मंगलवार, 1 जनवरी 2019

संदर्भों से कटकर - रविशंकर मिश्र रवि

समकालीन हिन्दी कविता का वर्तमान असहमति और असंतुष्टि जनित भ्रामक परिभाषाओं एवं अतार्किक काव्य-विमर्शों के दो-तरफा दाब के चलते जितना नीरस और शुष्क होता जा रहा है, उतना ही बंज़र और अनउपजाऊ भी। यत्र-तत्र खुलीं साहित्यिक रिफाइनरियों से निकल रहे अपशिष्ट सम्पूर्ण काव्य-धारा को जैव-मरूस्थल बनाने हेतु उद्धत हैं। विचारों का स्थान हठधर्मी अतिविचारों ने ले रखा है। मौलिकता धीरे-धीरे अनुकरणीयता में बदलती जा रही है। आज के रचनाकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है स्वयं को मौलिक एवं ‘किसी अन्य की तरह का' न बनाये रखने की। मौलिकता में अनुकरण पद्धति का यह अतिक्रमण जहाँ एक ओर अमौलिक चिन्तन परम्परा को बढ़ावा दे रहा है वहीं दूसरी ओर विधाओं के रूढ़िगत स्वरूप को अंधस्वीकृति। फलतः आधुनिकता व अद्यतनता का आग्रह रखने वाली काव्य-विधाओं का स्वरूप जड़ और शोकगीतनुमा होता जा रहा है और नवगीत भी इससे अलग नहीं है।

विगत कुछ वर्षों में पूर्ववर्ती नवगीतकारों के भाषा-प्रयोग, छन्द-विन्यासन और बिम्ब-धर्मिता का जिस प्रकार एक ‘शील' के रूप में ‘प्राणतत्व' बताते हुए अंधानुकरण किया गया और किया जा रहा है नवगीत, नवगीत न होकर ‘नवगीतनुमा' अधिक हो गया। यद्यपि इस ‘नवगीतनुमा' में नवगीत के तत्व जरूर दिखाई पड़ते हैं किन्तु इन नवगीत-तत्वों को परिभाषित कर पाना उतना ही कठिन है जितना एक ‘कौंध' की व्याप्ति के नवगीत बनने की रचना-यात्रा। नवगीत की वर्तमान में दी जाने वाली परिभाषायें एवं तर्क परिभाषा न होकर ‘नवगीत पारम्परिक गीत से किस तरह अलग है'- अधिक है। अतः वर्तमान समय में लिखे जा रहे नवगीतों का बहुलांश ठहरी हुई काव्य-चेतना और अनुकरण पद्धति के ‘एप्लीकेशन' सा होकर रह गया है। ऐसे में जो थोड़े से युवा रचनाकार अपनी सम्पूर्ण मौलिकता के साथ नवगीत की ठहरी विकास-यात्रा को त्वरा देने में लगे हैं उनमें एक महत्वपूर्ण नाम है-रविशंकर मिश्र।

वरिष्ठ नवगीतकार सुधांशु उपाध्याय का अभिमत है-"यह दुनिया विचारों की है। बिम्बधर्मी गीत को नवगीत बनने के लिए विचारों और अतिविचारों के कठिन समय से जूझना ही है तो उसे अपने नये प्रतीक और समयानुकूल बिम्ब तलाशने होंगे। नवगीत को चौतरफा नयेपन की जरूरत है- भाषा में, छंद में, लय में और सबसे प्रमुख यथार्थ के संश्लेषण में। मात्राओं से ज्यादा जरूरी है कथ्य में सटीक मारकता। इसके लिए सबसे पहले और तुरंत नवगीत को प्रथम पुरुष की आसक्ति से निकलना होगा।" यहाँ यह समझा जाना आवश्यक है कि यह पूरा कथन उस ठहरी काव्य-दृष्टि की अनुकरण पद्धति का रेखांकन करने के साथ ही ‘जो होना चाहिए' का भी मार्ग बतलाता है। रविशंकर मिश्र इसी मुक्ति मार्ग के यात्री हैं। प्रस्तुत नवगीत संग्रह ‘सन्दर्भों से कटकर' नवगीत में इस ‘चौतरफा' नयेपन की वापसी का एक अहम दस्तावेज है।

