हरिहर जी के नवगीत मुखड़ों-अंतरों में युगीन यथार्थ को पिरोते समय पारंपरिक बिंबों, प्रतीकों और मिथकों से मुक्त रहकर अपनी राह आप बनाते हैं। नवगीत के उद्गम और तत्कालीन मान्यताओं को पत्थर की लकीर मानकर परिवर्तनों को नकारने और हेय सिद्ध करने के आदी संकीर्णतावादी इन नवगीतों का छिन्द्रान्वेषण कर स्वीकारने में हिचकें तो भी यह सत्य नकारा नहीं जा सकता कि नवगीत दिनानुदिन नई-नई भावमुद्राएँ धारणकर नव आयामों में खुद को स्थापित करता जा रहा है। 'आइना दिखाती' शीर्षक नवगीत का मुखड़ा
'तूफान, दे थपकी सुलाये
डर लगे तो क्या करें?
विष में बुझे सब तीर उर को
भेद दें तो क्या करें?'
आम आदमी के सम्मुख पल-पल उपस्थित होती किंकर्तव्यविमूढ़ता को इंगित करता है।
स्वराज्य के संघर्ष और उसके बाद के परिदृश्य में लोकतंत्र में 'लोक' के स्थान पर 'लोभ',प्रजातंत्र में 'प्रजा' के स्थान पर 'सत्ता', गणतंत्र में 'गण' के स्थान पर 'तंत्र' को देखकर दिन-ब-दिन मुश्किल होती जाती जिन्दगी की लड़ाई में हारता सामान्य नागरिक सोचने के लिए विवश है-
'उलट गीता कैसे हुई
अर्जुन उधर सठिया रहे
भ्रमित है धृतराष्ट्र क्यों
संजय इधर बतिया रहे
दौड़ते टीआरपी को
बेचते ईमान।'
(सुर्ख़ियों में कहाँ दिखती, खग-मृग की तान।) खग-मृग के माध्यम से जन-जीवन से गुम होती 'तान' अर्थात आनंद को बखूबी संकेतित किया है कवि ने। अर्जुन, धृतराष्ट्र और संजय जैसे पौराणिक चरित्रों को आधुनिक परिवेश में चिन्हित कर सकना हरिहर जी के चिंतन सामर्थ्य का परिचायक है।
'वो बहेलिया' शीर्षक नवगीत में एक और उदाहरण देखें-
'दुर्योधन का अहंकार तू
डींग मारता ऊँची ऊँची
है मखौलिया।'
मिथकों के प्रयोग कवि को प्रिय हैं क्योंकि वे 'कम शब्दों में अधिक' कह पाते हैं-
'जीवन जैसे खुद ब्रह्मा ने
दुनिया नई रची
राह नई, गली अँधियारी
मन में कहाँ बची
तमस भले ही हो ताकतवर
कभी न दाल गले।
किसने इंद्र वरुण अग्नि को
आफत में डाला
सौलह हजार ललनाओं पर
संकट का जाला
नरकासुर का दर्प दहाड़ा
शक्ति का आभास
दुर्गति रावण जैसी ही तो
बोलता इतिहास
ज्योत जली, यह देखा
अचरज़ लौ की छाँव तले।'
अपसंस्कृति की शिकार नई पीढ़ी पर व्यंग्य करता कवि अंगरेजी के वर्चस्व को घातक मानता है-
'चोंच कहाँ, चम्मच से तोते
सीख गये खाना।
भूले सब संस्कार, समझ
फूहड़ता की झोली
गम उल्लास निकलते थे
बनी गँवारू बोली
गिटपिट अब चाहें
अँगरेजी में गाल बजाना।'
जन-जीवन में व्यवस्था और शांति का केंद्र नारी अपनी भूमिका के महत्व को भुलाकर घर जोड़ने की जगह तोड़ने की होड़ में सम्मिलित दिखती है-
'रतनारी आँखे मौन
ज्यों निकले अंगार
कुरूप समझे सबको
किये सोला सिंगार।
पल में बुद्ध बन जाती
पल में होती क्रुद्ध
आलिंगन अभिसार
लो तुरत छिड़ गया युद्ध
