उनके प्रकाशित संग्रहों में नवगीतों का संग्रह 'एक चेहरा आग का' अनायास ही ध्यान आकर्षित करता है। इस महत्वपूर्ण पुस्तक पर बहुत कम चर्चा हुई है। वे आरंभ से ही प्रयोगधर्मी कवि रहे हैं और नवगीत तथा नयी कविता दोनों विधाओं के सफल रचनाकार के रुप में उनकी परिगणना होती रही है।
उनकी कविता में प्रेम, सामाजिक दुख-दर्द, मानवीय पीड़ा और मध्यवर्गीय व्यक्ति की विवशता, छटपटाहट और विक्षोभ की बिम्बात्मक अभिव्यक्ति हुई है। वे मुख्यत: संघर्ष, युयुत्सा और जिजीविषा के कवि हैं। 'एक चेहरा आग का' में उनके साठ नवगीत संग्रहित हैं जिन्हें सुविधा के लिए तीन क्रम दिये गये हैं। इन क्रमों का अपना रंग है। इन रंगों का प्रभाव तथा उनकी कविता का महत्व तब और ज्यादा अच्छी तरह समझ में आता है जब हम उनकी सौंदर्यानुभूतियों, जीवनबोध और अभिव्यक्ति के वैशिष्टय के साथ-साथ घर परिवार और समाज में व्यक्ति रूप उनकी हैसियत, कवि व्यक्तित्व, मनोविश्लेषण, उनके आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक परिवेशों तथा उनकी प्राथमिकताओं और प्रतिबध्दताओं पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए चलें। यह तभी संभव है जब हम नवगीत के प्रति अपने सारे दुराग्रहों को त्याग कर एक सच्चे-सहृदय पाठक की तरह इस कवि की रचनाशीलता पर हार्दिकता की नजर रखते हुए उसे पढ़ें। इन गीतों में मानवीय संवेदना के बड़े ही गहरे और मार्मिक संस्पर्श हैं। पुस्तक के ब्लर्ब पर यह कहा भी गया है कि उनकी संवेदना जितनी तरल और सहज है उतनी ही रागमयी विकलता और विक्षोभ लिए एक बेचैन कर देने वाली आग का अहसास भी है उसमें।
'इस तरह दिन कट रहे हैं
भागवत के पृष्ठ से हम
महाभारत रट रहे हैं।'
'तिल धरने को जगह नहीं है
इतने बड़े शामियाने में
गर्दन कहाँ छिपायें।'
जब-जब भी भीतर होता हूँ
आंखें बंद किये
लगता जैसे
जलते हुए सवालों पर लेटा हूँ जहर पिये।
भागवत के पृष्ठ से हम
महाभारत रट रहे हैं।'
'तिल धरने को जगह नहीं है
इतने बड़े शामियाने में
गर्दन कहाँ छिपायें।'
जब-जब भी भीतर होता हूँ
आंखें बंद किये
लगता जैसे
जलते हुए सवालों पर लेटा हूँ जहर पिये।
भगवान स्वरुप ने उन दंभी और चालाक कवियों के लिए जवाबदेही को लेकर बहुत सारे सवाल छोड़े हैं जो बड़े ही गैर-जिम्मेदाराना ढंग से गीत की कहन में आये परिवर्तनों को देख-देख कर जले-भुने जा रहे थे और उनके लिए भी, जो अपने छंद और लय के ज्ञान पर इतराते हुए आंखें मूंदे कोरी गद्य को कविता के नाम पर परोसते हुए अर्थ की लय की दुहाई दे-देकर गीत से घृणा कर रहे थे। भगवान स्वरुप ने लयात्मक संवेदना के साथ अर्थ की लय को प्रयोग के बतौर गीतात्मक रुप में साधा और इस साधना की तकनीक भी अपनी कथ्य-भंगिमाओं और शब्द विन्यास के जरिये विकसित की जिसे उनके गीतों में सहज ही निरुपित होते देखा जा सकता है।
