डॉ. रंजना गुप्ता की लेखनी व्यवस्था परिवर्तन के लिए पूरी तरह से संकल्पित है। सच कह रहा हूँ उनकी लेखनी की धार को लखनऊ में पहली मुलाक़ात के दौरान मैं पहचान नहीं सका था। सार्थक और समर्थ गीत की लोकप्रियता, समय, यथार्थ के बयान और संवेदना की नम छुवन के कारण होती है। गतिशील प्रतिभा एवं रचना संस्कार को लेकर उनका गीत संकलन ‘सलीबें’ समय सृजन के जिस शिखर तक पहुँचा वह स्वागत का हक़दार है।
आज मानवता की अनुभूति व्यापक अर्थों को ग्रहण करती है। किसी एक मानव की पीड़ा समस्त मानवता की पीड़ा बन जाती है। डॉ. रंजना गुप्ता के नवगीत मानवीय संवेदना से संबद्ध हैं। सामाजिक सरोकार और संवेदना से आबद्ध होकर जो रचना गुज़रती है वही मौलिक रचना होती है। आम आदमी के बीच रहकर गीत कवयित्री रंजना गुप्ता संवेदना को आधार बनाते हुए जीवन मूल्यों को तलाशती हैं-
‘मैं नियति की क्रूर लहरों
पर सदा से ही पली हूँ
जेठ का हर ताप सहकर
बूँद बरखा की चखी है
टूट कर हर बार जुड़ती
वेदना मेरी सखी है
मैं समय की भट्टियों में
स्वर्ण सी पिघली गली हूँ’
ऊब कुंठा पराएपन की दिशा में भटकते हुए रंजना जी अपनी सहज सरल आत्मीयता का राग लेकर समय के आँगन में छटपटा रहीं हैं। जीवन संघर्ष की कठिन मन:स्थिति में यह राग भरी आकांक्षा उनके गीतों को भावनात्मक विस्तार देती है।
‘जनम जनम हम जिनको सहते
स्वजन उन्हें ही कहते रहते
लोग पराए रहे पराए
पीर हृदय की किससे कहते?
सहमी सहमी सी भयभीता
वन की हिरणी बनी है सीता’
नवगीत में अपनी पहचान बना चुकी डॉ. रंजना की संवेदना मुक्तिकामी संघर्षो से जुड़ कर समय की क्रूरताओं और विद्रूपताओं पर सीधा प्रहार करने में सफल हुई हैं। उनके गीतों में समय, समाज और परिवेश के अनेक कथ्य एवं बिम्ब विचारणीय हैं। मानवीय प्रश्नाकुलाहट और जिजीविषा उनके गीतों में देखे जा सकते हैं। स्थिति है कि संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, रिश्ते नाते दरक रहे हैं, मानवीय आत्मीयता तार तार हो रही है। रंजना जी की भावनाएँ रो रही हैं।
‘फ़ुरसत वाले खाली से दिन
नींद भरे कुछ बासी से दिन
कहीं घुमक्कड़ लमहें चुप हैं
घने अँधेरे काले घुप हैं।
कहीं साँकलों की खट खट
कहीं आहटें भी गुपचुप हैं
ऊब रहे बेचारे से दिन
आवारा बंजारे से दिन’
हम नई सदी में आ गए हैं। बाजारवाद के दौर में सत्यम शिवम् सुंदरम की परिभाषा बनावटी होती जा रही है। मुखौटों के युग में चरित्र हो, वस्तु हो, सभी चीज़ें बनावटी होती जा रही हैं। ऐसे समय में कवयित्री स्मृतियों में जाकर वर्तमान की कल्पना कर रही है। कविता निजी जीवन या सामाजिक जीवन के अनुभवों से गुज़रती है। ऐसे अनुभव रचनाकार के मानस पटल पर अंकित हो जाते हैं। इस स्थिति में रचनाकार बेचैन हो जाता है। कहना ये है कि डॉ. रंजना गुप्ता ने जो देखा है, भोगा है, उसे ही लिखा है।
‘पुतलियों में
स्याहियाँ सी भर गई हैं
धूप की ये
खिड़कियाँ भी डर गई हैं
उम्र की कतरन बटोरे
शून्य में बस शून्य बोया
मुट्ठियों से
गीतकाएँ झर गई हैं’
कहना न होगा कभी कभी छोटे छोटे दुःख की अनुभूति भीतर ही भीतर रचना कार को द्रवित कर देती है। ऐसी स्थिति में जो शब्द फूटते हैं वह रचना को सार्थक कर देती है। गीतकार नचिकेता कहते हैं- ‘गीतात्मक अभिव्यक्ति तभी धारदार और पैनी होती है जब रचना कार अपने अनुभव संसार की तमाम गोपनीयताओं के पर्दे को उठा कर अनुभूति के ताप को सहन कर उसके अनुकूल जीवनानुभव और सृजनशील भाषा का चुनाव करता है।' डॉ.रंजना जी ख़ुद सोच रही हैं औरों को सोचने के लिए विवश कर रही हैं।
‘द्वन्द की ये संधियाँ
संलाप की ये चुप्पियाँ
एक पूँजीपति न जाने
बन गया क्यों सर्वहारा?
