विश्ववाणी हिंदी के समसामयिक साहित्य की लोकप्रिय विधाओं में से एक नवगीत के उद्यान में एक नया पुष्प खिल रहा है, शशि पुरवार रचित नवगीत संग्रह 'भीड़ का हिस्सा नहीं' के रूप में।
शशि पुरवार ने गंभीरता से नवगीत विधा में अपनी राह बनाने का प्रयास किया है। वे अनुभूति विश्वम और अनुभूति-अभिव्यक्ति के नवगीत समारोहों से निरंतर जुडी रही हैं। इन आयोजनों में मेरी भी सतत सहभागिता होती रही है। साहित्यिक विधा के मूल दो तत्व कथ्य और भाषा हैं। कथ्य वर्तमान को गतागत से जोड़ता है, भाषा अनुभूत को अभिव्यक्त कर सार्वजनिक बनाती है। सार्वजनिक सृजन की पहले शर्त 'सर्व' अनुभूत को 'स्व' द्वारा ग्रहण और अभिव्यक्त कर 'सर्व' ग्राह्य बनाना है। यदि वैचारिक प्रतिबद्धता को अपरिहार्य मान लिया जाए तो वह अन्य विचार के रचनाकार हेतु अग्राह्य होगा। कथ्य को सब तक पहुँचाने के लिए ही रचनाकार लिखता है। इसलिए कथ्य चयन की स्वतंत्रता होनी चाहिए. समीक्षा करते समय वैचारिक प्रतिबद्धता को दरकिनार कर सामाजिक परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में रचना का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। कथ्य के अनुरूप विधा, विधा के अनुरूप शिल्प, कथ्य के अनुरूप भाषा, शब्द, प्रतीक, बिम्ब, मिथक, अलंकार आदि का चयन स्वाभाविकता बनाये रखते हुए किया जाना चाहिए। यह सब मिलकर रचनाकार की शैली बनती है। शशि पुरवार किसी प्रकार की वैचारिक प्रतिबद्धता या कठमुल्लेपन से मुक्त रचनाकार हैं।
'भीड़ का हिस्सा नहीं ' शीर्षक से ही स्पष्ट है कि रचनाकार स्वविवेक और रचनाधर्मिता को महत्वपूर्ण मानती है, उसे संचालित किये जाने में नहीं स्वसंचालित होने में विश्वास है।
''जिंदगी के इस सफर में /
भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ /
गीत हूँ मैं, इस सदी का /
व्यंग्य का किस्सा नहीं हूँ।'' लिखकर रचनाकार व्यंग्य अर्थात व्यंजना मात्र और किस्सा अर्थात कल्पना मात्र होने से इनकार करती है। यही नहीं 'नव वर्ष का दिनमान' शीर्षक से वह नवाशा की झलक दिखाकर नवाचार की डगर पर पग बढ़ाती है -
फिर विगत को भूलकर
मन में नया अरमान आया
खिड़कियों से झाँकती, नव
भोर की पहली किरण है
और अलसाये नयन में,
स्वप्न में चंचल हिरण है
गंधपत्रों से मिलाने
दिन, नया जजमान लाया
खेत में खलिहान में, जब
प्रीत चलती है अढ़ाई
शोख नजरों ने लजाकर
आँख धरती में गड़ाई
गीत मंगलगान गाओ
हर्ष का उपमान आया
अंत में 'हौसलों के बाँध घुँघरू / नव बरस अधिमान आया' में शशि पुरवार हर्ष-उल्लास, लाज-श्रृंगार और उमंगों को भी नवता में सम्मिलित करती हैं। अगले ही गीत में भिन्न स्थिति साक्षात् कीजिए-
कागजों पर ही सिमटकर
शेष हैं संभावनाएँ
क्या करें शिकवा जहां से
मर गईं संवेदनाएँ?