रूठी फिर तो खैर नहीं
विकराल रूपा जोगन'
स्वाभाविक ही है कि ऐसे दमघोंटू वातावरण में कुछ लिखना दुष्कर हो जाए-
'गलघोटूँ कुछ हवा चली
रोये कलि, ऊँघे बगिया
चूम लिया दौड़ फूलों को
काँटा तो ठहरा ठगिया
दरार हर छन्द में पाऊँ
सुधि न पाये क्यों रचयिता
कैसे लिखूँ मैं कविता।'
पारिस्थितिक विषमताओं के घटाटोप अँधेरे में भी एक कवि निराश नहीं होता। वह 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की विरासत का वाहक है, उजियारे की किरण खोज ही लेता है-
'नन्हाँ बालक या नन्हीं परी
भाये कचोरी या मीठी पुरी
लुभाती बोली में कहे मम्मी
रबड़ी बनी है यम्मी यम्मी
घर में कितना उजाला है
फरिश्ता आने वाला है।'
अपने कष्टों को भूलकर अन्यों की पीड़ा कम करने को जीवनोद्देश्य माननेवाली भारतीय संस्कृति इन गीतों में यत्र-तत्र झलकती है-
'भूख लगी मिले न रोटी
घास हरी चरते हैं
झरते आँसू पी पी कर
दिल हल्का करते हैं।
मिली बिछावट काँटों की
लगी चुभन कुछ ऐसे
फूल बिछाते रहे, दर्द
छूमंतर सब कैसे
भूले पीड़ा, औरों का
संकट हर लेते हैं
झरते आँसू पी पी कर
दिल हल्का करते हैं।'
कबीर ने अपने समय का सच बयान करते हुए कहा था-
'यह चादर सुर नर मुनि ओढ़ी
ओढ़ के मैली कीन्ही चदरिया
दास कबीर जतन से ओढ़ी
ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।'
हरिहर जी 'मैली हो गई बहुत चदरिया' कहते हुए कबीर को फिर-फिर जीते हैं। कबीर और लोई के मतभेद जग जाहिर हैं। कवि इसी परंपरा का वाहक है। देखें-
'घर में भूख नहीं होती
किस-किस के संग खाते हो?
चादर अपनी मैली करके
नाम कबीरा लेते हो?'
स्त्री-विमर्श के इस दौर में पुरुष-विमर्श के बिना पुरुषों की दुर्दशा हकीकतबयानी है-
'मैं झाँसी की रानी बन कर
तुम्हें मजा चखाऊँगी
दुखती रग पर हाथ रखूँ
हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी
पति-परमेश्वर समझ लिया
पुरूष-प्रभुता के रोगी!
सारी अकड़ एक मिनिट में
टाँय टाँय यह फिस होगी
तो सुनो किट्टी-पार्टी है कल
तुम बच्चों को नहलाना।'
स्त्री-पुरुष जीवन-रथ के दो पहिए हैं। दोनों को पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन मिल-जुलकर करना होता है। बच्चों की देखभाल की सहज प्रक्रिया को सबक सिखाने की तरह प्रयोग किया जाना ठीक नहीं प्रतीत होता। 'हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी' में 'के' का प्रयोग अनावश्यक है जो कथ्य को शिथिल करता है।
सामाजिक वैषम्य और दहेज़ की कुरीति पर हरिहर जी ने प्रबल आघात किया है।
"खुलने लगी कलाई तो क्या
बना रहेगा पुतला?
तू इतना तो बतला
तृष्णा मिटे कहाँ मृगजल से
माँगी एक पिटारी
टपके लार ससुर देवर की
दर्द सहे बेचारी
रोती बहना, आँख फेर ली
खून हुआ क्यों पतला तू इतना तो बतला ....
