शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

लोकोन्मुखी रूद्राक्ष- शिवानन्द सिंह सहयोगी

नवगीत के क्षेत्र में गीतकार शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे नवगीत के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। नवगीत मानवीय सुख-दुःख, चिंतन एवं जिजीविषा का प्रबल समर्थन करता है। इस कसौटी पर सहयोगी जी खरे उतरते हैं। ‘नवगीत महोत्सव २०१९’ को लखनऊ में सद्यः नवगीत संग्रह ‘लोकोन्मुखी रुद्राक्ष’ उनके द्वारा मुझे भेंट की गई। शीर्षक ही बतला रहा है कि वे कहना क्या चाह चाहते हैं? गीतकार आम आदमी की यथार्थ अनुभूति से जुड़ा हुआ है। संग्रह में कुंठा, विषमता, संत्रास, एवं शोषण उत्पीड़न के प्रति आक्रोश के तेवर हैं। व्यंग्य एवं प्रतीक की भाषा समय के यथार्थ स्वरूप हैं। ‘तब, तब था और अब, अब’ अपनी बात कहते हुये बहुत कुछ कह रहे हैं। पढ़ने से लगता है कि गीतकार ने जो देखा है, भोगा है, उसे लिखा है-
इस औद्योगिक महाक्रान्ति को
केवल काले मेघ मिले हैं
रोजी-रोटी के जुगाड़ को 
नहीं कहीं पर ठेघ मिले हैं
घिसी हथेली पर पढ़ता है 
जीवन का इतिहास ‘घुरहुआ’
(घुरहुआ, पृष्ठ संख्या-५२)

लगभग सत्तर वर्षों के बाद भी ‘घुरहुआ’ घिसी हथेली पर जीवनवृत्त का इतिहास पढ़ रहा है। शायद उसके हाथ की रेखा ही मिट गई हो। वह अतीत को याद करके वर्तमान पर आँसू बहाने के लिये मजबूर है। यह एक ‘घुरहुआ’ की बात नहीं है, न जाने कितने ‘घुरहुआ’ विवशता के आँसू बहा रहे हैं, ये आँसू कब थमेंगे कहना मुश्किल है। हालत बद से बदतर होते जा रहे हैं। गीतकार कहने के लिये विवश हो उठता है-
घर में गेहूँ-धान-बाजरा 
मुट्ठी भर अब चना नहीं है
खाली पड़ीं पतुकियाँ उठँगी
आटा भी कुछ सना नहीं है 
झाँपी बटुआ खोंइछा खाली
मैं अनाज की बिकी हुई हूँ
पापाजी
(जिस खूँटे से बाँध गये तुम, पृष्ठ संख्या-५७) 

ऐसा परिदृश्य देश और समाज को किस दुनिया में ले जायेगा, चिंतन का विषय है। रोज-रोज प्रगति का बिगुल फूँका जा रहा है। किन्तु ‘बाहर-बाहर हरा भरा है, भीतर आँगन सूना है’। महँगाई और मंदी की मार से आम आदमी अपने अस्तित्व बचाने के लिये संघर्ष कर रहा है। चतुर्दिक विकास की बात तो दूर, पूरी जिन्दगी रोटी के जुगाड़ करने में गुजर जाती है-    
पेट चिढ़ाता ही रहता है
सुख-दुःख मारे ताने
नहीं अभी तक पतुकी जानी 
अर्थशास्त्र के माने   
कर्ज-पहाड़े पढ़ती आई    
असफल रोटी दाल 
(कहाँ नया है साल, पृष्ठ संख्या -६०) 

सहयोगी जी सजग और सावधान गीतकार हैं। मानव मूल्यों का आकलन अनेक स्तर से करते हैं, फिर उसे शब्दों में बुनते हैं। ‘लोकोन्मुखी रुद्राक्ष’ संग्रह में आम आदमी की विवशता, छटपटाहट एवं सामयिक व्याकुलता प्रमुख रूप से व्यक्त हुई है- 
विज्ञापन के गौरीशंकर
मोड़-मोड़ पर लटक गये हैं 
पगडण्डी के न्यूनकोण पर  
आश्वासन सब भटक गये हैं।
समाधान के अनुबंधों का 
पोस्टर टँगा दिखाई देता
शहर कहें या गाँव    
(शहर कहें या गाँव, पृष्ठ संख्या-६४)

