सोमवार, 1 अप्रैल 2019

नयी सदी के गीत खंड ४ - सं. ओमप्रकाश सिंह


विगत लगभग सात दशकों से भी अधिक समय से हिन्दी कविता में नवगीत की चर्चा किसी न किसी रूप में होती रही है। कभी इसके कथ्य को लेकर, कभी भाषा और शिल्प को लेकर, कभी इसके नाम को लेकर, तो कभी इसकी भंगिमा को लेकर। हालांकि यह भी सही है कि नवगीत को लेकर जैसा और जितना विमर्श हिन्दी साहित्य में होना चाहिए था, वैसा अब तक नहीं हो सका। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में वरेण्य नवगीतकार दिनेश सिंह द्वारा संपादित ‘नये पुराने’ के सात ऐतिहासिक अंकों के पश्चात श्री निर्मल शुक्ल द्वारा संपादित 'नवगीत: नयी दस्तकें' 'शब्दपदी' और 'शब्दायन' जैसे नवगीत ग्रन्थों तथा कुछ प्रतिष्ठित लघु पत्रिकाओं के नवगीत केन्द्रित विशेषांकों ने जहां नवगीत के वैशिष्ट्य को रेखांकित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है, वहीं समीक्षकों और लेखकों का पर्याप्त ध्यान भी अपनी ओर खींचा है। इसी क्रम में प्रतिष्ठित नवगीतकार डॉ.ओमप्रकाश सिंह द्वारा हाल ही में पाँच खंडों में संपादित ‘नयी सदी के नवगीत’ का प्रकाशन नवगीत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। 

प्रत्येक खंड में मौजूदा समय के स्थापित पंद्रह-पंद्रह नवगीतकारों के दस-दस प्रतिनिधि नवगीतों, परिचय एवं नवगीत पर उनके संक्षिप्त वक्तव्य के साथ संपादक डॉ.ओमप्रकाश सिंह की नवगीत के विभिन्न पहलुओं पर केन्द्रित सुचिन्तित भूमिकाएं इन पांचों खंडों को ऐतिहासिक महत्व प्रदान करती हैं। पहले खंड में ‘समकालीन नवगीत के सरोकार’, दूसरे खंड में ‘नवगीत के नये संदर्भ’, तीसरे खंड में ‘नवगीत का वैश्वीकरण', चौथे खंड में ‘समकालीन नवगीत : संवेदना और नव सृजन’ तथा पांचवें खंड में ‘नवगीत का आत्म मंथन और नवगीतकार’ शीर्षकों के अंतर्गत डॉ.ओमप्रकाश सिंह की विस्तृत भूमिकाओं से नवगीत के अभ्युदय से लेकर अब तक के शिल्प तथा भाषागत परिवर्तनों एवं परंपरा को बखूबी समझा जा सकता है।

मैं फिलहाल अपनी बात को 'नयी सदी के नवगीत' के चौथे खंड पर केन्द्रित करना चाहूँगा। 'समकालीन नवगीत : संवेदना और सृजन' शीर्षक से इस खंड की भूमिका में डॉ.ओमप्रकाश सिंह पारंपरिक गीत और समकालीन नवगीत के अंतर को स्पष्ट करते हुये नवगीत की प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- “गीत भाव या हृदय प्रधान है और विचार या बुद्धि गौड़ है परंतु नवगीत में हृदय और बुद्धि या भाव और विचारों में सामंजस्य दिखाई पड़ता है। पारंपरिक गीत आदर्श प्रधान है, यथार्थ सहायक है, परंतु समकालीन नवगीत में यथार्थ प्रधान है और आदर्श सहायक। 

नवगीत में सांकेतिकता अर्थव्यंजना को विस्तार देने में कहीं उपयुक्त है। नवगीत में सम्पूर्ण जीवन की संवेदनाओं विसंगतियों की अभिव्यक्ति एवं सामाजिक सरोकार केंद्र में हैं।“ आगे वे लिखते हैं- “नवगीत अपनी परंपरा में गीत की ही संतान है, गीत का बेटा है। जैसे दो वटवृक्ष हैं, एक पुराना एक नया। एक अपनी जड़ों, शाखों, पत्तों से, अपने आकार से पुराना है, और दूसरा अपनी ताज़ी शाखों, पत्तों, फूलों-फलों कोमल, सुंदर और युगबोध लेकर खड़ा है। .. दोनों के मध्य एक पीढ़ी का अंतर है- दैहिक और चिंतन के स्तर पर। गीत में मनुष्य के दैहिक जीवन की प्रधानता है, नवगीत में उसका सामाजिक सरोकार अधिक मुखर हुआ है।

