लोक चेतना नवगीत का विशिष्ट पहलू है। लोकजीवन में प्रकृति की गहरी संशक्ति है। उसका वैविध्य लोक जीवन में प्रेरणा, साहचर्य और सौंदर्य की सृष्टि करता है। यहां वह पारंपरिक रमणीय रूपों में नहीं। अपनी अलग सौंदर्य सत्ता स्थापित करता है। मानवी अनुराग,त्रासद संबंधों और बिंबों के रूप में उपस्थित होता है ----
“घर की दुआर तक/ आ गई है धूप/ छोटा सा बिरवा/ करेर हुआ बप्पा/ फल-फूल ठाँव-ठाँव/ लटका है झप्पा/ साफ-साफ पानी ने/ भर दिया है कूप/ चिड़िया के चूजे/ हुए सब सयाने/ द्वारे पर लाए हैं/ फसलों के दाने/ मह-मह महकते/ जब झरते हैं सूप”
लोक पर्वों की लोक जीवन में अटूट परंपरा है। होली, दिवाली, दशहरा ऐसे ही पर्व हैं । लेखिका लोक पर्व की परंपरा का इतिहास उभार देती है। फागुनी प्रकृति और होली पर्व का एक चित्र-
“गुड़ की गुझिया/ पिघल गई है/ फूटी रस की धार/ इनकी गुझिया उनकी गुझिया/ फागुनाया मन सब की गुझिया/ चारा कल की/ लगे गड़ासा/ चुन्नट जैसी धार/ नयाअन्न बौराया फूला/ बेपर्दा मन पर्दा भूला/ रंग अंग में ताप अनूठा/ पुरवा की भी मार”
लोक विश्वास प्रारंभ से लोक जीवन के साथ जुड़ा है। कहीं-कहीं तो यह लोक विश्वास मनोवांछित फल की प्राप्ति के लिएटोना-टुटका जैसे अंधविश्वास भी बन गया है ------
“जादू-टोने का चक्कर है/ ओझा-सोखा नित घिरते हैं।”
पिता का व्यक्तित्व नदी के दो किनारों कर्म और आदर्श के बीच अनुशासित बहता है। पिता चट्टानों से टकराकर संघर्ष की प्रेरणा देते हैं। नदी के बीच रेता पड़ जाता है तो वह दो धाराओं में विभक्त हो जाती है। कवयित्री इस दर्द को अनुभूत करती हैं। उनका आदर्श और कर्म की जिजीविशा याद करती है-
“आसमान की सीढ़ी पक्के/ डंडो वाली ही बनवाना/ कीली काँटी स्वयं बाँधना विश्वकर्मा भी तुम बन जाना/... अंगुल भर में पाँव पसारा/ धरी जमीनें सब की खातिर/ इच्छाएँ हर बार मुल्तवी/ करती जीवनधारा शातिर/ सबके हिस्से की खुशियों में/ बहते रहे पिता”
गृहस्थ जीवन स्त्री-पुरुष के बीच निष्ठा पूर्वक उत्तरदायित्व का निर्वाह है। इसमें प्रेम के प्रयास की आवश्यकता नहीं। यह साहचर्य की अनवरत प्रक्रिया है। चिंता, समाधान, तकरार के साथ यह सुष्ठ और मधुर है । अमृत पराग भरा सपना। जीने में निष्ठा से स्वयं को खाली करना पड़ता है। रीतना और संभरित होना, यही जीवन है। बिना रीते संभरण नहीं होता। इस नौका की पतवार नारी होती है। लेखिका बेरुखी महसूस करती है ------
“समाधान जीते-जीते/ मैंने तुमसे तकरार किया बस/ तुमको प्रेम पता था केवल/ मैंने जब पतवार जिया बस”
शीला के नवगीतों में जगह-जगह मिट्टी की खुशबू मौजूद है। ग्रामीण परिदृश्य उनके गीतों की संरचना में परिपक्वता के साथ उभरकर सामने आते हैं। समकालीन जीवन भौतिकता से भरा है। अर्थसाध्य। अर्थाभाव में जीवन के किसी क्षेत्र में कदम रखना मुश्किल है। लोक परिवेश को जीने वाला मनुष्य इस वातावरण में कितना मजबूर है। नवगीत में इस यथार्थ की करुण अनुभूति दिखती है। अपनी दिन भर की मेहनत के बाद इस सीधे-साधे किसान को शाम का भोजन आसानी से नसीब नहीं होता। कवयित्री ने तीखे और धारदार स्वर में इसकी अनुभूति की है ---
“नून तेल लकड़ी की चिंता/ आधि-व्याधि/ सिर पर फिरते हैं/ जोड़-गाँठ कर