शासक वर्ग की कथनी करनी एवं व्यवस्था की विडंबनाएँ चित्रित करने में गीतकार सहयोगी जी पूर्णरूपेण सफल हुये हैं। गीतकार समय-यथार्थ से मुठभेड़ केने के लिये दृष्टि एकाग्र रखे हुये हैं। सहयोगी जी समय को पढ़ रहे हैं, फिर लिख रहे हैं। अनूठे प्रतीक और नये-नये शब्दों का प्रयोग करना भली भाँति जानते हैं-
बेला की सुगंध की शीशी 
फगुनाई ले डोल रही 
कलियों ने जो चिट्ठी भेजी
अमराई छिप खोल रही  
हँसी-खुशी का राजमहल है 
ऋतुओं का है किला वसंत 
(बाली-बाली खिला वसंत, पृष्ठ संख्या-८७)

संग्रह में प्रेम और सौन्दर्य के स्वर भी मुखरित हुये हैं। प्रेम के बहुविध भंगिमाओं का स्वाभाविक चित्रण किया गया है। गीतकार ने जीवन के अनुभवों को उकेरा है। जीवन के विविध रंग को गीत में ढालना आसान काम नहीं है। साधक लोग ही ऐसे कार्य कर सकते हैं। शिवानन्द जी नवगीत के दक्ष गीतकार हैं-
बहुत पहले पूर्वजों ने 
कई सदियों में रचे जो
गीत गाते आ रहा हूँ    
वेदध्वनि के वेदवाक्यों 
के कथन की सत्यता की
विशद विवरण की विवेचित
मान्यता की सभ्यता की 
है विचारों की सुरक्षित 
वास्तविक अभियांत्रिकी जो 
भूमिका में गा रहा हूँ
(गीत गाते आ रहा हूँ, पृष्ठ संख्या-९०)

बहरहाल, तमाम विसंगतियों एवं त्रासदियों से भरे समय में आदमी इतना लाचार और बेबस बन गया है कि वह चाहकर भी प्रकृति प्रेम, पशु-पक्षी एवं हरियाली पर रचना लिखने के लिये उद्यत होकर भी कुछ नहीं लिख पाता और रचनाकार का ध्यान बँट जा रहा है। सहयोगी जी इन सबके बावजूद हताश और निराश नहीं हैं। संवेदना की दृष्टि से ‘लोकोन्मुखी रुद्राक्ष’ एक प्रमुख संग्रह है जिसमें गीतकार ने जीवन के विविध विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है-
पकड़ लिया है ढीठ पवन ने बरस रही बरखा का पल्ला 

किया नाक में दम बिजली नेमचा-मचाकर हो-हो-हल्ला 
भागदौड़ में कहीं खो गया 
डरी किरण का नथ-झुमका है
(मेघो ने छापा मारा है, पृष्ठ संख्या-१४९)

गीतकार शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उनके सृजन संसार का पाट चौड़ा है। आंचलिक शब्दों, मुहावरों से आम आदमी के सुख-दुःख व्यक्तकर, नवगीत की मुख्यधारा में शामिल हैं। संवेदना की पीड़ा में राग से ज्यादा, कथ्य महत्वपूर्ण है जो पाठक को सोचने के लिए मजबूर करता है।

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नवगीत संग्रह- लोकोन्मुखी रुद्राक्ष, रचनाकार- शिवानंद सिंह सहयोगी, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, १/२० महरौली नई दिल्ली-, प्रथम संस्करण-२०१९, मूल्य- रु, ३२० पेपर बैक, पृष्ठ-१५६, परिचय- डॉ. रंजीत पटेल,
ISBN-

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