शनिवार, 1 सितंबर 2018

फिर उठेगा शोर एक दिन - शुभम श्रीवास्तव ओम


कविता के उस हल्के में जहाँ देश का आम जन निवास करता है, कविता का गीतात्मक रुप सदैव उपस्थित रहा है और लगभग आधी सदी की निरन्तर दबंगई व षड़यंत्र को झेलने के बावजूद कविता की वास्तविक मुख्यधारा में नवगीत कविता ही है। नवगीत ने लगातार अपने समय को वाणी दी है और लगातार विकराल होते जा रहे समय में भी वह दृढ़ता व पूरे अपनत्व के साथ मनुष्य एवं मनुष्यता के पक्ष में खड़ा है।
मनुष्यता के पक्ष में खड़े नवगीत - कवियों की नई पीढ़ी में कवि शुभम श्रीवास्तव ओम का नाम काफी तेजी से उभरा है। शुभम श्रीवास्तव के प्रथम नवगीत संग्रह "फिर उठेगा शोर एक दिन" की नवगीत कविताओं को पढ़ते हुए कवि की जनसरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता को बहुत गहराई से समझा जा सकता है। यह नवगीत संग्रह अपने वैविध्यपूर्ण शिल्प के साथ विषय, कथ्य व भाषा को लेकर भी चौंकाने की हद तक पाठक को खुद से जोड़ता है।

समय और स्थितियाँ सदैव अपने साथ रोशनी और अँधेरा एक साथ लेकर ही गतिमान हैं। यह अवश्य है कि एक समय में एक स्थान में प्रकाश और अंधकार दोनों में से एक की ही उपस्थिति दिखाई पड़ती है। जब घनघोर अँधेरा छाया हुआ हो तब भी शुभम एक दर्पण उगाने की बात करते हैं।
अँधेरे वक्त में दर्पण उगाने की यह कल्पना उम्मीद के बचे रहने और बचाये रखने के संकल्प का ही प्रमाण है। वे लिखते हैं -
"है अँधेरा वक्त जब तक
आइए दर्पण उगायें
पेड़ परजीवी, नुकीले फूल
नरभक्षी हवायें
एक नन्ही-सी बया का
मुँह दबाती सभ्यतायें
प्रश्न करतीं अस्मितायें
मौन आदिम भूमिकायें
नहीं मरने दे रहीं पर
शिलालेखी आस्थायें। "

मुक्तिबोध जिस जटिल और अबूझ संवेदना की फैंटेसी रचते हुए उसे विकरालता की हद तक अबूझ बनाते हैं, वैसी ही विकट स्थितियों को शुभम श्रीवास्तव ओम अपने नवगीतों में बहुत सरलता से हमारे ज्ञानात्मक संवेदन से जोड़ते हुए संवेदनात्मक ज्ञान तक ले आते हैं। वे लिखते हैं -
"हाथ - पाँव अँधियारा नाथे,
रस्ता सही अबूझ
साजिश लादे हँसी उतरती
हँस लेने से सिर भन्नाता
गीले ठण्डे हाथों में ज्यों
कोई नंगा तार थमाता
आदिम प्रतिमाओं की चुप्पी
बौने बोते लूझ
क्रूर कहकहे लिए प्रश्न फिर
रात वही काली अनुबंधित
चुप रहना भी सख्त मना है
उत्तर देना भी प्रतिबंधित
कंधों पर बैताल चढ़े हैं
कहते उत्तर बूझ। "

कविता मनुष्य को अपने भीतर उम्मीद को बचाये रखने की सीख देती आई है, किन्तु शुभम श्रीवास्तव कोरी उम्मीद बँधाने वाले कवि नहीं हैं। वे कर्म के बल पर उम्मीदों को पूरा करने की बात करते हैं। कहते हैं -
"कब तक उम्मीदों के दम पर
दुनिया का संचालन होगा
घिसी-पिटी इस रूढ़वादिता
का कब तक अनुपालन होगा
आओ थाह लगाकर आयें
कहाँ छुपी है भोर
पर्वत तक झुक जायेगा
यदि हो प्रयास पुरजोर। "

शुभम श्रीवास्तव समय के छद्म को न केवल पहचानते हैं, बल्कि उसे अनावृत करने से भी नहीं चूकते। उनके नवगीत 'बेचैन उत्तरकाल' को देखें -
" चाहतें अश्लील, नंगा नाच
फाड़े आँख मन बदलाव
काटना जबरन अँगूठा
रोप मन में एकलव्यी भाव
लोग बौने सिर्फ ऊँची तख्तियों के दिन।"

