शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

जीवन का गुणा भाग- राजा अवस्थी

"जीवन का गुणा भाग" कवि राजा अवस्थी का सद्यः प्रकाशित नवगीत- कविता संग्रह है। यह उनका दूसरा गीतसंग्रह है इसके पहले "जिस जगह यह नाव "उनका गीतसंग्रह प्रकाशित हो चुका है काफी चर्चित रहा। इसके अलावा लगभग सभी चर्चित समवेत गीत संकलनों में राजा अवस्थी के नवगीत प्रकाशित हुए हैं।

इधर के वर्षों में नवगीत को समकालीन गीत या केवल गीत के रूप में अभिहित करने का चलन शुरू हुआ है, राजा अवस्थी ने अपने इस संकलन को नवगीत- कविता कह कर एक नई पहचान दी है, जो सर्वथा उचित है क्योंकि नवगीत भी हिंदी कविता धारा की शाखा है।

राजा अवस्थी के  गीतों को पढ़ते हुए  यदि उनकी काव्यप्रवृत्ति की सघन पड़ताल की जाय तो उसके केंद्र में है दुखबोध व अमर्षबोध। राजा अवस्थी के इस दुखबोध का निर्माण उनके निजी दुःख से नही वरन औसत आम आदमी की चिंताओं, विवशताओं, चुनौतियों व संघर्षों के दारुण दुःख से उपजा सामूहिक दुःख बोध है, आज की व्यवस्था की संवेदनहीनता, सत्ता की निर्ममता, व सामाजिक संस्थाओं की विफलता के चलते जो असंगतियाँ व विसंगतियाँ हैं, जिनके चलते आज आम आदमी की जिंदगी दुश्वारियों से भरी हुई है उन सबके प्रति राजा अवस्थी के मन मे गहरा अमर्ष है, अपने इसी अमर्ष- बोध के चलते वे लगातार आह्वान करते दिखते हैं व एक सामूहिक शक्ति के रूप में इनका प्रतिकार करने का बार बार प्रस्ताव रखते हैं। राजा अवस्थी के गीतों का बहुलांश गाँव से कई  स्तरों पर सम्वाद करता है, वे नगरीय या कस्बाई चेतना के नहीं वरन ग्राम चेतना के कवि हैं, उनके गीतों में गाँव को लेकर मधु स्मृतियाँ हैं व आज के बदले हुए गाँव को लेकर गहरा क्षोभ भी है। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी गाँवो में अवस्थापना सुविधाओं का अकाल है, जिससे लगातार वहां से पलायन आज भी जारी है, खेत बंजर पड़े हैं व खेतिहर मजदूर शहर के मिल कारखानों की  भठ्ठियों में लोहे के साथ गल रहे हैं, गाँव से यह विस्थापन कई स्तरों पर है, कुछ महत्वाकांक्षा के चलते तो कुछ पेट पालने के लिए विस्थापित होने को विवश हैं, इन गीतों में गाँव में पसर रही कस्बाई संस्कृति व राजनीतिक छल- छद्म की बड़ी सघन पड़ताल हुई है। राजा अवस्थी के गीतों में आज के गाँव का वास्तविक पता मिलता है।  

राजा अवस्थी को अपनी परम्परा का सम्यक ज्ञान है, उनमे गहन इतिहास बोध है, वे अपनी परम्परा से प्राप्त मिथकों, प्रतीकों व विश्वासों को अपने गीतों में चरितार्थ ही नहीं करते बल्कि उनका अपने समकालीन सन्दर्भों में पुनर्पाठ भी करते हैं- गेय होना गीत के लिए अनिवार्य शर्त है जो गेय नहीं है वह गीत कदापि नहीं हो सकता।" गीतं शाब्दितगानयोः (हेमचन्द्र), "गीतं गाननिमे समे"(अमरकोश) की उक्तियाँ यही संकेत देती हैं। आज के तमाम गीतकार अपने गीतों में विचार आयत्त करने के नाम पर गीत की गेयता के सन्दर्भ में सुविधा प्राप्त करते हैं जिससे गीत अगीत हो जाते हैं। राजा अवस्थी ने अपने समकालीन गीत -कवियों के समक्ष इन गीतों के माध्यम से एक रचनात्मक चुनौती भी प्रस्तुत की है कि अपने गीतों में वैचारिकी सक्रिय रखते हुए अपने समकालीन जीवन परिसर से गीत के लय-विधान से बिना छेड़छाड़ किये भी सार्थक सम्वाद किया जा सकता है।

