रविवार, 8 मार्च 2015

किन्तु मन हारा नहीं- श्याम श्रीवास्तव

अंकिचन हम कहाँ हैं
पास यादों के/खजाने हैं
हमारे पास जीने के/अभी लाखों बहाने हैं
अपना अमृतवर्ष पूरा कर रहे वरिष्ठ कवि भाई श्यामनारायण श्रीवास्तव 'श्याम' की यह आस्तिक भंगिमा उनकी जीवन के प्रति सात्विक आस्था की परिचायक है। जीने के उनके 'लाखों बहाने' वस्तुतः इस समग्र जिजीविषा को परिभाषित करते हैं, जो सृष्टि की आदिम लीला में सन्निहित हैं। अच्छा लगता है जानकर कि 'जिधर भी हम गये/हमने उधर खींची नई रेखा' का उनका जीवनाग्रह और 'अभी लव पर हमारे/सैकड़ों नगमें तराने हैं' का उनका काव्याग्रह अभी भी पूरी तरह युवा है।
उनके प्रस्तुत तीसरे कविता संग्रह 'किन्तु मन हारा नहीं' का शीर्षक भी तो इसी ओर इंगित करता है। और इस प्रखर जिजीविषा का आधार है वह सकारात्मक जीवानुभवों का प्रतिकार करती उनकी सहज उत्सवी मुद्रा इस संग्रह के तमाम गीतों में उपस्थित दिखाई देती है। संग्रह के पहले ही गीत 'रूप के उस पार' में वे 'मुखड़ा-पंक्तियों' 'यह मुआ/अखबार फेंको/इधर हरसिंगार देखो' से ही जीवन के तमाम नकारात्मक प्रसंगों के प्रतिकार की भावभूमि में उपस्थित दिखते हैं। इसी गीत में आगे वे एकदम ताजे बिम्बों में जीवन के सहज अस्तित्व से हमें जोड़ जाते हैं। देखें तो जरा-
क्या धरा गुजरे-गए में / डोलती मनुहार देखो
चाय बाजू में धरी है / गर्म है, प्याली भरी है
सोंठ, कालीमिर्च / तुलसी, लौंग मिसरी सब पड़ी है
जो नहीं मिलता खरीदे / घुला वह भी प्यार देखो
उपरोक्त पंक्तियों में आज के क्षीण होते एहसासों के बरअक्स सहज प्रीतिभाव को सहेजने का उनका आग्रह बानगी देती है उनकी रागात्मक मानुषी संचेतना की। हाँ, यही तो है वह भावभूमि जिसकी आज के तेजी से अमानुषिक एवं संवेदनशून्य होते परिवेश में नितान्त आवश्यकता है।
 कविता में आत्मपरक किस्सागोई उसे जीवन्त बनाती है। संग्रह की कई कविताएँ इसी आत्मानुभूति का कथानक करती है। ये अतीतगंधी रचनाएँ पलायन की नहीं अपितु जीवन के स्वस्थ स्वीकार की भावभूमि उपजाती हैं। देखें संग्रह के एक गीत का यह अंश-
 बेमौसम भी / पंचवटी में / गाना चलता है

 सावन खूब नहाना / नाव बना के तैराना,
 खुशबू के पीछे / पागल बन / रातों दिन मँडराना,
 साँसों संग / अतीत का / तानाबाना चलता है
यह तो देह की पाँच तत्वों की पंचवटी है, उसमें भीतर की जिजीषु स्वीकृति स्मृतियों के ताने बुनती रहती है और उन्हीं से बनती है कबिरा की 'जतन से ओढ़ी' चदरिया श्याम भाई एक कुशल बुनकर हैं। वे अपनी कविताई की चदरिया विविध रंगी धागों से बुनते हैं। यह धागे हैं आज के तमाम राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ, जिनकी इन गीतों में जगह-जगह सहज बुनावट हुई है। चारों ओर छत एवं प्रपंच का जो वातावरण व्याप्त रहा है, उसकी ख़बर देते हुए वे कहते हैं-
 कागज पर कुछ और / हकीकत केवल / छल ही छल
 दिखता नहीं दूर तक / नंगी आँखों कोई हल
 बहुचर्चित अपराध / दूसरे दिन रद्दी के डिब्बे
 पीड़ित आँखों के हिस्से / आये काले धब्बे
 जिरह पेशियों बीच / मौत जाती आदमी निगल मुश्किल यह है कि आम आदमी को
 सौ तीरों की जद में / यहाँ खुले में रहना है
 तख़्त और आतंक / बीच पाटों में पिसना है
 बेलगाम हर तंत्र / कसें तो कैसे कसें लगाम
यह जो हमारी सामाजिक संरचना का अपराधीकरण हुआ है, उसके लिए जिम्मेंदार है हमारी स्वयं की निष्क्रियता और उदासीनता, कवि की अन्तर्व्यथा इसी को लेकर है। वह कहता है-
'कैसी खुशियाँ/जहाँ जवानी भी/घुटनों के बल चलती है
रात नहीं चुप्पी खलती है'
कैसा मानुस/अन्यायी के सम्मुख/चारण बन जाता है।
हमें शिकायत उन शहरों से/हमें शिकायत उन गलियों से
जहाँ अनय की टीस/क्रोध में नहीं/आँसुओं में ढलती है।
और उनकी खीझ इसी बात को लेकर है क्या करिए/ऐसे पौरूष का/आंतकों के पाँव पखारे।

