सोमवार, 1 मई 2023

भुने हुए भुट्टे- शिवानंद सिंह सहयोगी

 
वर्तमान सदी के प्रारंभ से गीतकार शिवानंद सिंह 'सहयोगी' अनवरत नवगीत लिख रहे हैं। दर्जन से एक कम उनके नवगीत संग्रह आ चुके हैं। 'भुने हुए भुट्टे' उनका सद्य: दसवाँ नवगीत संग्रह है। 'सहयोगी' जी समय की चुनौतियों से सामना करना अच्छी तरह जानते हैं। समय के साथ चलते हुए वे अतीत, वर्तमान एवं भविष्य का तुलनात्मक विश्लेषण करते हैं। बात सत्ता की हो या लोक संवेदना की, उनकी पैनी दृष्टि जो भी देखती है, उसे शिवानन्द जी कबीर की भाषा में खरी-खरी कहते हैं। प्रतिरोध के स्वर में ग्रामीण अंचल से नए बिंब उपस्थित करते हैं।

'भुने हुए भुट्टे' की भूमिका लिखते हुए वरिष्ठ गीतकार एवं 'अग्रिमान' के कुशल संपादक डा॰ मनोहर अभय जी ने साफ-साफ कहा है कि 'शिवानन्द सिंह 'सहयोगी' ऐसे सर्जनधर्मी हैं, जिनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति में लोक जीवन का स्पंदन है और यह एक बड़ी बात है। उदात्त व्यक्तित्व का रचनाकार समग्र मनुष्यता की बात करता है। केवल शब्दों के व्यापारी होने से कोई बड़ा रचनाकार नहीं हो सकता। शब्द और कर्म का सामंजस्य आवश्यक है। व्यष्टि से समष्टि की ओर नवगीत का मूल अस्तित्व है।

बहरहाल, गीतकार शिवानन्द अपनी आत्मानुभूति में लिखते हैं 'साहित्य में सबका अपना-अपना राग है, साज है एवं समाज है' इस तरह से अनेक प्रश्न, वर्तमान साहित्य की दशा एवं दिशा पर खड़ा किया है। इनका मन कचोट रहा है। हर साहित्यकार का लिखने-पढ़ने का ढंग अलग-अलग होता है। उद्देश्य भी अलग-अलग होता है। मानस की रचना तुलसी दास ने 'स्वांत: सुखाय' के लिए किया था। कुंभन दास ने लिखा है 'संतन को कहाँ सीकरी सो काम।' कभी निराला की रचना सरस्वती पत्रिका से लौटा दी गई थी। उधर भगवती चरण वर्मा लिखते हैं 'हम दीवानों की हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले।' आज भी अच्छे साहित्यकार किसी दौर या गुट से अलग रहना चाहते हैं, बरक्स।

गीतकार शिवानन्द 'सहयोगी' जी के नवगीत समय सापेक्ष होते हैं। गीतकार ने ग्रामीण अंचल को नजदीक से देखा है। गँवई मिट्टी से गीतकार का लगाव है। शहर में रहते हुए गाँव की याद बार-बार आ रही है। शहरी जिंदगी रास नहीं आ रही है-

गाँव छोड़ा इसलिए था,
शहर में संभावना थी,
चार रोटी तो मिलेंगी,
भट्ठियों में तन तपाकर।

अब समय की धाँधली से
मन बहुत घबड़ा रहा है,
दाँत की रक्षा किया जो,
वह नहीं जबड़ा रहा है,
आँधियों के बीच आस्था
का हिमालय गल गया है,

