शनिवार, 14 मार्च 2015

अब तक रही कुँवारी धूप- निर्मल शुक्ल

गीत-धर्मी पत्रिका 'उत्तरायण' के यशस्वी सम्पादक श्री निर्मल शुक्ल का सद्य प्रकाशित नवगीत संग्रह "अब तक रही कुँवारी धूप" पढ़ कर मन को सुखद अनुभव हुआ। प्रस्तुत कृति उन्होने अपनी अर्द्धागिनी को समर्पित की है, जिन्होंने उनके जीवन और सृजन में ‘शाश्वत संगिनी' की भूमिका निभाई है। "आभार" के अर्न्तगत ‘बैसवारे की साहित्य-उर्वरा धरित्री' से लेकर अपने ‘पुरखों' तक का स्मरण (जो उनके प्रेरक, मार्गदर्शक और सहयोगी रहें हैं) कवि के सहज स्नेही आत्मीय और कृतज्ञ हृदय का परिचायक है।

शुक्ल जी ने गीतों को ‘शब्द यात्रा' के पाँच खण्डो में विभाजित किया है- १)स्तवन २)किरणों के संबंध ३)सुधियों की अनुगंध ४) मौसम के अनुबंध, और ५) अंतर की सौगंध। इनके अर्न्तगत बत्तीस नवगीत संकलित हैं। 'अथ' में कवि ने अपने रचनात्मक सरोकरों को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- "गीत की लयबद्धता, सहजता, रागात्मकता एवं गेयता की अरूणिमा से अनुप्राणित होकर... हमारे-आपके बीच से, प्रकृति के पारदर्श धरातल से, संवेदनाओं की अस्फुट ध्वनियों से, प्रचलित सामाजिक रीतियों से... समन्नत हुए ये स्वच्छन्द सुमन नितान्त स्वान्तः सुखाय तो कहे जा सकते है, किंतु समकालिक परिवेश में अनुभूतियों एवं अनुभवों के पारेषण से विलग नहीं।"

संग्रह का नामकरण ‘अब तक रही कुँवारी धूप' बड़ा आकर्षक, रोमांटिक, कल्पना-प्रसूत, भाव-प्रवण और गीतात्मक है। इस हेतु निर्मल जी को हार्दिक बधाई। प्रारंभ में ही संग्रहीत गीतों के संबंध में, मैं विद्वान समीक्षकों के अभीमत देना चाहूँगा।
"ये गीत नैसर्गिक प्रणय के नवीन संस्कार से अनुप्राणित हैं - डा. भारतेन्दु मिश्र।"

"इन नवगीतों में प्रकृति के मोहक चित्र हैं, मूल्यों में वेदना है और समकालीन जीवन की विडम्बनाओं और विसंगतियों का चित्रण है। परंतु इन गीतों का जो सबसे उज्जवल पक्ष है वह है इनका आशावादी स्वर"- डॉ. राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर'।

"संग्रह के नवगीतों की समग्र वैचारिक ऊर्ध्वता, मानवीय उदात्तता और सांस्कृतिक सम्पन्नता का गहरे से अहसास करती है"- डॉ. सन्तोष कुमार तिवारी।"
"इन गीतों की सृजन-प्रकिया से गुजरते हुए कवि और कविता को पृथक-पृथक खोज पाना संभव नहीं। संवेदना अनुभूति कही हँसते मुस्कुराते हुए, कहीं अवसादपूर्ण भाव भंगिमाओं में तो कहीं साधारण मुद्रा में वार्तालाप करती हुई प्रतीत होती है"- साहित्य विभूषण पं. बालकृष्ण मिश्र।

कवि माँ भारती से प्रार्थना करता है-
‘प्रति पल शब्द में गति भरे (पृष्ठ २१)
वह चाहता है-
‘मन को पावन नीर बना लूँ
तन को हिम कैलाश का'

उसके स्वर जाति संस्कारों से रचे बसे हैं-
‘सूर्य लिखे कुलदेवता
किरणें लिखें प्रणाम्'
'लिखे कुँवारी धूप ने
श्रीमान् भगवन् राम।' (पृ॰ ६)

प्रकृति के एक से एक अनूठे और मोहक बिंब इन गीतों में दृष्टवय हैं-
‘जाने किन सुधिंयों में
गुमगुम
बैठी रही बेचारी धूप
रेती, नदिया
बाग, बावड़ी
बँटकर बारी-बारी धूप' (पृ. ३१)

कुँवारी धूप का रूपक देखिए-
‘प्रकृति चित्र में रंग छोड़कर
धरती से आकाश जोड़कर
जाने किसकी
अभिलाषा में
अब तक रही कुँवारी धूप?' (पृ. ३२)

कितने सुंदर और जीवन्त बिंब हैं-
१)‘बिखरे दाने धूप के,
खोल गया
कोई चुपके से
ताने-बाने सूप के।' (पृ. २९)

२)‘तीव्र वेग से नथुने भरता
लेकर लंबे श्वास,
एक अपाहिज भूखा प्यासा
मरणासन्न बुराँस।' (पृ. ८६)

शुक्ल जी ने इन गीतों में प्रेम के धरातल पर विभिन्न ऋतुओं में विरह-मिलन, सुख-दुख, आशा-आकाँक्षा के चित्र पूरी संवेदना के साथ उकेरे हैं। कवि को ‘नेहातुर अनुगंधों के रह-रह कर मिलने वाले आमंत्रण में' जीवन और प्रकृति अपने संपूर्ण सौन्दर्य और आवेग के साथ समुपस्थित है-