'बादल को
आग पर जला कर देखा
और कभी पानी पर खींची रेखा
जिन्दगी प्रयोगों में काट दी।'
'बाँध कर पहिये
बिवाई फटे नंगे पाँव में
आ गये हैं हम न जाने किस अजाने गाँव में'
छलनी-छलनी लटका
बाबा के बाबा का रेशमी एंगरखा
कोने में पड़ा हुआ वर्षों से
दादी के दादा का, दिया हुआ चरखा
'दूर तक उगे हुए
बबूलों की पांतों पर
फटे-फटे दूध के चकत्तों-सी चाँदनी
चिथड़ों में लिपटी-सी पूनम की रात
और क्वार का महीना है।
अब तो बस ऐसे ही जीना है।'
आग पर जला कर देखा
और कभी पानी पर खींची रेखा
जिन्दगी प्रयोगों में काट दी।'
'बाँध कर पहिये
बिवाई फटे नंगे पाँव में
आ गये हैं हम न जाने किस अजाने गाँव में'
छलनी-छलनी लटका
बाबा के बाबा का रेशमी एंगरखा
कोने में पड़ा हुआ वर्षों से
दादी के दादा का, दिया हुआ चरखा
'दूर तक उगे हुए
बबूलों की पांतों पर
फटे-फटे दूध के चकत्तों-सी चाँदनी
चिथड़ों में लिपटी-सी पूनम की रात
और क्वार का महीना है।
अब तो बस ऐसे ही जीना है।'
कहीं-कहीं उनके गीतों में लय की जो तारतम्यहीनता-सी जान पड़ती है, वह दरअसल तारतम्यहीनता न होकर शब्द विन्यास और लयात्मकता की कथ्यपूर्ण भावान्वितियों के नये प्रयोगधर्मी छान्दसिक संतुलन हैं जिन्हें उन्होंने अपनी आन्तरिकता के साथ बड़े ही कौशल से साधा है। सच कहें तो यह उनका कोमलकान्त पदावली, सधे-बंधे छोटे मीटर के साँचे में ढले कथ्य और घिसे-पिटे फार्मूलाबध्द गीत लेखन के विरुध्द अपनी तरह का सार्थक हस्तक्षेप है जिसमें युगसत्य के अधिकाधिक करीब पहुंचने के तथा गीत सृजन के लिए भाषा-शिल्प के नये वातायन खोलने के उनके संकल्प स्पष्ट रुप से दिखलायी पड़ते हैं। उनकी कविता का एक-एक शब्द अपने व्यापक अर्थ में भावों को समेटे हुए चलता है। वे शब्दों का इस रुप में प्रयोग करते हैं, मानो पाठक के समक्ष अपना दिल खोल कर रख रहे हों। मानो, तनाव और अनुभव की भाषा को स्वाभाविक कहने की भाषा में तब्दील करने के लिए युगचेतना और मूल्य भावना स्वयं उनके शब्दों को अर्थ दे रही हो।
'हिल रही पूरी इमारत
सीढ़ियाँ टूटी हुई मत चढ़।
खोल बस्ता खोल
गिनती रट पहाड़े पढ़!
मत दिखा उभरी पसलियाँ
बैठ, झुक कर बैठ
दर्द भी गा राग से!
आग से मत खेल बेटे आग से!'
'कितना बीहड़ मकान है
खुद की भी कोई आहट नहीं
ऊपर से झरते अवसाद,
देह हो गयी जैसे घोंघे का खोल
पीने को सिंर्फ एक
पकी हुई घृणा का मवाद।'
एक अरसा हो गया
इस अपरिचित कोहराम में ठहरे हुए।
घाव जो लेकर चले थे हम
कटीली रोशनी में
और भी गहरे हुए।''
सीढ़ियाँ टूटी हुई मत चढ़।
खोल बस्ता खोल
गिनती रट पहाड़े पढ़!
मत दिखा उभरी पसलियाँ
बैठ, झुक कर बैठ
दर्द भी गा राग से!
आग से मत खेल बेटे आग से!'