 लौट मैं घर चल पड़ा हूँ,
भूख की गठरी उठाकर।

'सहयोगी' जी के गीतों मे शिल्प खास बात नहीं है, खास बात है कथ्य। गीतकार वक्त की मार से बेचैन है। जीवन में गेहूँ और गुलाब दोनों अनिवार्य हैं। सर्वविदित है कि भूख के आगे सब कुछ फीका लगने लगता है। यह भी जरूरी है कि पेट की भूख के बाद, मन की भूख मिटाना अनिवार्य है। कलम के जादूगर बेनीपुरीजी ने दोनों को अनिवार्य माना है। आजकल ट्रेंड चल पड़ा है कि केवल भूख, गरीबी एवं शोषण जैसे विषय पर नवगीत लिखना बड़ी उपलब्धि है। देवेन्द्र कुमार 'बंगाली' की सार्वकालिक रचना 'एक पेड़ चाँदनी' आज भी मन को छूने लगती है। शिवानन्द जी एक ईमानदार गीतकार हैं। पल-पल बदलते हुए समय की रंगत से गीतकार परेशान है। आस्था का हिमालय गल गया है। भूख की पीड़ा केवल गीतकार की नहीं, समष्टि की पीड़ा है।

शिवानन्द जी समाज मे व्याप्त रूढ़िवादिता से लगातार लड़ते रहते हैं-

सागर की नीलामी करता,
रोज समय का सूर्य,
सदा सूचना देता भू को,
बज कलरव का तूर्य,
सावन की हर धूप-छाँह का,
घन का वृंदावन।

आसमान की ऊँचाई का
मिला नहीं परिणाम
जेठ दुपहरी में पर्वत को
भून रहा है घाम
तड़पा खुशियों की मथुरा में
जन का वृंदावन।

अब संस्कृति के दौर में आदमी-आदमी जैसा नहीं रह गया है। समाज से देश स्तर तक नैतिक पतन का दौर चल रहा है। रक्षक ही भक्षक बन गया है। राजनीति में चरित्र अदृश्य होता जा रहा है। सामाजिक समरसता का भाव ईर्ष्या-द्वेष में बदलता जा रहा है। मानवीय मूल्यों का क्षरण हो गया है। जन का वृंदावन, संजन का वृंदावन है। स्पष्ट है कि वह कृष्ण का वृंदावन नहीं है। खुशियों की जगह मन अशांत हो गया है। आवश्यकता है, जो कुछ बचा है, उसे बचाना है। 'सहयोगी' जी लगातार कारण को रेखांकित करते हैं। समस्या का निदान खोजना होगा-

 पानी की टंकी के नीचे
 मधुमक्खी की भनभन
 बच्चे बीन रहे हैं गत्ते
 भूख छछनती छन-छन
‘मुनरी’ के हाथों में चिपके
 रोटी के जुगाड़ के लासे
 महल उठाते गारे।

जली ‘पंचलाइट’ तो कितने
लेखक ‘रेणु’ हँसे हैं,
किसे नहीं यह ज्ञात कि कितने,
‘गोधन’ अभी फँसे हैं,
घूम रहे ‘महतो टोला’ में,
लेकर ‘बिजली-बत्ती’ झंडे,
‘लालटेन’ के नारे।

कहना न होगा कि शिवानन्द जी के नवगीत व्यापक सामाजिक अभिप्राय से युक्त होते हैं। रचना में ठेठ स्थानीय बोली-बानी व्याप्त रहती है। आदि कवि विद्यापति कहते हैं- 'देशी बयना सब जन मीठा।' किंतु खड़ी बोली में क्षेत्रीय बोली का अत्यधिक मिश्रण पाठक को अर्थ समझने में उबाऊ बना देता है। जनसाधारण की बात उन्हीं की भाषा में 'सहयोगी' जी लिखने का प्रयास करते हैं। अच्छी बात है। अर्थ-बोध का शब्दकोश उद्धृत कर देने से गीत सुगम बन सकता है, जो इस संग्रह में है। खैर, 'सहयोगी' जी की रचनाएँ एक उत्कृष्ट संवेदनशील और अंतर्मुखी हैं, जिसमें समय की उदासी-निराशा बार-बार उभरकर सामने आती हैं। 'सहयोगी' जी बार-बार उसे लिखने के लिए बेचैन हो जाते हैं-

मन करता है रोज लिखूँ मैं,
अक्षर के अमिताभ शहर में,
नये गीत यादों के नाम।

जनमानस के विश्वासों का,
जहाँ कहीं हो घेर नहीं,
कभी फेर में वहाँ पड़ा हो,
कारुण्यों का ढेर नहीं,
झंडा लिए हाथ में निकले,
जोश भरे वादों के नाम।

