सोमवार, 16 नवंबर 2015

साँस साँस गीत- मधुकर गौड़

श्रृद्धेय मधुकर गौड़ जी की सद्य प्रकाशित गीत-कृति साँस-साँस गीतउनके अन्तर की भावनाओं एवं गीत के प्रति उनकी सत्य निष्ठा को और भी प्रबल सिद्ध करती है। उनके जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कामना उनके शब्दों में गाते-गाते गीत मरूँ मैं,’ मरते-मरते गाऊँ
तन को छोडूँ भले धरा पर
, गीत साथ ले जाऊँहै। 

वे अपने सुरभि सिक्त गीतों से रस-छन्द-लय के संयोजन से और भावों की आर्द्र-संवेदना से मानवता को अभिसिंचित करने के लिये सदैव आतुर रहते हैं तथा अपनी अर्थक्षमता से बाहर जाकर भी गीत की नवीनता एवं जीवन्तता हेतु कोई अवसर नहीं चूकते, गीत ही उनका प्रथम और अंतिम लक्ष्य है, सृजन एवं संपादन में उनकी समान दक्षता, संयोजन, सामंजस्य तथा समन्वय की अद्भुत क्षमता विशिष्ट क्षमता की परिचायक है। स्थायी आर्थिक स्त्रोत के अभाव में भी पत्रिकाओं का अवरोध रहित प्रकाशन के फलस्वरूप अपने साहित्यिक विवेक, ध्येयधर्मिता, मूल्यनिष्ठा और कठोर परिश्रम से वे प्रेरणास्पद तथा अनुकरणीय बन गये हैं। अपनी इन्हीं भावनाओं के पुष्टिकरण में गौड़ जी कहते हैं -

स्निग्धतायें भावना में / जब जगीं-जगीं / कामना की राह से /
तब दूरियाँ भागीं / रूप के संसर्ग में जब / चाहतें आईं / प्यास
ने तब / तृप्ति की फिर / लावणी गायी / जो हवा का फूल के
संग / आचरण था / बस वही तो / गीत का पहला चरण था।

गौड़ जी आम जनता के कवि हैं जहाँ वे नगरों की विषमताओं, त्रासदियों, शोषणों और उत्पीड़नों को जागरूकता के साथ व्यक्त करते हैं वहीं गांवों की संस्कृति, मानवीय मूल्यों के प्रतिष्ठित स्वरूप एवं खेतों की अनुभूत खुशबू को भी बड़ी ईमानदारी से व्याख्यायित करते हैं किन्तु उन्हें दुख है कि प्रकृति के इस अनुपम सौंदर्य तथा मानवता के स्वर्गोपम स्वरूप को लोग विकृत कर रहे हैं। मंदिर-मस्जिद के भेदभाव से दूर जहाँ जाति, सम्प्रदा को ग्रामीण जानते भी नहीं थे वहाँ फूट डालकर, असमानता एवं विसंगति के विष बीज क्यों बोये जा रहे हैं -

‘‘मंदिर वाले गाँव जहाँ पर / उजले-उजले लोग / कौन वहाँ पर
बसा रहा है / नरभक्षी के ढोंग / सुबह-सुबह मुस्कानें जिनके /
घर- घर आतीं-जातीं / और दुपहरी खेतों में जा / उनकी थकान
मिटाती / संध्यायें उनके संग चलतीं / आपस में बतियातीं /
उनके भाईचारे में फिर / कौन भर रहा रोग।’’

सरल भाषा, कसा-मँजा शिल्प, संप्रेषणीयता में अपूर्व और कथ्य की सच्चाई उन्हें यथार्थ चिन्तन का रचनाकार सिद्ध करती है। पूरे देश में गरीबी, बेकारी, भुखमरी, प्राकृतिक आपदायें और हताशा का वातावरण है। नेतृत्व आम जनता का नहीं केवल अपना हित साधन है। शोषित-उत्पीड़ित-दलित की खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं रहा तो इन परिस्थितियों में ऐसे दिनमान का क्या प्रयोजन जिसके प्रकाश में चारों ओर छल ही छल दृष्टिगोचर होता है। कवि ऐसे दिनमान को बदलने का आह्वान करता है:-