एक ओर अनय और आतंक से न जूझ पाने की यह टीस और दूसरी ओर मनुष्य की विपदाओं की बढ़ती फेहरिस्त/ संग्रह का 'कुढन' शीर्षक गीत इन्हीं आपदाओं की गाथा कहता है! 'ऊधो! कठिन हो गया जीना' का एहसास लिए इस गीत की बिंबाकृतियाँ एकदम सहज और सपाट हैं और आज की किसिम-किसिम की दुविधाओं का हवाला देती हैं। एक ओर 'कम्प्यूटर/मोबाइल आगे/चिट्ठी, नेह-निमंत्रण भागे' की व्यथा है, तो दूसरी ओर 'सूत-सूत में/ठनी लड़ाई/छिन्न-भिन्न चादर के धागे/दाँव-पेंच के पौ-बारह है’ के माध्यम से घर के बिखराव की पीर का बिम्बात्मक अंकन है। 'मँहगाई की तिरछी चालें, जिसमें दूध-दही/गुड़-शक्कर जैसी आम पोषण की जिनसे दुर्लभ हो गयी हैं के साथ तिल-तिल/आदर्शों से गिरना' की कुढ़न भी है। आज एक ओर है हाट-संस्कृति का दबाव तो दूसरी ओर है जीवन मूल्यों का अधःपतन/'कुढ़न' गीत में इनके ही हम रू-ब-रू होते हैं।
'घाट-घाट पर/बैठे पंडे/सच्चों के सिर बजते डंडे
सजीं दुकानें/क्षत्रप बाँटें/दुराग्रही ताबीजें-गंडे
रखवारों ने ही/डोली का/चैन पिटारा छीना'
एक अन्य गीत में श्याम भाई, 'दिन घोटाले/रात रंगीली' वाले समसामयिक परिवेश की भ्रष्ट घुनखाई हालत को बदलने का आह्वान करते हैं। इसके लिए 'आलस की जंजीरें' तोड़ कर संकल्पों की अलख जगाने की बात करते हैं।
पारिवारिक उलझनों का हवाला देते कई संग्रह में हैं। 'आँगन बन बैठे जलसाघर' के वर्तमान अपसांस्कृतिक माहौल में घर की संरचना और सामान्य रिश्ते-नाते में जो बदलाव आया है, उसका हवाला 'बापू', 'माँ, 'चिट्ठी आई', 'कैसे रहे शहर में', 'भग्न हृदय' जैसे गीतों में बखूबी हुआ है। बुढ़ापे की जो दुविधाएँ हैं और उसके प्रति युवा पीढ़ी के सोच में जो बदलाव आया है, उसके इंगित इन गीतों में जगह-जगह मिलते हैं। आज पीढ़ियों का अंतर भारतीय समाज की मूल इकाई परिवार के विघटन का कारक औ पर्याय बन गया है। और फिर जाने-पहचाने, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आये सांस्कृतिक परिवेश का बिखराव। इस सबके प्रति एक उम्रदराज व्यक्ति की क्या सोच है, इसी का ज़िक्र हुआ है संकलन के शीर्षक गीत 'किंतु मन हारा नहीं' में। अतीतजीवी होना उसकी परवशता है और संभवतः आवश्यकता भी। व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर वह समग्र बिघटन-टूटन का भोक्ता जो है। देखें, उस कविता का कुछ अंश-
'जी रहे हैं उम्र/रेगिस्तान में/लड़ते समय से
हाँ एक ओर...उड़ गई चिड़िया-चिरौटे/दिन बचे बेचारगी के'

