मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

कागज की देहरी पर- रवि खण्डेलवाल

 

रवि खंडेलवाल के लेखन का फलक बे-अंदाज है। वे छंद, कवित्त दोहे, ग़ज़ल, संगीत- रूपक, नई कविता, नवगीत और भी अनेक विधाओं में सक्रिय हैं! नवगीत लिखना प्रारम्भ किया उस समृद्ध कालखण्ड में जब इन गीतों के प्रवर्त्तक राजेंद्र प्रसाद सिंह गीतांगिनी के सम्पादक -प्रकाशक 'आईना' का प्रकाशन कर रहे थे। रवि ने कुछ नवगीत भेजे। ये प्रकाशित ही नहीं हुए, बल्कि पाँच गीत भेजने का अनुरोध करता उत्साह - वर्धक पत्र राजेंद्र प्रसाद सिंह ने सम्मान सहित भेजा। फिर गौरवान्वित रवि की लेखनी से निसृत हुए ऐसे नवगीत जिनकी पहचान ही अलग थी। नितांत निजीपन (नारों में डूब गए बरनी बधाये)। अपनी बहु प्रचलित रीति रिवाजों का डूबना।

जैसे- जैसे कालचक्र की गति बढ़ी, रवि के नवगीतों में निखार आने लगा। साक्षी है उनका नव्यतम संकलन ''काग़ज़ की देहरी पर''। इस में संग्रहीत हैं बहत्तर नवगीत। इनमें अनेक गीत सत्ता के रेतीले आश्वासन पर प्रहार करते हैं। ''सत्ता के संकल्प मंचीय हैं। 'बारूदी नियमों के विस्फोटक शब्दजाल' अधिक। विकास की योजनाएँ काग़ज़ी अधिक सिद्ध हुईं। कवि के शब्दों में 'काग़ज़ की देहरी पर\ धुन -धुन सिर फोड़ रही'। सिर फोड़ना दुखद कारुणिक रोदन है। कवि को चाहिए 'विप्लव गान'। याद आ गए बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ - कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ\ जिससे उथल -पुथल मच जाए! अंधे मूढ़ विचारों की \वह अचल शिला विचलित हो जाए'। रवि को भी विचलन चाहिए, ठंडे अहसास नहीं। उसका प्रश्न है कौन आ गया ''ठंडे अहसासों को सहलाने।' जरूरत गर्माहट की है। बदरीले गीले सपनों की नहीं-

बदरीले स्वप्न उड़े देकर आभास 
बिजली सी कौंध गई हृदय आकाश

 इस आकाश में विलुप्त हैं न जाने कितने कुचले - अधकुचले सपने 
धूल अँटी सड़कों पर मौसम के पाँव तले 
कुचले हैं स्वप्न कई अनचाहे साँझ ढले 

मौसम, वक्त का द्योतक है। निरंकुश समय, जिसने कुचल कर रख दिए हैं सपने। अनचीन्ही संध्या के आगमन पर। 

जीने को पूरी ज़िंदगी पड़ी है आवश्यकता है दमदमाते दिनमान की। आ बैठी संध्या। अभावों से भरी ज़िंदगी, प्यासी अभिलाषाओं वाली ज़िंदगी । जेबें जब खाली हों तो प्यासी ही रह जाएँगी अभिलाषाएँ -

फटी हुई जेबों में खाली दो हाथ दिए 
सड़कों पर घूम रहे मुठ्ठी को बंद किए'' 

प्रश्न उठता है जब जेबें खाली हैं, तो मुठ्ठियाँ क्यों बंद हैं। क्या दबा रखा है मुठ्ठियों में? अभाव। दरवाज़ा खटखटातीं हजारों कमियाँ। निसंबलता असमर्थता। ग़रीब के पास और है क्या, आकांक्षाओं की फटी चादर के अतिरिक्त। मध्यवर्गी अपनी सफेद कॉलर को उलट- पुलट कर सफेद बनाये रखने की कसमकस में ज़िंदगी गुजार देता है -- 

वेतन मिल जाने पर बजट नहीं बनते हैं 
हफ्ते के महीने के 
चुकते दाम यहाँ राशन के बनिये के

बाकी दिन काटते हैं
ऊँगली पर गिन-गिनके''। 

ये बहुसंख्यक विषमता के चक्रव्यूह में फँसे हैं निहत्थे अभिमन्यु की भाँति -- कवि की दृष्टि इन पर टिकी नज़दीकी से ...पीतल की आज हुई कंचन की काया... आर्थिक विषमता की गहराई छाया''। 

उद्यमी पुरुष जी जान लगा देता है सफलताओं के शिखर लाँघने को। असफलता पराभूत कर देती उसकी जिजीविषा को। उस पर आधुनिक जीवन शैली --

'खीझ औ' थकावट को बिस्तर पर साथ लिए
जागे हैं, सोए हैं आँखोँ को बंद किए
आओ संतोष करें 
अधुनातन होने का' 

संतोष से काम नहीं चलने का। मुफलिसी असह्य है। आक्रोश बढ़ रहा है (खौलता है रक्त रह रह कर \शिराओं में \उग रहा विद्रोह अब ठंडी हवाओं में -- बढ़ रहे नारे लगते मुफलिसी चेहरे \लग गए चौराहों पर संगीन के पहरे'।

सत्ता के विरुद्ध आवाज़ उठाना सरल नहीं है। लड़ाई है सशस्त्र और निशस्त्र के बीच है। शहीदे -आजम -भगतसिंह ने सशत्र क्रांति पर अदालत में कहा ‘क्रांति के लिए खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है - अन्याय पर आधारित समाज व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन । हाँ! जब सत्ता बहरी हो जाय तो धमाके की जरूत होती है। बेबुनियाद हो जाती है अहिंसक क्रांति। ”ऐसा आमूल - चूल परिवर्तन आज की आवश्यकता है क्योंकि -