राजा अवस्थी की काव्य- भाषा में लोकजीवन की शब्दावली की प्रचुरता उनकी लोकज्ञता व लोक संपृक्ति का परिचय देती है, साथ ही वे इतिहास के गहरे तल में प्रवेश कर मिथकों, व प्रतीकों की खोज कर अपने गीतों में उनका प्रयोग करते हैं, व हमारे दैनिन्दिन कार्य-व्यहार में प्रयुक्त लोक शब्दावली का सूक्ष्म अन्वेषण कर उसे अपने गीतों में आयत्त करते हैं, उनकी यह समावेशी भाषा राजा अवस्थी के कहने की शक्ति बढ़ाती है, उनकी यह भाषा जितना कहती है उससे अधिक देखती है, इन गीतों को पढ़ते हुए हमारे देखने की शक्ति बढ़ती है इन अर्थों में ये दृष्टिवर्ती रचनाएँ हैं।

राजा अवस्थी के गीतों की कथन भंगिमा वक्रोक्ति की है, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानने वाले आचार्य कुंतक ने कहा है- "वक्रोक्ति काव्यजीवनम"- वे आगे कहते हैं - "वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यम भंगी-भनितिरुच्यते" अर्थात वक्रोक्ति कवि- कर्म की कुशलता से उत्पन्न चमत्कारपूर्ण कथन- प्रहार है। अपने समय- समाज की विसंगतियों के सन्दर्भ में राजा अवस्थी इसी कथन- प्रहार का उपयोग करते हैं, प्रकृति के शाश्वत प्रतीकों में बिम्ब आरोपित कर सर्वथा नए अर्थ अवगाहन की संभावना बढाते हैं- वे कहते हैं- छाँव की नदी/ आग लिए बैठी है/ छाँव की नदी। नरभक्षी सिंह हुये/ सिंहासन के सारे/ किससे फरियाद करें/ राजा जी के मारे/ धर्मराज चौसर का /शौक पुनः पाले हैं/ कंठ से प्रवाहमान दाँव की नदी"

आज के जीवन सन्दर्भों का सटीक काव्यांकन करती ये गीत- पंक्तियाँ एक साथ सांस्कृतिक विचलन, लोकतांत्रिक मूल्य क्षरण व सत्ता की शोषक प्रवृत्ति का भाष्य करती हैं, नदी संस्कृति की प्रतीक होती है, आज की नव संस्कृति की नदी अपने अन्तस् में आग की ज्वाला लिए बैठी है, सत्ता ही शोषक हो चुकी है, और फरियाद भी उन्हीं से करनी है जो खुद अत्याचार के कर्ता हैं और परम्परा से प्राप्त धर्मराज के प्रतीक का समकालीन सन्दर्भों में उसका पुनर्पाठ करते हुए यह सन्देश है कि धर्म- संस्कृति- सद्गुण की प्रतीक संस्थाएँ पथ विचलित हो चुकी हैं, कवि की पीड़ा यहीं खत्म नहीं होती बल्कि वह जिस वाक शक्ति का खुद प्रवक्ता है उसे भी लेकर वह अब आश्वस्त नहीं है कि कंठ से निःसृत वाक की नदी भी अब दाँव-पेंच की रेत में उलझ गयी है, आज के औसत आम आदमी के दुर्निवार दुखों का भाष्य करता यह गीत राजा अवस्थी के यातनापूर्ण विवेक व उनके नैतिक आक्रोश को व्यक्त करता है। भयंकर तनावों और अमानवीकरण की शक्तियों के विरुध्द वे आह्वान करते हैं-- सूरज की बस्ती में सत्ता/ वैसे ही प्रकाश की होगी/ आओ अंधियारे पृष्ठों पर सूरज की किरणें लिखते हैं

मार्टिन ब्युबर ने कविता से यह अपेक्षा की है कि वह अधिक तीव्रता से उस प्रतिरोध को व्यक्त करे जो कि सामूहिक अकेलेपन के विरुद्ध होता है, और वही सबसे आत्मीयप्रतिरोध होता है, इन पंक्तियों में " आओ अंधियारे पृष्ठों पर सूरज की किरणें लिखते हैं" का जो सामूहिक प्रयास के लिए आह्वान है उसी का टीएस इलियट  अपने काव्य के निरवैयिक्ता के सिद्धांत में प्रतिपादन करता है, मैथ्यू आर्नल्ड इसी सामूहिक प्रयास बोध को सर्वोत्तम चिंतन मानते हुए कहता है "संसार मे जो भी सर्वोत्तम चिंतन व ज्ञान है उसके अधिगम एवं प्रचार का निस्संग प्रयास है"