...एक ने अपनी परंपरा से जुड़कर प्रेम, करुणा, सहयोग, लोक कल्याण और मानवता की अभिव्यक्ति की है, तो नवगीत ने उसके आगे वैश्वीकरण, बाजारवाद, वैज्ञानिक बोध, जीवन मूल्यों का क्षरण, जातीय एवं सांप्रदायिक विद्वेष आतंकवाद आदि पर न सिर्फ अपनी चिंताओं को उजागर किया है, अपितु! इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी संघर्ष का भी आह्वान किया है।....इसमें संक्षिप्तता, सांकेतिकता, मानवीकरण, यथार्थबोध, बिंबों की नवीनता, मिथकों-प्रतीकों के प्रयोग, सामान्य बोलचाल की भाषा, आंचलिकता आदि को प्रधानता दी गई है।“

इस खंड में जिन पंद्रह नवगीतकारों को शामिल किया गया है उनके नाम हैं- कौशलेंद्र , हरिशंकर सक्सेना, रामनारायण ‘रमण’, शिवानंद सिंह सहयोगी, श्रीराम परिहार, जगदीश पंकज, गणेश गंभीर, पूर्णिमा वर्मन, संजय पंकज, संध्या सिंह, आनंद कुमार गौरव, रामशंकर वर्मा, रामकिशोर दाहिया, रामचरण राग, और मधु शुक्ला। इनमें से ज़्यादातर रचनाकार अपने सुदीर्घ जीवनानुभवों और रचनात्मक ऊर्जा से लैस हैं। जीवन और समाज को देखने, समझने उसे अभिव्यक्त करने तथा संवेदनाओं के धरातल पर जाँचने-परखने और उसकी बेहतरी के लिए संघर्ष करने की उनकी क्षमताओं को उनके नवगीतों में पूरी शिद्दत के साथ महसूस किया जा सकता है। हालाँकि इस बात पर बहस और मतभेद की पूरी गुंजायश है कि रचना और शिल्प के स्तर पर इन रचनाकारों में कई की पहचान नवगीतकार के रूप में कम और पारंपरिक गीतों के रचनाकार के रूप मे अधिक है, तो इन्हें नवगीत के इस महत्वपूर्ण संकलन में किस आधार पर सम्मिलित किया गया गया है। 

चूँकि संकलन के प्रकाशन का उद्देश्य नयी सदी अर्थात सन दो हज़ार के बाद के नवगीत-परिदृश्य को प्रस्तुत करना रहा है, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि संपादक ने रचनाकार की पहचान को कम, संकलन के लिए उपलब्ध कराये गए उसके गीतों पर ज़्यादा ध्यान केन्द्रित किया है और जिनके गीत ‘नवगीत’ संरचना और शिल्प-सौन्दर्य के तत्वों पर खरे उतरे, उन्हें शामिल कर लिया गया है। बहरहाल! संकलन के ज़्यादातर नवगीत हमारे समय की आँख से आँख मिलाते हुए जीवन की विसंगतियों, विद्रूपताओं और विडंबनाओं से संघर्ष करते दिखाई देते हैं। हरिशंकर सक्सेना के नवगीतों से वर्तमान की त्रासदी को पूरी शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। “हो गया खूँखार सूरज / रुग्ण फिर /शीतल हवाओं की कहानी । मछलियों के भाग्य / बदहाली लिखी /अब लुप्त क्षिति का रंग धानी। राजपथ की आंधियों से ध्वस्त / अनगिन झुग्गियाँ आबाद कर लो।‘’-हरिशंकर सक्सेना(पृ.५४) । ‘खूंखार सूरज’ हमारे सत्ता प्रतिष्ठानों के शीर्ष पर बैठे उन अहंकारी और बेलगाम लोगों का प्रतीक है, जो सत्ता के नशे में चूर होकर आम आदमी के शोषण और भ्रष्ट कारनामों में व्यस्त रहते हैं। यही हमारे समय की सच्चाई है।

