हैं । समय के इस कोलाहल मे वे खुद को खोजना चाहते हैं : ‘अपने को खोजना / ज़रूरी है / इस विस्मृति काल मे । यात्रा / अन्वेषण की /लौटना नहीं है । दीपोत्सव / सूरज को रोकना नहीं है ।‘

डॉ. संजय पंकज गीत और नवगीत के मध्य एक हल्की महीन-सी विभाजक रेखा खींचते हुए कहते हैं,-‘ गीत को नयी ज़मीन और नयी त्वरा देने के कारण गीत की पारंपरिक और मान्य प्रवृत्तियों से बहुत ज़्यादा भिन्न नहीं होने के बावजूद कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर लय की नयी उड़ान का नाम है नवगीत । “(पृ.१४९)।


पूर्णिमा वर्मन और संध्या सिंह नवगीत को उसके कथ्य और शिल्प की नवता के साथ नव्यता का छंद और जन जागृति का माध्यम मानती हैं। “ सड़कों पर हो रही सभाएं /राजा को /धुन रहीं व्यथाएं “ (पूर्णिमा वर्मन, पृ.१४५) तथा “ दुविधाओं की पगडंडी पर /भटके जनम-जनम । जितने जीवन मे चौराहे /उतने दिशा –भरम “(संध्या सिंह,,पृ.१६५) जैसे नवगीत उनके कथन की पुष्टि करते हैं।

आनंद कुमार ‘गौरव’ के नवगीत लोकतत्व से जुड़कर आम आदमी के दुख –दर्द का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते हैं : ‘आदमी ने आदमीयत / लूटकर जेबें भरीं /रोशनी की बस्तियाँ /सहमी अँधेरों से डरीं।‘(पृ.१३४) ।

रामशंकर वर्मा भी नवगीत को इसी रूप मे देखते हैं । वे कहते हैं –‘नवगीत की लयपरक भंगिमाएँ हमारी विशाल लोकधर्मी परंपरा से जुड़कर इसे कालजयी बनाती हैं। (पृ. १८९) उनके एक गीत की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-‘ गूँजी घर चौपाल /ढ़ोल पर थपक-थपक की ताल /जुटी फगुओं की टोली । ये जीवन के रंग / जब तलक संग /तभी तक अपनी होली। (पृ.१९३)

रामकिशोर दाहिया अपने नवगीतों मे लोकभाषा के प्रचलित शब्दों और मुहाबरों के प्रयोग के लिए जाने जाते हैं । दलित-शोषित–वंचित समाज के शोषण और अपमान के प्रति आक्रोश और चिंता उनके नवगीतों का मुख्य विषय है,“ भूँजी हुयी /मछलियाँ हम हैं /आगी क्या ! पानी का डर है/ दहरा नहीं मिले जीवन-भर / डबरे रहे हमारे घर हैं। “ रामचरण राग के नवगीतों मे भी व्यंग्य और आक्रोश का यही तेवर और स्वर विद्यमान है :

बाद मेहनत भी रहा कंगाल /नोचता हूँ मैं स्वयं के बाल
और कितने साल / रहूँगा मैं फटे ही हाल

मधु शुक्ला इस संकलन की अंतिम रचनाकार हैं ।यूँ तो उनके नवगीतों के अनेक रंग हैं, किन्तु स्त्री होने के नाते स्त्री की पीड़ा को उन्होने बड़ी शिद्दत से महसूस किया है –“ विश्वासों की दरकी गागर / अब किस घाट डुबोये/ सोच रही धनिया किसके /कांधे सिर धर कर रोये। “

