शनिवार, 1 अगस्त 2015

मन बंजारा- डॉ. अजय पाठक

आजकल नवगीत जब भी लिखा या पढ़ा जाता है, तब यह मान लिया जाता है कि हम आज का पढ़ रहे है, और आज की विसंगतियों को देख रहे हैं, समकालीन जीवन और उसकी परिस्थिति को परख रहे हैं, समझ रहे हैं। क्योंकि नवगीत जनमन की रूदाद और समाज की दास्ताँ है। नवगीत व्यक्तिवादी भूमिका को सामाजिक भूमिका से जोड़ने वाला वह शब्द-सुर है, जिसकी लय में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय चिन्तन स्वतः मधुरता से मुखरित होता प्रतीत होता है। यही कारण है कि आज वह साहित्य के वृहत्तर आयाम पर मानवता की बात करने वाले विधान का छंद है, स्वर है, ताल है।

उपर्युक्त विवेचना का आशय नवगीत को परिभाषित करना नहीं है, बल्कि डॉ. अजय पाठक के सद्य्रः प्रकाशित ‘मन-बंजारा’ नवगीत संकलन पर प्रकाश डालना है तथा उनके विचार बिन्दुओं को जानना और समझना है। इस गीत संकलन में जो विमर्श है, उन्हें खंगालना है। दरअसल, अपने नवगीतों में डॉ. पाठक ने निरन्तर बढ़ते भ्रष्टाचार, राजनीतिक और सामाजिक जीवन में आई गिरावट, मूल्यहीनता आदि पर गंभीरता से विचार किया है। 

इस संकलन का ‘कहो सुदामा’ शीर्षक रचना नवगीत विधा में एक नया प्रयोग है नई कविता के मिथकीय प्रयोग में जहाँ रोमानियत थी, वहाँ नवगीत ने एक नई सोच का जन्म दिया। यह सोच समकालीन भारतीय जनजीवन की वह नई परिस्थिति है, जिसमें व्यवस्था का नग्न-सत्य उजागर होता है, जो बेमिसाल है। क्योंकि इससे पूर्व नवगीत के स्वनामधन्य जनकवियों का जो दस्तूर है, उससे पृथक डॉ. पाठक ने गीत को स्वाभाविक स्थिति के सम पर एक नये परिदृश्य को दृश्यमान किया है। इस रागमय चित्रण के सहज धरातल पर कल के सुदामा और आज के सुदामा के जीवन-वृत्त साकार हो उठे हैं-
मनोयोग से वहाँ गये थे
क्या कुछ लेकर आये
पाये या फिर भिक्षाटन के
तांदुल भी दे आये
ठगे हुये से क्यों लगते हो?
दिखते जैसे तैसे हो तुम।
कहो सुदामा! कैसे हो तुम?

नवगीत का यह ‘एप्रोच’ डॉ. पाठक को अपनी पीढ़ी के सभी जनगीतकारों से अलग करता है, तथा यह एक नवगीत संपूर्ण व्यवस्था पर उँगली उठाकर भारतीय जीवन का कटु सत्य परोसता है। इसके अतिरिक्त इस कृति के गीतों की एक खास अंतर्योजना है, जिसकी समग्रता, संश्लिष्टता में उसके बहुआयामी और बहुलार्थक समकालीन परिदृश्य हैं। 

आज के नवगीत में सामाजिक अन्यायों एवं शोषण के विरूद्ध नई कविता की तरह मजबूत प्रतिरोध का स्वर प्रबल है। नवगीतकारों के सुर बदले हैं। गीत के सथापित मूल्य इस प्रश्न पर डमरूनाद करने लगे हैं। व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रश्न के अन्वेषण, विश्लेषण में गीत के सुर, बेसुर हो रहे हैं, किन्तु मैं इस संकलन के आधार पर कह सकता हूँ कि डॉ. अजय पाठक के नवगीत अपनी रागात्मक एवं सांगीतिक प्रतिध्वनियों से सामाजिक समस्याओं, राजनीतिक व्यक्तियों, विसंगतियों, शोषितों के दर्दों, व्यक्ति की कुंठाओं और द्वन्द्वों पर चंदन रखते प्रतीत होते हैं-
"दुखिखारों के दुख के आँसू
पोंछ कभी आओगे
सच कहता हॅूं उसी ठौर पर
ईश्वर को पाओगे।"

‘मन-बंजारा’ में विचारों की विविधता है। सारे नवगीतों में आधुनिक समस्याओं की अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं रोज-रोज के परिवर्तित परिवेश की धूप, सर्दी के नैतिक स्वाभाव जो अनैतिक भूमिकाओं की अवैध स्थितियाँ उत्पन्न करते प्रतीत होते हैं और उस विषमता में जनजीवन जिस घुटन, तड़प, बेबसी, बेचैनी तथा त्रासदी का साक्षात्कार करता है, उन्हें डॉ. पाठक ने जिस तरह अभिव्यक्त किया है वह उनकी अनूठी शैली है, निजी शिल्प है और स्वाभाविक गीतिक सौंदर्य है-
"हलचलें होने लगीं शमशान में
और दानव चल पड़े अभियान में
खून पीकर आदमी का भी कहेंगे यह महज अभिव्यक्ति की निजी कला है
शांति वन तक आ गया जब जलजला है।"