'कितना बीहड़ मकान है
खुद की भी कोई आहट नहीं
ऊपर से झरते अवसाद,
देह हो गयी जैसे घोंघे का खोल
पीने को सिंर्फ एक
पकी हुई घृणा का मवाद।'
एक अरसा हो गया
इस अपरिचित कोहराम में ठहरे हुए।
घाव जो लेकर चले थे हम
कटीली रोशनी में
और भी गहरे हुए।''
भगवान स्वरुप के गीतों का स्वर जीवन के लोकधर्मी संस्कारों में निबध्द एक ऐसा तल्ख, बेबाक और प्रभावकारी स्वर है जो आर्थिक-सामाजिक जकड़बन्दियों से मुक्ति के लिए छटपटाते हुए मनुष्य की पीड़ा और विक्षोभ को असहमति के नये अर्थों में खोलता है।
'कौन बोले
हमीं केवल हमीं थे इस सड़क पर
संग्राम के पहले सिपाही।
वक्त पर बेवक्त पर
हमको बिछाती-ओढ़ती थी बादशाही।
अब हमीं
नेपथ्य से भी दूर धकियाये गये हैं
बज रहे हैं मंच पर
घुंघरु छिनालों के।
कौन उत्तर दे सवालों के।'
हमीं केवल हमीं थे इस सड़क पर
संग्राम के पहले सिपाही।
वक्त पर बेवक्त पर
हमको बिछाती-ओढ़ती थी बादशाही।
अब हमीं
नेपथ्य से भी दूर धकियाये गये हैं
बज रहे हैं मंच पर
घुंघरु छिनालों के।
कौन उत्तर दे सवालों के।'
अपनी सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि और सच्ची आत्माभिव्यक्ति की प्रेरणा के कारण उनकी कविता में नयी संभावनाओं, नयी उपलब्धियों और नये अर्थ गौरव के संकेत स्पष्ट दिखलायी पड़ते हैं, इसी कारण उनकी कविता भाषा और संवेदना के स्तर पर नितान्त सहज और आत्मीय लगती है, मानो, रचनासंघर्ष और स्थितिरक्षा का संघर्ष उनके जीवन व्यवहार के साथ एकात्म होकर प्रवहमान हो रहा हो।
'सुबह की सोची कहानी
शाम को बदली।
कंठ पर जो भैरवी थी
ओंठ पर कजली।
क्या शिकायत और क्या अंफसोस
आदत हो गयी है
मातमी धुन पर बताशे बंट रहे हैं।
इस तरह दिन कट रहे हैं।'
'गाँव छूटा और छूटे
बाढ़-सूखा-र्का के मारे हुए चेहरे।
नीम की हिलती हुई परछाइयों के दर्द
कस कर हो गये गहरे।
तोड़ आये द्वार तक जाती हुई पगडंडियां
राजपथ ये भी किसी दिन छूट जायेंगे।'
'सुबह की सोची कहानी
शाम को बदली।
कंठ पर जो भैरवी थी
ओंठ पर कजली।
क्या शिकायत और क्या अंफसोस
आदत हो गयी है
मातमी धुन पर बताशे बंट रहे हैं।
इस तरह दिन कट रहे हैं।'
'गाँव छूटा और छूटे
बाढ़-सूखा-र्का के मारे हुए चेहरे।
नीम की हिलती हुई परछाइयों के दर्द
कस कर हो गये गहरे।
तोड़ आये द्वार तक जाती हुई पगडंडियां
राजपथ ये भी किसी दिन छूट जायेंगे।'
कभी धूप के टुकड़े झोली में भरता हूँ
और कभी माथे पर मलता हूँ चांदनी
इतना ही बस समर्थ हूँ
और क्या करूँ।
और कभी माथे पर मलता हूँ चांदनी
इतना ही बस समर्थ हूँ
और क्या करूँ।
इस बरस
ऐसे हिले पर्दे घटाओं के
लिख उठीं नवगीत
होंठों पर वनस्पतियाँ।
ऐसे हिले पर्दे घटाओं के
लिख उठीं नवगीत
होंठों पर वनस्पतियाँ।
एक बूंद टपकी
आस बँधी फिर संवत्सर की।''
आस बँधी फिर संवत्सर की।''