रक्त रंजित हो गयी हैं
आदमी की भावनाएँ
संभावनायें ही कागज़ी जाएँ तो साथ चलकर भी कुछ पाया नहीं जा सकता, सिर्फ खामोशियाँ ही साथ निभाती हैं-
भीड़ में गुम हो गयी हैं
भागती परछाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तन्हाईयाँ
वक़्त की इन तकलियों पर
धूप सी है ज़िंदगी
तकलियों पर पड़ती धूप जैसी ज़िंदगी किसी और के इशारे पर नाचने के मजबूर हो, रास्ते एक होने पर भी दर्प की दीवार के कारण फासले बने रहें तो दीवार को तोड़ना ही एक मात्र रास्ता रह जाता है। विसंगति के शब्द चित्र उपस्थित करने के साथ उसका समाधान भी सुझाना नवगीतिक नवाचार है। साहित्य में सबका हित समाहित हो तो ही उसकी रचना, पठन और श्रवण सार्थक होता है। इन नवगीतों में कथ्य को प्रमुखता मिली है। कथ्यानुकूल शब्दचयन हेतु हिंदी के साथ ही अन्य भाषाओँ के शब्दों का गंगो-जमुनी प्रवाह रचनाकार की शब्द सामर्थ्य की बानगी प्रस्तुत करता है। ऐसे शब्दों को उनके पर्यायवाची शब्दों से बदला नहीं जा सकता -
'रास्ते अब एक हैं पर /
फासले भी दरमियाँ /
दर्प की दीवार अंधी /
तोड़ दो खामोशियाँ' को 'मार्ग है अब एक ही / मध्य में अंतर भी है / गर्व की दीवाल अंधी / तोड़ दो अब मौन को' करने पर अर्थ न बदलने पर भी भाषा की रवानी और कहन का प्रभाव समाप्त हो जाता है। यह रचनाकार की सफलता है कि वह कथ्य को इस तरह प्रस्तुत करे जिसे बदला न जा सके।
पर्यावरण प्रदूषण मानव सभ्यता के लिए अकल्पनीय ख़तरा बन कर उभर रहा है लेकिन हम हैं कि चेतने को तैयार ही नहीं हैं। नवगीतकार की चिंता सामान्य जन से अधिक इसलिए है कि उसे ''सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है'' की विरासत को जीना है।
काटकर इन जंगलों को / तिलस्मी दुनिया बसी है
वो फ़ना जीवन हुआ / फिर पंछियों की बेकसी है
वृक्ष गमलों में लगे जो / आज बौने हो गए हैं, ईंट गारे के महल में / खोखली रहती हँसी है, चाँद लगे हम / गर्त में धरती फँसी है, नींद आँखों में नहीं / है प्रश्न का जंगल, भार से काँधे झुके / और में, रक्षक भक्षक बन बैठे हैं / खुले आम बाज़ारों में, अपनेपन की नदियाँ सूखीं / सूखा खून शिराओं में, दिन भयावह बन डराते / शब करेली हो गयी है जैसे मिसरों की मुहावरेदार भाषा जुबान पर चढ़ जाती है। ऐसी जुबान ही आम पाठक के मन को भाती है।
याद बहुत बाबूजी आये, रात सिरहाने लेटी, उदर की आग, बाँसवन में गीत, बेला महका, वस्त्र भगवा बाँटते, फागुन का अरमान, पीपलवाली छाँव, आदि में बहुआयामी विडम्बनाओं और विसंगतियों को लक्ष्य किया गया है। सूरह है ननिहाल उसी परंपरा की अगली कड़ी है जिसमें मेरे प्रथम नवगीत संग्रह ''काल है संक्रांति का' में सूर्य-केंद्रित नवगीत हैं। 