अपने समकाल को अपनी कविता में अंकित करते हुए शुभम भाषा के भी जीवन्त प्रयोग करते हैं। इसी गीत में देखें -
भावनाएँ असहिष्णु, देह सहमी
काँपता कंकाल
बुलबीयर-सेंसेक्स,
उथली रात, उबली नींद, आँखें लाल
ड्राप कालें और बढ़ती दूरियों के दिन।।

'फिर उठेगा शोर एक दिन' की नवगीत कविताओं को पढ़ना, इनसे होकर गुजरना एक व्यापक दुनिया से होकर गुजरने जैसा अनुभव है। इन नवगीत कविताओं का पटल बहुत व्यापक है। इनमें हमारे अपनों का छद्म, विसंगति के विविध - विकराल और अनन्त रूप, व्याप्त भ्रष्टाचार, उम्मीदों का असमय मरण, बदलते हुए गाँव - शहर, सब कुछ जीवंत होता दिखता है। शुभम श्रीवास्तव घोषित रूप से नवगीत कवि हैं, इसलिए इनकी नवगीत कविताओं की पड़ताल करते हुए इनकी गीतात्मकता पर दृष्टि जाना स्वाभाविक है ;यद्यपि अपने कथ्य की प्रासंगिकता और दिन प्रतिदिन की ज़िन्दगी से जुड़े सवालों से भरे ये नवगीत पाठक की जिंदगी से जुड़े हुए हैं, तब भी गीतात्मकता का अपना महत्व तो है ही और यही वह तत्व है जो कविता के कथ्य को पाठक के भीतर तक पहुँचाता है एवं उसके प्रभाव को स्थायी बनाता है। इस संग्रह के अधिकांश गीतों की गीतात्मकता अपने श्रेष्ठ स्तर तक पहुँची हुई है, किन्तु कहीं - कहीं अनुपयुक्त शब्दों के चयन से लय व प्रवाह बाधित भी हुआ है, यद्यपि कुछ स्थलों पर कथ्य का दबाव भी इसका कारण हो सकता है।

शास्त्रकारों ने काव्य की तीन कोटियाँ बताई हैं। ये तीन कोटियाँ हैं - उत्तम, मध्यम और निम्न। उनके अनुसार व्यञ्जनागर्भी काव्य को उत्तम, लक्षणाधर्मी काव्य को मध्यम और अमिधामूलक काव्य को निम्न कोटि का काव्य माना जाता है। इस दृष्टि से भी शुभम श्रीवास्तव की कविताओं को श्रेष्ठ कोटि की कवितायें माना जा सकता है। दरअसल अर्थविस्तार की संभावनायें व्यञ्जना ही पैदा करती है और शुभम के नवगीतों में अनायास व्यञ्जना की पर्याप्तता मिलती है।
कुछ नवगीतों के अंश देखते हैं -
"देखते हैं कब छँटेगा ये धुँआ अब ?
आसमाँ बंजर, बनी बंधक उड़ानें
पर कुतरने के लिए सौ-सौ बहाने
धुंध आदमखोर छाई हर दिशा में
रंग गेहुँवन का हुआ है गेहुँवा अब।"
"नये दौर का नया ढंग है -
गुडमार्निंग से शुरू हुआ सब
गुडनाइट पर खत्म हुआ। "
" बंद कमरा, एक दर्पण, और तुम तितली /
आँख फाड़े देखती है ट्यूबलाइट
देह का ऐसे उघड़तापन
आँख पीती जा रही संकोच की बदली। "

नवगीत कविता वास्तव में लोक की ही सम्पत्ति है, क्योंकि इस कविता के तत्व लोक से ही आए हैं। इसीलिए नवगीत में लोकभाषा, लोकमान्यतायें, लोकसंस्कृति और लोकव्यवहार से लेकर लोक में मनाये जाने वाले सभी तीज - त्यौहार पूरे उल्लास और अर्थगाम्भीर्य के साथ उपस्थित हैं। ऐसा ही एक गीत है 'दबे पाँव फागुन' ; फागुन और बसंत का रिश्ता शाश्वत है। बसंत मन में फूटते या फूट चुके प्रणयगंधी अनुराग के पलने-पनपने का मौसम है। ऐसे में यह नवगीत एक सुन्दर और मोहक कथ्य के साथ उतरता है -
"भौजी की गाली खुश करती,
गाल लाल होते झिड़की पर
दिनभर में एकाध मर्तबा
तुम भी आ जातीं खिड़की पर
अपनी होली तभै मनेगी
अपने रंग रँगूँ जब तुमका।"

इस नवगीत संग्रह में फागुन और बसंत ही नहीं सावन की बारिस, जेठ की गर्मी, पूस की कड़कड़ाती ठण्ड एवं इस सबके बीच मनाये जाने वाले उत्सवों के अपनेपन के मध्य कहीं बढ़ते अजनबीपन को भी पढ़ा जा सकता है।