रिश्तों में अब क्या खोजे जूते पहन बिना मोजे  
कंधे झेल नहीं पाते
सम्बन्धों के अब बोझे

सहयोगों की डोर जली 
प्राणों को तड़फे मछली  
खुद अपने दिनमान बदल बिखर गया है छल ही छल  
क्या दिल्ली, क्या है भोपाल नंगा घूम रहा गोपाल  
अपराधों के गिरवी हैं न्याय करेगी क्या चौपाल  
सपनों के तारे टूटे 
किरणों के छाले फूटे

गौड़ जी ने अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने के लिये शब्दशक्तियों का भरपूर उपयोग किया है। उनके गीतों की व्यंजना समाज के सरोकारों से पूरी तरह जुड़ी है जिसकी मर्मस्पर्शी संवेदना एक ओर तो करुणा से ओतप्रोत है और दूसरी ओर समस्याओं के प्रति भी सजग है। वे मूल पर प्रहार कर उसका उच्छेदन करने के पक्षधर हैं। डालें एवं टहनियाँ तो स्वतः नष्ट हो जायेंगी। वे जानते हैं कि जनता की समस्याओं का वास्तविक निदान क्या है ? वे भलीभाँति अवगत हैं कि वे गिद्ध जो सरेआम गरीबों-दलितों के मसीहा बने, उनकी राजनीति का दम्भ भरते हैं, यथास्थिति के पोषक हैं और उन्हें बदलने से ही समाधान की संभावना ये संभव हैं:-

बँट रही है धूप चारो ओर
छाँव के प्यासे सुलगते जा रहे
फिर तसल्ली दान में हर रोज
धैर्य के पर्वत पिघलते जा 
रहे
अब सिफारिश बैठती है कुर्सियों पर
कौन थामे हाथ
अब संवेदना का
आज प्रतिभा हाथ बाँधे गिड़गिड़ाती
मोल क्या है शेष अब आराधना का
गिद्ध बैठे चौक
में चौपड़ बिछाये
चींटियों के पर निकलते जा रहे

वर्तमान से संघर्ष करता हुआ आदमी आजीविका की खोज और जिजीविषा के ह्रास से अपनी पहचान खोकर, स्वाभिमान एवं आत्मगौरव से क्षीण निराशा के सिन्धु में गोते लगा रहा है जबकि समस्त शक्तियाँ उसी में निहित हैं जिससे वह अनभिज्ञ है। अभावों में भी जीवन्तता का एहसास करना, सकारात्मक सोच से समाज में परिर्वतन लाना, उसी के वश में है। कवि आम आदमी को जागरूक बनाने की इच्छा रखता है और निम्नांकित शब्दों में प्रेरित करने का प्रयास करता है:-
               
ओढ़ उजाले, अंधियारों ने
हरदम नृत्य किया है
किन्तु चाँदनी की पायल ने
लय का साथ दिया है
बुझे हुए दीपों को मिलकर
होंगे हमें जलानें

गौड़ जी अपने स्वाभिमान और सच्चाई के लिये जीवन भर लड़ते रहे तथा अब भी उनका संघर्ष कम नहीं हुआ है लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी प्रबल जिजीविषा में निराशा का कोई स्थान नहीं है एवं आज भी वे अप्रतिहत है। संवेदनशील मूल्यनिष्ठा के साथ समय की चुनौतियों का सामना करते हुए वे अपने एकान्त में एकला चलो रेकी छान्दसिक लय में निरंतर अग्रसर रह कर गीतों को नये आयाम दे रहे हैं और आश्वस्त कर रहे हैं कि उनके रहते गीत सर्वदा उर्द्धमुखी रहेगा। ऐसे गीत-ऋषि को मेरा बारम्बार नमन।

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गीत- नवगीत संग्रह - साँस साँस गीत, रचनाकार- मधुकर गौड़, प्रकाशक- सार्थक प्रकाशन, ३०२ / ए , ब्लू ओशन -१, ब्लू एम्पायर काम्प्लेक्स, महावीर नगर , कांदिवली (प.) मुंबई ४०००६७। प्रथम संस्करण- २००६, मूल्य- रूपये २००/-, पृष्ठ- २०४, समीक्षा - मधुकर अष्ठाना।

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