'धड़कनें तूफ़ान' में बुलंद हौसलों, 'तारीख बदले रंग' में दिखावा प्रधान जीवन, 'आदमी ने चीर डाला है' में राजनैतिक पाखंड, 'छलका प्याला' में कन्या - अवहेलना, 'गिरगिट जैसा रंग' में सामाजिक विसंगति, 'कोलाहल में जीना' में नागर जीवन की त्रासदी, शूलवाले दिन में संबंधों की टूटन, 'धूप अकेली' में एकाकीपन मुखर होकर सामने आता है। संग्रह के नवगीतों में 'अलख जगानी है में राष्ट्र प्रेम, 'सुने बाँसुरी तोरी' में वैश्विकता, 'आक्रोशों की नदियाँ' में परिवर्तन की चाहत, 'फागुनी रंगत' में उल्लास और उमंग के स्वर घुले हुए हैं जो पाठक को प्रेरित करने के साथ नवगीत को शिकन्जामुक्त कर खुली हवा में सांस लेने का अवसर उपलब्ध कराते हैं।
''फागुनी रंगत भरा / मौसम मिलेगा / गीत थिरकेंगे जुबान पर / स्वर जिलेगा'' में 'जिलेगा' दोषपूर्ण प्रयोग है। केवल तुकबंदी के लिए भाषा को विरूपित नहीं किया जाना चाहिए। 'जिलेगा' के स्थान पर सही शब्द 'जियेगा' रखने से भी अर्थ या भाषिक प्रवाह में दोष नहीं है।
संकलन में आह्वान गीत 'जोश दिलों में' को शामिल कर शशि पुरवारने परिचय दिया है। संकीर्ण सोचवाले समीक्षक भले ही आपत्ति करें , मेरे मत में आह्वान गीत भी नवगीतों की ही एक भाव मुद्रा है, बशर्ते इनका कथ्य मौलिक और परंपरा से भिन्न हो।
'फगुनाहट ले आना' संग्रह का उल्लेखनीय नवगीत है। 'आँगन के हर रिश्ते में / गरमाहट ले आना', सबकी किस्मत हो गुड़ धानी / नरमाहट ले आना', 'धूप जलाए, नरम छुअन सी / फगुनाहट ले आना, धुंध समय की गहराए पर / मुस्काहट ले आना आदि में नवाशा उल्लास का रंग घुला है किंतु 'जर्जर होती राजनीति की / कुछ आहट ले आना' का नकारात्मक स्वर शेष गीत में व्यक्त भावों के साथ सुसंगत नहीं है।
'कनक रंग छितराना' अच्छा गीत है। पाठक इसे पढ़कर अनुभव करेंगे कि गीत में व्यक्त भाव और कथ्य व्यक्तिपरक परक नहीं है, यही महीन रेखा गीत से नवगीत को पृथक करती है। यहाँ शशि पुरवार के कवि-मन की उन्मुक्त उड़ान काबिले-तारीफ है। कृति के उत्तरार्ध में रखे गए गीत हुलास और उछाह के स्वर बिखेर रहे हैं। नवगीतों में वर्णित विसंगतियों, त्रासदितों और विडम्बनाओं से उपजी खिन्नता को मिटाकर ये गीत पाठक को आनंदित कर जीवन में जूझने के लिए नव ऊर्जा और प्रेरणा देते हैं। धूप-छाँव तरह विसंगति और सुसंगति को साथ-साथ लेकर चलती शशि पुरवार के गीतों-नवगीतों का यह संकलन संकीर्णता दृष्टि औदार्य पूर्ण नज़रिये की जय-जयकार करता है। कवयित्री के नवगीत संकलन से परिपक्व और खरे नवगीतों का संसार और होगा। नवगीतोद्यान में शशि पुरवार के नवगीतों का गमला अपनी रूपछटा और सुगंध बिखेरकर पाठकों को भायेगा।
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गीत- नवगीत संग्रह - भीड़ का हिस्सा नहीं, रचनाकार- शशि पुरवार, प्रकाशक- वान्या प्रकाशन, कानपुर। प्रथम संस्करण- २०२०, मूल्य- रूपये २५०/-, पृष्ठ- १३६, समीक्षा - आचार्य संजीव वर्मा सलिल।।
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