'धनिया' आँसू पोछ न पाये
खून पिलाये 'होरी'
श्वेत वस्त्र में दिखे न काले
धन से भरी तिजोरी
जाला करतूतों का फिर क्यों
दिखे दूर से उजला
तू इतना तो बतला।'
'समय का फेर' सब कुछ बदल देता है। 'हरि'-'हर' से बढ़कर समय के परिवर्तन का साक्षी और कौन हो सकता है?
'पोथियाँ बहुत पढ़ लीं
जग मुआ, आ गई कंप्यूटरी आभा।
ज्ञान सरिता प्रवाह खलखल
जरूरी होता उसे बहना
लौ दिये की. चाहे कभी ना
बंद तालों में जकड़ रहना
वेद ऋषियों के हुये प्राचीन
दौर अणु का कर गये ‘भाभा’।
पूर्वजों ने, तीक्ष्ण बुद्धि से
कैसे किया, समुद्र का मंथन
जाना पार सागर, पाप क्यों?
क्यों चाहिये किसका समर्थन
चाँद, मंगल जा रही दुनिया
राह में क्यों बन रहे खंभा।'
निरानान्दित होते जाते जीवन में आनंद की खोज कवि की काव्य-रचना का उद्देश्य है। वह कहता है-
'पंडिताई में नहीं अध्यात्म
झाँके ह्रदय में, फकीर
“चोंचले तो चोंचले, नहीं धर्म”
माथा फोड़ता कबीर
मूर्ख ना समझे, ईश तक पहुँचे
चाहे यज्ञ या अजान
भगवत्कृपा जिसे मिली बस
खुल गई अंदरूनी आँख
चक्र की जीवन्त ऊर्जा तक पहुँचने
मिल गई लो पाँख
नाद अनहद सुन सकें, तैयार हैं
भीतर खड़े जो कान।'
इन गीति रचनाओं में विचार तत्व की प्रबलता ने गीत के लालित्य को पराभूत सा कर दिया है, फलत: गीतों की गेयता क्षीण हुई है। गीत और छंद का चोली-दामन का साथ है। भारत में नवगीतों में पारंपरिक छंदों और लोकगीतों की लय के प्रयोग का चलन बढ़ा है। 'काल है संक्रांति का' में पारंपरिक छंदों के यथेष्ट प्रयोग के बाद कई नए-पुराने नवगीतकार छंदों के प्रति आकर्षित हुए हैं। नवगीतों में नए छंदों का प्रयोग और कई छंदों को एक साथ मिलकर उपयोग किया जाना भी सर्व मान्य है। हरिहर जी ने शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हुए छंद को अपनी भूमिका आप तय करने दी है। मात्रिक या वर्णिक छंद के बंधनों को गौड़ मानते हुए, कथ्य को प्रस्तुत करने के प्रति अधिक संवेदनशील रहे हैं। समतुकांती पंक्तियों से लयबद्धता में सहायता मिली है। कवि की कुशलता यह है कि वह छंद को यथावत रखने के स्थान पर कथ्य की आवश्यकता के अनुसार ढालता है। इन नवगीतों की रचना किसी एक छंद के विधानानुसार न होकर मुखड़े और अंतरे में भिन्न-भिन्न और कहीं-कहीं मुखड़े में भी एकाधिक छन्दों के संविलयन से हुई है।
नवगीत की नवता कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर होती है। हरिहर जी ने दोनों पैमानों पर अपनी निजता स्थापित की है। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, सरल-सहज बोधगम्य शब्दावली, मुहावरेदार कहन और सांकेतिक शैली हरिहर जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है। सुदूर आस्ट्रेलिया में रहकर भी देश के अंदरूनी हालात से पूरी तरह अवगत रहकर उन पर सकारात्मक तरीके से सोचना और संतुलित वैचारिक अभिव्यक्ति इन नवगीतों को पठनीयता और प्रासंगिकता से संपन्न करती है। सोने की चिड़िया भारत हो जाए, जय हो हिंदी भाषा की, इंद्रधनुषी रंग मचलते, दो इन्हें सम्मान, कच्ची कोंपल की लाचारी, दर्द भारी सिसकी है, मन स्वयं बारात हुआ, निहारिकाओं ने खेल ली होली, कौन जाने शाप किसका, शहर में दीवाली, साथ नीम का, उपलब्धि, दुल्हन का सपना, बदरी डोल रही वायदों की पतंग आदि रचनाएँ समय साक्षी हैं।
