सोमवार, 23 नवंबर 2015

फागुन के हस्ताक्षर- श्रीकृष्ण शर्मा

गीत संग्रह ‘फागुन के हस्ताक्षर’ के रचयिता एवं वरिष्ठ गीतकार श्रीयुत् श्रीकृष्ण शर्माजी हिन्दी के उन मूर्धन्य रचनाकारों में से हैं, जो छान्दस कविता एवं गीत की प्रतिष्ठा के लिए जीवन भर संघर्षरत रहे और आज जबकि उनकी नेत्र-ज्योति क्षीणतर हो चुकी है तब भी पूरी निष्ठा के साथ सृजन यज्ञ में अपनी सारस्वत समिधाएँ समर्पित करते चले जा रहे हैं। आपने जीवन के कटु यथार्थ को प्रत्यक्षतः देखा ही नहीं अपितु उसे स्वयं भोगा भी है। उन्हीं संवेदनात्मक अनुभूतियों को आपने अपने गीतों में सशक्त अभिव्यक्ति दी है।

मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के ग्राम सिलपुरी में आपकी प्रथम नियुक्ति शिक्षक के पद पर हुई। चट्टानी पहाड़ी पर अवस्थित इस गाँव के निकट बहने वाली सदानीरा ‘बेतवा’ एवं चारो ओर फैले ऊँचे-ऊँचे वृक्षों युक्त सघन वन का प्राकृतिक सौन्दर्य कवि के भाव जगत एवं रचना संसार का सदैव साथी बना रहा। प्रकृति का यह आंचलिक स्वर आपके गीतों में प्राणवंत हो उठा है। प्रकृति की मनोहारी छवि-छटायें अभावों एवं दुर्दिनों में भी आपके गीतों में रच-पच कर जीवन का जयघोष करती रहीं हैं। समीक्ष्य गीत संग्रह आपकी इसी संघर्ष यात्रा का प्रामाणिक दस्तावेज है, जिसमें फागुन के हस्ताक्षर हैं और कोयल उसकी गवाही देती है।
उदाहरण दृष्टव्य है-
‘‘इन कच्चे पत्तों की पीठ थपथपाने / हवा सब विकल्पों को लात मार आयी।
सठियाया पतझर कर चुका आत्महत्या / फागुन के हस्ताक्षर, पिकी की गवाही।’’

शर्माजी के गीत प्रकृति की आत्मा से सीधा साक्षात्कार करते हैं तथा आम आदमी की व्यथा कथा और उसके मनोभावों को समय की शिला पर कस कर उसके अंतर्द्वद्वं एवं अहसास की परख करते हैं। इसी संग्रह की एक गीतिका के कुछ अंश देखिये-

‘‘अँधियारा इस तरह बढ़ रहा / जैसे मँहगाई की काया।
दूर-दूर तक नजर न आती / उम्मीदों की उजली छाया।
कितना कठिन समय आया है / अपनापन तक बना पराया।’’

स्वतंत्रता के पश्चात् सामाजिक वातावरण, विशेषकर राजनैतिक चरित्र में आयी शर्मनाक गिरावट के कारण राष्ट्र की खुशहाली के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देने वाले सुयोग्य व्यक्तियों का तिरस्कार विमूढ़ों की सभा में किस तरह हो रहा है, इसका एक यथार्थ चित्र ‘उत्तर रामचरित के पन्ने’ नामक गीत की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

‘‘धुँआ-धुँआ अम्बर का चेहरा / मंच हुआ तारों से खाली,
जो कि तिमिर में जले उम्र भर / वही सभा से गये उठाये।

सर्वथा नवीन प्रतीक योजना, स्मृति, ध्वनि एवं चाक्षुष बिम्बों से रचे गये प्रायः सभी गीत इतने सशक्त एवं हृदय-स्पर्शी हैं कि मुँह से सहसा वाह-वाह निकल जाता है। गीत ‘झील रात की’ का यह गीतांश देखिये -
‘‘साँझ-सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की,
भरी हुई है अँधियारे से।
इसी झील के तट पर पेड़ गगन है वट का,
काला बादल चमगादड़-सा उल्टा लटका;
शंख-सीप नक्षत्र रेत में हैं पारे से।’’

