शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

गीत ही केवट हुए हैं - अरुण तिवारी गोपाल

 गीत सृजन भावनाओं का एक प्रवाह है जो हमारी संवेदना से उद्भूत होकर कवि और समाज के मानस पटल पर अभिव्यक्ति का जादू जगाता है, काव्य की विविध विधाओं ने साहित्य को सजाया संवारा है, परंतु केवल गेयता या शब्दों का क्रम सुनिश्चित करना ही गीत या नवगीत की कसौटी नहीं है वह अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम भी है, और यही अभिव्यक्ति जब लेखनी के भाव सलिल में गंगा सी प्रवाहित होती हुई हमारे हृदयों को सिंचित करती है तो वह गीत अमर हो जाता है। 

हिंदी साहित्य में गीत सर्जना के यशस्वी नवगीतकार आदरणीय अरुण तिवारी गोपाल जी की ७४ गीतों से सुसज्जित कृति ''गीत ही केवट हुए हैं'' भी समय की कसौटी पर खरी उतरी है। यह कृति उनके भीतर समाहित गंभीर चिंतन और गहन अध्ययन शील युवा आक्रोश और अनुभवों का प्रस्फुटन है। यही कारण है कि जीवन संघर्षों में भी उनके भीतर का कवि, साहित्यकार, कभी हारा नहीं, हर पड़ाव के बाद एक नये सफर पर निकलते गीतों के कारवां में अनेक पडाव जुड़ते चले गए, ऐसे नवगीत जो मानवीय अनुभूतियो के वाहक हैं, जो संवेदनशील हैं, और समाज के प्रति, एक गहरी संवेदना और सहानुभूति का भाव रखते हैं, ऐसी सशक्त भावनाओं और संवेदना को सृजन के दायरे में समेट कर प्रफुल्लित पुष्प -स्तवक के रुप में प्रस्तुत करना सरल नहीं था, बहुत ही गहरे‌ यथार्थ बोध से गुजरते हुए ये गीत पाठक के हृदय को स्पर्श करते हुए चेतना को झकझोरते हैं। 
भूख के सौदागरों को जानता हूँ
सब दलालों की दलाली जानता हूँ
अरुण हूँ सब बिल अंधेरे जानता हूँ
तुम निश्चिंत रहना। 

बहुत ही विलक्षण भावबोध से भरी हैं ये पंक्तियाँ। सूर्य जैसे संसार के तिमिर का नाश करता है। कवि का अरूण हृदय भी संकल्पित है। समस्त अनैतिकता अनाचार। अन्याय के अंधेरो को। समूल नष्ट करने के लिए। वह अरूण है, तो अजेय है। दृढ है। यह गीत सहसा मन को उद्वेलित करता है। जीवन के सारे संघर्ष। आपाधापी। सामाजिक अन्याय और कुरीतियों को विजित कर पाने की जिजीविषा। सभी अंधेरो को पराजित करने की कामना ही तो है। सच कहें तो ये सारा संघर्ष केवल अंधेरे का नाश कर उजाले की एक आशान्वित किरण की। आलोक की तलाश ही तो है। वह अंधेरा चाहे मन का हो या जीवन का। यहां पर पाठक चमत्कृत हो उठता है। 

गीतकार अरूण तिवारी जी की संवेदना मानवता के उच्च शिखरपर आसीन उस करूण बिन्दु को भी छूती है जहाँ देश के भूमिपुत्रों की पीडा उनका अपना दर्द बन जाता है। उनका जीवन संघर्ष। उनकी व्यथा कथा। उनके अभाव सभी उनके भावुक हृदय को संस्पर्श करते हैं-- 
दिल्ली केवल चीख रही है
बंद करे है कान
कितना कितना कितना बेबस
धरती का भगवान  

हम सबने मेहनत जीवी किसानों का संघर्ष देखा है। उनके मन का संताप। पीड़ा। जीवन संघर्ष की चुनौतियो को महसूस किया है और प्रत्यक्षदर्शी रहें हैं सत्ता के आगे अपने ही अधिकारों के लिए विनत होने के दृश्य, जो मन को गहराई तक छू लेते हैं।   

