शनिवार, 1 जुलाई 2023

फटी हुई बनियान- मुकेश कुमार मिश्र

वर्तमान समाज में विसंगतियों और बिडंबनाओं से उपजी कुंठाओं एवं संत्रासो को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यंजित करते हुए मानवीय मूल्यों की पक्षधरता को प्राणवान करना नवगीत का एक प्रमुख तत्व माना गया है। जिसे लोक-धर्मिता या जन-धर्मिता की संवेदनशीलता का प्रतिरोधात्मक रूप भी कह सकते हैं, जो नवगीत विधा का प्राणवान और ऊर्जावान कथ्य का प्रमुख अंग होता है। 

इस संग्रह में हम देखते हैं कि नवोदित नवगीतकार मुकेश कुमार मिश्र ने अपने समकालीन नवगीतकारों से प्रभावित होकर ही ’फटी बनियान’ नवगीत संग्रह को प्रकाशित कराया है। प्रथम दृष्टया यह संग्रह समाज के समानांतर उपयोग में आने वाली दैनिक वस्तुओं/यंत्रों से संबंधित नए–नए विषयों को चिह्नित करके रचा गया है। जिनके शीर्षक अपनी उपयोगिता के आधार पर बहुत ही आकर्षक और प्रभावशाली हैं। जैसे– पुरानी पैंट का झोला, बर्गर–चाउमीन, आग उगलते नल, कम्बल, भ्रष्टाचार, दादा की पेंशन, सिसक रहा लोटा, पंखे से संवाद, टायर, बल्ब, ज़ुकाम, अलमारी, छोटा सा चम्मच, चौकी का दीवान, ए सी का व्यवहार, वृक्ष, गर्मा गर्म डिबेट, कूड़े की गाड़ी, धरती की दुर्गति और सबसे आकर्षक तो इस संग्रह का शीर्षक ’फटी बनियान’ ही है, जिसने अपने इतिहास से लेकर आधुनिक समय तक की सभी अवस्थाओं को बड़ी संवेदना के साथ क्रूर व्यवस्थाओं को प्रमाणित कर दिया है। इस नवगीत की कुछ पंक्तियाँ देखें –

”ऐसे पोछा नहीं बनी है
फटी हुई बनियान
अलग तरह का ही जलवा था
जब थी नई नई
मंहगें कपड़ों से भी पहले
पहनी वही गई
सदा बुलंदी पर रहती क्या?
किसी व्यक्ति की शान।
युवा अवस्था में हाथों को
माना काम नहीं
जीवन के अन्तिम क्षण में भी
आराम नहीं
थके हुए बूढ़े लोगों का
बचा कहाँ सम्मान!” (पृष्ठ–१२)

आज का लोकतंत्र बस नुमाइश की चीज बनकर रह गई है। रचनाकर खुद लोकतांत्रिक व्यवस्था से किस प्रकार आहत है, आप स्वयं इस नवगीत का अवलोकन करिए..

”लोकतंत्र आ जाने से 
सब काम हुआ आसान
जब चाहें तब कर सकते हैं
सड़क रेल सब जाम
किसी जीभ पर नहीं दिखाई
देती कहीं लगाम
यत्र तत्र सर्वत्र थूकना
खा कर गुटखा–पान।” पृष्ठ–१५

आज भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व का लोक तंत्र अपनी  दिशा से भटक गया है, जिसे नई दिशा देने के लिए इस बिम्ब के माध्यम से आलोकित किया गया है–

”सज्जन को तो दिया नहीं है
कभी आपने वोट
फिर क्यों चिल्लाते फिरते जब
मिलती उनसे चोट
ऐसे मन–बढ़ नहीं हुए हैं
बिगड़े नेतागण।
वर्तमान बीते पल का
माँग रहा विवरण।।” पृष्ठ–१६

युवा, वय और बुजुर्गों के साथ ही साथ आज का नवनिहाल भी प्रगतिवादी विसंगतियों से दुःखी और चिंतित दिखाई देता है। प्राइमरी स्कूल के बच्चों का दर्द और अभिभावकों की किंकर्तव्य विमूढ़ता का स्वर इस गीत के माध्यम से मुखरित हुआ है। 

