सोमवार, 28 सितंबर 2015

अब है सुर्ख कनेर - निर्मल शुक्ल

निर्मल शुक्ल की पहचान ‘उत्तरायण’ जैसी विशुद्ध कविता की पत्रिका के सम्पादक के रूप में सर्वमान्य रही है। इससे उनका स्वयं का गीतिकवित का रूप काफी उपेक्षित रहा, हालाँकि उनके कविता संग्रह इस बीच लगातार आते भी रहे। मुझे उनके कवि से विस्तार से परिचित होने का मौका मिला, जब कुछ दिनों पूर्व उन्होंने अपनी कविता पुस्तक ‘अब तक रही कुँआरी धूप’ मेरे अवलोकनार्थ भेजी। उस संग्रह की रचनाओं में पारम्परिक कहन के बावजूद ऐसा कुछ था जो मुझे उनके गीतिकवि को गंभीरता एवं उत्सुकता से लेने को बाध्य कर गया और फिर उन्होंने प्रस्तुत संकलन की पांडुलिपि इधर मुझे भेजी और मेरा औत्सुक्य विस्मय में बदल गया, जब मैंने पाया कि इन गीतों के कथ्य का धरातल, इनका शिल्प, इनकी कहन, सभी कुछ पहले पढ़े संग्रह की रचनाओं से काफी अलग है। निर्मल के इन गीतों में वे फिलवक्त, की पगचापें पूरी तरह से ध्वनित होती सुनाई दीं मुझे जिनकी आहट दूर से पहले के गीतों में आ रही थी।

समकालीन संज्ञान इन गीतों में पूरी गहनता के साथ उपस्थित है, इसमें कोई संदेह नहीं है, इनमें टुकड़े टुकड़े सन्दर्भों में पुरखों का विश्वास बिखरा पड़ा है। साथ ही यह त्रासक एहसास भी कि ‘अर्थ बदल कर सब संज्ञायें हो गईं समकालीन’ समझौतों की आज अपसंस्कृति के बीच भी जी लेने की आस’ की अनुभूति एक ओर त्रासक है, तो दूसरी ओर उस जिजीविषा को भी संकेतिक करती है, जो हर हाल में बनी रहती है। ऊदी यादों की परछाई के बीच ‘काले अक्षर’ की ‘वसीयत’ पढ़ने का दर्द इन रचनाओं में है। दो उपशीर्षकों के अर्न्तगत इस संग्रह में कुल पच्चीस कविताएँ हैं। प्रथम लघुगीत माँ शारदा के स्तवन के शास्त्रीय स्वर गान के बाद है, पहला खण्ड ‘ऊदा मौसम’ जिसमें पन्द्रह गीत हैं। इन गीतों में ऊदी यानि ललछौहीं कालिमा से घिरी संज्ञाओं की खबरें हैं। मौसम तो सुलगा हुआ है, ऐसे में घायल गौरैया का पुरसाहाल कौन हो। सूखे अनुराग के इस माहौल में नदी मुहाने तो हैं, पर उनकी प्रयाग होने की क्षमता चुक गई है। ऐसे में, रेत पिये जीने की आशा भी हाथ मसलने के अलावा और क्या कर सकती है। इस मौसम की आख्या राजा रानी की कहानी के रूपक में बड़े ही सटीक रूप में प्रस्तुत हुई है, ‘लकड़ी वाला घोड़ा’ शीर्षक गीत में। दादी नानी से सुनी कहानी का आधुनिक अंत यों ही हो पाता है।

क्या बौने क्या काला जादू
तिकड़म माया जाल
छूट गया परियों का आँचल
किस्से हुये सवाल
लकड़ी वाला घोड़ा अब भी
सात समुन्दर पास
गले गले तक पहुँचा पानी
इतनी एक कहानी

