इस नवगीत संग्रह में जीवन की श्रमशील स्थितियों, संघर्षो, प्रकृतिजन्य बाधाओं एवं सामाजिक आवश्यकताओं की भावभूमि पर यथार्थवादी अंकन देखने को मिला है। वैयक्तिक, सामाजिक एवं कलात्मक प्रकार्यों को प्रमाणित करनेवाला यह नवगीत संग्रह ‘संघर्षो के शिलालेख’ अपने प्रयोजनमूलक आयाम विस्तृत करने में सफल सिद्ध है जिसके केंद्र में ग्राम्य संस्कृति है। यहाँ आचार्य शुक्ल का कथन सहसा स्मरण हो आता है जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है कि ‘भारतीय जनता का सामान्य स्वरूप पहचानने के लिए पुराने परिचित ग्राम्य गीतों की ओर ध्यान देना आवश्यक है, केवल पंडितों द्वारा प्रदर्शित काव्य परंपरा का अनुशीलन ही अलं नहीं|’
लोकसंस्कृति नवगीत संग्रह में ग्राम्य संस्कृति के रूप में उभरी है जिसका रहस्योद्घाटन नवगीतकार ने अपनी रचनाओं में किया है। उसने लोकजीवन के समाज को सामान्यजन्य की आशाओं, आकांक्षाओं एवं अभिलाषाओं के साथ जोड़ने का उपक्रम इन नवगीतो में किया है ताकि पाठक और श्रोता से उनका रागात्मक संबंध स्थापित हो सके। नवगीतकार का मानवता के प्रति उत्कट अनुराग, अटूट आस्था एवं विश्वास है जिससे उसका लोक जीवन और प्रकृति के प्रति गहरे संवेदनात्मक लगाव का पता चलता है। ‘सहयोगी जी’ के रचनाकार की यह विशेषता है कि उसने बोलचाल की भाषा को सँवारा है, निहारा है, अर्थगर्भित किया है, संवेदनशील बनाया है तथा प्रचलित-अप्रचलित भोजपुरी बोली और भाषा के शब्दों को उपयुक्त स्थान देकर रचना में सतर्कता के साथ पिरोया है। इस प्रकार उनका शब्दशिल्पी रचनाकार मूल्यों से आबद्ध जीवन जीता है तथा मूल्यों के रक्षार्थ वह जीवन की जटिलताओं से जूझते-संघर्ष करते हुए अपनी रचनाधर्मिता का निर्वाह करता है।
गाँवों के बाँधों पर हँसता हुआ शीशम कट जाने से रचनाकार क्षुब्ध है, दु:खी है। गाँव के वृन्दावनों में वह कृष्ठा को व्यथा-कथा सुनाना चाहता है। मानवता के संयोगों से संपर्क न होने के कारण वह व्यग्र है, आकुल-व्याकुल है क्योंकि नई सदी के बदलावों में वह अलग-थलग तर्क पाता है फिर भी वह राहत की अनुभूति करता है क्योंकि ‘झोंपड़ियों के परिधानों की खेती ने काया बदल डाली है। मन्दिरों की बजती घंटियाँ सुनकर, गुड़ की भेलियों की सुगंध सूँघकर, दशहरी आम घर आता देखकर, उड़ते हुए कबूतरों का आंगन में पहुँचना देखकर, कनेरों की लदी टहनी देखकर रचनाकार आत्मविभोर हो उठता है तथा अपनी अनुभूति को इन पक्तियों में व्यंजित करता है; इन्द्रियात्मक बोध दृष्टव्य है;
संघर्ष और संक्रमण की विषम परिस्थिति और विपरीत स्थिति में रहते हुए भी रचनाकार ने अपनी काव्य सर्जना द्वारा झोंपड़ियों की लोककथा कहने तथा समाज को एक सुदृढ़ व्यवस्था देने का प्रयास किया है। वास्तव में लोकजीवन नैसर्गिक है, अत्यधिक आकर्षक और मनभावन है। उसका विश्वास है कि लोकजीवन में तनाव सामाजिक मूल्यों के टूटने के कारण आता है। इन रचनाओं में सामाजिक और प्राकृतिक संघर्ष, श्रम की पीड़ाओं एवं स्वप्निल आकांक्षाओं के प्रहारों का दिग्दर्शन व्यंजित हुआ है। साक्ष्य हैं ये पंक्तियाँ;