इंग्लैंड निवासी विदुषी उषा राजे सक्सेना जी ने कुछ नवगीतों की पृष्ठभूमि में पुरुष की शोषक, लोभी, कामी प्रवृत्ति और स्त्री-अपराधों की उपस्थिति अनुभव की है किन्तु मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि रचनाकार ने दैनंदिन जीवन में होती कहा-सुनी को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। इन रचनाओं में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी नहीं परिपूरक के रूप में शब्दित हैं।
कृत्या पत्रिका की संपादिका रति सक्सेना जी ने हरिहर जी का मूल स्वर वैचारिकता मानते हुए, अतीत की उपस्थिति को वर्तमान पर भारी पड़ते पाया है। सुरीलेपन और कठोरता की मिश्रित अभिव्यक्ति इन रचनाओं में होना सहज स्वाभाविक है चूँकि जीवन धूप-छाँव दोनों को पग-पग पर अपने साथ पाता है। लन्दन निवासी तेजेंद्र शर्मा जी अपने चतुर्दिक घटती, कही-सुनी जाती बातों को इन गीतों में पाकर अनुभव करते हैं कि जैसे यह तो हमारे ही जीवन पर लिखी गयी है। स्वयं गीतकार अपनी रचनाओं में वामपंथी रुझान की अनुपस्थिति से भीगा है तथा इस कसौटी पर की जाने वाली आलोचना के प्रति सजग रहते हुए भी उसे व्यर्थ मानता है। वह पूरी ईमानदारी से कहता है "प्रवासी साहित्य पर जो आक्षेप लगाये जाते हैं, उन पर टिप्पणी करने की अपेक्षा अर्धसत्य से भी सत्य को निकाल कर उससे मार्गदर्शन लेना मैं अधिक उचित समझता हूँ।" मैंने इन गीतों में शैल्पिकता पर कथ्य की अभिव्यक्ति को वरीयता दी जाना अनुभव किया है। वैचारिक प्रतिबद्धता किसी विधागत रचना को कुंद करती है। हरिहर जी अपने नाम के अनुरूप बंधनों की जड़ता को तोड़ते हुए सहज प्रवाहित सलिला की तरह इन रचनाओं में अपने आप को प्रवाहित होने देते हैं।
प्रवासी भारतीयों द्वारा रचे जा रहे साहित्य विशेषत: गद्य साहित्त्य में विदेशी परिवेश प्राय: मिलता है। हरिहर जी पूरी तरह भारत में ही केन्द्रित रहे हैं। आशा है उनका अगला काव्य संग्रह रचनाओं में आस्ट्रेलिया को भी भारतीय पाठकों तक पहुँचाएगा। वैश्विक समरसता के लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने के साथ-साथ पड़ोसी के आँगन की हवा लेते रहना भी आवश्यक है। इससे हरिहर जी के नवगीतों में शेष से भिन्नता तथा ताज़गी मिलेगी। लयबद्धता और गेयता के लिए छांदस लघु पंक्तियाँ लम्बी पंक्तियों की तुलना में अधिक सहज होती हैं।
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गीत नवगीत संग्रह- फुसफुसाते वृक्ष कान में, रचनाकार- हरिहर झा, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन जयपुर, प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. ३५०, पृष्ठ- १६५, समीक्षा- आचार्य संजीव वर्मा सलिल, आईएसबीएन क्रमांक- ९७८-९३-८७६२२-९०-६
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