पृष्ठ अंकित हैं पुराने
रक्त स्याही के बहाने
खुल गये हैं घाव सारे
दर्द का जर्जर किनारा’
आज संवेदना कहने सुनने के लिए है। नफ़रत की आग में भाई भाई समाज देश और अब तो माता पिता भी इसमें शामिल हो गये हैं। यह सत्य है कि जहाँ जीवन होगा वहाँ संवेदनशीलता अनिवार्य है। जहाँ संवेदनशीलता नहीं होती है, वहाँ प्रकृति से लेकर मानवीय सम्बंध सभी उपभोग की वस्तुएँ बन कर रह जाती हैं। यह भी सत्य है कि दुःख केवल नुक़सान ही नहीं देता बल्कि जीवन को समझने का अवसर भी देता है और अपने पराए को पहचानने की समझ भी देता है।
बहरहाल ‘सलीबें’ संग्रह के गीतों में समय का वह यथार्थ मौजूद है जो रह रह कर बेचैन कर रहा है।
सलीबें उठा सकेंगे?
कितने ताने बाने
दुःख के छुड़ा सकेंगे?
माँग और आपूर्ति
के भी बड़े झमेले
शोषण और ताड़ना
के हैं कितने रेले
आहुतियों की पीड़ा
का सच मिटा सकेंगे?
दाग़ भरोसे के माथे
का हटा सकेंगे?’
सर्वविदित है कि आत्म-पीड़ा का वेग रचना को कालजयी बना देता है। रंजना जी उससे परे नहीं हैं।
उन्होंने समस्त त्रासदियों, विखंडन को घर परिवार एवं सामाजिक समस्याओं के विभिन्न पक्षों को अपने संग्रह में उभारा है।
डॉ. रंजना जी कब से लिख रहीं हैं इस संग्रह से ज्ञात हुआ। हिंदी साहित्य के भिन्न भिन्न विषयों में भी इनकी लेखनी चलती रही है। यह कार्य वही कर सकता है जिसे कोई रोक नहीं सकता है। भले ही वह गुमनाम ही क्यों न रह जाए। याद करें 'संतन को कहा सीकरी सो काम’स्पष्ट है कि कवयित्री भीड़ में शामिल न होकर यथार्थ को किसी कोने में रह कर व्यक्त करना चाहती हैं। संग्रह के मध्य में उनका गीतकार प्रकृति मनुष्य और बदलते देश काल के प्रति सजग हो जाता है।
‘जाने कैसे भूल गये तुम
वो सारे अनुबंध हमारे
मुझको अब तक याद
आते हैं वो बासंती गीत तुम्हारे’
बेला जूही चम्पा के
बाजार चढ़े
बाहर दिन नवगीतों के
नवराग गढ़े
जब जब लगे असाढ़
और सावन बरसे
साधे तीरथ जोग
परस को तन तरसे।’
प्रेम प्रकृति और सौंदर्य कविता की उपजाऊ भूमि है। रंजना जी इसमें कहीं सफल हैं। निश्छ्ल व्यक्ति ही जीव जगत से प्रेम कर सकता है।
कहना न होगा कि डॉ. रंजना गुप्ता के गीतों में एक ओर नाते रिश्तों का यथार्थ बोध है तो दूसरी ओर परिवर्तन क़ामी समय का स्वर है। 'सलीबें’ संग्रह में मनुष्य और प्रकृति के गतिमान प्रवाहों को देखा और महसूस किया जा सकता है।
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गीत नवगीत संग्रह- सलीबें, रचनाकार- डॉ. रंजना गुप्ता, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन जयपुर, प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. २००, पृष्ठ- २१२ , समीक्षा- डॉ. रंजीत पटेल, आईएसबीएन क्रमांक- 978-93-88686-18-1
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