गत शताब्दी के उत्तरार्द्ध से प्रारम्भ नवगीत का वर्तमान जिसे विभिन्न नवगीत-कवियों ने ‘सुफलन काल', ‘उत्तर नवगीतकाल', ‘नवोत्कर्ष काल' आदि की संज्ञा देकर पूर्ववर्ती गीत परम्परा से भिन्न भाषा-प्रयोग एवं शैल्पिक संरचना के आधार पर परिभाषित किया है- की सर्वप्रमुख विशेषता है नवगीत में तकनीकी शब्दावलियों और तकनीकी दुनिया से जुड़े बिम्बों का प्रयोग। रविशंकर मिश्र जो पेशे से अभियंता हैं, इसी नवीन नवगीत परम्परा के सर्जक हैं। समकालीन गीतकोश में नचिकेता का यह कथन यहाँ देना उचित होगा-
"वर्ष १९९० के बाद के गीतों ने समकालीन गीत रचना को एक नई भाषा दी है जो पूर्ववर्ती गीत परम्परा से भिन्न है। उपभोक्तावादी जिंसों तथा कम्प्यूटर के उपयोग में लाए जाने वाले तकनीकी शब्दों को इन गीतों ने बिम्ब और प्रतीक के रूप में इस्तेमाल कर गीत रचना की काव्य-भाषा को अत्यधिक समृद्ध बनाया है। तकनीकी शब्दावलियों के प्रयोगों ने इन गीतों की रागात्मक समृद्धि को जहाँ क्षति पहुँचाई है, वहीं जीवन की वास्तविकता को देखने का एक नया ‘विजन' दिया है।"

प्रस्तुत संग्रह के गीतों की प्रमुख विशेषता रागात्मक समृद्धि को क्षति पहुँचाये बिना ही तकनीकी शब्द-प्रयोग से गीत-रचना की काव्य-भाषा को समृद्ध करना है। गीतकार ने न केवल तकनीकी शब्द-प्रयोग अपितु गत कुछ वर्षों में मानव जीवन व दिनचर्या से जुड़े व्यावहारिक ‘आगत' शब्दों के समावेश से संग्रह को भाषाई स्वच्छन्दता प्रदान कर उपरोक्त ‘विजन' को और अधिक ‘विजुअल' बनाने की कोशिश की है। 

रविशंकर मिश्र स्थितियों को जिस रूप में देखते हैं, अपने पाठकों तक उसी रूप व भाषा में पहुँचाते हैं। अपने समकाल का सतर्क अनुवीक्षण करते रहना समकालीनता की अनिवार्य शर्त है। किसी भी रचनाकार से सदैव यह अपेक्षा की जाती है कि उसका समकाल उसकी रचनाओं में उपस्थित रहे। प्रस्तुत संग्रह के गीतों में समकाल की व्याप्ति आरम्भ से लेकर अंत तक अनुभूत की जा सकती है। अपने समकाल और समकालीन सन्दर्भों से कवि का कटना सम्भव ही नहीं इसीलिए संग्रह के शीर्षक गीत में वह लिखते हैं-
इस दुनिया में  दुनिया से ही हटकर बैठे हैं
बहुत लोग तो सन्दर्भों से कटकर बैठे हैं।
पढ़ते हैं अखबार हवा को गाली देते हैं
और विसंगतियों पर हँसकर ताली देते हैं
चाय सुड़कते चैराहों पर डटकर बैठे हैं। -पृष्ठ-४०

गीतकार घर के बिगड़ते बजट और बढ़ते ब्लडप्रेशर की चिन्ता करने के साथ-साथ कनखियों से ही सही समकालीन वैश्विक परिदृश्यों की तरफ भी देखता रहता है। घुटनों चलता पुत्र देखकर पिता की मुग्ध मनोदशा में भी वह फर्श पर गर्मागर्म बहस से भरे फटे अखबार की हेडिंग्स देखना नहीं भूलता। शायद इसीलिए संग्रह के शीर्षक और शीर्षक गीत पर विचार करते हुए नवगीतकार यश मालवीय लिखते हैं-"यह वही कह सकता है जो सन्दर्भों से सबसे ज्यादा जुड़ा हो।"

रविशंकर मिश्र अपने गीतों के माध्यम से वर्तमान का सूक्ष्य अवलोकन प्रस्तुत करते हैं। अछूते और अप्रस्तुत कथ्य की तलाश करते रहना तथा फिर उसे शब्दायित कर देना उनका कवि-कर्म है। कवि के भीतर एक व्यंग्यकार भी छुपा है जो मुखर होने पर सामाजिक विसंगतियों पर चुटीले अंदाज़ में मारक प्रहार करता है-
जाने कैसे हाथों में यह देश रसोई है
दूध चढ़ाकर चूल्हे पर गुनवंती सोई है।

भूखी जनता बाहर राह निरखती रहती है
भीतर जाने क्या-क्या खिचड़ी पकती रहती है
परस गया थाली में फिर आश्वासन कोई है।- पृष्ठ-२२
या फिर-
बेसिक शिक्षा धूल खा रही टोली मिड-डे-मील खा रही
विद्या मुट्ठी बँधी रेत है।  - पृष्ठ-२१

