सोमवार, 4 मई 2015

रेत पर प्यासे हिरन- यतीन्द्रनाथ राही

'रेत पर प्यासे हिरन ' गीत-नवगीत संग्रह 'राही' जी की ग्यारहवीं काव्य कृति और चौथा नवगीत संग्रह है, जिसमें उनके मई २०११ से जून २०१४ तक के तीन वर्षों अर्थात उनकी आयु के ८६ से ८८ के आयु वर्ग में सर्जित ७२ गीतों-नवगीतों को संकलित किया गया है। वरिष्ठ नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना जी द्वारा संग्रह की भूमिका में गीतों के कथ्य, तथ्य, भाषा और शिल्प पर विस्तार से विवेचन किया है जो प्रस्तुत संग्रह ही नहीं बल्कि 'राही' जी के कृतित्व का सारगर्भित समग्र मूल्यांकन है। 'राही' जी ने भी अपने आत्मकथ्य 'जो मुझे कहना है' के माध्यम से अपने संग्रह पर कहा है ,''प्रकाशित कृतियों की दृष्टि से यह मेरी ११वीं कृति है। गीत की दृष्टि से 'पुष्पांजलि', 'रेशमी अनुबंध' और 'अंजुरी भर हरसिंगार' के बाद चतुर्थ गीत संग्रह है।... इन्हें मेरी रचनाकारिता के सांध्यगीत कहो, उखड़ी साँसों को लयबद्ध करने का दुर्बल प्रयास या फिर जिंदगी जीने का एक वृद्ध सलीका जैसा आप जानो।''

आयु के इस सोपान तक आते-आते 'राही' जी ने साहित्य की विभिन्न काव्य-धाराओं, साहित्यिक आन्दोलनों तथा वैचारिक विमर्श के अनेक रूपों को न केवल देखा है बल्कि वे एक समय सापेक्ष रचनाकार के तौर पर राजनैतिक और सामाजिक स्थितियों के चेतना पर पड़ने वाले प्रभावों के भी सजग साक्षी और सक्रिय भूमिका अदा करने वाले रहे हैं। इस अवधि में उनके अपने परिवेश और पृष्ठभूमि, शिक्षा और स्वाध्याय, अनुभव, चिंतन और जीविका क्षेत्र के वातावरण ने जिस वैचारिकी का निर्माण किया तथा परिस्थिति के वस्तुगत विश्लेषण की जिस सोच का विकास हुआ उसी सोच की परिणिति रचनाओं में परिलक्षित होना स्वाभाविक है। यही सोच उनके जीवन के सारतत्व के रूप में इन गीतों में प्रकट हुआ है। स्वतंत्रता से पूर्व और पश्चात के घटनाक्रम एवं तत्कालीन काव्य धाराओं की भाषा ,शिल्प और कथ्य का प्रभाव हर सक्रिय रचनाकार पर निश्चित रूप में पड़ा है। अतः 'राही' जी की रचनाओं में भी एक ओर छायावादोत्तर भाषा-शैली और कथ्य का प्रभाव दीखता है वहीँ दूसरी ओर सामाजिक सरोकारों से युक्त प्रगतिशील धारा का प्रभाव भी दृष्टिगोचर है।