भगवान स्वरुप ने पुरानी भावस्थितियों पर वृहत्तर मानवीय-सन्दर्भों से कटे निरे आत्मरोदन से भरे गीत के उबाऊ स्वरुप और स्वभाव को बदली हुई परिस्थितियों में अपर्याप्त मानते हुए उसके रुढ़ साँचों-ढाँचों को तोड़ कर अपना एक अभिनव कथ्यपूर्ण शिल्प विकसित किया है। यह जोखिम उन्हें इसलिए भी उठाना पड़ा क्योंकि कथ्य की चुनौतियाँ मुँह-बाए खड़ी थीं। नवता और आधुनिकताबोध के तकाजों पर पुराना गीत निपट गूँगा बना हुआ था। जीवन स्थितियों की भयावहता और यथार्थ के थपेड़ों के बीच अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे आदमी से उसकी संवेदना के तार कभी ठीक से जुड़ नहीं पाये। बदले हुए परिदृश्य को न उसने उसके साथ अन्तरंग होकर कभी समझने की कोशिश की और न उसे कथ्य भंगिमा के साथ भाषा-शिल्प के नये संस्कार ही दे पाया। नवगीत ने पुराने और रुढ़ गीत के इस व्यामोह को समझा और उसे तोड़ कर कहन के नये और जीवन्त मुहावरे का विकास किया। नयी परिस्थितियों और आत्मस्थिति के द्वन्द्व के बीच वह चुनौतियों का सामना करने के लिए अपने उपादनों की जाँच की प्रक्रिया तेज करते हुए अपने आपको तैयार कर रहा था। इस संकल्पशीलता ने नवगीतकार को पुराने कल्पनाविलासी गीतकारों से अलग कर दिया। यह गीत-नवगीत की निजी स्तर की लड़ाई उतनी नहीं थी, वरन, गीत की दाँव पर लगी अस्मिता की रक्षा करने के लिए परिदृश्य पर उभरी खिल्लीभरी चुनौतियों से रु-ब-रु होने की ज्यादा थी। भगवान स्वरुप इस सोच और संवेदना को लेकर उभर रहे प्रारंभिक दौर के उन प्रतिभाशाली कवियों में से एक थे जिन्होंने नवगीतकार के रुप में हिन्दी काव्य जगत में बड़ी सादगी और शालीनता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उनके हर गीत में मानवीय संवेदना और युग चेतना के बड़े गहरे आशय और उससे भी कहीं गहरे ऐसे अर्थ छिपे हैं कि जब वे खुलते हैं तो एक विद्युत्मयी उजास के साथ उनकी कविता निखरती चली जाती है। वह फिर गँवई, शहरी या महानगरीय संवेदना की वाहकमात्र न होकर समूची मानवीयता, प्रेम और करुणा की संवाहक बनकर स्फुरित हो उठती है।
'उगा आधा सूर्य आधा चाँद
हिस्सों में बँटा आकाश।
एक चेहरा आग का है
दूसरे से झर रहा है
राख का इतिहास।
ऑंधियों में मोमबत्ती की तरह
ंखुद को जलाता-फूँकता है आदमी।
खींच कर परछाइयों के दायरे
आइनों पर घूमता है आदमी।'
'हादसे-सा उगा दिन
काँपे इमारत-दर-इमारत
हाशियों-से खिंचे जीने।
चीखते सैलाब में धंसकर अकेली
चाहती है ािन्दगी
पल-क्षण-महीने।
बाँह से जुड़ती न कोई बाँह
जैसे आ गये हों हम
किसी बन्दी शिविर में।
क्या किया आकर तुम्हारे इस नगर में!''
'उगा आधा सूर्य आधा चाँद
हिस्सों में बँटा आकाश।
एक चेहरा आग का है
दूसरे से झर रहा है
राख का इतिहास।
ऑंधियों में मोमबत्ती की तरह
ंखुद को जलाता-फूँकता है आदमी।
खींच कर परछाइयों के दायरे
आइनों पर घूमता है आदमी।'
'हादसे-सा उगा दिन
काँपे इमारत-दर-इमारत
हाशियों-से खिंचे जीने।
चीखते सैलाब में धंसकर अकेली
चाहती है ािन्दगी
पल-क्षण-महीने।
बाँह से जुड़ती न कोई बाँह
जैसे आ गये हों हम
किसी बन्दी शिविर में।
क्या किया आकर तुम्हारे इस नगर में!''