युगीन समस्याओं-‘भूख', ‘गरीबी', ‘बेरोजगारी', ‘नैतिक पतन', ‘सांस्कृतिक कटाव', ‘पारिवारिक विघटन जैसे मुद्दों पर रविशंकर कभी-कभी ‘लाउड' होने से भी गुरेज नहीं करते-
सपने बिकते ऊँचे-दामों धन्नासेठ खरीदे
प्रतिभाओं की फौज व्यर्थ ही फोड़ रही है दीदे
बेचे चाट पकौड़े या फिर दर-दर माँगे भिक्षा।- पृष्ठ-४८
या फिर-
धीरज से देख रहे हम सारे करतब
क्या कहिए, अच्छे दिन कब से हैं गायब
दिल्ली के वैद ज़रा ढूँढिये दवाई। - पृष्ठ-९०

रविशंकर मिश्र भारतीयता, भारतीय परम्पराओं के समर्थक हैं। ‘उधार' की चीजें केवल उतनी ही स्वीकार करते हैं जितने से परम्पराओं का मूल स्वरूप विकृत् न होने पाये। वे तर्क एवं बुद्धि की कसौटी पर परम्पराओं की जाँच-परख करते रहते हैं। इसी कारण से पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण से समाज में आई नग्नता पर प्रश्न खड़ा करने का साहस करते है-
भौतिकता की चकाचौंध में नैतिकता को पूछे कौन
हवा बहुत अश्लील हो गई और हवा को रोके कौन!

कितना बदलें हर चैनल तो वही दृश्य दुहराता
सारा घर अब साथ बैठकर टीवी देख न पाता
आखिर कहाँ जा रहे हैं हम ज़रा ठहर कर सोचे कौन! - पृष्ठ-४९

गीतकार का यह प्रश्न करना यहीं समाप्त नहीं हो जाता अपितु बामियान में हारते बुद्ध, लोगों को पसंदीदा होते अधःपतन के दृष्य और शुभ साईत में होते तलाक में कुछ और मुखर हो आया है। इन सबके बावजूद भी एक सहज आशवादी प्रतिजगत का निर्माण करते दिखाई देते हैं। घर की खिड़की के बाहर के भीने मौसम में लोकराग और लोकतत्व को संरक्षित करे आज की इस असहमति के बाद के कल की संकल्पना प्रस्तुत करते हैं-
आज नहीं तो कल अच्छे दिन आयेंगे
हम सपनों के गाल नोच दुलरायेंगे।
सब कुछ है गर ढोलक है, हरमुनिया है
उम्मीदों पर टिकी हुई यह दुनिया है
हम इस दुनिया को
आगे ले जायेंगे। - पृष्ठ-७०

एक रचनाकार होने के अतिरिक्त उनके भीतर राष्ट्र के प्रति गहरी आस्था है। उनका देशप्रेम जब देश को अपने मूल संस्कारों, अपनी भाषा से कटते देखता है तो स्वतः ही उनकी लेखनी इसके विरोध में खड़ी हो जाती है। आरम्भ से आजतक लगातार नवगीत भारतीयता को नष्ट करने को उद्धत शक्तियों के प्रतिपक्ष में खड़ा रहा है। शायद इसी कारण से रविशंकर मिश्र ने अपनी अभिव्यक्ति हेतु नवगीत विधा का चयन किया। नवगीतों की यह प्रतिरोधी ऊर्जा ही उनसे लिखवाती है-
चुपके ही चुपके यह काम हो गया
भारत, इण्डिया का गुलाम हो गया

वैसा ही संविधान वैसा कानून
इंग्लिश जो बोले वो है अफलातून
हिन्दी का मालिक बस राम हो गया।- पृष्ठ-५५

या फिर-
अपनी संस्कृति गंगा जैसी वह भी आज विषैली है
हुए धरम-ईमान नदारद जो कुछ है बस थैली है
बेचारी भारत माँ है जो सहती सबका नखरा है। - पृष्ठ-९८

क्षेत्र-जाति-धर्म, सम्प्रदाय आदि के नाम पर लोगों का यह बँटते जाना उन्हें भीतर तक सालता है। वह प्रतिभा का सही आँकलन किये जाने के पक्षधर हैं-

क्षेत्रवाद-जातिवाद प्लीज रोकिए
हर उगते सूरज की पीठ ठोकिए।

बिना जले सील रही माचिस की तीली
सपनीली आँखें भी हो रहीं पनीली

प्रतिभा की पीठ में न छुरा घोंपिए। - पृष्ठ-६३

रविशंकर मिश्र के भीतर का गीतकार उन तमाम काली शक्तियों को चुनौती देता हुआ प्रतीत होता है जिनसे सामाजिक समरसता और समन्वयवाद पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। उनकी रचनाओं में सनातन चिन्तन परम्परा और समन्वय की भावना का होना कहीं न कहीं उनके भीतर एक ‘तुलसी' के होने जैसा है। संग्रह के गीत ‘जिनके आँसू के दम पर' अपनी परम्पराओं व पूर्व-पुरुषों के प्रति केवल भावना प्रदर्शन ही नहीं अपितु लोगों को परम्परओं से जुड़ने का आग्रह भी है। ‘सम्बन्धों की मर्यादा' शीर्षक गीत, नवगीत की पुर्नपाठ शैली का विशिष्ट उदाहरण है।