‘सोंधी हल्दी सनी हथेली
कुमकुल की सौगंध,
रह-रह कर आमंत्रित करती
नेहातुर अनुगंध' (पृ. २५)

पुरवा के साथ ग्रस्त्र मन की स्थिति देखिए-
‘पुरवा में
वह बात कहाँ अब,
एक निरर्थक शोर रह गया' (पृ. ७३)

तो साजन की कुछ सोंधी सुधियाँ भर कर लाने वाली पुरवाई के कारण उन्हें मौसम अच्छा लगता हैं-

‘गलियारे की नीम लाँघ कर
मेरे घर उतरी पुरवाई
साजन की कुछ सोंधी सुधियाँ
अपने आँचल में भर लाई
नस-नस में
मीठी टपकन है
अब मौसम अच्छा लगता है' (पृ. ६९)

और इसकी परिणति-

‘तन काशी
मन वृन्दावन है,
अब मौसम अच्छा लगता है' (पृ. ७०)

सामाजिक जीवन की विडम्बनाओं और विषमताओं को भी निर्मल शुक्ल ने अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया। युगीन संदर्भों में उनके संवेदनशील हृदय की वेदनाजन्य अनुभूति देखिए-
‘या जब धरती
धुँवा ओढ़ कर
अपना ही घर भूल गयी हो
या बारूदों में
मानवता
फिर सलीब से झूल गई हो' (पृ. ४२))

'क्यों चन्दा
की भोली सूरत पर
काले धब्बे मिलते हैं
बादल के
उजलें पंखों में
क्यों मटमैले पर उगते हैं?

कौन तोड़कर
गया सलोने
कंदीलों से सजे घरौंदे
गुड्डे-गुड़ियों के
अलबेले
संतरंगे गुलदस्ते रौंदे?

किसने काँधों की
डोली के
चेहरों को बेनूर किया है,
लम्हा-लम्हा
बदहाली में
जीने को मजबूर किया है?' (पृ. ४३)

उपयुर्क्त उद्धरण उनके लंबे गीत ‘सूरज की करवट' से उद्धत है। इतने मार्मिक ढंग से व्यक्त ऐसे कटु और अमानवीय यथार्थ के बीच भी शुक्ल जी आशा और यथार्थ का दामन नहीं छोड़ते-

‘यह तय है
फिर सहमा सूरज
एक बार करवट बदलेगा
फिर सिन्दूरी
भोर हँसेगी
धुंध हटेगी दिन निकलेगा
हो न हो
फिर नई रोशनी
सहला जाये घाव घिनौने
इस धरती को
फिर मिल जायें
मौलसिरी के नर्म बिछौने
ऐसी हो कुछ
बात कहो तो
किसके आगे हाथ बढ़ाऊँ?' (पृ. ४४-४५)

भविष्य के प्रति यह आश्वस्ति और आशावादी स्वर इन गीतों की विशेषता है। पूर्ण विश्वास के साथ वे कहते हैं-

‘आँधियाँ जब आयेंगी
मैं द्वार
आऊँगा तुम्हारे
अवनि के
नैवेद्य लेकर
संघनित श्रुति वेद लेकर
वायु के
संवेग में कुछ
शब्द में निःशब्द लेकर
नव प्रतीकों से सजे
आकार
लाऊँगा तुम्हारे'

धूप (२९), हवा (२७), सूरज (४१), टेसू (३२), रात (३९), केसर (३७), फागुन (७७), पुरवा (७३) जैसे परंपरागत प्रतीकों को कवि ने अपने कौशल से सर्वथा नये अर्थों में प्रयुक्त करने में सफलता प्राप्त की है। आग पियें झरबेरियाँ (२७), संकुचित से आयतन वाले दिन (३६), भोर की झीनी सुरहरी चूनरी (३४), जामुनिया उन्माद (३०), लहरों जैसा आलाप (२६), स्वास्तिक माधुर्य (७२), छू लूँ पंख प्रकाश का (२५), यों लगा टेसू हवा में फिर धुला (३३), निर्वसन हिम शिखाएँ (७१), ओस के प्रतिबिंब बुनती (३४), वर्दी पर टँके हुए गौरव की छाप (५४), इंद्रधनुषी आवरण (७२), आँधियों के धुँध में तिरती सौगंध (३६) - जैसे एक से एक टटके बिंब पृष्ठ-दर-पृष्ठ भरे पड़े है। भाषा में लालित्य है। वह प्रांजल व संस्कृतनिष्ठ है। शब्द-विन्यास सुगठित है। उसमें अर्थ-गाम्भीर्य और वैचारिकता ही नहीं, ध्वनियों और बिंबों का निदर्शन भी है। गहन अनुभूति, अभिव्यक्तिगत वैशिष्टय और प्रयोगधर्मी शिल्प निर्मल शुक्ल जी की प्रतिभा के द्योतक है।
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गीत- नवगीत संग्रह - अब तक रही कुँवारी धूप, रचनाकार- निर्मल शुक्ल, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण- २००४, मूल्य- रूपये १५०/-, पृष्ठ- १०४, समीक्षक- श्रीकृष्ण शर्मा

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