रामनारायण ‘रमण’ इन मुखौटाधारी भ्रष्ट और बेइ ईमान राज नेताओं के असली चरित्र को उजागर करते हुए इनसे बचने के लिए सावधान करते हुए कहते हैं- “ मुँह मे राम /बगल मे छूरी / बचकर रहना जी। असली चेहरे /छिपे हुए हैं / इन बटमारों के। अद्भुत भेष/ बदलते ये / मारीच विचारों के। मृग-मरीचिकाओं /के पीछे /अब मत चलना जी । “- (पृ.६६) वय की दृष्टि से कौशलेन्द्र इस खंड के सबसे वरिष्ठ रचनाकार हैं। उनके नवगीतों में भी सामाजिक- यथार्थ का निर्मम सच अपने सम्पूर्ण विद्रूप के साथ दिखाई देता है - “ भला देखिये कैसे दिन हैं / आँखों में पलते अँधियारे / अँधियारे ही गहराते हैं /सीधी राहें बहुत कठिन हैं। “(पृ.४५)

नवगीत के शिल्प पर एक आरोप यह लगता रहा है कि इसमें गेयता का अभाव है। इस आरोप की आड़ लेकर बहुत से आलोचक नवगीत को गीत का वंशज मानने से इंकार कर देते हैं। इस संकलन के नवगीतकारों ने इस आरोप को पूरी तरह खारिज करते हुये नवगीत को सर्वथा ‘छंदयुक्त रचना’ माना है। शिवानंद सिंह सहयोगी के शब्दों में “नवगीत में छंदमुक्तता तो क्षम्य है किन्तु छंदहीनता नहीं। गेयता भंग नहीं होनी चाहिए।“- (पृ. ७८)। उनके नवगीतों में क्षरित हो रहे जीवन मूल्यों और सत्ता प्रतिष्ठानों की मनमानियों को बड़ी स्पष्टता के साथ देखा जा सकता है : “ लो जी! घर तक / पहुँच ही गया /आज छपा अखबार। समाचार का/ भरा हुआ है/ घोटालों से पेट / नायकत्व ही / लोकतन्त्र का /वैभव रहा समेट। “(पृ.८३)। संकलन के एक और रचनाकार डॉ. श्रीराम परिहार भी नवगीत के बारे में ऐसी ही अवधारणा को व्यक्त करते हुए कहते हैं –“ नवगीत तथाकथित नयी कविता से इन्हीं अर्थों में पृथक है कि वह निसर्ग की तरह छंद और लय से अनुशासित और गत्यात्मक है। तथाकथित कविता के पास न निसर्ग का छंद है, न जीवन की लय । “ (पृ.९३)

जगदीश पंकज सामाजिक चेतना के अत्यंत सजग नवगीतकार हैं। उनके नवगीतों में उनके जीवन- संघर्षों, अभावों और भोगे हुए यथार्थ की पीड़ा को बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया जा सकता है। एक अंश प्रस्तुत है- "अधनंगे, अधभूखे /बचपन की गिनती / जाने किस रेखा के ऊपर-नीचे है। खोज रहे बच्चे /कचरे के ढेरों में /मिले कहीं आंतों की आग बुझाने को। जूठी पत्तल लिए /उमड़ती मानवता / तरस रही है / अब भी दाने-दाने को । “(पृ.११९) वरिष्ठ नवगीतकार गणेश गंभीर भी नवगीत के केंद्र में मनुष्य को ही रखते हैं। वे कहते हैं –“मानव को केंद्र में रखकर सहज-सरल अभिव्यक्ति के लिए गीत को नितांत सामान्य बनाने एवं जनोन्मुख बनाने का उपक्रम ही नवगीत का उत्स है । “ (पृ.१२३)