गीत संग्रह ‘फागुन के हस्ताक्षर’ में जीवन-जगत की विविधवर्णी भाव-भंगिमाओं को प्राकृतिक छवि-छटाओं के साथ कवि ने सशक्त संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। अगहन की ठिठुरन को कवि ने एक दृश्य-बिम्ब के माध्यम से आम आदमी की विवशता को रेखांकित किया है। काव्यांश देखें -

‘‘कोहरे के मोटे परदे के / पार नहीं जाती हैं आँखें,
किन्तु टँगी रह गयीं दृष्टि की / चौखट पर पेड़ों की शाखें ;
समय साँप के काटे जैसा / कैसे कटे रात की दूरी ?’’

इसी तरह एक ध्वनि बिम्ब भी देखिए -
‘‘गीत तुम्हें गा-गा कर हार गये। अनजाने भ्रम की इन लहरों ने / आ-आकर मुझको भरमाया है, पेड़ों की बाँसुरियों ने बजकर / बरबस ही मन को भटकाया है।’’

संग्रह के इन गीतों में आम आदमी की जिन्दगी कहीं मैले बिछौने के समान है या चूल्हे पर चढ़े फूटे भगौने के समान है अथवा भीड़ के बीच चाट कर फैंके गये दोने की तरह है। कहीं शंकाकुल जंगल में जीने की लाचारी है कि हर आँसू बह-बह कर सूख गया है। घी और सिन्दूर से भित्तियों पर जो सपनीले, शुभंकर साँतियें और हल्दी के छापे बनाये गये थे, वे आश्वासन के चमकीले चेहरे भ्रष्टाचारी-आतंकी अँधियारे ने ढाँप लिये हैं। सर्वत्र शातिर सन्नाटे की रौबदार ठकुराइन पसरी दिखायी देती है।

आज जब घिसे-पिटे शब्दों की मारक क्षमता मंथर होती जा रही है तब कविवर श्रीकृष्ण शर्माजी ने नये छन्द, नवीन प्रतीक एवं नूतन बिम्ब योजना के माध्यम से गीत को धारदार बनाया है।
इस संग्रह में कुल छियालीस गीत हैं जिनमें ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत के ऋतु चित्र सर्वथा नवीन परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक गीतिका एवं एक प्रलम्ब गीत ‘अम्माँ की याद में’ लिखा गया है। इस अभिधात्मक गीत में अनाथ बच्चों का पालन-पोषण करने वाली सर्वहारा माँ की संघर्ष-यात्रा का बड़ा कारुणिक एवं मार्मिक वृत्तान्त है। शेष सभी गीत नवगीतात्मकता से ओत-प्रोत हैं, जिन्हें ‘गीत नवान्तर’ कहना अधिक उचित प्रतीत होता है।

इन गीतों में जो नयापन है उसमें कल्पना लोक के अविश्वसनीय वायवी चित्र नहीं हैं अपितु वर्तमान के यथार्थ का सहज स्वीकार्य एवं विश्वसनीय रेखाकंन है, जो भुक्त भोगियों के अहसास एवं आंचलिक पृष्ठभूमि के अत्यधिक सन्निकट हैं। प्राकृतिक सौन्दर्यानुराग को कवि ने प्राणवंत आंचलिक बोध प्रदान कर सर्वथा नये सन्दर्भों में प्रतिष्ठापित किया है, जो प्रशंसनीय है।
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गीत- नवगीत संग्रह - फागुन के हस्ताक्षर, रचनाकार- श्रीकृष्ण शर्मा, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद। प्रथम संस्करण- २००६, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- ८६, समीक्षा - आचार्य भगवत दुबे।

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