स्त्री और उसकी देह आज के क्रूर समय की एक बहुत ही त्रासद उन्मादी अभिलेख बन चुकी है, नृशंस और बर्बर समाज ने स्त्रियों को सदा ही हर काल में दुख बाँटा है, लोम हर्षक अत्याचार हुआ है, उन पर, लेकिन आज के समय का यह सच और भी घिनौना है, स्त्री देह से बलात्कार करने के बाद भी उसे तड़पा तड़पा कर मारा जाता है, उनकी देह से, उनके कोमल अंगों से, वहिशयाना खेल खेला जाता है, मौत भी इतनी दर्द नाक दी जाती है, कि दरिंदे भी त्राहिमाम कर उठे, इस पीड़ा को, दहशत को, कुछ इस प्रकार मृदुल जी अपने नवगीत में व्यक्त करते हैं—
‘बाज़ों से अन्दाज़ देख कर
चिड़िया सा मन डरा डरा है
मांस नोचती हिंस्र निगाहें राह रोकती बलिष्ठ बाहें
दुर्घटनाएँ घट ही जातीं जितना हटना बचना चाहें
मजबूरन जुलूस बन जाना दुनिया में बेबसी जताना
चलना मौन मोमबत्ती ले या मानव शृंखला बनाना
भोथर है क़ानून व्यवस्था
अट्टहास करता खतरा है।’
प्रशासन व्यवस्था और नकारा शासन को भी, वे फटकारते है। बहुत हिम्मत से अपना रास्ता, अपना कर्तव्य, जीवन में वे तय करते हैं, और जिजीविषा के साथ, विभीषिका, असमानता और अमर्ष से लड़ते हैं, ‘दैन्यम् न पलायनम्’ के साथ वे आगे भी कहते है, शासन को नोटिस देते हैं—
‘अपनी ही मनमानी करता
शासन तंत्र हुआ बहरा है
गूँज रहीं अकुलाई चीखें, केवल बदल रहीं तारीखें
तवारीख के पन्नों से हैं, सिसक सिसक समझाती चीखें
आँख नाक मुख पर परजा के
आठों पहर कड़ा पहरा है’
रोम की त्रासदी के बहाने वे सत्ता पर निशाना साधते हैं, ग़रीबी, बेकारी और अपराधी बनते समाज के हाशिए पर, जीवन की रेखा तलाशते लोग, और अपने ही लोगों से चोट खाती निरंकुश भारतीय परिवार व्यवस्था, स्वार्थ में डूबे हुए समय के सारे अध्यादेश, हर अभागा, दीन, कमजोर अपनी आँख के आँसू पोंछने के लिये किसका दरवाज़ा अब खटखटाये? कहाँ जाये? क्या करे? सवालों के उत्तर अब नहीं मिलते—
‘रोम जल रहा है धू धू के
नीरो वंशी बजा रहा है
अर्थव्यवस्था है संकट में मंदी मंद मंद मुसकाती
सरकारी विद्वान अदा से सुना रहें हैं ठकुरसुहाती
दुनिया में व्याख्यान बाँट के
हुनरमंद ले मजा रहा है’
किसान की मुश्किलें कभी थमी नहीं, जीवन की भाग दौड़ में वह कभी जीता नहीं, सरकार और प्रशासन, महाजन और ठेकेदार, सब मिल बाँट कर किसान की कमाई खाते हैं, और वह बेबस सा सबको टुकुर टुकुर देखने के लिये, अभिशप्त है। प्रकृति भी उसके साथ मनमानी करती है, कोई भी उसका सहयोग और समर्थन नहीं करता, कर्ज के जाल में फँस कर, उसका और उसके परिवार का समूचा जीवन नष्ट हो जाता है। वह बर्बाद हो जाता है, पर अपनी जमीन से मोह फिर भी नहीं छोड़ पाता-
धार और तलवार के चलना
किसानी है
बाढ़ ने लूटा कभी पड़ गया सूखा है
ताकता आकाश को परिवार भूखा है
कर्ज लेकर फसल बोई हाड़ तोड़े
हो नहीं उत्पात ‘हर’ ने हाथ जोड़े हैं
राज बदले पर नहीं बदली
कहानी है ‘
हिरण एक सबसे कमजोर और भोला भाला सीधा सा जीव है, उसे प्रतीक बना कर स्त्री की दुर्दशा का वर्णन मृदुल जी ने बहुत मर्मांतक पीड़ा के साथ किया है।
हिरना भटक रहें हैं वन में
खाल मांस के लाखों ग्राहक
ऐसा रूप मिला ही नाहक