"जिन कंधों पर  शोभा देते हैं
केवल बस्ते
नहीं पता था हो सकते वे
इतने भी सस्ते

इन कांधों पर लाद लाद कर 
बचपन ढोया है
क्या क्या पाया है जीवन में
क्या क्या खोया है” पृष्ठ–१४

इन नवगीतों में जहाँ एक ओर सामाजिक विसंगतियाँ हैं, हास्य–व्यंग्य हैं। वहीं दूसरी ओर प्रकृति और पर्यावरण का अतिशय दोहन से उपजे जीवन की विकृतियाँ और संक्रमण रोग सकल विश्व के समाज को पंगु और लाचार बनाते जा रहे हैं–

”हर दिन हर पल साथ समय के
बदला पैमाना
आज सुपर हिट हो जाता है
गूंगे का गाना

वही बड़ा कहलाता जिस पर
लाखों लाख उधार
पता नहीं है कैसे सबका
बदल गया व्यवहार।।” पृष्ठ–३५

आज के समाज की विद्रूप, विसंगतियाँ और दुश्वारियाँ मुकेश के नवगीतों में जीवन्त देखने को मिल जाती हैं। झूठ, चोरी, भ्रष्टाचार और बेईमानी ने इस समाज को बिना संवेदना और प्राण के बीथियों में भटकने को छोड़ दिया है। समाज की यह कुरूपता शासन, प्रशासन और इसके जिम्मेदारों को नहीं दिखती है किन्तु यह विषमता आपकी पैनी दृष्टि से नहीं बच नहीं पाती है और समाज को धिक्कारते हुए जन–जागरण करते दिखाई देते हैं। 

”काम निकलते ही बल्बों को
बुझा दिया जाता

किसी पथिक को अंधियारे में
लगे न किंचित डर
इसीलिए जलते रहते हैं
ये उनके पथ पर
राह दिखाने वाला किसको
इस युग में भाता।” पृष्ठ–५४

संग्रह की रचनाओं में कथ्य की सपाट बयानबाजी प्रभावी होने के कारण व्यंजनाओं की मारक शक्ति उतनी नहीं दिखाई देती, परंतु रचनाकार की दृष्टि भावनाओं से पुष्ट, रोचकता से भरपूर और सराहनीय हैं।

आपके नवगीतों में प्रवाहमय छंद की प्रचुरता तो है किंतु किसी किसी नवगीत में कथ्य और संदेश की प्रतिपूर्ति में संशय होने के कारण नवगीत समाप्त हो जाने के बाद भी पाठक/श्रोताओं को कुछ अधिक पाने की उत्सुकता बनी रहती है, इसे नवगीत की सफलता के रूप में भी देखा जा सकता है। 

आपने नवगीतों की लय, प्रभावोत्पादकता, रोचकता और प्रवाहमयता को बनाए रखने के लिए कठिन शब्दों के स्थान पर देशज/बोलचाल के शब्दों का प्रयोग बहुत ही कोमलता से किया है जो इसे हिन्दी भाषा की मूल संस्कृति से जोड़े रखने में सफल भी है। आपकी भाषा को सरल, सुबोध, व्याख्यात्मक और चेतना जाग्रत करने वाले आग्रह के रूप में देखा जा सकता है। कुल मिलाकर मुकेश कुमार मिश्र का यह प्रथम नवगीत संग्रह “फटी हुई बनियान” बहुत ही रोचक, आशान्वित करने वाला और पठनीय है। इस सुंदर और सफल प्रयास पर हार्दिक शुभकामनाओं सहित बहुत बहुत आशीर्वाद।

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नवगीत संग्रह-फटी हुई बनिया, रचनाकार- मुकेश कुमार मिश्र, प्रकाशक- अभिराम प्रकाशन,  जानकीपुरम कालोनी लखनऊ, प्रथम संस्करण-२०२२, मूल्य-२०० रु. , पृष्ठ-८० , परिचय- केवल प्रसाद सत्यम


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