मनोहर जी के अनुभवों का संसार बहुत बृहद है, जीवन के जिस पड़ाव पर आज वे हैं, वहाँ तक अनुभव अनुभूतियों की एक अक्षय राशि पूँजीभूत हो जाती है। यही उनकी रचनाओं को गाम्भीर्य भी दे रहा है, पर एक लम्बी यात्रा की थकान भी कहीं-कहीं उनकी रचनाओं में दृष्टि गत होती है।
‘टूटेंगे दर्प शिलाओं के’ मनोहर अभय जी का समकालीन गीत संकलन जो अभी कुछ दिन पहले मुझे मिला है, इसके पन्नों में मानवता की इबारत लिखी है, और प्रेम का अनहद नाद छुपा है, कुछ गीत व्यक्तिगत दुखों और तकलीफ़ों को दर्ज करते हैं, तो बहुत सारे गीत मानवीय अंतर्द्वंद के भी हैं, हाशिए का समाज बहुत शिद्दत से उभरा है इनके गीतों में।
शांति सुमन दी के शब्दों में कहना चाहूँगी” उनके गीत पिछले कई वर्षों से चर्चा के केंद्र रहे, रूमानियत और बासंती आहटों से परे इनके गीत मनुष्य की तरह बात करते हैं, और निरंतर व्यवस्था की नुकीली दुरभि संधियों अपनी मानवी शैली में प्रहार करते हैं। वह व्यवस्था को डराते नहीं, बल्कि उसके बदलाव और जन सापेक्ष होने का आवाहन करते हैं ये कच्ची नीदों वाले सपने नहीं देखते।”
मनोहर जी पारम्परिक गीत विधा के पूर्ण भारतीय संस्करण हैं,उन्हें तुलसी, शालिग्राम और चंदन, ब्रम्ह कमल आदि के प्रयोग से कोई परहेज़ नहीं, झिझक नहीं उन पर” सेकुलर” का तमग़ा लगे न लगे इसलिए उन्हें परवाह भी नहीं, बड़ी पीड़ा से वे अपनी अंतरकथा बाँचते हैं---
तिलस्मी दुनिया के दम ख़म की भी बात वे उसी मुस्तैदी से करते हैं, जिस तरह उन्होंने विरोध भाषी समय को, अपनी रचनात्मकता की मुठठी में ले कर भींचा है, उन्हें सब कुछ एक रहस्य से भरा लगता है, अनिश्चयता की इसी ऊहापोह में वे कुछ यों विकल हो जाते हैं---
और फिर कुछ उम्मीदों की साँकले भी खटखटाते हुए मनोहर जी का रचनाकार अलमस्त सा, शब्दों को टाँकता चलता है, और उसी बेख़ुदी में कभी कभी खुद को भी आँकता रहता है, फिर विकल प्रतीक्षा सुनहरे सवेरे की करते हुए आत्मलीन हो कह उठता है--
राजनीति की सीलन भरी अँधेरी गलियों से भी कुछ गिरी पड़ी परतें उखाड़ कर या चुरा कर, अपने गीत की दरो दीवार सँवारते हुए, मनोहर जी तीखे आरोपों को भी व्यंग्यात्मक लहजे में, कहते हुए रोचक और दिलचस्प बना देते हैं --
बहुत बहुत मार्मिक है, आज पर्यावरण का बिगड़ते जाना और ख़ास कर नदियों का बिगड़ैल स्वभाव, वे सूख रहीं हैं, गंद से भर रही हैं, बाढ़ या सूखे से गाँव के गाँव को विनष्ट, भ्रष्ट कर रहीं हैं, उनका कोप मनुष्यता की पीढ़ियों को तबाह कर रहा है, फिर भी मनुष्य अपना काल स्वयं अपने कपाल पर लिख रहा है, तो कोई क्या ही कर सकता है? जीवन सभी को एक अवसर देता अवश्य है, पर कोई बार बार अवसर पाकर भी समझकर भी न समझना चाहे तो क्या किया जाय? बस एक मनौती और दुआ एक मनुहार ही, तो हम नदी से कर सकते है---
“नदी हमारे गाँव होकर आना इधर
कंदीलें बुझने न पायें और न होने पाए कोई कहीं अँधेंरा सदा के लिये सुबह की अलख जगाते, विश्वास का राग अलापते, मनोहर जी यहीं कहीं शब्द रस के मनके फेरते मिलेंगे, आश्वस्ति बाँटते उजालों को---