पग पग पर संकट जीवन में
सभी चाहते हैं कस्तूरी
व्यस्त भुनाने में मजबूरी
सिद्ध शिकारी अपने फन में’
कवि की नीति और रीति पर मृदुल जी ने कहा है कि बिना किसी भय के रचनाकार स्वयं को रचता है और समाज के लिये साहित्य की उपादेयता सिद्ध करता है। वह समाज की पीड़ा बाँचता है उसको सर्वसाधारण के समक्ष उजागर करके, किसी भी भाँति शासन से, प्रशासन से, समाज के ठेकेदारों से, उसके पक्ष को संदर्भित करके उन्हें न्याय दिलवाता है, इसलिये वही वास्तविक रचयिता है, साहित्य का वास्तविक उत्तराधिकारी—-
‘अपनी चिंता किए बिना जो गाये जग की पीर
अक्खड़ भी हो फक्कड़ भी हो
होता वही कबीर
चोट करे पूरी ताकत से जो आडंबर पर
ढोंग और पाखंड झूठ से लोहा ले डट कर
जाति धर्म की बाँध नहीं पाती
जिसको जंजीर’
राजनीति के खेल में, भ्रष्टाचार अपनी सभी सीमाएँ तोड़ चुका है, शासन और शासन की नीतियाँ किसी की सगी नहीं हैं, छद्म है सब घोषणाएँ, सत्य केवल छल रहा है। अपने अपने समय के लगभग सभी रचनाकारों ने इस बिंदु पर, राज्य की, क़ानून की संवेदनहीनता पर, अपनी भावाभिव्यक्ति की है। लोकतंत्र के छद्म आवरण में किस तरह प्रताड़ना और अन्याय का स्वाँग रचा जाता है, यह बहुत बड़ा सच हैं, निरीह जनता हमेशा दुही जाती रही, इस रणनीति के कुचक्र में फँस कर, सारे क़ानून नियम सब दम तोड़ देते हैं। बस अंत में अट्टहास करती कुटिल कूटनीति बचती है, जिसे ग़रीब और ग़रीबी से कोई संवेदना नहीं है, इस आग में सभी अपनी अपनी रोटियाँ सेंक रहें हैं।
‘कुछ भी नहीं असंभव अब तो
राजनीति के खेल में
लोक लुभावन वादे करके, हथिया लेते सिंहासन
माल काटते माननीय फिर जानता ढोती आश्वासन
कूट नीति के कुटिल खिलाड़ी माहिर सभी कलाओं में
ऐसे ऐसे कृत्य सम्मिलित हैं इनकी लीलाओं में
एक पैर संसद में रहता
और दूसरा जेल में’
आज समाज परिवार सब कुछ बिखर रहा है। आज के झंझावाती समय में, केवल झूठ और व्यभिचारी जीवन, थोड़े थोड़े पैसों के लिये, ज़मीन के लिये और दुराचार के लिये, रोज़ रोज़ हत्याएँ होती हैं ! पैसा ही आज भगवान है, रिश्ते नाते अब धीरे धीरे ख़त्म होने की दहलीज़ पर, मर चुके हैं, जाने कैसा युग है, संबंधों की सभी बेड़ियाँ टूट रहीं हैं, अब तो दरिंदगी के क्रूरतम पैशाचिक समय में हम जीने को अभिशप्त हैं। इसी समय की कठोरता को इंगित करता मृदुल जी का एक बेधक और अत्यंत मारक नवगीत—
‘आदमी बौने बहुत
लंबे हुए साये
एक अंधी दौड़ बाँधे पाँव में अपने
सिद्धि के संपन्नता के देखते सपने
ताकते निश्चल हँसी को
अधर पथराये
सिरजते आठों पहर हैं झूठ नकली पन
शख़्सियत में रंग भरते विरुद्ध विज्ञापन
भेंटने को न कोई
बाँह फैलाए’
एक समूचा युग संवेदनाओं का, मासूमियत का, भोलेपन का, करुणा का, प्रेम का बीत चुका है, यांत्रिकी ने पत्राचार की मोहकता छीन ली, गैस ने चूल्हे का सोंधापन, और संचार युग की क्रांति ने मनुष्यों से मनुष्यता छीन ली। कोई किसी का अब सगा नहीं, बस बाक़ी बचा है तो बैर, केवल एक दूसरे से कठोरतम बैर, दुश्मनी और क्रूरता ही एक मात्र अब मनुष्यता के नाम पर बची है।
‘यादें ही आती है अब तो पत्र नहीं आते!