श्रम से लाया/ दाना-दाना महंग पड़ा है/शीश जुआठा/नाधे-नाधे/नस गर्दन कंधा अकड़ा है/ तीस दिनों की कड़ी कमाई/ एक तिहाई दिन सिरते हैं”
जिस तरह बैल के गले में जुआठ डाल दी जाती है । रस्सी से उसे बांधकर मनचाहा श्रम लिया जाता है। किसान इसी श्रम की जुआठ और नाधे में अबद्ध रत है। किंतु ---
“खुशबू की चाहत में उड़ते/ घर की खुशबू रूस गई है/ मीठे ईखों की मिठास को/ ललही कीड़ी चूस गई है”
शीत की ठिठुरन, ग्रीष्म की धूप, गन्ने की अनेक बार निराई- गुड़ाई, सिंचाई। इस हाड़ तोड़ मेहनत के बाद फसल में लाल रंग की छोटी-छोटी कीड़ियाँ लग कर उसका सारा रस चूस जाती हैं। किसान की जिंदगी भी ऐसी ही है। प्रकृति, दबंग और व्यवस्था उसे इसी ललही कीड़ी की तरह चूस रही है। कवयित्री ने पल्ले में दबी हुई उंगली सा यथार्थ प्रस्तुत किया है। इस तरह कवयित्री ने लोक जीवन की दर्दनाक आर्थिक स्थिति और जीवन संघर्ष का चित्रण किया है।
वहीं शहरी जीवन की विसंगतियों का भी चित्रणवे बडी गहराई में डूबकर करती हैं-
“सड़क नापते सेहत ढूढ़े/खान-पान खुशहाली/ डिस्को उत्सव रिश्ते खोजे/ मंदिर शेरावाली/... रंग-बिरंगे फल तरकारी/ उम्दा खान व्यवस्था/ सभी उपकरण टनाटन्न हैं/कोई उमर अवस्था/ भाँति-भाँति के चैराहों पर/ स्वाद और कव्वाली”
राजनीति ने आज के जीवन को गहराई से प्रभावित किया है। धर्म, दर्शन, विज्ञान कोई भी उस की मार से अछूता नहीं। इस प्रभाव के कारण जीवन के मानदंड बदल रहे हैं। नवगीत ने राजनीतिक प्रभाव के अंकन में अपनी भंगिमा इमानदारी से प्रस्तुत की है। कवयित्री ने ऐसे प्रसंगों का बेबाकी से चित्रण किया है। सामाजिकता के परिप्रेक्ष्य में राजनीति हादसा बन गई है। कवयित्री इसे अपने गीतों में समेटने का प्रयास करती दिखाई पड़ती है। इसके लिए वह अखबारी कतरनों के कूड़े नहीं बटोरती। समस्त विसंगतियों को अपने संवेदन में आत्मसात करती है। अपने हृदय की करुणा को उड़ेल देती है। व्यंग्य की तीक्ष्णता को धारदार हथियार बनाती है। राजनीति के सामाजिक परिणाम प्रस्तुत करते हुए कहती है---
“फाँक-फाँक कर लिया संतरा/ देश सभी ने मिलकर चूसा/ ...गेहूं को ले गई व्यवस्था/ थेसर से तन मन कर भूसा। ...छप्पर-छानी अम्बर देकर/ चुरा ले गए सूरज- तारे/ टुकड़े-टुकड़े स्वप्न हुए सब/ हजम कर गए मामा प्यारे/ छीन लिया जनता की कुर्सी/ दिया नाक पर लातों--घूँसा।”
प्रायः अर्थहीनता के इस समय में जहाँ पूरा विश्व समुदाय अर्थ के पीछे भाग रहा है वहाँ कवि शीला पांडे की वागर्थ सजगता उनके इस नवगीत संग्रह को विशेष रुप से अर्थवान बना देती है । प्रस्तुत संग्रह का शीर्षक ‘गाँठों की करधनी’ भी अपने व्यापक अर्थ में कम दिलचस्प नहीं है। इस शीर्षक से संबंधित संग्रह का एक नवगीत मजदूरों के संदर्भ में है। गाँठें तो गाँठें ही हैं जो अंततः बंधन और बाधा का ही एहसास दिलाती हैं। प्रत्येक औसत आदमी, निर्बल वर्ग एवं मजदूरों और स्त्रियों का जीवन गाँठों का ढोने का पर्याय है। मानों जीवन की तमाम गाँठों को सुसज्जित आभूषण के रूप में स्थापित कर दिया गया हो। जिसके भीतर उनके दर्द और दुश्वारियों को करीने से छुपाकर तहखाने में डाल दिया गया है --
“भीत ढहाकर नींव खोदते/ईंट बिछाते हैं/ नये मसीहा देष जोत/मजदूर उगाते हैं ।.../गाँठों की करधनी चीर से/ पेट छुपाकर तन के ऊपर/ गिरहस्थी
का कलश शीश पर/पैर थिरकते मन के ऊपर/ निर्धन किलो हजारों मीटर/ पाँव भगाते हैं“
