गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

पहला दिन मेरे अषाढ का- नईम

कहते हैं, नदी और कविता में एक फर्क यह भी है कि नदी एक दिशा में अनंत काल तक बहती रहती है, जबकि प्रत्येक नई कविता दिशागत एवं कथ्यगत नवीनता लिए होती है। यह नवीनता ही इनके होने का प्रमाण भी है। नवगीत को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। इसे हम गीत का विकास भी कह सकते हैं। नईम का संग्रह ’पहला दिन मेरे आषाढ़ का‘ भी इसी दिशा में एक पहल है।

नईम के गीतों के संबंध में विजय बहादुर सिंह की टिप्पणी उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा है, ’बीसवीं सदी के सातवें दशक में कई कविता के अतिवादी दुराग्रहों और हृदयविरोधी अभियानों की अतार्किकता को जिस नवगीत पीढ़ी ने अपनी काव्य प्रतिभा से लक्षित किया था, नईम उसके सशक्त हस्ताक्षर रहे। धर्म, जाति, संप्रदाय, समूह और वर्गसमाज, भाषा और उसकी राजनीति तक इस कवि की निगाह में है।‘

इस संग्रह के गीतों में राजनीतिक चेतना तो है ही, उससे भी अधिक मानवीय चेतना है। बदलते जीवन मूल्यों की विसंगतियों की ओर लक्षित कर अनेक गीत इस संग्रह में हैं। इन विसंगतियों को कवि ने कई-कई कोणों से व्यक्त किया है।
’जीवन भर
जीवन यह दोमुंहा जिया
बार-बार काटा
खुद का लहू पिया।‘

जीवन की इससे बड़ी विसंगति और क्या हो सकती है कि जो जैसा है वैसा नजर नहीं आता। प्रत्येक व्यक्ति दोहरा जीवन जीने को अभिशप्त है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को समझना कितना कठिन है, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। इसका सर्वाधिक शिकार आज की राजनीति है, जो अनेक रूपों में दिखाई देती है। इसका विस्तार संसद से लेकर साहित्य-संस्कृति तक हो चुका है। ऐसी स्थिति में यह पता नहीं कि कौन कहां जा रहा है। इस विडंबना की अभिव्यक्ति इन पंक्तियों में महसूस की जा सकती है-
’नागर दिन हो न सके नीम गाछ छांहों से,
दोराहे पूछ रहे बढ़कर चौराहों से!
जाना है कहां,
कुछ पता तो दो!
मंहगाई, मौसम के,
हाल कुछ बता तो दो,
पूछ रहे भूखों की खैर चरागाहों से!‘

नईम अपने इन गीतों में जीवन को समग्रता में देखते हुए लगते हैं। उनके यहां जीवन का दर्द है तो मन का उल्लास भी है। बंद कमरे की घुटन है तो खिड़कियों से आती बयार भी है। कवि के पास वह सूत्र है जिसके सहारे वह तमाम विद्रूपताओं को देखता है। सच तो यह है कि पूरा का पूरा समय इन गीतों में दिखाई देता है। खासकर आजादी के बाद सपनों का टूटना और उस टूटन से दिलों का टूटना इन गीतों में विशेष रूप से महसूस किया जा सकता है।

नईम के इन गीतों की खास विशेषता यह है कि इनका सरोकार एक वृहत्तर उद्देश्य से जुड़ा हुआ लगता है। इसलिए नईम के गीत सिर्फ भाषा की जुगलबंदी न होकर दायित्वबोध से संपृक्त लगते हैं। जिन कारणों से हिंदी गीत मुख्य धारा से कटते चले गए नईम उन कारणों को बखूबी जानते हैं। इसलिए इनके गीतों में वह लिजलिजापन नहीं है सिर्फ नाजुक बयान भर करते हैं।