अपने नवगीतों को भगवान स्वरुप ने करुणा और संवेदना का एक अनूठा चेतनामय स्पर्श दिया है, इसीलिए, वे अनुभूत युगीन यथार्थ को सामाजिक सच्चाई के साथ तद्रुप करके उसे एक नयी प्रासंगिकता दे पाये हैं।
'धुँधुआती कन्दीलें बेहतर थीं
सूरज ने काट ली चिकोटी।
सन्नाटे का अपना एक अलग सुख था
भीड़ में कटी बोटी-बोटी।
दुपहर की इस आतिशबाजी में
बेमानी लगते हैं फूल रोशनी के।
सपने जंजाल हुए जी के
मेले-से दिन भी लगते फीके-फीके।''
'धुँधुआती कन्दीलें बेहतर थीं
सूरज ने काट ली चिकोटी।
सन्नाटे का अपना एक अलग सुख था
भीड़ में कटी बोटी-बोटी।
दुपहर की इस आतिशबाजी में
बेमानी लगते हैं फूल रोशनी के।
सपने जंजाल हुए जी के
मेले-से दिन भी लगते फीके-फीके।''
सामाजिकता की सारी टीसें और कड़वाहटें उनके पारिवारिक संबंधों में भी प्रेम की ऐसी खामोश रंगमयता घोलती हैं कि उसके छींटे उनके गीतों पर पड़े बिना नहीं रहते।
'धूप अगहन की
छाँह हो जैसे प्रिया के
हल्दिया तन की।'
छाँह हो जैसे प्रिया के
हल्दिया तन की।'
बिस्तर की एक-एक सलवट पर कौंध गये
बीते अध्यायों के अनछुए प्रसंग।
बंर्फ हुई खिड़की पर खौलती प्रतीक्षायें
दुखते एकान्तों के गहराये रंग।
फटे हुए रिश्तों में फिर
गहरी मनुहार हुई।
क्वारी इच्छायें चटकीं
ज्यों सेमल रुई-रुई।
मौसम की खंजरी बजाता
लोकगीत-सा मन।
दर्पण की धूल पोंछते ही
उग आया
काँच पर गुलाब।
बीते अध्यायों के अनछुए प्रसंग।
बंर्फ हुई खिड़की पर खौलती प्रतीक्षायें
दुखते एकान्तों के गहराये रंग।
फटे हुए रिश्तों में फिर
गहरी मनुहार हुई।
क्वारी इच्छायें चटकीं
ज्यों सेमल रुई-रुई।
मौसम की खंजरी बजाता
लोकगीत-सा मन।
दर्पण की धूल पोंछते ही
उग आया
काँच पर गुलाब।
स्त्री-पुरुष का प्रेम एक सर्वकालिक शाश्वत विषय है। जब तक मनुष्य है तब तक अपने उत्ताप के बहुरंगी संघटक-विघटक उपादानों के साथ मानवीय संवेदना के रुप में स्त्री-पुरुष के बीच अपने रंगमय स्वरुपों की विविधता लिए प्रेम जीवित रहेगा। प्रेमगीत हिन्दी में खूब लिखे गये हैं, इतने, कि इन्हीं भावविलासी प्रेमगीतों ने गीत विधा को चौपट भी किया। नवगीत में व्यापक जीवन संदर्भो को अहमियत देने के कारण मानव अस्तित्व से जुड़े इस विषय को हाशिये पर डाल दिया गया। यांत्रिक ढंग से लिखने वालों से भिन्न कुछ ऐसे भी कवि थे जिन्होंने प्रेमगीतों को ऐच्छिक विषय की कोटि में डाल कर बाद के लिए नहीं छोड़ा। प्रक्रिया में आये हर भाव और विचार को समाजसापेक्ष रुप में उन्होंने गीत में बांधा, इसीलिए, नवगीत में प्रेमसंबंधों की इतनी सुंदर और अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति हो पायी है जिसे यदि कोरे रुमान से जोड़कर सतही नारिये से न देखा जाये तो इस अभिव्यक्ति का रंग बेहद संवेद्य और मार्मिक है। क्योंकि हम भगवान स्वरुप के नवगीतों पर चर्चा कर रहे हैं, इसलिए, इन गीतों की संवेदी मार्मिकता और बढ़ जाती है-
'एक आग लमहा-दर-लमहा
जली शिराओं में
धुऑं उठा
दूधिया धुली समवेत ऋचाओं में
गूंगी हवा मुँडेरों पर
सन्नाटे चुभो गयी।
एक सीपिया याद
दृगों में मोती पिरो गयी।
करवट-दर-करवट अटकी
सिरहाना भिगो गयी।''