पांचवें खंड मे डॉ. ओमप्रकाश सिंह ने खंड एक से लेकर खंड पाँच तक शामिल सभी नवगीतकारों के रचनाकर्म की अंतर्वस्तु पर अपनी संक्षिप्त-सुचिन्तित संपादकीय टिप्पणियाँ दीं हैं । ये टिप्पणियाँ दो तरह से महत्वपूर्ण हैं। एक तो यह कि कोई भी पाठक इस ग्रंथ मे शामिल किसी भी रचनाकार की सृजन-दृष्टि के वारे मे एकवारगी परिचित हो सकता है, दूसरे, ये टिप्पणियाँ संपादक के उस पक्ष को भी प्रस्तुत करती हैं, जिसके आधार पर नवगीतकारों की विशाल दुनियाँ मे से इन पिचहत्तर नवगीतकारों का चयन किया जाना संभव हो सका । इसी के साथ संपादक ने विनम्रतापूर्वक उन सभी नवगीतकारों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की है, जिनका योगदान नवगीत की विकास यात्रा मे रहा है। इस खंड के सभी रचनाकार १९६४ और १९९४ के बीच के जन्मे हैं, इनमे से ज़्यादातर की सृजन-यात्रा पिछली सदी के अंतिम दशक और कुछ की तो नयी सदी के शुरू होने के भी बहुत बाद मे शुरू हुयी है। अर्थात इन रचनाकारों के सामने एक ओर अपने से वरिष्ठ नवगीतकारों का वृहद रचना संसार है, वहीं दूसरी ओर अपने समकाल को समझने–पढ़ने की नयी दृष्टि मौजूद है। नयी सदी के आते-आते पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों की टूटन, सदियों पुरानी ग्राम्य –संस्कृति के तेज़ी से होते क्षरण और राजनीति के कुटिल स्वरूप के गांवों मे प्रवेश ने हमारे सम्पूर्ण सामाजिक ताने-वाने को तहस–नहस करके रख दिया । हमारे इन युवा रचनाकारों ने, जो मूल रूप से गाँव से ही जुड़े हुए हैं, इस सर्वग्रासी–परिवर्तन को अपने लेखन मे पूरी शिद्दत और मार्मिकता के साथ उतारा है :

‘तोड़ दिये चौतरे द्वार के / नीम द्वार की काटी
बरगद बोन्साई कर डाला / शाखाएँ सब छांटी
नहीं लबालब फिर से वैसा / हमको ताल मिला’ - राजा अवस्थी

‘अलगू-जुम्मान के गए जमाने / पंच बना बानिया
गोबरधन बस गया शहर मे / घर होरी धनिया
मरणशील गांवों की खातिर / बोले कोई काँव नहीं’ - विश्वनाथ

इसी संदर्भ मे गौरैया के बहाने योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ अपनी पुरानी ग्राम्य –संस्कृति को याद करते हुए कहते हैं : गौरैया अब नहीं दीखती / छतों–मुँडेरों पर
बोती थी अपनापन / घर के रिश्तों-नातों मे
खो जाते थे सब ही / उसकी मीठी बातों मे

रोहित रूसिया इसी दर्द को इस तरह अभिव्यक्त करते हैं :
‘ एक पंछी ढूँढता है / फिर बसेरा
कल यहीं था आशियाना / कह रहा था जल्द आना
ढूँढता वो फिर रहा है / अपना बचपन, घर पुराना’

पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों मे क्षरण का यह दर्द इन नवगीतकारों मे और भी कई रूपों मे महसूस किया जा सकता है । भीड़ के अविराम कोलाहल से घिरे होने के बावजूद आदमी के अकेलेपन की पीड़ा को हमारा नवगीतकार किस तरह भोगने को विवश है, इन पंक्तियों मे देखें :

अनहद स्वर डूब गया / शोर करें प्रखर द्वन्द
बाहर है चकाचौंध / भीतर की ज्योति मंद’ - संजय शुक्ल

‘संवादों के पुल / चुप्पी से / जूझ रहे हैं
बातचीत के/ बंद सिरों को/ बूझ रहे हैं
धुले-धुले शब्दों का/इक तोरण लटका दूँ ‘ - मालिनी गौतम