'सहयोगी' जी के राजनीतिक गीतों का संबंध जनसाधारण से रहता है। किसान-मजदूर की दयनीय दशा के लिए पूँजीपतियों, सूदखोरों एवं राजनीतिक मसीहों को उत्तरदायी ठहराते हैं। देश की दशा का चित्रण करने से चूकते नहीं हैं-  

मुरचा खाई हुई अँगीठी,
खुली सड़क पर,
बेच रही है,
भुने हुए भुट्टे।

वर्तमान की एक झलक में,
भूतकाल आया,
आनेवाली किरणों में है,
सूरज की काया,
एक अंक का यह एकांकी,
रह-रह अपने,
अंगों को ही,
 चुटकी से चुट्टे।

*******

कई दिनों से पड़ा हुआ है,
जरित पेट खाली,
झोंपड़ियों के बेर्ह सँभाले,
दो दिन से थाली,
आते रोज,
तगादे वाले,
गुट्टे के गुट्टे।

जाहिर है कि एक अंक की एकांकी का पात्र भी एक है। नेपथ्य के आगे-पीछे एक ही आदमी सूत्रधार है। 'सबहिं नचावत राम गोसाईं।' चित भी मेरी और पट भी मेरी। यह भी सच है कि 'हम बदलेंगे, युग बदलेगा।' 

गीतकार 'सहयोगी' जी के गीतों से गुजरते हुए गाँव से शहर तक बहुआयामी अनुभूतियों एवं रूपों से साक्षात्कार होता है। नवगीत में मात्र रागात्मकता एवं लयात्मकता का निर्वाह नहीं होता, बल्कि आम आदमी के संघर्ष, उनके सुख-दुख, सामाजिक-राजनीतिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों की तलाश रहती है। 'सहयोगी' जी औरों से हटकर लिखने के लिए जाने जाते हैं। उन्होने समय की तमाम विसंगतियों से पर्दा उठाया है-

बदला हुआ समय है, लेकिन
बुना न कोई ताना-बाना,
इसी मोड़ से सुबह-शाम का,
लगा हुआ है आना-जाना,

नहीं किसी का काम बिगाड़ा,
फिर भी गुस्सा क्यों करते हैं ?
आते-जाते टोक रहे हैं,
मैं अनपढ़ हूँ, मिली न शिक्षा,
और न की है कभी प्रतीक्षा,
नहीं जलाए होला मैंने,
किसी का बैल न खोला मैंने।

********

मनमानी करने की केवल
बनी हुई है आदत जग की,
रोब जमाते हैं गरीब पर,
सुनते कभी न पीड़ा पग की,
झूठ-मूठ का दोषारोपण,
जान-बूझकर रोज अचानक,
मुझ पर ही क्यों ? थोप रहे हैं,
कभी न गरदन में टाँगा है,
खादी का भी झोला मैंने,
किसी का बैल न खोला मैंने।

अगर मैं इस संग्रह को लिखता तो इसका शीर्षक रखता 'किसी का बैल न खोला मैंने', खैर, उद्धव मन माने की बात। भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। प्रेमचंद की 'दो बैलों की कथा' जग जाहिर है। हीरा और मोती का संवाद उत्पीड़न कि कथा-व्यथा है।

कहा जा सकता है कि गीतकार शिवानन्द सिंह 'सहयोगी' गाँव-देहात के बिंब, प्रतीक एवं मिथकों का प्रयोग करके अपने नवगीतों में ताजगी भरते हैं। सरल शब्दों में जन साधारण को इंगित करते हुए कथ्य एवं संवेदना को एकाकार कर देना, नवगीतकार की खास विशेषता है। 

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नवगीत संग्रह- भुने हुए भुट्टे, रचनाकार- शिवानंद सिंह सहयोगी, प्रकाशक- पराग बुक्स, ए-१५, जी.एफ. 2, श्याम पार्क एक्सटेंशन, साहिबाबाद, गाजियाबाद- २०१००५, प्रथम संस्करण-२०१३, मूल्य-१६० रु. , पृष्ठ-१०८ , परिचय- डॉ. रणजीत पटेल, ISBN 978-93-92488-05-4


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