हमारी आर्थिक नीति और शिक्षा प्रणाली पर गहरी चोट भी है और चिंतन के नए द्वार खोलने की क्षमता भी है ....हमारी राजनीति के मसीहा हमें सिर्फ और सिर्फ मजदूर बना रहे हैं। सियासत हमें मजदूर बनाकर शासन कर रही है। मजदूर सोच विचार से दूर रहता है वो सिर्फ कल के भोजन की ही सोच पाता है जबकि विश्व में ऊंचा उठने के लिए भविष्य के चिंतन की आवश्यकता है मगर जब हम सिर्फ कल तक ही सोचेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे। इसीलिए वह कहती हैं ‘‘दूर तक मैं सोचती हूँ....हर ह्रदय में प्यार चुन दूँ।’’
हर हृदय में प्यार भरना यानी सबको खुशहाल देखने की भावना विश्व कल्याण की भावना से जोड़ती है जो शीला के नवगीतों की आधारभूत परिकल्पना है। कहते हैं कि सकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक चिंतन से ही पैदा होती है साहित्य सृजन के लिए अवश्यम्भावी है सकारात्मक चिंतन। चेतना के जब नए द्वार खुलते हैं तो व्यक्ति एक नहीं रहता है उसके एकत्व में विराटता जन्म लेती है और उसका चिंतन वृहद हो जाता है जो समाज की, स्वयं की और देश काल की उन्नति की जमानत बनता है।
समकालीन जीवन में विखंडन, छलना-प्रपंच, ( ेंपउनसंबतमे ) सिमुलाक्रेस हाबी है। जीवन आज वास्तविक दुनिया की प्रक्रिया या प्रणाली की नकल बन गया है। यह एक ऐसी प्रति है जो या तो मूल नहीं है या अब उसके पास मूल है ही नहीं। समाज अपनी पूर्ववर्ती धारणाओं से इतना संतृप्त हो चुका है कि अब इस तरह के समाज निर्माण की आवश्यकता नहीं। इस संतृप्तता के परिणाम स्वरूप असीम परिवर्तन ने सभी अर्थों को अर्थहीन कर दिया है। कवयित्री इस मूल्य हीनता के प्रति चिंतित है -------
“आँधियों के संग/ अँधेरों ने/ करीं कुछ मंत्रणाएँ/ हम उजाले बेंच आए/... धूप की छाया दिखाकर/ सूर्य बनने के हुनर सब/ कंकड़ों की हलचलों को/ व्हेल गिनने के हुनर सब/ सर्दियों संग कोहरों ने/ जा निभाईं मित्रताएँ/हम दुशाले बेंच आए”
ैंपउनसंबतमे और ेंपउनसंजपवद को प्रतीकों, संकेतों की चर्चा के लिए जाना जाता है । इनका अस्तित्व समकालीनता से एक साथ संबद्ध है । बॉडरिलार्ड का कथन है---‘हमारे वर्तमान समाज ने सभी वास्तविकता और अर्थ को प्रतीकों और संकेतों से बदल दिया है।’ मानव अनुभव वास्तविकता का अनुकरण है। कवयित्री की उक्त पंक्तियां इसी अनुभव को स्पष्ट करती हैं।
आलोचक नवगीत को निराशावाद का विलाप कहते हैं। शीला के गीत निराशा का रोना नहीं रोते। दुखवाद का बीजारोपण नहीं करते। वे प्रेरणा और आशा का संचार करते हैं। वस्तुतः शीला गीत की नवता के प्रति एक निष्ठ हैं। उनमें संभावना है। वे तरह-तरह के प्रयोग करती रहती हैं। इनके गीतों में जीवन का हर पहलू समाहित है। कवयित्री की दृष्टि में जीवन की संपूर्णता है। इसलिए वे अपनी रचना में जीवन को खाँचों में बांटकर नहीं देखतीं। उनके गीतों में आधुनिकता और
समकालीनता बोध की गहरी संशक्ति है। नए राजनीतिक मूल्यों, सामाजिक विसंगतियों की स्थिति का चित्रण है। भारतीय चेतना और भारतीय संस्कृति की संपृक्ति है। जन सरोकारों और जनपक्ष की अभिव्यक्ति है। मानवता की प्रतिष्ठा है। लोक जीवन की अनुभूतियों की अभिव्यंजना है। लोक परिवेश और लोक संस्कृति का अनलंकृत प्रस्तुतीकरण है। ग्राम जीवन की विसंगतियों और दर्दनाक आर्थिक स्थिति का बेबाक रूपायन है।