इस बचपन में सुनी परी कहानी के रूपक वाले गीत ‘गिनी चुनी साँसों’ में भी रिश्तों के बँटवारे की, ‘जितना कुछ आकाश मिला, वह सब खारा’ व्यथा को बड़े करीने से बुना गया है। ‘तुतलाते अक्षर ध्वनियाँ में अर्थ’ पहचानने की क्षमता एक ओर हम खो बैठे हैं, तो दूसरी ओर ‘शब्द सयाने (तो) बहुत मिले / पर सब के सब अनजाने का अजनबीपन भोगने को भी हम अभिशप्त हैं। इस से जुड़ी है, ‘बोध नहीं दे सका स्वयं का / बढ़ा हुआ आकार’ की बिडम्बना भी। ‘ऊँचे मुँह/बातें बचकानी के इस विषय असंगत माहौल में यह तो होना ही है। गाँव जो कभी लोक आस्था, आस्तिकता और मौलिक एवं प्रवृतिपरक रागात्मक संचेतना के संयोजक थे, अब शहर का गलियारा यानि हाशिया बन कर रह गई हैं। वे गर्दीली अभिलाषाओं की सलीब ढोने और खण्डहर होते नसीब में जीने को अभिशप्त हैं। सर्वव्यापी, सर्वग्राही तनाव को ‘ड्योढ़ी डयोढ़ी / द्वारे-द्वारे’ रिसते अनुभूत करने की व्यंजना बड़ी अनूठी बन पड़ी है ‘रिश्ते में तो निरन्तरता और धीमे-धीमे पैठने, गहरे समाने का बोध है, वह अन्य किसी क्रिया में रूपायित नहीं हो पाता आज के परिवेश और उसके साथ मानुषी संवेदना के विखंडन का प्रस्तुत दृश्य, देखें तो कितना सटीक है।

लगता है सूरज की पीली
किरणें सील गईं
लेकिन आदमकद परछाई
फिर भी लील गई
सिरविहीन हो गये निगोड़े
धड़ से चिपके पाँव।

और चौखट पर मुरझाया दिनमान के साथ ही ‘यह सारा आकाश’/लिख गया / सबके माथ विराम, की संचेतना हमें जोड़ जाती है उस निरर्थकता से, जो आज बचपन से ही सबके साथ है
पट्टी बुदके वाले अक्षर
जिन पर उड़ती धूल
बंद किताबों के झुरमुट में
भूल गये स्कूल

और फिर ‘पत्थर की खामोश नजर में... प्यार मुहब्बत, रिश्ते नाते / सब कोरी अफवाह’ को महसूसता कवि निर्मल रूबरू होता है आज के त्रासक नंगे यथार्थ से
बर्फ चढ़ी जिल्दों में जब से
सुस्त पड़ा कानून
पेशेवर हो गईं हवायें
लगा दाँत में खून

बर्फीली संवेदन शून्यता और सामाजिक आबोहवा के पेशेवर हो जाने से ही खूँखार हो गया है सारा माहौल। मनुष्य के तमाम विकासशील उद्यम की परिणति दो विरोधी बिंबों में बड़े ही सटीक ढंग से व्याख्यायित हुई है। एक ओर ‘चढ़ी सीढ़ियाँ / छू लेने को सोने का आकाश’ है तो दूसरी ओर ‘खालीपन की / चीख पुकारें / सन्नाटों के रास’ हैं। ‘मूक निहत्थे सपने’ के इस वक्त में-

अब तो बस अफरा तफरी है
गर्द गुबारी है
गुमसुम है आवास हृदय का
सहमे मंगलघाट द्वारों के

ऐसी स्थिति में...

वातायन से बौनी आशा
ताक रही गलियारे मन के
बहुत रहें दुबके घर आँगन
किंतु न खनके स्वर कंगन के

क्योंकि...
शगुन मनाती अंगयष्टि को
अर्धकपारी है

यथास्थिति के इस बयान से ही जुड़ा है कवि का यह प्रश्न आँगन की / सोंधी माटी में / कौन सींच कर गया हलाहल आँगन की सोंधी माटी के दलदल से सींचे जाने का यह अति त्रासक एहसास आज के अपसंस्कृति के माहौल में हर संवेदनशील व्यक्ति का है। इस स्थिति से निपटने के दो विकल्प हैं, एक है मनुष्य का स्वयं का पुरुषार्थ और दूसरा है प्रभु का अवतरण। कवि निर्मल ने दोनों विकल्पों का स्वर दिया है माना कि
‘है किसे फुर्सत यहाँ आँखें भिगोने की, फिर भी यदि, साँस का पिघला/हुआ / लावा सही, तू माँग / अब हथेली पर / खुदी / तकदीर को पहचान’
की कवि की इच्छा पूरी हो जाये, तो फिर से यह संभावना है कि, आँख से बतियायेंगी / ये धूप की अँगनाइयाँ और यदि मनुष्य ‘अपनी साँझ के माथे पर चढ़ी धूल’ नहीं पोंछ पाता है, तो फिर तो प्रभु के अवतरण का ही सहारा रह जाता है। और इसी हेतु कवि का आवाहन मन्त्र है-