फसल बचे पर घर की फसलों को कब तक दाँव लगाए। 
माँ है धरती, फट जाए, ये आसमान गिर जाए 
रात चिलम पी, यों बर्राया, 
सुबह निकल गये प्रान।    

कुछ गीत जो सीधे सीधे आत्मा को स्पर्श करते हैं-
पाँव के नीचे नभ कर उम्र की नन्हीं लहर में तैराएँ
जीवन का अमरत्व मौत को अपने आंगन नचवाएँ
चुटकी में सिर पर चिंता का मेरू लिए गाती जाने
फिर माँ के आँचल में कच्चे दूधों में मुसकायेगी
गीत नहीं ये रस गीता है
बीच समर में गायेगी

बेहद संवेदनशील पंक्तियाँ हैं, जीवन की आपाधापी में जूझते नारी मन की वेदना बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत हुई है, भावुक हृदय कवि ने नारी अस्मिता और गरिमा को समर्पित की है  
घर की सीता को बलायें, पूजते बाहर शिलाएँ 
घर में रावण। राम बाहर
तारो शबरी अहिल्याएँ। 

समाज में महिलाओ की स्थिति। उनके साथ अन्याय अत्याचार की दर्द भरी कहानियाँ हमारे आसपास साँसें लेती हैं। कभी उन्हे न्याय मिलता है तो कभी मृत्यु। न जाने कितनी अहिल्याएँ। आज भी समाज में उपेक्षित। अपमानित। बहिष्कृत जीवन जी रही हैं। उनका उद्धार करने क्या राम आएँगे? कवि का भावुक मन इससे अछूता नहीं रहता। राम को आना ही होगा। राम जन जन के प्राणों में बसे हैं, राम ही तारक हैं, उद्धारक हैं। उनकी पंक्तियों में वर्णित राम की परिकल्पना मानवता के संरक्षक की है। जिसका वे आवाहन करते हैं। --- साँस साँस राम की है। सृष्टि दृष्टि राम राम। सिया मन से छुओ तो तृण तृण राम हैं। 


यह रचना हमें बताती है कि जीवन में मानवता सबसे बड़ा धर्म है, जहाँ कोई आडंबर, प्रदर्शन की जगह नहीं होती, बल्कि सादगी और सच्चाई ही उसे महान बनाती है, जीवन के गहरे अंधेरे से निकल कर उम्मीद की एक किरण तलाशती गीतकार अरूण जी की रचनाए नारी विमर्श को एक नया आयाम देती है  और सहसा फिर एक दिन अचानक, आंसुओं के पीछे, मुस्कान खिल आई, अभी अभी तो गम के साए थे, ये कहाँ से आई  निराशा के बीच आशा का संदेश देती यह रचना, एक नया मार्ग, एक नई दिशा की ओर इंगित करती है, जहाँ नारी मुक्ति की सांस ले सकें, आज स्त्री घर आंगन से बाहर निकल कर अपने लिए खुले आसमान की चाह रखने लगी है, अन्ध परंपराओं की बेड़ियों से आजाद होना चाहती है, जिसे गौरैया के माध्यम से बखूबी एक आवाज मिली है-- 
हर उत्सव अम्मां के गीतों अपनें संग नाची
संस्कति की सहिदानी थामें सच्ची रानी है
घर की अमरौती की सदा मनौती मानी है
आओ चलें मनाने वह पुरखों की रानी है
घर की सीता बिटिया है

उनके गीत समाज से, और अपने आप से कलम को अपना सशक्त, सक्षम हथियार बनाकर समय की दहलीज पर लिखे गए अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं-  
तब सृजनशील भूख अपने ही लहू में स्वाद ले 
सृजनधर्मी मूर्ति खुद का तोडती पत्थर
आतमहंता नर