फिर किवाड़ों से चिपक कर रह गयी
पर्दे हिलाती
वह गठीली बाँह।'
'अभी-अभी देहरी पर छोड़ गया
एक और आश्वासन डाकिया
एक शब्द प्यार और हस्ताक्षर
शेष पृष्ठ हाशिया।'
'बाँध आये हम तटों पर डूबते तिनके
नदी की धार से
चले आये हम
हँसी के इन्द्रधनुष उतार के।'
'एक चेहरा आग का' के नवगीतों में भगवान स्वरुप ने मनुष्य के दुख-सुख, जीत-हार, विक्षोभ और बेचैनी की कथाओं को एक सधी और मंजी हुई काव्य भाषा के नये और जीवन्त मुहावरे में अपनी अनुभूतियों के रंगों के साथ, ऐसे बुना है मानो भाषा और अनुभूति उनके कथ्य-शिल्प के साथ अन्तर्गुम्फित हों।
'टूटी हुई हड्डियों पर
लटका है अधर महल।
ताले बन्द चाभियाँ गुम
भीतर-भीतर हलचल।
'एक हिरन
गूंजों-अनुगूजों दूरी नाप गया।
टहनी-टहनी कस्तूरी भ्रम
जंगल काँप गया।'
'अपनी ही हत्या को प्रस्तुत मैं
काँपती ऍंजुरियों में रक्त-सा छलकता हूँ
इतना ही बस समर्थ हूँ
और क्या करुँ!''
समूचे अस्तित्व को ही हिला देने वाले गहरे जानलेवा स्थिति रक्षा के संघर्ष से गुजरते हुए रचनाकर्मरत भगवान स्वरुप 'सरस' को जिसने देखा है, उसे यह समझते देर नहीं लगेगी कि किस तरह से यह थका-हारा कवि अपनी रचनाशीलता की शर्तों पर जिंदगी से जूझता हुआ कविता में हमेशा ऊर्जावान और जीवन्त बना रहा और किस तरह उसने परम्परा से छन कर आये गीत के स्वरुप-विकास में अपनी भूमिका सुनिश्चित की। यथार्थदृष्टि के बोध को अपनी तरह से विश्लेषित करने और एक सार्थक द्वन्द्व में उसे संघटित करने वाली धारावाहिक चेतना उनके गीतों में कितनी पूर्णता पा सकी है, यह भले ही एक विचारणीय प्रश्न बना रहे, लेकिन, हिन्दी नवगीत के उद्भव और विकास के इतिहास में इन गीतों के महत्व को बड़ी हार्दिकता से रेखांकित किया जाता रहेगा।
यहाँ यह बात उल्लेखनीय है काव्य रचनाकर्म से जुड़े लोगों को ध्यान में रखते हुए कि जनमानस और अपने-कविमानस की संवेदनात्मक हलचलों को यदि हम नहीं सुन पाते तो हमारे लिए इन सारी बातों या भगवान स्वरुप जैसे कवि की कविता की मूलभावना और उसकी अर्थव्याप्ति का कोई मूल्य नहीं है। भगवान स्वरुप अब इस दुनिया में नहीं हैं और विडम्बना भी कैसी कि वे अपनी इस पुस्तक को प्रकाशित रुप में भी नहीं देख पाये। इन पंक्तियों के लेखक ने उनकी डायरियों से चुन-चुनकर बड़े जतन से इस पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार की। पुस्तक को यह नाम दिया। इस सबका भी क्या मूल्य रहता यदि स्व. मायाराम सुरजन की कृपा न हुई होती तो। उन्हीं के प्रयास से यह पुस्तक मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से छपी। 'एक चेहरा आग का' आज हिन्दी नवगीत की धरोहर है।
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आदरणीया,आपको चरण- स्पर्श आपने नवगीत की पाठशाला के माध्यम से "भगवान स्वरुप " को पुनः जिन्दा
जवाब देंहटाएंकर दिया हम लौग जैसे थोडे बहुत ही इन्हे जानते है आपने इनको इनके गीतों को जिन्दा कर दिया
राम सेंगर जी का लेख भी पुनः जीवित हो उठा----आपको साधुवाद
आपके सहयोग और सुंदर शब्दों के लिये हार्दिक आभार
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