समकालीन गद्य कविता जिस आधुनिक भावबोध की बात करती है, वह सम्पूर्ण आधुनिक भावबोध, नई- टटकी- समकालीन भाषा, जटिलतम होता कथ्य शुभम श्रीवास्तव के नवगीतों में पूरी ऊर्जा के साथ उपस्थित है। मात्र २५ वर्ष की आयु का यह कवि नवगीत कविता में जिस भाव-बोध और भाषा बोध को लेकर आया है, वह अद्भुत और चौकाने वाला है। इनकी नवगीत कविताओं की भाषा में एक बिल्कुल नयी ही आहट सुनाई देती है। यद्यपि इनके उपयोग से कई जगह काव्यात्मकता में गतिरोध - सा भी आया है, किन्तु ये शब्द, इनकी उपस्थिति अपने समय की उपस्थिति को प्रामाणिक बनाते हैं।

व्यवस्था और परिवेश में आ रहे बदलाव को व्यक्त करने से कविता कभी चूकती नहीं। जहाँ राजनीति में स्त्रियों की बढ़ती भागीदारी ने उन्हें घर से निकाला है, वहीं लोकतंत्र में व्यवस्था के विरोध का एक अराजक माहौल भी पैदा हुआ है। यद्यपि यह विरोध कहाँ, कितना जरूरी है, यह प्रश्न अलग किन्तु महत्वपूर्ण है। तब भी शुभम लिखते हैं -
" पर्चे बाँटो /बसें जलाओ
काले झण्डे से दहलाओ
लोकतंत्र के हर पहलू को। "

किसी कविता को पढ़ते हुए कवि की दृष्टि को पढ़ना भी अनायास ही होता है, तो हम पाते हैं कि नवगीत कवि शुभम की दृष्टि और पीड़ा शिक्षा से वंचित पत्थर के दो टुकड़ों को बजाते - गाते बच्चे, पिटारी में साँप लेकर भीख मांगते बच्चे और भूख, गरीबी, गाली, अपमान, सब कुछ सहजता से सह - पी जाने वाले इन बच्चों की पीड़ा को भी अपनी कविता में ले आती है।
'बाल सपेरे भूख कमाते कोरस गाकर
भूख-गरीबी, गाली-झिड़की, सब स्वाभाविक
भीख माँगते तब आँखों में आँसू लाकर। "

कवि दृष्टि से कवि-ज्ञान और कवि-संवेदना मिलकर व्यञ्जना का वह वितान बनाने की दिशा में शुभम के कवि की यात्रा इस तरह अग्रसर होती देखी जा सकती है कि, जिससे कविता का केनवास व्यापक और बड़ा हो सके। ऐसा ही एक नवगीत 'अनुबंधों की खेती 'में वे लिखते हैं -
" बहुत देर डूबा-उतराया
मन में कोई मन का कोना।
सोख रही चिमनी सोंधापन
फीके कप बासी गर्माहट
डाइनिंग टेबल रोज देखता
है यह आपस की टकराहट
हर रिश्ते को डीठ लगी है
सपनों पर मुँहबंदी टोना।
बाँह थामती इक टहनी को
झूठे वादों से फुसलाकर
दिन की अपनी दिनचर्या है
घर से दफ्तर, दफ्तर से घर
बूढ़े बादल की लाचारी
कितना मुश्किल बादल होना। "

शुभम अपने गीतों में कभी-कभी एक फैंटेसी - सी रचने की कोशिश करते हैं। जहाँ वे ऐसा करते हैं, वहाँ कविता अपने कई-कई संदर्भ रचती प्रतीत होती है। ऐसा ही एक नवगीत कविता है - 'भारी माहौल'
" लावा जैसे बहे-ढहे स्तूप पिघलकर
एक तिलस्मी धूप हँस रही बीच सड़क पर
......................................................
यह ठण्डाई चोट आग रह-रह भड़काती
दे अनिष्ट आगाह आँख खुलते फड़काती
खंजर जैसी शक्ल पा रहे हैं लोह बेडौल।"
एवं
"मेज पर कुछ पड़े चेहरे,
अपशकुन - सी गर्म जोशी
चंद मिनटों के लिए,
वह औपचारिक ताजपोशी
जो निठल्ले लोग थे,
ठण्डी पहाड़ी माँग बैठे।"