राजा अवस्थी चूँकि मूलतः ग्राम चेतना के कवि हैं अतः उनको सबसे अधिक भरोसा गाँव के परिसर से ही है अतः वे अपने  आह्वान - स्वर को गाँव के लिए कुछ इस तरह केंद्रित करते हैं- ज़िंदगी का मृत्यु पर/ अंकुर पुनः फूटे/ सृजन के उल्लास का झरना/ झरे छूटे/मादलों पर / थाप देने को उठें फिर ग्राम

इन पंक्तियों में कवि जिस उल्लास के झरने के" झरने व छूटने" की ओर संकेत करता है दरअसल उसका अमर्ष उन सभी कारकों के प्रति है जिनके चलते जीवन- निर्झर का सहज प्रवाह बाधित हुआ और जो मनुष्यता के पांव की बेड़ियाँ सरीखे हैं। गाँव मादलों पर थाप देने की उत्सवधर्मी मनोदशा में क्यों नहीं रह गया है, इसका उत्तर अगले गीत की ये पंक्तियाँ देती हैं- कुएँ का पानी/रसातल की तरफ जाने लगा/ खाद ऐसा भूमि की ही उर्वरा खाने लगाइसी की शिनाख्त ये पंक्तियाँ कुछ इस तरह करती हैं- पूरा गाँव लिए आँखों में/ भाई लाल मिला/  तोड़ दिए चौंतरे द्वार के/ नीम हरी थी, काटी? बरगद बोंसाई कर डाला/ शाखाएँ सब छाँटी / नहीं लबालब फिर से वैसा हमको ताल मिला

ये गाँव का दृश्यालेख गाँव की बदहाली से परिचित तो कराता ही है साथ ही प्रकारांतर से गाँव में पसर रही नव नगरीय व कस्बाई संस्कृति की ओर भी संकेत करता है, जो बरगद के विशाल वृक्ष को बोंसाई में तब्दील कर रही है। बरगद घनी छाँव, चौपाल, विचार विनिमय के चबूतरे, पंक्षियों के बसेरे के रूप में अपनी एक सांस्कृतिक पहचान रखता है, कवि ने उसके बोंसाई हो जाने  का जिक्र कर  पसर रही नवग्राम सभ्यता के प्रति सतर्क भी किया है। 

राजा अवस्थी का गहन परम्परा बोध उनकी काव्यप्रवृत्ति की सबसे विश्वसनीय ताकत है। टीएस इलियट ने अपने विश्व प्रसिद्ध निबंध "ट्रेडिशन एंड इंडीविजुअल टैलेंट"  में कवि के लिए व्यक्तिगत प्रज्ञा की अपेक्षा उसमें परम्पराबोध को अधिक महत्व दिया है, राजा अवस्थी परम्परा से प्राप्त अनुभवों, प्रतीकों, मिथकों, आख्यानों, विश्वासों से संवाद भी करते हैं व उनका अपने समकालीन संदर्भों में पुनर्पाठ भी करते हैं इस उपक्रम में वे अपने गुजरे वक्त से अपने वर्तमान के बीच एक पुल बनाते हैं-- इस सन्दर्भ की गीत पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-- हस्तिनापुर में पितामह/ आजकल किस हाल होंगे/ उन दिनों से चित्र शायद/ आजकल भी विकराल होंगे" कर में अश्वों की वल्गाएँ/ या फिर चक्रित चक्र सुदर्शन/महलों में रुक्मिणी सशंकित/  बरसाने राधा का मन"

भामह कहते हैं "शब्दार्थो सहितो काव्यम गद्यम-पद्यम च तत् द्विधा" उनके अनुसार शब्द और अर्थ का सह भाव ही काव्य है।" काव्य में शब्द व अर्थ के सहभाव के रिश्तों में अभिधामूला व लक्षणामूला- ध्वनि का विशेष महत्व है, प्रेम जीवन का मूल तत्त्व है, व इस उपभोक्तावादी नव सभ्यता में प्रेम के लिए बहुत कम जगह बची है, इस सन्दर्भ में ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- कब तक और कबीर बने
घर फूँके अपना/ मीरा अब भूल चुकी हैं/ बैरागी सपना / प्रेम- बेलि अब और उगाई/ हमसे नहीं गई