देश की वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में प्रेम, शांति और भाईचारे का संदेश देती हुई अरूण जी की भावपूर्ण पंक्तियाँ मानवता के नाम एक सुखद संदेश है --
आला हूँ मैं दीवाली का
रोशनी हूँ उसकी जान हूँ
बूढ़ी संस्कृति का हामिद हूँ
गीता लिए कुरान हूँ
मैं पूरा हिंदुस्तान हूँ

बहुत सी भावनात्मक मन को झकझोर देने वाली स्थितियाँ हैं जिन्होने भावप्रवण गीतकार अरूण जी की रचनाधर्मिता में उनकी आवाज बनाकर सृजन को एक आयाम दिया है। कभी प्रेम। कभी हर्ष विराग। वेदना आक्रोश से जूझती। प्रतिकार करती कलम निरंतर आगे बढ़ी है। 

कवि के मन दर्पण में अंकित, यह प्रेम शाश्वत है, चिरंतन है, कभी मन, कभी समाज, कभी जीवन में विविध रुपों में प्रस्फुटित होता है, तब सुखद बयार सी अनुभूति होती है जैसे कि। चन्दन की सुगंध सी अनुभूति मन- प्राणों को सुवासित कर जाती है। एक अव्यक्त भावना है जो पथ प्रदर्शक भी है। और सार्थक भी। 

तेरी साँसें छू लें तो हम चंदन हो जाएँ
जग के सभी अपावन फिकरे वंदन हो जाएँ
आँसू चितवन से दुलरा दो। 

जन्मों के अभिशाप अभी अभिनंदन हो जाएँ। जीवन में प्रेम एक अहसास है, एक खूबसूरत अभिव्यक्ति उसे जीवंत बनाती है, एक अकेले सारस मन का रोना कौन सुने। 

अगर सुनो तो साँसों तक तुमको ही गाएँ
हम चंदन हो जाएँ। 

प्रबुद्ध, संवेदनशील कवि द्वारा रचित ये नवगीत जीवन का भोगा हुआ यथार्थ हैं, जहाँ प्रेम भी है, तो जिजीविषा भी और वेदना का गान है तो आने वाले भविष्य की ओर निहारती आशावादी उम्मीदें भी है, जो जीवन की उर्जा है, उसे चुनौतियों की जंग में हारने नहीं देती, उनकी कलम बेबाक हो सृजन करती है  हम दिये के गीत हैं-
मिल प्यार से संसार भर लें 
गर कमाई चाहते हैं और ही व्यापार कर लें 

तभी तो स्वय भावप्रवण गीतकार अरुण जी अपने सृजन के संदर्भ में कहते हैं --  भावुक सृष्टि में। संवेदना की ऐसी लगन में वैयक्तिक कल्पना अपनी अहंकार। विवशता के लिए त्रिशंकु मन हेतु नयी समानांतर सृष्टि के उन्मीलन में जिस तरह से आज मरता क्या न करता  को सृष्टा भाव से विरचित करता है। उसमें मेरे जैसा  शव भी शिव -सृजन का संकल्पजीवी समझ ले तो।   

मैने इस पुस्तक को पढते समय गीतों में निहित मार्मिक अनुभूतियों, और गहन संवेदना बोध को महसूस किया है, और यह भी कि जब घर आँगन, परंपराओं, संघर्षों के दायरे से बाहर निकल कर कलम बोलती है तो बखूबी अपने अस्तित्व को स्थापित कर पाने में सफल होती है, एक सार्थक सृजन और भावनाओं के खुले आकाश में जगमग सूर्य की‌ तरह खिल उठती है अभिव्यक्ति। 

मैं इन सृजन धर्मा, संवेदना के उच्च शिखर को छू लेने वाले गीतो के नाम समर्पित साधना, और चिंतन की हर उस भावना का अभिनंदन करती हूँ। जो मानवीय अनुभूतियों में प्रेम, करूणा, सौंदर्य के अनुराग का रंग घोलती हैं। -