यद्दपि ठीक-ठीक यह कह पाना मुश्किल है कि राजनैतिक मूल्यों और हमारे जन -प्रतिनिधियों मे विश्वसनीयता का संकट कब से शुरू हुआ, किन्तु यह तय है कि शुरू होने से लेकर अब तक क्षरण का यह दौर न सिर्फ अनवरत जारी है, अपितु समय के साथ इसकी गति तेज से तेजतर होती गई है । अब तो हालत यहाँ तक पहुँच चुकी है कि राजनीति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति कुछ भी बोले, आम आदमी को विश्वास ही नहीं होता । सत्ता –प्रतिष्ठानों के शीर्ष पर बैठे लोग येन केन प्रकारेण अपने आप को कुर्सी से चिपकाए रखना चाहते हैं, इसके लिए उन्हें चाहे जितने षड्यंत्र करने पड़ें, चाहे जिसको रास्ते से हटाना पड़े, देश और देश की जनता का कितना ही अहित करना पड़े । इन परिस्थितियों मे कवि का संवेदनशील मन पग-पग पर आहत होता है, आक्रोशित होता है और जब यह छटपटाहट असह हो जाती है, तो हमारा युवा नवगीतकार लिखता है ;

‘सभासदों के / अपनेपन मे /निष्ठुर स्वार्थ झलकता
चौखट के/ समीप ही / अग्निबीज है उगता
परिचय पत्रों पर/ फोटो के / ऊपर फोटो रखकर
जनता की / आँखों से कापी / मंत्री रहा निकाल’ - अवनीश त्रिपाठी

‘सुनो व्याघ्र ! सोने के कंगन / अपने पास रखो
स्वर्णिम सपनों को दिखलाकर / बरसों बरस छला
औरों का रस रक्त चूसकर / अपना किया भला’ - त्रिलोक सिंह ठकुरेला

‘सत्ता पर काबिज होने को / कट –मर जाते दल
आज सियासत सौदेबाजी / जनता मे हलचल’ - अवनीश सिंह चौहान

कल्पना मनोरमा, आनंद तिवारी, राघवेंद्र प्रताप सिंह, शशि पुरवार, भावना तिवारी और चित्रांश वाघमारे की भाषा और कंटेन्ट भी नवगीत के भविष्य के प्रति सुखद आश्वस्ति प्रदान करते हैं । अलग –अलग संदर्भों पर इनकी समझ और संवेदनाएं कई अर्थों मे रेखांकित किए जाने योग्य हैं । कुछ उदाहरण देखें:
‘था उजालों का नगर जो लुट चुका है
जुगनुओं के हाथ सूरज बिक चुका है
ओ! पिता तुम सुघर काठी हो / मगर बलहीन हो’ -कल्पना ‘मनोरमा’

‘बंदीगृह मे / कैद हवाएँ / पंख मिले, पर नभ से दूरी
देवी होकर / लुटे सदा से/ चुप रहने की है मजबूरी’ - भावना तिवारी

‘देखता हूँ आदमी का / भीड़ मे तब्दील होना
भीड़ मे चेहरे कई हैं /भीड़ का चेहरा नहीं है
भीड़ पहरा दे रही है / भीड़ पर पहरा नहीं है
देखता हूँ कपोतों का / एकदम से चील होना’ - चित्रांश वाघमारे

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि डॉ. ओमप्रकाश सिंह ने अपनी वर्षों की मेहनत और सुदीर्घ साधना के बल पर, बिना किसी लोभ-लालच के निरपेक्ष भाव से नवगीत और प्रकारांतर से हिन्दी –साहित्य के लिए अपने आप को समर्पित कर दिया है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय मे नई सदी के नवगीत के इन खंडों का साहित्य जगत मे सम्यक मूल्यांकन होगा और नवगीत की विकास यात्रा मे ये सभी संकलन मील का पत्थर सिद्ध होंगे।
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नवगीत संकलन - संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशक- नमन प्रकाशन, ४२३१/१,अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - ११०००२, आलेख - जय चक्रवर्ती

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