'राही जी के शब्दों में ही ,''गाँव की चंदनी धूल,हरीतिमा की सौम्य शांत क्रोड़ से लेकर महानगर के चकाचौंध भरे तुमुल कोलाहल, भीड़, आपाधापी, भागमभाग तक एक लम्बी उम्र गीत के साथ जी कर बिताई है। किस युगधारा से कितना लिया, कितना पिया, नहीं जानता। समय सापेक्षता की उपेक्षा कोई रचनाकार नहीं कर सकता,तो मैं भी असम्प्रक्त कैसे रह सकता था।'' स्पष्तः 'राही' जी के गीत अपने युगीन प्रभावों से युक्त हैं जिनमें रस-सिक्तता, छायावादी काव्य की मार्मिक गहराई, शिल्प सौंदर्य के इंद्रधनुषी बिम्बों के साथ-साथ पथरीले वर्तमान की विद्रूप वैचारिकता , वैश्वीकरण की मूल्य-अवधारणा, संस्कारों का अपसंस्करण, एकल परिवारजन्य संबंधों का विघटन, क्षोभ, कुंठा, जीवन संघर्ष, वर्गभेद, सियासी गिरावट, आचरण का होता सतत क्षरण आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिन पर कलम चलाते हुए गीतों-नवगीतों का सृजन किया गया है। शैलीगत वैशिष्ट्य भी 'राही' जी की अपनी अलग पहचान है, जिनमें लयात्मक सौंदर्य और प्रवाह का निर्वाह किया गया है। संग्रह में अनेक गीत हैं जिन्हें ध्रुव पंक्तियों से मुक्त रखा गया है किन्तु वे सब अपनी रागात्मक तथा सम्प्रेषणीय क्षमता को बरकरार रखे हुए हैं। संग्रह का शीर्षक गीत 'रेत पर प्यासे हिरन' भी उसी श्रेणी का गीत है मुखड़ा नहीं है किन्तु अन्तरा और टेक से अपनी प्रभावोत्पादकता में पूर्णतया समर्थ है।पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं ,
‘’तोड़ता था, मैं शिलाएँ /राजपथ को या नहर को /पत्थरों में मूर्तियाँ गढ़ /प्राण करता था प्रतिष्ठित /और वे, किस पुण्य की/अभियाचना में गिड़गिड़ाते /कर रहे थे देवता पर /कलुष कुछ अपने समर्पित /गर्भगृह में तब /सतत जलता दिया /वह गीत था।''
समयगत यथार्थ का अपना आकलन करते हुए 'एक घरौंदा यहाँ रेत पर' में सिमटते संबंधों तथा आत्महीनता के प्रभाव को कितनी सरलता से कह दिया है ,''राहों पर बारूद बिछी है /आँगन सिमट हो गए छोटे /सिक्के थे जितने जेबों में /निकले सब, खोटे ही खोटे /कान फोड़ती शोर हवाएँ /कम्पित-शंकित खड़ी दिशाएँ /अपने ही चेहरे अनजाने /देख रहे हैं /दर्पण में धर''
स्वप्नभंग की क्रोधमिश्रित कसमसाहट को व्यक्त करते हुए 'यह कुहरे का घेरा' गीत में छटपटाहट को उकेरते हुए, ''बाहर की बेशर्म हवाएँ /कितना इन्हें सहो!/हैं बबूल के झुलसे तरुदल /किसकी छाँव गहो!
*
जो आया गुम हुआ भीड़ में /राधा सुबक रही /भूख सो गयी फुटपाथों पर /ममता बिलख रही /क्या ये ही /वे लक्ष्य शिखर थे/हमने पंथ उकेरा ''
विकट स्थितियों में जुल्म का प्रतिकार करने और संघर्ष के लिए उद्बोधन करते हुए गीत , ‘बैठो न पथ पर तुम !’ से ,
''हार कर /बैठो न पथ पर तुम
*
काल की प्रस्तर शिला पर /चिह्न खचने के लिए /मंजिलों के पार नूतन /पंथ रचने के लिए /इन्द्र धनुषी भ्रांतियाँ घिरते वलय /हों,सशंकित पाँव /कम्पित ,आदमी का हो ह्रदय /तब उठो /हर जुल्म का /प्रतिकार बनकर तुम !''
महानगर में रहते हुए अपना गाँव याद आता है ,''सरसों फूली /महुआ महके/नंदन वन सा मेरा गाँव'' और फिर संघर्ष पथ पर चलने वालों से कह रहे हैं,''मुड़के देखो नहीं /चल पड़े हो चलो !…बात कल की करो भूल जाओ विगत /... चुप न बैठे रहो /हाथ मत यो मलो !''

एक पाठक के तौर पर, संग्रह के गीतों को पढ़ते हुए मेरा मुख्य ध्यान कथ्य और तथ्य के कलात्मक प्रस्तुतीकरण तथा उसके सामाजिक सरोकार की ओर रहा। 'राही' जी के गीतों में केंद्रीय कथ्य का सम्यक विवेचन करते हुए मैंने पाया कि इनमें प्रतिकार और प्रतिरोध के स्वर स्वाभाविक के रूप में व्यक्त हुए हैं। गीत को परिभाषित करते हुए, कई गीत संग्रह में संकलित हैं जिन्हें माध्यम बनाकर जीवनानुभवों को व्यक्त किया है। 'गीत पलाशों के', 'गीत', 'रेत पर प्यासे हिरन', 'गीत का मंगल वरन है', आज गीत का मन उदास है' ,'नया लिखेंगे' आदि जैसे शीर्षक के गीतों में परिवेशगत यथार्थ को सफलता से उकेरा गया है। 'राही' जी गीत को संसृति का सृजन मानते हैं, ''गीत संस्सृति का सृजन है /राग है अनुराग है/बूँद है, घट है/यही तो सिंधु का विस्तार है। ''
'लाड़ली' शीर्षक के गीत में बिटिया प्राप्ति पर हर्षित होते हुए भी बेटियों की समाज में स्थिति और नियति पर मार्मिक पंक्तियाँ व्यक्त की हैं, ''फिर/तरसती वही बूँद भर प्यार को /वंचिता-शोषिता आग में जल मरी /क़त्ल होती रही /कोख में ही कभी/ पाप धोती रही पीर की सहचरी /मंदिरों तीर्थों में रहे खोजते /गेह में ही उपेक्षित /रही लाड़ली।''

