सोमवार, 14 दिसंबर 2015

नदी नहाती है- कृष्ण शलभ

मैं हाल ही में प्रकाशित गीत संग्रह ‘नदी नहाती है’ के गीतों के गलियारे से गुजर रहा हूँ। जीवन राग के ऐसे सुंदर टटके और ताजा प्रतीकों एवं बिंबों का संग्रहण देखने को मिल रहा है, कि मन अभिभूत है। मैं सहज ही यह बात कहने को विवश हूँ कि गीतों में भला क्या नहीं कहा जा सकता? बल्कि कई बार तो अनकहा भी। ‘नदी नहाती है’ यह अभिव्यंजना ही अपने आप में अद्भुत, अनुपम एवं अनिर्वचनीय है-

‘हुई सूख कर जो काँटा थी
अब अधियाती है 
बड़ी कृपा की अरे राम जी 
नदी नहाती है 
गीले हुए रेत के कपड़े 
सजल हुए तटबंध 
छल-छल करके हरे हो गए
कल के सब संबंध 
अपना सब दुःख लहर-लहर से 
बाँटे जाती है।’
‘नदी का नहाना’ वास्तव में हमारे संवेदना का ही भीगना-नहाना है, तटबंध का सजल होना ऐसी एक मार्मिक अभिव्यक्ति है जिसकी ओट में गीत कवि कृष्ण शलभ का रचनाकार साँसें लेता है। इस साँस में समय का संगीत अपनी संपूर्ण सरगम के साथ मौजूद मिलता है। यह मौजूदगी एक ऐसे कलमकार की सघन, सरल एवं संश्लिष्ट उपस्थिति है जिसके चलते हमारा बेसुरा वक्त ही सुरों में ढलने सा लगता है। सुरीला होने लगता है। निःसंकोच कह सकते हैं कि शलभ हमारे दौर के सबसे सुरीले कवियों में से एक हैं और इसलिए अत्यंत विशिष्ट भी हैं। क्योंकि वह अपनी भाषा के साथ कोई छल नहीं करते। गीत कवि के लिए सरल होना ही सबसे कठिन होता है। सरलता अपने आप में एक टेढ़ी-खीर है जिसकी सहज सिद्धि नैसर्गिक रूप से कवि शलभ को प्राप्त है। उन्हें वह सब कुछ हासिल है जो एक बड़े कवि को लंबी साधना के बाद हासिल होता है, वह ‘आवाजों के जंगल’ से गुजरते हैं। कई बार उन्हें अपनी ही ध्वनियाँ-प्रतिध्वनियाँ सुनाई देती हैं इस सुनाई देने को भी वह अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं, अपने समय और समाज से बातें करते हैं। यह बातचीत आदमी का अंतरंग एवं बहिरंग रचती हैं। यह बतियाहट प्रायः बतरस की शक्ल में भी होती है जो आत्मीयता एवं अपनेपन का प्रतिसंसार सा रच देती है। शलभ जी इसी अपनापे के सरल एवं ऋजु कवि हैं। उनकी ऋजुता उन्हें भीड़ से अलहदा एक अलग चेहरा एवं शख्सियत देती है। गहन रागात्मकता के साथ उनके राजनैतिक-सामाजिक व मानवीय सरोकार भी लगभग चमत्कृत एवं विस्मित कर देते हैं। कई बार उनके गीत एक आश्चर्य लोक की तरह भी खुलते हैं, विशेषकर जब वह कहते हैं- 

‘आँखों में हैं स्वप्न सलोने 
टुकुर-टुकुर सी देख रही हैं 
मात खाई तजबीजें 
सोच-सोच हालात निराले 
जियरा बहुत उदास।’
शलभ के गीतकार की रचना धर्मिता गहरी छटपटाहट एवं बेकली के बीच से करुणा व संवेदना की पगडंडियों की तलाश करती है। इस तलाश के गुणसूत्र उनके मन के बियावान में जीवन और जगत के सुनसान बबंडर सहेजते हैं। वह बहुत कुछ टूट गया और बिखरा हुआ संजोते हैं। इस सर्जनात्मक क्रम में वह कभी स्वयं टूटते और बिखरते नहीं वरन् दूनी ऊर्जा एवं उत्साह-उमंग के साथ अपने सर्जक को मुस्तैद रखते हैं।
अपनी प्रखर सामाजिक चिंताओं के साथ दांपत्य की भीनी सुगंध से भी आप्लावित रहता है, कवि का मन। वह विलक्षण अर्थ छवियाँ रचते गढ़ते हैं। याद को स्वार्थ की तरह साकार करते हैं, रूप का अनुवाद करते हैं चले हुए रास्तों पर जैसे फिर चलने लगते हैं। समय के सीप से मोती निकालते हैं। अनदेखे अनजाने क्षितिजों का उद्घाटन करते हैं। तल स्पर्शी छुअन से अपने गीतों के वितान को विस्तार देते हैं, कहते हैं - 

‘कल किताब में 
मिला अचानक 
कब का रखा गुलाब

देखा तो आ गया याद फिर 
पल में रूप तुम्हारा  
वो गुलाब सा खिलता चेहरा 
जो लगता था प्यारा 

बिन बोले हर एक प्रश्न का 
देते नयन जवाब!’
यह राग और रुमान कृष्ण शलभ की उद्दाम रचनात्मक जिजीविषा का आक्सीजन है। इसके बल पर ही यह दम घोंटू वातावरण एवं परिवेश में भी जिंदगी से बावस्ता संदर्भों का शिलालेख तैयार करते हैं और अपराजेय काव्यबोध के साथ मंजरे आम पर अपना होना दर्ज कराते हैं।
संकलन के अंतर्गत नचिकेता कहते हैं- 
कृष्ण शलभ के गति अपने समय के मक्कार राजनीतिज्ञों के वादा खिलाफ चेहरे को बड़ी बेरहमी से बेनकाब करते हैं। ऐसे स्थलों पर कवि की व्यंग्य-मुद्रा देखते बनती है। वह रीढ़ सीधी रख कर समय की रूढ़ि पर प्रहार करते हैं, वह कहते हैं- 

"देख रहे हम बहुत दिनों से 
मौसम की अय्यारी 

सूखा कहीं, कहीं पर बाढ़ें 
और कहीं बदहाली 
हरित क्रांति की गीता पढ़-पढ़ 
नाच रही कंगाली 

ऐसे में भी कुछ ने अपनी 
करी तिजोरी भारी।"
कृष्ण शलभ की लगभग साढ़े तीन चार दशकों की सतह रचना यात्रा ने समकाल को अपने छंदों में एक कसी हुई मुट्ठी की तरह ही अभिव्यक्त किया है। इसी अभिव्यंजना की सामर्थ्य के चलते उनके गीत अधुनातन संवदेनाओं के संवाहक बन सके हैं। 
सारतः यह साधिकार कह सकते हैं कि कृष्ण शलभ के गीतों में एक कद्दावर हरे-भरे पेड़ की गहरी झकोर है। इस झकोर में जड़ों का जुड़ना, जुड़ाव की लय और लगाव का संगीत एक सहज अनुपात में संवाद करते हैं। निश्चित ही ‘नदी नहाती है’ के प्रकाशन हिंदी गति का विकास यात्रा का एक और महत्वपूर्ण सोपान है।
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गीत- नवगीत संग्रह - नदी नहाती है, रचनाकार-कृष्ण शलभ, प्रकाशक- मेधा बुक्स, दिल्ली ११००९५। प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये २००/-, पृष्ठ- १०८, समीक्षा- , ISBN- 8181664892, 9788181664891।


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