रविवार, 12 अप्रैल 2015

वक्त आदमखोर- मधुकर अष्ठाना


विख्यात नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना अपनी कृति ‘वक्त आदमखोर’ के माध्यम से समाज की नब्ज़ पर अँगुली रखकर तमाम विसंगतियों को देख-समझ, अभिव्यक्तकर उसके निराकरण का पथ संधानने की प्रेरणा देते हैं। श्री पारसनाथ गोवर्धन का यह आकलन पूरी तरह सही है- ‘इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूते शब्द विन्यास, मौलिक उद्भावनाएँ, यथार्थवादी प्रतीक, अनछुए बिम्बों का संयोजन, मुहावरेदारी तथा देशज शब्दों का संस्कारित प्रयोग उन्हें अन्य रचनाकारों से पृथक पहचान देने में समर्थ है।

नवगीतों में प्रगतिवादी कविता के कथ्य को छांदस शिल्प के साथ अभिव्यक्त कर सहज ग्राह्य बनाने के उद्देश्य को लेकर नवगीत रच रहे नवगीतकारों में मधुर अष्ठाना का सानी नहीं है। स्वास्थ्य विभाग में सेवारत रहे मधुकर जी स्वस्थ्य समाज की चाह करें, विसंगतियों को पहचानने और उनका निराकरण करने की कामना से अपने नवगीतों के केंद्र में वैषम्य को रखें यह स्वाभाविक है। उनके अपने शब्दों में ‘मानवीय संवेदनाओं के प्रत्येक आयाम में विशत वातावरण से ह्त्प्रभ, व्यथित चेतना के विस्फोट ने कविताओं का आकार ग्रहण कर लिया। भाषा का कलेवर, शब्द-विन्यास, शिल्प-शैली तथा भावनाओं की गंभीरता से निर्मित होता है... इसीलिए चुस्त-दुरुस्त भाषा, कसे एवं गठे शब्द-विन्यास, पूर्व में अप्रयुक्त, अनगढ़-अप्रचलित सार्थक शब्दों का प्रयोग एवं देश-काल-परिस्थिति के अनुकूल आंचलिक एवं स्थानीय प्रभावों को मुखरित करने की कोशिश को मैंने प्रस्तुत गीतों में प्राथमिकता देकर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।’

मधुकर जी की भाषा हिंदी-उर्दू-देशज मिश्रित है।

तन है वीरान खँडहर 
मन ही इस्पात का नगर 
मजबूरी आम हो गयी 
जिंदगी हराम हो गयी
कदम-कदम क्रासों का सिलसिला 
चूर-चूर मंसूबों का किला
प्यासे दिन हैं भूखी रातें 
उम्र कटी फर्जी मुस्काते
टुकड़े-टुकड़े अपने राम रह गये 
संज्ञाएँ गयीं सर्वनाम रह गये 
जीवन भर जो रिश्ते ढोये हैं 
कदम-कदम पर काँटे बोये हैं
प्याली में सुबह ढली
थाली में दोपहर 
बुझी-बुझी आँखों में डूबे शामो-सहर 
जीवन यों तो ठहर गया है 
एक और दिन गुजर गया है
तर्कों पर लाद जबर्दस्तियाँ 
भूल गयीं दीवारें हस्तियाँ 

आदि पंक्तियाँ पाठक को आत्म अनुभूत प्रतीत होती हैं। इन नवगीतों में कहीं भी आभिजात्यता को ओढ़ने या संभ्रांतता को साध्य बताने की कोशिश नहीं है। मधुकर जी को भाषिक टटकापन तलाशकर आरोपित नहीं करना पड़ता। उन्हें सहज-साध्य मुहावरेदार शब्दावली के भाव-प्रवाह में संस्कृतनिष्ठ, देशज, ग्राम्य और उर्दू मिश्रित शब्द अपने आप नर्मदा के सलिला-प्रवाह में उगते-बहते कमल दल और कमल पत्रों की तरह साथ-साथ अपनी जगह बनाकर सुशोभित होते जाते हैं।

निर्मम फाँस गड़ी मुँहजोरी 
तिरस्कार गढ़ गया अघोरी
जंगली विधान की बपौती 
परिचय प्रतिमान कहीं उड़ गये 
भकुआई भीड़ है खड़ी, टुटपुंजिया मिन्नतें तमाम 
फंदों में झूलें अविराम 
चेहरों को बाँचते खड़े 
दर्पण खुद टूटने लगे 

आदि पंक्तियों में दैनंदिन आम जीवन में प्रयुक्त होते शब्दों का सघन संगुफन द्रष्टव्य है। भाषी शुद्धता के आग्रही भले ही इन्हें पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें किन्तु नवगीत का पाठक इनमें अपने परिवेश को मुखर होता पाकर आनंदित होता है। अंग्रेजी भाषा से शिक्षित शहरी नयी पीढ़ी के लिए इनमें कई शब्द अपरिचित होंगे किन्तु उन्हें  शब्द भण्डार बढ़ाने का सुनहरा अवसर इन गीतों से मिलेगा, आम के आम गुठलियों के दाम... 