संग्रह के गीतों में शीर्षक नहीं हैं। कुछ लोग इसे शीर्षकविहीन गीत भी कह सकते हैं, लेकिन जिन्हें गीत चेतना की समझ है, वे इस बात को जानते हैं कि नईम ने ऐसा अनजाने में नहीं किया है। बल्कि जानबूझकर उन्होंने गीतों में शीर्षक नहीं दिए। गीतों के शीर्षक देना नईम जरूरी नहीं समझते हैं। हालांकि ऐसा इनके सभी संग्रहों में नहीं है। इन गीतों में जीवन की ऊष्मा है तो यथार्थ का तल्खी भी। जीवन के अनुभव से उपजे इन गीतों में जो बोध है उसे समझने के लिए काल मर्म के अलावा यथार्थबोध भी होना चाहिए। विजय बहादुर सिंह ने ठीक ही लिखा है, ’नईम के इन गीतों में यह बोध अपनी मार्मिक प्रखरता के साथ विद्यमान है। इस दृष्टि में सुबह की धूप का गुनगुनापन दोपहर की प्रचंडता तो है ही, शाम की ललछौंही आभाएं भी अपनी प्राकृत मुस्कानें बिखेर रही हैं। विचार और वेदना की यह भागीदारी ही इन गीतों की पहचान है।‘ निश्चय ही ये गीत सिर्फ गीत हैं, बल्कि अपने समय का दस्तावेज काव्य रूप भी हैं।

इसके बावजूद संग्रह में कुछ गीत ऐसे भी हैं जिन्हें पढ़ते हुए ये नईम के नहीं लगते। जब कोई रचना किसी रचनाकार की होकर भी उसकी न लगे तो इसका एक अर्थ यह भी होता है कि पाठक उस रचनाकार से बहुत अधिक अपेक्षा करता है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि सभी अच्छे रचनाकार सारी रचनाएं अच्छी ही करते हैं। सच तो यह है कि अच्छे से अच्छे संग्रहों में भी ऐसी रचनाएं कम ही होती हैं जो लेखक को पहचान दे सकें।

नईम को पहले से ही इनके गीतों से पहचान मिल चुकी है और इस संग्रह में भी ऐसे अनेक गीत हैं। नईम के यहाँ प्रयोग है तो परंपराबोध का अहसास भी। हिंदी में इधर एक विचित्र प्रकृति विकसित हो रही है। वह यह कि परंपरा का विरोध वे लोग कर रहे हैं जिन्हें परंपरा का ज्ञान ही नहीं है। परंपरा अगर रूढ़ि हो रही हो तो उसका विरोध निश्चित रूप से होना चाहिए। कोई भी परंपरा पूर्ण नहीं होती। जब हमारे जीवन मूल्य बदल रहे हैं तो परंपराए भी बदलेंगी ही, लेकिन उस बदलाव के पीछे एक सार्थक तर्क को होना ही चाहिए। निराला इसलिए बड़े कवि हैं क्योंकि उन्होंने न सिर्फ परंपरा का विरोध किया बल्कि अपने द्वारा स्थापित मान्यताएं भी बार-बार तोड़ते रहे लेकिन उनका दूसरा पक्ष यह भी था कि निराला जितना परंपरा को जानने वाले कम ही लेखक हैं। नवगीत में कभी निराला ने जो प्रयोग किए उनसे आगे की बात तो दूर उनके आसपास भी अभी कोई नजर नहीं आता, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि निराला तक आकर प्रयोग और प्रतिभा का रास्ता समाप्त हो जाता है। रास्ते उनसे बहुत-बहुत दूर जाते हैं जिन पर अपने समय का सार्थक रचनाकार यात्रा कर सकता है।

नईम अपने तरह के अकेले रचनाकार हैं। यही उनकी विशेषता भी है। उनका निजपन इस संग्रह के गीतों में भी दिखाई देता है। अपने समय को रेखांकित करने वाले ये गीत अपने समय के साथ हैं। इसलिए अपने समय के बाद भी बने रहेंगे ऐसी उम्मीद है।
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पुस्तक- पहला दिन मेरे अषाढ़ का', रचनाकार- नईम, प्रकाशक- आलेख प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१२, मूल्य-रू. २००/-, पृष्ठ-१९०, समीक्षा लेखक- राधेश्याम तिवारी,

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