नवगीतों में आरम्भ से ही गाँव, ग्रामीण चेतना, ग्रामीण परिवेश एवं लोक भाषा के शब्द व ताजे-टटके बिम्ब प्रयोग की एक लम्बी परम्परा रही है। रविशंकर मिश्र मूलतः गाँव के निवासी हैं, ऐसे में उनके गीतों में ग्रामीण संचेतना का संस्पर्श न आना तो सम्भव ही नहीं है किन्तु यहाँ भी वे पूर्व-पुरुषों का अनुकरण न कर अपनी विशिष्ट शैली से न केवल उनसे स्वयं को अलग रखते हैं वरन कहीं-कहीं तो आगे भी-

छिने नहीं आधार कि हम भी लिंक करेंगे गाँव
बच्चों के खातों में डालेंगे बरगद की छाँव
आने वाल कल जितना माँगेगा देंगे मोल।- पृष्ठ-८०

रविशंकर मिश्र के गीतों की मर्मस्पर्शिता, विशेषतः आत्मीय सम्बन्धों पर लिखे गीतों में अत्यन्त तरल होकर पाठक को भीतर तक प्रसाद गुण से अभिभूत कर सहज अपनेपन का निर्माण करती है। पिता बनने का सुख, बच्चे का नामकरण, नन्हीं का बड़ी हो जाना, पिता के प्रति सम्मान, सहधर्मिणी के प्रति कोमल व रूमानी भावोद्गार आदि अनेक चाक्षुष बिम्ब प्रधान गीत हृदय पक्ष को पुनः प्रबल कर पाठक को आत्मीय संतुष्टि प्रदान करते हैं। साथ ही साथ वे स्त्री-विमर्श के प्रति भी एक नया दृष्टिकोण देते हैं। आफिस से घर लौटी एक माँ (स्त्री) की दिनचर्या का यह भावप्रवण चित्रण स्वतः ही विशिष्ट संवदेनात्मक जगत का निर्माण करता है-

फूल गले से लिपटे
कम हुआ तनाव
दफ्तर से लौटी है
ममता की छाँव।

अभी किचेन में जाकर
चाय संग उबलना है
भुनना है, सिंकना है
देर रात ढलना है

सुबह फिर शुरू होगा
दिन का दुहराव।- पृष्ठ-२६

वस्तुतः रविशंकर मिश्र मानवीय संवेदनाओं के कवि हैं। अर्थविस्तार से भरे ताजे बिम्बों की सुगंध से पूरा संग्रह सुवासित है। गीतकार ने भाषा-प्रयोग की परम्परागत पद्धति का निषेध करते हुए समयानुकूल और दिनचर्या की भाषा के शब्द लिए हैं, नये मुहावरे गढ़े हैं। रविशंकर मिश्र स्थितियों के प्रति सदैव वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हैं। अव्यवस्था के प्रति आक्रोश है तो आशावादी संकल्पनायें भी। ग्रामीण चेतना, नगरीय और मध्यवर्गीय चेतना से कहीं भी अतिक्रमित नहीं हुई है। परम्पराओं का समर्थन भी है, रूढ़ियों का विरोध भी। वह सुनी-सुनाई बातों पर यकीन नहीं करते, स्थितियों के महासागर में गहरे गोते लगाकर समय आक्टोपास से भिड़कर मोली ले आने की क्षमता रखने वाले गीत-कवि हैं। उनके गीतों की सहजता ही गीतो के ‘मारकता रेंज' का परिवर्धन करती है। यद्यपि संग्रह में कुछ स्थानों पर अन्विति का दुर्बल पक्ष एवं शैल्पिक एकरूपता आदि ऐसे बिन्दु हैं जहाँ गीतकार को अभी नये उपायकरण तलाशने होंगे किन्तु मानवता के पक्षधर गीतकार का यह संग्रह पाठकों को समकालीन सन्दर्भों से जोड़ने के साथ-साथ आज के जटिल जीवन को और अधिक मानवीय बनायेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
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गीत नवगीत संग्रह- संदर्भों से कटकर, रचनाकार- रविशंकर मिश्र रवि, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन जयपुर, प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. २००, पृष्ठ- १२८, समीक्षा- शुभम श्रीवास्तव ओम, आईएसबीएन क्रमांक- 

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