कवयित्री के गीतों का बिम्ब विधान और प्रतीकात्मकता आकर्षक है। अर्थगुह्य भी। शीला ने प्रायः प्रतीकात्मक, सांकेतिक और प्रातिभ बिम्बों का प्रयोग किया है। पश्यंतीवाक के स्तर से अभिव्यक्त होने के कारण ये सर्वथा नवीन, अछूते और अकल्पनीय हैं। लेखिका ने वैज्ञानिक एवं औद्योगिक क्षेत्र के जीवंत बिंब। महानगरों के त्रासद और नाटकी बिंब, ठेठ ग्रामीण अंचलों, वन-पर्वतों के आदिम तथा मिथकी बिंब। भोगी हुई जीवनानुभूतियों के संश्लिष्ट बिंब आदि का सुंदर प्रयोग किया है---
“पार समंदर/ हलचल भारी/ उल्लू बना नरेश/ बाज को तमगा नया दिया/...दानव सँग/ काँधे चढ़ नोचे/इनके- उनके/ माँस कलेजे/ जंगल पर अब/ राज हमारा/ पंजों में है/ साँस, मजे ले .../नया मसीहा/खरा हितैशी/ आँख मूंद रकबा ठगवाया/ कागज नया दिया”
प्रतीकों के संश्लिष्ट बिंब में ही नारी की व्यथा का एक प्रेरणास्पद चित्र -----
“सरकंडों सी देह तुम्हारी/ छीली जाती है हर बार”
“सड़क खड़े जामुन की तरु सी/ सब के ढेले क्यों सहती हो/ वृक्षारोही किसी छिछोरे को/क्यों कर थामे रहती हो ?”
यद्यपि इस प्रश्नवाचकता में छायावादी अवरोध है। किंतु बिंबो की सहजता आकर्षक है।
कवयित्री की भाषा में यथार्थ जीवन की स्वानुभूतिपरकता है। दर्द, बेचारगी, पीड़ा, संत्रास, आक्रोश आदि का अनुभव सहज, सरल एवं सुरुचिपूर्ण भाषा में वर्णित हुआ है। खुरदरी भाषा की तल्ख अनुभूति लोक शब्दावली में अभिव्यक्त हुई है । यथा---- लगे गड़ासा, चुन्नट जैसी, शीश जुआठा, नाधे-नाधे, मीठे ईखों की। मिठास का। ललही कीड़ी चूस गई। आदि। लेखिका के गीतों में मुहावरेदानी गहरी व्यंजना को अभिव्यंजित करती है। यथा---हम उजाले बेंच आए। हम दुशाले बेंच आए। तेरह तिकड़म हरियाए। ईश अली से तुर्रेबाजी। सांकल खटकाए, कत्ल मेरा मैं ही मुजरिम,कर कटोरा टीन देती, भरदुल्ली चिड़िया, छिल-छिल जाते चूजे तन-मन, जकड़े जाते रसरी मूँजें आदि। कवयित्री मुहावरों का प्रयोग ही नहीं करती । मुहावरे गढ़ती भी है।
छंद की आंतरिक लयवत्ता का निर्माण कवि की सूक्ष्म चेतना द्वारा होता है। प्रयुक्त छंद की अपनी अलग पहचान होती है। शीला ने जिन छंदों को प्रयोग में लिया है उनकी वाह्य अन्विति की सुरक्षा की है। व्यक्तिनिष्ठ आंतरिक प्रवाह प्रदान किया है । नया व्यक्तित्व एवं गरिमा दी है। टेक और अंतरे के बीच की रूढ़ समता को तोड़ा गया है। मूलवर्ती लय को सुरक्षित रखते हुए
पंक्तियों को छोटा बड़ा किया है। कवयित्री ने छंद को तोड़ा नहीं है। पारंपरिक छंद पर लगे लांछन का परिहार किया है। शीला पांडे के नवगीतों में लयों की विविधता, आंतरिक गठन,सहज प्रवाह, निर्दोषता, परंपरामुक्तता, औदात्य, आदि छंद विधान की विशिष्टताएँ समाहित हैं। कुल मिलाकर गीत को नया बनाने में उनकी संलग्नता नई आशाएं बँधाती है ।
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नवगीत संग्रह- गाँठों की करधनी, नवगीतकार- शीला पांडे, समीक्षक- डॉ. इंदीवर, प्रकाशक- प्रलेक प्रकाशन, जे/५०, फ्लैट नं. ७०२, ग्लोबल सिटी, विरार (पश्चिम), ठाणे, महाराष्ट्र, मुंबई, कवर- हार्डबाउन्ड, मूल्य- ३९५ रु. पैपर बैक मूल्य- २०० रु., पृष्ठ- १०६, ISBN- 978-9355001856

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