जगसृष्टा इस अनुपम कृति
धरती को तनिक निहारो
इस विनाश लीला में जन्मे
शैशव को पुचकारो
अंतरिक्ष से उतर सको तो
बदल सके परिपाटी

एक और अन्वयार्थ उपर्युक्त पंक्तियों में छिपा है। आज के सभ्य पदार्थवादी ‘जगसृष्टा’ से अगली पीढ़ी को दुलारने का अनुरोध भी इन पंक्तियों में ध्वनित होता है पर उसके लिए जरूरी है कि हमारे वे सत्ता प्रभु अपने स्वनिर्मित अंतरिक्षों से नीचे उतरें।
दूसरे खण्ड ‘नीली साँसें’ की नौ कविताएँ ‘उत्तर मेरे पास / बहुत हैं / मुझको समुचित / प्रश्न चाहिये’ के अजीब मंतव्य को परिभाषित करती है। कबीर की उलटवासियों के तर्ज पर इन कविताओं में कई पहेलीनुमा बिम्ब हैं, यथा-

पत्ती नदी
लाँघने निकली
हाथ नहीं पतवार
लहरों के आँचल
में उलझी
नाप सकी न पार
उतर गई
गहरे पानी में
बुरे दिनों का फेर

एवं

मुँह बिचकाती
नीम निगोड़ी
हुई सूख कर बाँस
ऐसा मन्तर मारा
जा कर
लौट सकी न साँस
किससे घर का
रोना रोंये
गली गली अन्धेर

इन गीतों में कथ्य अधिक वैयक्तिक और निजी होकर प्रस्तुत हुआ है-
जाने कौन
घड़ी में जन्मा
छाया मिली न धूप
मेरे हाथों पर
क्या जाने क्यों
दस्तक देती दीवारें
सिले हुए ये
होंठ बेचारे
हाय कहाँ तक मुझे पुकारें

कुछ मार्मिक बिंब चित्रों की संरचना भी इस खंड की विशिष्टि है यथा
मैंने पत्थर की
आँखों में भी
छलका पानी देखा है

या
कौन तोड़ कर
गया सलोने
कंदीलों के सजे घरौदें
गुड्डे गुड़ियों के
अलबेले
सतरंगी गुलदस्ते रौदें

यह भी...
फिर सिंदूरी
भोर हँसेगी
धुंध हटेगी
दिन निकलेगा

और इसी से उपजती है कवि की यह सात्विक मनहर अभीप्सा-
जी करता है
फिर बचपन की
उँगली में बाँधूँ गुब्बारे
खील खिलौने वाली
मुट्ठी में
भर दूँ जग के सुख सारे

वह एक सात्विक आस्थामयी संभावना को यों मुखरित करता है
हो न हो फिर
नई रोशनी
सहला जाये घाव घिनौने
इस धरती को
फिर मिल जायें
मौलसिरी के नर्म बिछौने।

यही वह स्वप्न है जो हमारी आस्था को मरने नहीं देता और यही हमारे मनुष्य होने को भी परिभाषित करता है। मनुष्य होने की परिभाषा ही कविता होती है। इस दृष्टि से भाई निर्मल शुक्ल सच में कविता पुरुष हैं। उनके इस संग्रह में सभी कविताएँ आदिम जिज्ञासाओं से हमें जोड़ती हैं, अस्तु, वरणीय हैं इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह संग्रह उनकी कविता यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। इसके बीच से गुजरना मेरे लिए सुखद रहा। प्रभु उनकी इस यात्रा को और समृद्ध करें, यही मेरी प्रार्थना है।
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नवगीत संग्रह- अब है सुर्ख कनेर, रचनाकार- निर्मल शुक्ल, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ,प्रथम संस्करण-२००५, मूल्य- १५० रूपये , पृष्ठ-८८ , भूमिका से- कुमार रवीन्द्र


1 टिप्पणी:

  1. निर्मल शुक्ल जी के नवगीत "अब है सुर्ख कनेर " की सुन्दर सार्थक समीक्षा प्रस्तुति हेतु आभार!
    बहुत अच्छा लगा आपका ब्लॉग
    सादर

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