पर्यावरण अब घातक और जीवन को लीलने वाला हो गया है,धरती आसमान सभी दुहाई दे रहें, हालात बिलकुल अच्छे नहीं हैं, रचनाकार का मन उदास हो जाता है, नील कमल मुरझाने लगे हैं, कुहरा घना हो चला है, उम्मीद के पाँव झुलस रहे हैं, ऐसे में गीतकार मनोहर जी सच को बुनते हुए जुलाहे से लगते हैं---
आज दुनिया एक अंधे कगार पर आकर टिक गई है, उस कगार से कहाँ जाना है, गिरना है, या बच जाना है कोई नहीं जानता, सब कुछ विषैला और घातक हो चुका है, बहुत से जीवन, जंतु, धरती को सदा के लिए अलविदा कहने लगे हैं। स्थिति बहुत विकट है,गहरी समझदारी और वैश्विक मनस्विता ही अब कुछ कर सकती है, इसी सम्भावना को तलाशा और रोपा जा सकता है, धरती को बचाने के सिलसिले में--
“कैसी सेंध लगाई तुमने
सूराख हुए परकोटे में
गुम्बद बैठे मरे कबूतर
उजड़े चिड़ियों के औसारे
कमर झुकी है मौलसिरी की
छूटे सभी सहारे
उलट गई ख़ुशबू की गागर आँधी के झोटे में
बची रह गई छान छपरिया
आरक्षण कोटे में”
मुद्दों की बात करने पर लोग बड़ी उलट देर करके बात को घुमाने की कोशिश करते हैं, सौ सौ क़समें खाते हैं, पर फिर भी आधे अधूरे काम भी नहीं हो पाते, आलसी और निकम्मी दुनिया के लोगों से, अब रचनाकार का जी ऊब गया है, दरअसल कोई मुद्दा बचा ही नहीं, स्वार्थ साधने के सिवा व्यक्तिगत स्तर पर पसरा हुआ सन्नाटा, दुनिया को तबाह कर रहा है, कोई भी अब खटना नहीं चाहता, बस सबको बैठे बिठाए मलाई खाने की आदत पड़ चुकी है, कार्य संस्कृति का विनाश हो रहा है, मशीनीकरण का यह सबसे बुरा दौर है, जब आदमी आदमी की संवेदनाएँ भी मशीनी हो चुकी हैं।
कवि मन सरलता की विकलता की भाव सम्पदा में जीता है, विह्वल सा हर जाता हुआ पल पुकारता है, और उसे बाँध लेना चाहता है, अपनी मुट्ठी में,पुचकारता हुआ वह रचनाकार समय के सिपाही को, आवाज़ देता है --
और अपने ह्रदय के सभी कोनों से वे आवाज़ देते हैं,कि किसी को मत रोको उन्नति के द्वार उन्मुक्त कर दो। हर हाथ को कार्य करने दो।मन को पिंजरे से खोल दो। सभी को दिशा दशा और रास्ता दो। काश ऐसा ही धरती के हर कोण पर एक जागा हुआ सवेरा हो, उजाले के हस्ताक्षर हों ,विशद और उदार जीवन सब कहीं कल्लोल कर रहा हो, अब मन का पखेरू उड़ने को तैयार है --
ये असाढ़ के बादल ही तो हैं, मनोहर जी के गीत नवगीत,पुरातन को नूतन बनाते, बंजर को हरा भरा करते, और निष्प्राण में नव प्राण फूँकते, अविलम्ब अपनी अमृत गिरा से नवोन्मेष जगाते, हृदय को प्रेम के तरल से अभिसिंचित करते, वे धरा का, आसमान का, अभिषेक करने लगते हैं, ईश्वर उनकी वाणी में जागने लगता है, और वे विश्व को जागने अपने गीतों की दुंदुभी लेकर निकल पड़ते हैं।
नवगीत संग्रह- टूटेंगे दर्प शिलाओं के, रचनाकार- डॉ. मनोहर अभय, प्रकाशक- राजश्री प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशन, नवी मुंबई, प्रथम संस्करण-२०२१, मूल्य-२०० रु. , पृष्ठ-१५८ , परिचय- डॉ. रंजना गुप्ता
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