(पृष्ठ-९४)
कालजयी रचना लोक के सहारे ही जीवित रहती है तथा लोक में किसी रचना के बने रहने का मुख्य आधार उसका सहज स्वरूप होता है जिसमें यथार्थ जीवन की अभिव्यक्ति भी सम्मिलित है। भोजपुरी की खाटी माटी में पैदा हुए रचनाकार ने भोजपुरी के शब्दों का भी सटीक प्रयोग करने में अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दिया है जिसके कारण हरहरा, गमछी, टिकोरा, बिरनियों के छत्ते, चिरइयों की चोंचें, गंजी, डीह, जेठी मकई, साँवर बदन, दियारा, सत्तू, टाटर-टाटी, टुटही खाटी, दँवरी, रोट, थाप, लँगड़ी-बिछिया, टूटी ओरी, चिहुँटती, भेली, भँजा, आजी, बटलोही, चाँचर, खोंटा साग, छिलवाया, ऊख, थपुआ-नरिया, जिनिगी, अँजोरिया, चाम, दुलत्ती, लगहर गाय, भुतहा पुल, खोंप, करज-उगाही, झींसी, उठौना, सुरता, लोर, साँसत आदि भोजपुरी के शब्द रचनाओं में स्थान पा गए हैं।
नवगीतकार नवगीतों में नई व्यंजना व्यक्त करने, श्वासतंत्र के वृंदावन में लय की नई कविता लिखने, मेलजोल का खेल विश्वग्राम तक पहुँचते देखने में रूचि लेता है क्योंकि उसकी मान्यता है कि ‘भूली-बिसरी यादें यदि हैं, तो किसी लेखनी के आँगन की, सुख-दुःख की अनुभूति लिए हैं, मानवता के हर सावन की’ तो वह गीत ही है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि इन रचनाओं में जीवन की सामान्य तथ्यात्मकता को प्रमाणित करनेवाले आश्चर्यबोधक तत्त्वों का अनंत भण्डार है। रचनाकार ने नवगीतों को रचते समय लोकमानस, लोकरुचि, उसके संस्कार एवं परिवेश को ध्यान में रखा है जिससे पाठकों और श्रोताओं को आत्म संतुष्टि मिलती है। भारतीय संस्कृति में विशेषकर ग्राम्य संस्कृति की निष्ठा से तपी हुई काव्य साधना ही रचनाकार-नवगीतकार की असल पूँजी है जिसकी आत्मचेतना में ‘होने’ और ‘हूँ’ का बोध निहित है।
काल प्रवाह के उतार चढ़ाव के कारण मानव आज सामूहिक अवचेतना को धुँधला रहस्यमयी बनाता हुआ धीरे-धीरे वैयक्तिक चेतना की ओर बढ़ रहा है जिससे काव्यसर्जना प्रभावित हुई है – यही रचनाकार की मुख्य चिंता है। ‘सहयोगी जी’ के गहन चिंतन, सहज भावाभिव्यंजन एवं तात्त्विक विवेचन का प्रभाव इन नवगीतों के कहन में देखा जा सकता है। कृति स्वागत योग्य है। कतिपय सीमाओं के बावजूद रचनाकार अपना अभीष्ट प्राप्त करने में सफल रहे हैं- एतदर्थ हार्दिक धन्यवाद। अस्तु !
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नवगीत संग्रह- संघर्षों के शिलालेख, नवगीतकार- शिवानन्द सिंह सहयोगी, समीक्षक- डॉ. पशुपति नाथ उपाध्याय, प्रकाशक- पराग बुक्स, डी-१९९, जी एफ-१, आनंद विहार, दिल्ली, कवर- हार्डबाउन्ड, पृष्ठ- , मूल्य- रु. ९६, ISBN- 978-81-970289-9-1

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