'अब कहाँ/वे कहकहे/रंग इन्द्रधनुषी जिन्दगी के,' की अकेले पड़ जाने की व्यक्तिगत व्यथा
तो दूसरी ओर 'ऊबता जी/हर घड़ी सुन/अटपटे संवाद घर में
और सुनते उधर डेरे रहजनों के/हैं शहर में' का सामूहिक सामाजिक एकसास
और इनके बीच में कवि का संवेदनशील सांस्कृतिक मन 'कहाँ जायें/कट सनातन/संस्कृति की गूँज लय से' की अपने परिवेश से निर्वासन की नियति को झेलता हुआ। किंतु उसकी जिजीविषा एवं रागात्मक इयता हार नहीं स्वीकारती-
'वक्त नाजुक है/पता है/ किंतु मन हारा नहीं है
ढाल देखे/उस तरफ/वह जाये, जलधारा नहीं है
तन शिथिल/पर मन समर्पित/टेक पर अक्षत हृदय में'
संग्रह की एक और रचना का जिक्र करना यहाँ जरूरी है। वह रचना है 'रामरती'। इस कविता में एक पूरा रेखाचित्र है एक कर्मठ जिजीविषा का। रामरती मात्र एक चरित्र नहीं, वह तो प्रतीक है भारतीय अस्मिता का, जो तमाम संघर्षों के बीच भी उत्फुल्ल जीवन्त बनी रहती है। समूची सृष्टि से जुड़ने का जो सगा भाव है। आज इस महाभाव की मानवता को कितनी जरूरत है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। वेसे तो पूरी कविता ही पठनीय है, किंतु यहाँ उसका कुछ अंश देखें-
'कुत्ता-बिल्ली/पुरा पड़ोसी/सबको प्यारी रामरती
थकी देह भी/खिलखिलकरती/सबसे मिलती रामरती
गीली माटी सा/कोमल मन/पल में फागुन, पल में सावन
हमदर्दी के/बोल बतासे/अक्सर कर देते वृन्दावन
छिछले पानी में भी/अक्सर, तिरने लगती रामरती
बेमौसम भी/हरसिंगार-सी/झरने लगती रामरती'
एक समूची भारतीय नारी की यह प्रतीक-कथा, सच में अनूठी बन पड़ी है। मेरी राय में, यह रचना इस संग्रह की ही नहीं, पूरे हिन्दी गीत-साहित्य की एक उपलब्धि है। साधुवाद है भाई श्यामनारायण 'श्याम' का इस एक रचना हेतु ही।
श्याम भाई मेरे अग्रज हैं, प्रणम्य हैं उनसे मेरा परिचय कुछेक सालों का ही है। वे एक विनम्र सीधे सरल व्यक्ति हैं और यही उनकी पूँजी है। पारम्परिक गीत के वे पुराने गायक हैं। उन गीतों से जब मैं कुछ वर्ष पूर्व परिचित हुआ, तो मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ था कि उनमें भी कई बार ऐसे ताजे-टटके अनुभूति-बिम्ब उभरे थे कि नवगीत के रचयिताओं को भी उनसे ईर्ष्या हो। प्रस्तुत संग्रह के सभी पैंतालिस गीत नवगीत की कहन-भंगिमा के इतने अधिक निकट हैं कि उन्हें नवगीत कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। उम्र के पचहत्तर के पड़ाव पार के इस युवा मन गीतकार को मेरा विनम्र प्रणाम। अभी तो उनकी गीतयात्रा के कितने ही पड़ाव शेष हैं। प्रभु से प्रार्थना है कि हमें वर्षों-वर्षों तक उनके सहयात्री बनने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे।
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गीत- नवगीत संग्रह - किन्तु मन हारा नहीं, रचनाकार-श्याम श्रीवास्तव, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण- २००९, मूल्य- रूपये १५०/-, पृष्ठ- १०४, भूमिका से- कुमार रवीन्द्र

1 टिप्पणी:

  1. श्याम श्रीवास्तवजी, कुमार रविन्द्र जी आप दोनों को नमन. संग्रह

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