पत्र कि जिनमें अपने पन का झरना झरता था
जिनको पढ़ के अंतर्मन में प्यार उमड़ता था
शिकवे गिले जिन्हें पढ़ के
छूमन्तर हो जाते
पुनर्नवा कर जाते थे भूले बिसरे नाते’
भाषा और भाव की, कहन की, वाक्यांश की तारतम्यता, अन्विति कहीं भी मृदुल जी से फिसलने नहीं पाती है, शब्दांशों का इतने संक्षिप्त रूप से अन्विति करना और मन का सारा उद्वेग भी सहजता से, प्रस्तुत कर देना शिल्प का सधाव भी कहीं कमजोर न पड़ना, ऐसी नवगीत की साधना मृदुल जी की ही हो सकती है। संक्षिप्ति भाव, सघनता, सांकेतिकता, आधुनिक बोध, मानवी करण, बिंब धर्मिता और यथार्थ की रूपकता ये सारे तत्व नवगीत के अनिवार्य तत्व हैं, जिनमें से किसी भी एक का क्षरण नहीं होता, मृदुल जी की रचनाओं में ! उन्होंने अपनी प्रयोग धर्मिता के क्रम में एक नवगीत लिखा है ‘पाँव मुड़े हैं’। इसका वैचारिक सौष्ठव और शिल्प विन्यास बहुत अनुपम है—
‘ बाहर की राहें जब बंद हुईं
भीतर को पाँव मुड़े हैं
बेमतलब लगता अब ताम झाम धरती से लुप्त है हँसी
पस्त पड़े ज्ञानी विज्ञानी अब आँखों में बेबसी बसी
दहशत की गंध है हवाओं में
झाँक रहे अनुभव सहमे सिकुड़े हैं’
लोकतंत्र में आजकल लूटतंत्र का बोलबाला है, कुछ सरकारें प्रयास करती हैं, पर नौकर शाही अपने अन्दाज़ में ही सदा चलती है यहाँ, कोई भी नहीं संतुष्ट दिखता मध्य वर्ग में, निम्न वर्ग में और किसान वर्ग में, महँगाईं और अपराध सबसे बड़ा मुद्दा है आज, बेरोज़गारी और अशिक्षा भी बहुत बड़ा कारण है, इस असंतोष का, टकराव का और अराजकता का, धर्म सबसे बड़ा खलनायक बन कर आज की राजनीति और समाज में उभरा है, रक्त बीज सा उसका क्रूर और तिलस्मी क़द बढ़ता ही जा रहा है। सभी सामाजिक सहकार और सहयोग छिन्न भिन्न हो रहे है। उदासी का मौसम है हर तरफ़ —
‘लोकतंत्र में लूट तंत्र की जड़े हुईं गहरी
चोर उचक्के राज कोष के
बन बैठे प्रहरी
जिधर देखिए लोभ लाभ की मारा मारी है
कदम कदम पर जनता की ख़ातिर दुश्वारी है
पैरों से है पंगु व्यवस्था कानों से बहरी
उन्नति की गाड़ी पगडंडी पर आकर ठहरी
पूँजी वादी सोंच हुआ सिंहासन पर हावी
सार्वजनिक उद्योग खा रही तिकड़म की लाठी
समता के खिलाफ़ साज़िश चलती
दोहरी तिहरी’
मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन युद्ध है, दो दो विश्व युद्ध में और भारत के विभाजन में, करोड़ों मनुष्यों की बलि चढ़ी है। हम सोंच भी नहीं सकते कि जीवन किस तरह पंगु हुआ है, बेतरह चीख़ों के बीच मनुष्यता खून के आँसू रोती रही, और किसी भी तानाशाह को, राजनेता को, तरस नहीं आया, बच्चे, बूढ़े, जवान मरते रहे, स्त्रियाँ रौंदी जाती रहीं, घरों के बाशिंदे सड़कों पर रहने को विवश हो गये। सब कुछ छिन गया उनका, पर युद्ध नहीं रुका, देश के देश बर्बाद हो गये, अभी भी यूक्रेन और रुस का युद्ध पूरी मानवता के लिये ख़तरा बन चुका है, कोई रुकने को तैयार ही नहीं, मृदुल जी का इसी संदर्भ को बुनता एक नवगीत —-