मधुकर जी इन नवगीतों में सामयिक युगबोधजनित संवेदनाओं, पारिस्थितिक वैषम्य प्रतिबिंबित करती अनुभूतियों, तंत्रजनित विरोधाभासी प्रवृत्तियों तथा सतत ध्वस्त होते मानव-मूल्यों से उत्पन्न तनाव को केंद्र में रखकर अपने चतुर्दिक घटते अशुभ को पहचानकर उद्घाटित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। उनकी इस प्रवृत्ति पर आनंद-मंगल, शुभ, उत्सव, पर्व आदि की अनदेखी और उपेक्षा करने का आरोप लगाया जा सकता है किन्तु इन समसामयिक विद्रूपताओं की उपस्थिति और प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। घर में अपनों के साथ उत्सव मनाकर आनंदमग्न होने के स्थान पर किसी अपरिचित की आँखों के अश्रु पोंछने का प्रयास अनुकरणीय ही हो सकता है। 

मधुकर जी के इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूता शब्द चयन, मौलिक सोच, यथार्थवादी प्रतीक, अछूता बिम्ब संयोजन, देशज-परिनिष्ठित शब्द प्रयोग, मुहावरों और कहावतों की तरह सरस लच्छेदार शब्दावली, सहज भाव मुद्रा, स्पष्ट वैषम्य चित्रण तथा तटस्थ-निरपेक्ष अभिव्यक्ति उनकी पहचान स्थापित करती है। नवगीत की प्रथम कृति में ही मधुकर जी परिपक्व नवगीतकार की तरह प्रस्तुत हुए हैं। उन्हें विधा के विधान, शिल्प, परिसीमाओं, पहुँच, प्रभाव तथा वैशिष्ट्य की पूर्ण जानकारी है। उनकी शब्द-सामर्थ्य, रूपक गढ़न-क्षमता, नवोपमायें खोजन एकी सूक्ष्म दृष्टि, अनुभूत और अनानुभूत दोनों को समान अंतरंगता से अभिव्यक्त कर सकने की कुशलता अन्य नवगीतकारों से अलग करती है। अपने प्रथम नवगीत संग्रह से ही वे नवगीत की दोष-अन्वेषणी प्रवृत्ति को पहचान कर उसका उपयोग लोक-हित के लिए करने के प्रति सचेष्ट प्रतीत होते हैं। 

मधुकर जी गजल (मुक्तिका) तथा लोकभाषा में काव्य रचना में निपुण हैं। स्वाभाविक है कि गजल में मतला (आरम्भिका) लेखन का अभ्यास उनके नवगीतों में मुखड़ों तथा अंतरों को अधिकतर द्विपंक्तीय रखने के रूप में द्रष्टव्य है। अंतरों की पंक्तियाँ लम्बी होने पर उन्हें चार चरणों में विभक्त किया गया है। अंतरांत में स्थाई या टेक के रूप में कहीं-कहीं २-२ पंक्तियाँ का प्रयोग किया गया है। 

मधुकर जी के कहन की बानगी के तौर पर एक नवगीत देखें- 

पत्थर पर खींचते लकीरें 
बीत रहे दिन धीरे-धीरे 

चेहरे पर चेहरे, शंकाओं की बातें 
शीतल सन्दर्भों में दहक रही रातें
धारदार पल अंतर चीरें 

आँखों में तैरतीं अजनबी कुंठायें 
नंगे तारों पर फिर जिंदगी बिठायें 
अधरों पर अनगूँजी पीरें 

बार-बार सूरज की लेकर कुर्बानी 
सुधियों की डोर कटी, डूबी नादानी 
स्याह हैं चमकती तस्वीरें 

एक सौ एक नवगीतों की यह माला रस वैविध्य की दृष्टि से निराश करती है। मधुकर जी लिखते हैं- 
‘इंद्रढनुष में सातों सरगम लहरायें 
लहरों पर गंध तिरे पाले छितरायें’ (चुभो न जहरीले डंक) 

किन्तु संग्रह के अधिकाँश नवगीत डंक दंशित प्रतीत होते हैं। मधुकर जी के साथ इस नवगीत कुञ्ज में विचरते समय कलियों-कुसुमों के पराग की अभिलाषा दुराशा सिद्ध होने पर भी गुलाब से लेकर नागफनी और बबूलों के शूलों की चुभन की प्रतीति और उस चुभन से मुक्त होकर फूलों की कोमलता का स्पर्श पाने की अनकही चाह पाठक को बाँधे रखती है। नवगीत की यथार्थवादी भावधारा का प्रतिनिधित्व करती यह कृति पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।
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गीत- नवगीत संग्रह - वक्त आदमखोर, रचनाकार- मधुकर अष्ठाना, प्रकाशक- अस्मिता प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-१९९८, मूल्य- रूपये १५०, पृष्ठ-१२६, समीक्षक- संजीव सलिल

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