इन गीत- पँक्तियों में अभिधामूला ध्वनि का अर्थ है कि कबीर बन कर कब तक घर फूँका जाय, मीरा प्रेम के वैराग्य का स्वप्न भूल चुकी हैं, अतः हमसे प्रेम की पौध नही लगाई जा सकी। लेकिन इन गीत पँक्तियों का निहितार्थ लक्षणामूला ध्वनि से निःसृत होता है, जिसमें वाच्यार्थ की विवक्षा नहीं रहती, अर्थात इसमे वाच्यार्थ का बाध होने के कारण उसका उपयोग नहीं होता, इसमें अर्थान्तर -संक्रमित- वाच्यध्वनि में वाच्यार्थ- अर्थान्तर संक्रमित हो जाता है, वाच्यार्थ  का सर्वथा तिरस्कार  होता है। ये गीत पंक्तियाँ अर्थान्तर -संक्रमित वाच्यध्वनि की उदाहरण हैं-- इसमे प्रेम के सिमटते जा रहे परिसर के प्रति अमर्ष, खीज व उपालम्भ का केंद्रीय स्वर है, प्रकारान्तर से आज के समय के लिए प्रेम की महत्ता को महसूस करते हुए यह कहने का उपक्रम है कि चाहे लाख उन्नति कर ले, चालाकी सीख ले यह दुनिया लेकिन अंत मे प्रेम ही बचाएगा इसे व अंत मे प्रेम ही बचेगा इस दुनिया मे। अतः जितनी जल्दी हो सके हमें प्रेम की बेलि रोप देना चाहिए।

राजा अवस्थी रिश्तों के बीच छीज रही सम्वेदना से चिंतित कवि हैं, उनके यहाँ रिश्तों के मूल्यबोध की सम्वेदना बड़े गहरे तलों तक है, प्रकृति से, समाज से, ऋतुओं से, माता, पिता सहित जहां कहीं से आदमी का रिश्ता बनता है वे उसे बनाये रखना चाहते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि रिश्ते आत्मा की जरूरत होते हैं। पिता के सम्बंध में उनके  इस गीत में यह प्रभासित होता है- अपने ही खेतों के सौदे करते पिता/  बच्चों की खुशियाँ बन अक्सर/ झरते पिता"

कभी न दी तरजीह मस्तमन/ साधभोज कराए/ झक्क सफेदी वाले कपड़े/ रामानन्दी डांटी/ जीवन भर ज़मीन जर बेंची/ कुछ खर्ची कुछ बाँटी/बात बात में/ अम्मा जी से/ रूठे रहे पिता।

मिलान कुंदेरा  के एक पद का उपयोग करें जो साहित्य की रेडिकल स्वायत्तता का है- जिसमें साहित्य और राजनीति, साहित्य और समाज परावलम्बी तो हैं पर आत्मप्रतिष्ठ भी- वे सभी एक मूल्य- विस्तार से जाँचे परखे जाते हैं और जिनके बीच कोई वर्ण व्यवस्था नहीं है। यह रेडिकल स्वायत्तता अगर साहित्य को राजनीति से जाँचे जाने का अवकाश देती है तो राजनीति के साहित्य द्वारा परखे जाने का भी।इस रेडिकल स्वायत्तता के रहते साहित्य साहित्य न तो राजनीति से मुंह फेर सकता है और न जीवन विमुख हो सकता है। राजा अवस्थी की ये गीत - पंक्तियाँ इन अर्थों में दृष्टव्य हैं

लोकतंत्र बेधड़क/ लोक की चिंता छोड़ी/ हंटर तंत्र हाथ में/ जनता बेबस घोड़ी"
राजनीति की आवाजाही/ सारा गाँव बिगाड़े बैठी/ दल के ऐसे दलदल सिरजे/ चैन शांति की हिरनी ऐंठी

राजा अवस्थी ने हमारे समय के इन गीतों में सार्वजनिक और राजनैतिक विचारों का पुनर्वास किया है, हालाँकि वे जरूरत पड़ने पर "रिटौरिक" का इस्तेमाल  भी करते हैं, उनकी भाषा सूक्ष्म, समृध्द और निजी भाषा है। राजा अवस्थी असीमित मानवीय प्रतिबद्धता के कृतिकार हैं, उनके गीतों में हमेशा मार्मिक तात्कालिकता बनी रहती है। ये गीत मानवीय सम्बन्धों की असंख्य विकृतियों के बीच भी अपनी जिजीविषा और प्रकारन्तर से अपने मानवीय होने में अटल व अक्षत विश्वास रखते हैं।ये गीत सर्वग्रासी शक्तियों के बरख्स अपनी बुनियादी मानवीयता बनाये रखने का आश्वासन देते हैं तथा  इस दहशत भरे समय मे उम्मीद जगाने का कुछ इस तरह उपक्रम करते हैं- उम्मीदें जीवित /रहने दो/ उम्मीदों ने सदा उबारा/ इनमें रक्षित है उजियारा

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नवगीत संग्रह-जीवन का गुणा भाग, रचनाकार- राजा अवस्थी, प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०२१, मूल्य- २०० रु. , पृष्ठ- १२८, परिचय- श्रीधर मिश्र, ISBN:978-93-91081-78-2

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