निभ कहाँ पाये तुम्हारे दो वचन। 
डबडबाये फिर नहाये दो नयन 
बिन पढे जो पत्र लौटाये बरोठे पार। 
रोज आँखें डूबने के तट हुए हैं। 

भाव और भाषा के शिल्प में मौजूद ताजगी मन को शीतल ताजी बयार का अहसास कराती है। कहते हैं कि रचना में रचनाकार का व्यक्तित्व समाहित होता है। इस कृति के संबंध में भी यही कहा जा सकता है कि गीतकार अरुण जी की सहज स्वाभाविक विनम्रता। संवेदनशील भावुकता उनकी रचनाओं की प्राण है। जो सर्वत्र परिलक्षित होती है -अपने समय की नब्ज को उन्होने पहचाना है। आस पास के परिवेश में पनपती। पलती बढ़ती राजनीति। और संस्कति तथा समाज में व्याप्त पतन और मानवीय गरिमा के ह्रास को उन्होने गहराई से अनुभव किया है। जीवन के उत्थान पतन, हर्ष विषाद की कटु अनुभूतियों को एक सबक के रुप में स्वीकार कर अपने गीतों को ही संबल बनाया। और जीवन के रण में विजयी होते रहे  डूब जाते। 

गीत ही केवट हुए हैं  यह विशिष्ट कृति साहित्यिक परिवेश में एक सार्थक, उम्मीद जगाती हुई, प्रतिनिधि रचना है गीत -संसार में। भावनाओ के विस्तृत आकाश में ध्रुवतारे की तरह अंकित। जैसा कि वरिष्ठ साहित्यकार कमल किशोर श्रमिक जी ने इस पुस्तक में लिखा है  मुहावरेदार भाषा में लिखे उनके गीत केवल समाज का दर्पण नहीं हैं। बल्कि आईने को आईना दिखाने वाले संज्ञानात्मक ज्ञान की संज्ञा दी। है। 

इस पुस्तक को पढना जीवन के विविध अनुभवो के दौर से गुजरना है। न जाने कितने आँसू। दर्द। पीड़ा और छोटी छोटी खुशियों को जीता हुआ कोई कवि सृजन पाता है। एक पाठकीय सुख की भी अनुभूति होती है जब कवि की पीड़ा और उसके दर्द की भावनाएँ पाठक के मन को स्पर्श करती हैं। अपनी पुस्तक में उन्होंने आत्म स्वीकृति दी है -- एक गीतकार की यही छली हुई भावुकता जीवन संघर्ष में साथ जूझते लाठी को ही तो बाँसुरी बनाना चाहती है। हर जीवन मौलिक रूप से आदिम शुरूआत करते हुए श्रम में थके विरोचनकारी अस्फुटों को ऐसे लोकगीत में बदलन चाहता है। जिसे सब अपना समझकर सामूहिक रूप से गायें   

कवि नीरज कानपुर शहर की जान थे, कवि नीरज से प्रभावित होना स्वाभाविक है। गीत चाहे नीरज पर लिखे गए हों या कुंअर बेचैन पर एक मार्मिक भावबोध अनायास उनकी लेखनी में उतर आया है। कुछ उल्लेखनीय गीत ओ बडी अम्मा। मैं हो न सका राम। कामायनी तुम हृदय में गहरे अंकित होकर अपनी छाप छोड जाते हैं। समग्र रूप से यह पुस्तक हिंदी साहित्य के विस्तृत संसार में एक मील का पत्थर है, संग्रहणीय है, पठनीय है। गीतों की यह सृजन यात्रा सतत चलती रहे, अविराम, अविचल, मानवता के शिखरों पर मानवीय अनुभूतियों और संवेदना के लक्ष्य को पा लेने तक।
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नवगीत संग्रह- गीत ही केवट हुए हैं, रचनाकार- अरुण तिवारी गोपाल, प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०२३, मूल्य- २०० रु. , पृष्ठ-१५१  , परिचय- पद्मा मिश्रा


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