शुभम किसी - किसी गीत को बिना मुखड़े का ही रहने देते हैं। यह उनकी शैल्पिक प्रयोगशीलता भी हो सकती है, किन्तु गीत कविता की दृष्टि से इसे ठीक नहीं कहा जा सकता। किसी भी गीत का मुखड़ा अर्थ ही नहीं लय की दृष्टि से भी कविता के ' मूल ' की भाँति होता है। कोई भी कविता जब तक आवर्त नहीं रचती, वह अपने कविता होने की शर्त को पूरी तरह पूरा नहीं करती। गीत कविता में लय का भी एक आवर्त होता है, जिसे कोई भी कविता बार-बार पूरा करती है और यह आवर्त मुखड़े को मध्य में रखकर ही पूरा होता है। ऐसा ही बिना मुखड़े वाला नवगीत है 'आदिम गंधी बेला'। यद्यपि यह नवगीत अपने अपने कथ्य, प्रवाह और प्रभाव की दृष्टि से अच्छा नवगीत है, तब भी नवगीत कविता में शिल्प की दृष्टि से भी विचार किया ही जाना चाहिए ; क्योंकि यह शिल्प वह महत्वपूर्ण कारण है, जो कविता को जन तक ले जाने और इसे आम पाठक, श्रोता, भावुक के निकट बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

इस संग्रह के रचनाकार की समय-दृष्टि प्रखर है। वह अपने नवगीतों में समय को इस तरह वर्तता है कि कविता अपने समय का दस्तावेजी पृष्ठ बन जाती है। जब वह -
"चुभते हैं कोलाज पुराने
सहमी हुई सदी की आँखें
दो तरफा संवेग पनपता
सारे आशय बगलें झाँकें
संकेतों ने अर्थ दिये
हालात बड़े संगीन।" कहता है तो इस सदी की स्थितियों और संभावनाओं के साथ पिछली सदी के अनुभवों को भी समेट लेता है।

शुभम श्रीवास्तव के इस नवगीत संग्रह "फिर उठेगा शोर एक दिन" के सभी नवगीतों को पढ़कर जो बात चौंकाती है, वह है एक नई शब्दावली की प्रबल आहट। वे डिजिटल होती दुनिया में प्रचलन में आ रहे शब्दों का बहुतायत में प्रयोग करते हैं। यथा - मैसेज, अनफ्रेंड, ब्लाक, पोक, बुल-बीयर, सेंसेक्स, ड्राप कालें, स्क्रीन, रोबोट - मन, डस्टबिन, हेडफोन, रिमिक्स, ब्रेड, कर्टसी, टावर, डी जे, गुडमाॅर्निंग, गुड नाइट, डिबेट, राईट, फाईट, बिट-बाइट, साईज, टैग, कोलाज, लोडिंग, असेम्बलिंग, इन्सेन्टिव, ओवरटाइम, नेटवर्क, रिट, स्टे आदि। यद्यपि जिस परिमाण में शुभम के नवगीतों में लोक और लोक के शब्द हैं, उनकी तुलना में अत्यल्प ही हैं, किन्तु आने वाले समय में भाषा में होने वाले घालमेल की आहट तो हैं ही। ऐसे शब्द कई जगह गीतात्मकता में अवरोध भी पैदा करते हैं। जैसा इनका वास्तविक उच्चारण होता है, गीत में प्रयुक्त होने पर ठीक वैसा उच्चारण नहीं रह जाता। गीतकार को यह सब भी देखना होगा। साहित्यकार को प्रवृत्तियों का पिछलग्गू होने से बचना चाहिए। उसका दायित्व अपनी भाषा, लोक, लय सबके संरक्षण का भी है। इसलिए अनियन्त्रित ढंग से हावी होती अनपेक्षित प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण की निरन्तर कोशिश करना भी उसका दायित्व होना चाहिए।

कविता में कथ्य बहुत महत्वपूर्ण चीज है, किन्तु बात जब नवगीत कविता की आती है, तो कथ्य को लय व प्रवाह में ढालकर कविता बना देना कवि की जवाबदारी है। कथ्य व विषय से समझौता किये बिना गीत में कहना ही तो उसकी चुनौती है, अन्यथा तो यहाँ गद्य भी कविता की श्रेणी में आ रहा है। इस दृष्टि से होने वाली चूकों से बचने की जरूरत है।

इस संग्रह के नवगीतों को पढ़ते हुए पाठक जिस राग बोध को जियेगा, वह राग बोध उसे गीतों को अपना ही राग बनाने का का काम करेगा। इसे पढ़कर जिन्दगी और समस्याओं को देखने की दृष्टि में कुछ नया भी जुड़ेगा, इसलिए भी यह संग्रह पढ़ा जाना चाहिए। इस संग्रह के कवि शुभम श्रीवास्तव को हार्दिक शुभकामनायें।
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गीत नवगीत संग्रह- फिर उठेगा शोर एक दिन, रचनाकार- शुभम श्रीवास्तव ओम, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, १/२०,महरौली,नई दिल्ली - ११००३०, प्रथम संस्करण संस्करण, मूल्य- रु. २४०, पृष्ठ- ११२, समीक्षा- राजा अवस्थी, आईएसबीएन क्रमांक- ९७८८१७४०८७००३

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