नवगीत की ये कुछ ऐसी अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनमें गहरी अनुभूति की सूक्ष्म दृष्टियाँ हैं, आधुनिक विचारों को तार्किक निकष पर कसकर निर्णय लेने की क्षमता है, मानव मन के द्वन्द्वों और समाज की समस्याओं का व्यापक चित्रण है, जिन्हें केवल शैली अथवा शिल्प सौंदर्य कहकर आगे निकल जाना डॉ. अजय पाठक के नवगीतों के पैने कथ्यों को, प्रयोग को तथा उसकी नवीनता को नजरअंदाज करना होगा। दरअसल, यह अभिव्यक्ति की वह उत्कृष्ट कला है, जहाँ साहित्य की सारी विधाओं की अभिव्यक्तियाँ हेय प्रतीत होती हैं।
यदि नवगीतकारों के कैनवास पर जनजीवन के विविध रूपों की समग्रता का दर्शन करना चाहें तो अधिकांश नवगीतों में नई कविता की तरह संघर्षशील वातावरण की आपाधापी तथा महानगरीय हचचल, शोर, भागमभाग ही देखने का मिलेंगे, जिनमें गीत की स्वाभाविकता लोप हुई प्रतीत होती है। वस्तुतः गीत/नवगीत नये विचारों का फैशन नहीं है, बल्कि वह इजहार है, जो संकुचित भावनाओं का केंचुल उतारकर विश्वमानवता के उस धरातल पर पहुँचता है, जिसका आक्रांत प्रगतिपथ उस ओर गतिमान होता है, जिसके इंच-इंच पर सुबह मुस्कुराती रहती है-
‘मंजिल तय करना ही होगा
जो अब तक ढुल-मुल है
आगे शुभ-संकेतक भी है
विश्वासों का पुल है
कदम बढ़ें तो छंटे अँधेरा
सूरज भी निकलेगा।’
पहले तो यह निश्चित कर लें
किस पथ कौन चलेगा?

मेरा मानना है कि डॉ. अजय पाठक की वैचारिक दृष्टि सदा से वस्तुपरकता की रही है, जिसका दर्शन ‘मन-बंजारा’ के कतिपय गीतों में उपलब्ध है। इसीलिए इस संकलन के गीतों को फौरी तौर पर पढ़ने से उनकी गंभीर सोच की अनदेखी होगी। कहना न होगा, डॉ. पाठक के विचारों के वृहत्तर आयामों में संवेदना का विस्तार उनके गीतकार रूप को एक खास मुकाम पर स्थापित करता है। अपनी इस कृति अर्थात् ‘मन-बंजारा’ में डॉ. पाठक ने गीत की भाषा और शिल्प में कुछ अनूठे प्रयोग किए हैं, जो लगातार समाज में फैली व्यवस्था की विद्रूपताएँ, विडम्बनाएँ और चरित्रों की भूमिकाएँ तथा उसके अंतर्गत चलने वाले अन्तर्द्वन्द्वों को उजागर करने की दिशा में प्रयत्नशील हैः-
"शिल्पी, सेवक, कुली, मुकद्दम
खूब हुए तो भृत्य
नून-तेल के बीजगणित का
समीकरण साहित्य
चार दिवस कुछ खा लेते हैं
तीन दिवस उपवास
प्रश्नपत्र सी लगे जिन्दगी
जिसमें कठिन सवाल
वक्त परीक्षक बड़ा काँइयाँ
करता है पड़ताल
डांट-डपटकर दुख-दर्दों का
रटवाता अनुप्रास।"

नवगीत में ‘कहन’ और ‘सहन’ की नवीनता नहीं होती, बल्कि चिन्तन की दिशा और दृष्टि में भी नवीनता होती है। यों कहे कि नवगीतकार के पास दृष्टि, घ्राण और कान भी होते हैं, जिनसे वह राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक शोषण के विरूद्ध सतत संघर्ष में अपनी लय को सायास विनम्र और रूक्ष बनाकर हथियार की तरह इस्तेमाल करता है। वह समाज की गहन पीड़ा तथा उसकी चिन्ता, संघर्ष मुक्ति की चाह को भी शब्दबद्ध करता है। उसके इस प्रयत्न में नवगीत के सारे धर्म (फंक्षन) नियोजित होते है। गौरतलब यह है कि नवगीत का यही नियोजन कथ्य के संबल, हौसला, ऊर्जा आदि से प्रबल हो उठता है तथा समूल परिवर्तन की आकांक्षा को प्रोत्साहित करता है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि, डॉ. अजय पाठक के गीत इसी दिशा में प्रयत्नशील हैं।
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गीत- नवगीत संग्रह - मन बंजारा, रचनाकार- अजय पाठक, प्रकाशक- वैभव प्रकाशन, पुरानी बस्ती, रायपुर, छत्तीसगढ़ ,  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- १०४, ISBN 978-81-924499-3-7, समीक्षा - डॉ. अनिल कुमार, राउरकेला, उड़ीसा।

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