सत्ता निर्धनता का चीर रही खींच
शब्दों की सीमा है कहने के बीच 
स्पाती गर्म लाल भाषा पढ़ें'' 

कहना न होगा आज ''स्पाती लाल भाषा'' बहुत कुछ पिघल चुकी है, बरफ के टुकड़ों की तरह। 'स्पाती' के चक्कर में कुछ गीत शुद्ध राजनीति की जमीन खोद रहे दिखते हैं। मसलन 'होता क्या हासिल', 'आज़ादी का नंगा नाच', 'बहुमत की सरकार', पापों की कुप्पी आदि। यहाँ शब्द - शक्ति कुछ शिथिल हुई सी लगती । यही बात व्यंजना के सहारे कही जा सकती थी। जय चक्रवर्ती एक गीत में कहा 'लिखे हुए में' गति हो , लय हो \यति हो\ सबसे ऊपर मेरे \हिस्से का लिखा समय हो'।

विशेष बात ये है कि कवि को जगह- जगह पसीने में तरबतर कोलतारी देह दिखती है । ये कोलतारी देह वाले दिहाड़ी मजदूर हों या धरती पुत्र । जब-जब भी ये अपने हक़ की बात करते हैं देश की राजधानी इन पर हर संभव अंकुश लगाकर ज़ुल्म ढाने में भी नहीं चूकती -
धरती पुत्रों को दिल्ली आने से रोक रहे
कैसे पाजी देशभक्त हैं कीलें ठोक रहे
सीने में भारत माँ के ही..

हक़ अपना जो माँग रहे हैं यारो आदर से 
गुज़र रहे उनके दिन रातें सतत अनादर से 

एक बहुत ही सुन्दर प्रयोग है -

'प्यास रहे सीने में 
अरु होठों पर ओक रहे' 

अच्छे दिनों का मुहावरा क्या चला, प्याज के छिलके सा छील कर रख दिया सृजनजीवियों ने ---
''डुगडुगी अच्छे दिनों की फिर बजाने को 
लौट कर आए चुके से दिन लुभाने को 

फिर वही दलदल वही छलबल वही किस्से कहानी 
आँख मलकर देखती मजबूर होकर ज़िंदगानी'' 

गाँव के प्रति सम्मोहन अधिकाँश कवियों में दीखता है,जबकि वे गाँव जिनमें जीवन बिताया था अतीत की धुंध में धँस चुके है -- 

बचपन वाले गाँव अभी भी मुझे बुलाते हैं 
मेरे ज़ेहन में अक़्सर ही आते जाते हैं 

अक़्सर निकला करते थे लाने पानी, घर से 
सर पर रख कर कलसा नदियां, कूएं, पोखर से 
सुबहा से लेकर संझा तक 
दिन मुस्काते हैं ।

गाँव में वासंती दिन कैसे होते थे ---
गाँव की सौंधी मिट्टी में 
फिर वसंत महका 

इठलाई, लहराई, झूमी खेतों की सरसों 
ओढ़ी जब से धानी-वासंती चूनर सर सों
आठों पहर रहे जाने क्यों 
मन बहका- बहका। 

ये बहका - बहका मन और बहक जाता है चुलबुले मौसम की कुलबुलाहट से --
'भीगे- भीगे गेसुओं सा रात का आकाश ये 
और शहतूती अधर सी रसभरी बरसात ये 
मन को देती कुलबुला' । 

रागात्मक चेतना का एक और मनोरम उदाहरण रंग बरसा जाता है 
''हाथों में भर गुलाल फेंक दिया गोरी के गाल 
चुहल भरे मौसम की ओट फागुनियाँ साँझ गई लोट
सतरंगी बौछारें डाल'। 

इसी बीच 'फिर वसंत महकता' है वह भी उपेक्षित से गाँवों की सौंधी सी मिट्टी में। 

गदराई फूलों कलियों की देखो तो काया 
अंगड़ाई ली यौवन ने भी तन मन हुलसाया 
पेड़ों की फुनगी पर जाकर फिर पलाश दहका। 

पलाश की दहकन हो या कोलतारी आदमी की तड़पन रवि खण्डेलवाल के गीतों में भोगे और पीड़ा झेलते आदमी का चेहरा झाँकता है। 

कवि ने अपने समय का शब्दांकन निष्ठा से, निष्पक्षता से करने की पूरी कोशिश की है। उसके पास समय की आँख है। वह देख सका नीला पड़ा शहर, इच्छा के पंख, रोशनी का पुल, नदिया के होंठ, लू के ठहाके। यहाँ मिलेंगी नई - नई उपमाएँ- -- शहतूती अधर, भीगे -भीगे गेसुओं सा आकाश,कोयले सी टालें, रेत सा दिन, बुझी अँगीठी सी आँखें, पारे सी शाम आदि। देखा जाये तो कवि की प्रयोग धर्मिता वरेण्य है। गीत पठनीय हैं और संकलन संग्रहणीय।

नवगीत संग्रह- कागज की देहरी पर, नवगीतकार- रवि खण्डेलवाल, समीक्षक- मनोहर अभय’, प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, २१२ए, एक्सप्रेस व्यू अपार्टमेंट, सुपर एम आई जी, सेक्टर ९३, नोएडा २०१३०४, कवर- पेपर बैक, पृष्ठ- १२७, मूल्य- रु. २४९, ISBN : 978-81-970378-9-4


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