डॉ.संजय पंकज गीत और नवगीत के मध्य एक हल्की महीन-सी विभाजक रेखा खींचते हुए कहते हैं,-'‘ गीत को नयी ज़मीन और नयी त्वरा देने के कारण गीत की पारंपरिक और मान्य प्रवृत्तियों से बहुत ज़्यादा भिन्न नहीं होने के बावजूद कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर लय की नयी उड़ान का नाम है नवगीत। “(पृ.१४९)। पूर्णिमा वर्मन और संध्या सिंह नवगीत को उसके कथ्य और शिल्प की नवता के साथ नव्यता का छंद और जन जागृति का माध्यम मानती हैं। “ सड़कों पर हो रही सभाएं /राजा को /धुन रहीं व्यथाएं “(पूर्णिमा वर्मन, पृ.१४५) तथा “दुविधाओं की पगडंडी पर /भटके जनम-जनम। जितने जीवन में चौराहे /उतने दिशा –भरम “(संध्या सिंह,,पृ.१६५) जैसे नवगीत उनके कथन की पुष्टि करते हैं। आनंद कुमार ‘गौरव’ के नवगीत लोकतत्व से जुड़कर आम आदमी के दुख –दर्द का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते हैं : ‘आदमी ने आदमीयत / लूटकर जेबें भरीं /रोशनी की बस्तियाँ /सहमी अँधेरों से डरीं।‘(पृ.१३४)। रामशंकर वर्मा भी नवगीत को इसी रूप मे देखते हैं। वे कहते हैं –‘नवगीत की लयपरक भंगिमाएँ हमारी विशाल लोकधर्मी परंपरा से जुड़कर इसे कालजयी बनाती हैं। (पृ.१८९) उनके एक गीत की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ‘'गूँजी घर चौपाल /ढ़ोल पर थपक-थपक की ताल /जुटी फगुओं की टोली। ये जीवन के रंग / जब तलक संग /तभी तक अपनी होली।" (पृ.१९३)

नयी सदी के नवगीत के इस खंड के कवि रामकिशोर दाहिया अपने नवगीतों में लोकभाषा के प्रचलित शब्दों और मुहाबरों के प्रयोग के लिए जाने जाते हैं। वे दरअसल ‘लोक’ के गीतकार हैं, इसलिए दलित-शोषित–वंचित समाज के शोषण और अपमान के प्रति आक्रोश और चिंता उनके नवगीतों का मुख्य विषय है। एक नवगीत का अंश देखें- “ भूँजी हुईं /मछलियाँ हम हैं /आगी क्या ! पानी का डर है/ दहरा नहीं मिले जीवन-भर / डबरे रहे हमारे घर हैं। ज्वालामुखी/ खौलता भीतर /माटी, आग, भाप में पानी। लावा तरल /अवस्था नारे /दम घोंटू सीमाएं तोड़े /सरहद नहीं बनाई कोई /नयी सोच से परछन पारे। आँसू किये/चीख में शामिल/गूँगों के वाचाली स्वर हैं।‘(पृ.२१६)। रामचरण राग के नवगीतों में भी व्यंग्य और आक्रोश का यही तेवर और स्वर विद्यमान है : “ बाद मेहनत भी रहा कंगाल /नोचता हूँ मैं स्वयं के बाल /और कितने साल / रहूँगा मैं फटे ही हाल । “(पृ.२२०) ।

मधु शुक्ला इस संकलन की अंतिम रचनाकार हैं। यूँ तो उनके नवगीतों के अनेक रंग हैं, किन्तु स्त्री होने के नाते स्त्री की पीड़ा को उन्होने बड़ी शिद्दत से महसूस किया है –“ विश्वासों की दरकी गागर / अब किस घाट डुबोये/ सोच रही धनिया किसके /कांधे सिर धर कर रोये। आगे कुआँ दुखों का / पीछे चिंताओं की खाई /बंद पड़ी है शुभ शकुनों की / कब से आवा जाई /दो पल के जीवन की खातिर /बोझ सदी का ढोये। “(पृ.२३४)।

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि- डॉ.ओमप्रकाश सिंह ने अपनी वर्षों की मेहनत और सुदीर्घ साधना के बल पर, बिना किसी लोभ-लालच के निरपेक्ष भाव से नवगीत और प्रकारांतर से हिन्दी–साहित्य के लिए अपने आप को समर्पित कर दिया है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय मे 'नयी सदी के नवगीत' के इस चौथे खंड सहित सभी पांचों खंडो का सम्यक मूल्यांकन होगा और नवगीत की विकास यात्रा में ये सभी संकलन मील का पत्थर सिद्ध होंगे।
---------------------------------
गीत नवगीत संकलन- नयी सदी के नवगीत, संपादक- ओम प्रकाश सिंह, प्रकाशक- , प्रथम संस्करण-, मूल्य- , पृष्ठ- , समीक्षा- जय चक्रवर्ती, आईएसबीएन क्रमांक - 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

क्या आपने यह पुस्तक पढ़ी है? यदि हाँ तो उसके विषय में यहाँ टिप्पणी करें। उपरोक्त समीक्षा पर भी आपके विचारों का स्वागत है।