‘सिसक सिसक पूछे मानवता
क्यों कर कहो युद्ध होते हैं
गति रुक जाती है विकास की आँधी आ जाती विनाश की
दोनों पक्ष शीश पर अपने दरिद्रता का
दुःख ढोते हैं।
नीतिकार हैं व्यूह रचाते सुख समृद्धि को आग लगाते
गला घोंट के स्वस्ति स्वरों का
हिंसा और द्वेष बोते हैं’
पर्यावरण आज की सबसे घातक और अहम् समस्या है, जिसके कारण हमारा यानि सम्पूर्ण मानवता का, सम्पूर्ण धरती का और सम्पूर्ण जीवजंतुओं का जीवन ही ख़तरे में पड़ गया है, नदियाँ अब जाने कितने शाप, ताप पाप ढोने को विवश हैं, उन्हें अपनी धारा के साथ बहना भी मना है, जिसको जो चाहे, जितना चाहे, कचरा नदी में डाल कर उसको प्रदूषित करता रहता है, कितने भी स्वच्छतता अभियान चलाये जाये, पर जन जागरूकता के अभाव में कुछ भी सफल नहीं हो पाता, थोड़े दिनों में फिर वही सब दुहराया जाता है, और नदी निर्वसना, क्लांत कृशकाय होकर दिनों दिन मृत्यु को प्राप्त होती ही जा रहीहै।
‘अपनी दीन हीन हालत पर सौ सौ अश्रु
नदी रोई है
घाट हुए नदिया के सूने लगते नहीं वहाँ अब मेले
शैल शिखर से सागर तक है यात्रा के अनगिनत झमेले
टूटन थकन निराशा में वह
रेत ओढ़ करके सोई है
बनती रोज़ योजनाएँ हैं उसको नवजीवन देने को
लेकिन लूट पाट सक्रिय है सारा वित्त चाट लेने को
कारिंदों की बृहद भीड़ में
नहीं भगीरथ सा कोई है’
अंत में मृदुल जी के नवगीत, नवगीत साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं, क्योंकि शैल्पिक दृष्टि से भी, भाव की दृष्टि से भी, इनके नवगीत शुद्ध और प्रामाणिक हैं। कथ्य की दृष्टि से ये नवगीत मानवतावाद के पक्ष में पूर्णत: खड़े दिखाई देते हैं, जीवन के पाँच दशक किसी भी साहित्यकार के लिये कम नहीं होते, अपने श्रम और प्रतिभा की कमाई से इन्होंने अपना ध्रुव तारा सा चमकता दमकता स्थान, नवगीत के इतिहास में दर्ज कर लिया है।
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नवगीत संग्रह- पूछिये मत, रचनाकार- डा० गोपाल कृष्ण शर्मा ’मृदुल’ , प्रकाशक- एजुकेशनल बुक सर्विस, एन-३/२५ ए डी के रोड, मोहन गार्डेन, उत्तम नगर, नई दिल्ली ११००५९, प्रथम संस्करण-२०२०, मूल्य-३०० रु. , पृष्ठ-११२ , परिचय- डॉ. रंजना गुप्ता, आईएसबीएन क्रमांक-९७८-८१-९४७३०२-५-८
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