यह संग्रह नवगीत मनीषी देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी को समर्पित है। समर्पण पृष्ठ के साथ-साथ 'राही' जी ने 'जब तक कलम चलेगी' शीर्षक से गीत की रचना करके 'इन्द्र 'जी को समर्पित किया है ,''सदा रहेंगे सन्दर्भों में /जब तक कलम चलेगी।...उजली परम्परा के पोषक/हैं नवता के प्रहरी /संस्कारों के शयन-कक्ष हैं/मर्यादा की देहरी /शब्द ध्रुवान्तों से बोलेंगे /जब तक हवा चलेगी।''
वसंत का आगमन और उसका स्वागत गीत लिखते हुए भी गीतकार के मन से समकालीन सत्य ओझल नहीं होता और 'वसन्तागमन' गीत में व्यक्त कर देते हैं, ''खून सड़कों पर बहे या /ख़ाक हो छप्पर किसी का/या तमाशा बन रहा हो /लाज लुटती उर्वशी का/कान शायद आदि कवि के /चीत्कारों से पके हैं /क्रौंच के अब दर्द/चुकती उम्र में आकर थके हैं/काश!/फिर कोई समाधित /नीलकंठी कलम जागे/आ गए तुम!/धन्य तन-मन/कर रहे स्वागत तुम्हारा ! ''

जीवन की संध्या तक आते-आते भी गीतकार थका हुआ तो स्वीकार करता है किन्तु हार नहीं मानता। 'थका नहीं मन' में परिवारवाद या परस्परवाद पर चोट करते हुए कह रहा है ,''थका नहीं मन/पग हारे हैं /चलते-चलते शाम हो गयी /यों ही उम्र तमाम हो गयी।... मानपत्र-कुलकुलें-रेवड़ी/अपनों ने अपनों को बाँटे /हमने तो आदतन प्यार ही /बोए-सींचे-गाहे-काटे / ...बात,यहीं से अथ होती है /समझो नहीं विराम हो गयी। ''
'हम भरमाये' गीत में वर्तमान राजनीतिक परिवेश पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है ,''नची सियासत/सिर पर चढ़कर/आँख-कान हो गए पराए /जो भी गया दिखाया/गुमसुम /देख रहे हैं हम भरमाये /...बाँध रहे हैं व्यर्थ हवाएँ/चीख रहे हैं/शब्द खोखले/विज्ञापन है ,आश्वासन हैं/मोहक वादे/अर्थ दोगले/कालिख पुते हुए चेहरे भी /कहते हैं वे दूध नहाए। ''
अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की प्रतिबद्धता को दोहराते हुए संग्रह के अंतिम गीत 'इस निशा में' पूरी प्रखरता से अभिव्यक्त किया है।,''इस निशा में /एक भी खद्योत /जब तक जग रहा है/तुम समझ लो /ज्योति का/ संघर्ष तम से चल रहा है...शून्य में, क्षण-क्षण पिघलकर/बूँद सा जो गल रहा है''

संग्रह के गीतों को किस श्रेणी में रखा जाए, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तो कथ्य की संप्रेषणीयता, गेयता, नव्यता, युगबोध और प्रभावोत्पादकता है, जिसे ये गीत पूरी तरह निभा रहे हैं। इन्हें गीत, नवगीत, जनगीत, प्रगीत या गीतात्मक, नवगीतात्मक किसी भी नाम से पुकारें कोई अंतर नहीं पड़ता। 'राही' जी का अपने समय पर सशक्त हस्ताक्षर है यह संकलन और इसके गीत। वरिष्ठ नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना जी ने अपनी भूमिका में इन गीतों को नवगीत के रूप में स्वीकार किया है और अपनी महत्वपूर्ण राय व्यक्त की है,'' ... उनके गीत जीवन की सामान्य परिधि से ऊपर उठकर उनकी नैसर्गिक प्रतिभा और विलक्षण अभिव्यक्ति का बोध कराते हैं। जो पाठक को चमत्कृत करने के स्थान पर, उसकी ग्राह्यता की सीमा का उन्नयन कर, विविधता से परिचित कराते हैं। परिवेश में व्याप्त समस्त विषमता, विसंगति, विद्रूपता, मूल्यों का क्षरण, भारतीय सभ्यता का पतन, आम आदमी का जीवन-संघर्ष, शोषण-उत्पीड़न, व्यवस्था की विकृति आदि से कोई भी जागरूक रचनाकार विरक्त नहीं रह सकता है। समय की त्रासदी गीतों में आना अपरिहार्य है, 'राही' जी भी अपने गीतों में इस चुनौती को स्वीकार कर,नवगीत की देहरी पर दस्तक देते हैं।''

संग्रह के गीतों में व्यक्त युगबोध और समयगत सत्य का ग्रहण करते हुए इन गीतों को समग्रता में 'युगबोध के सरोकार और संघर्ष के प्रतिबद्ध स्वर ' कहना प्रासंगिक लग रहा है। मुझे विश्वास है, 'राही' जी का यह संग्रह 'रेत पर प्यासे हिरन' अपनी विशिष्टताओं के साथ हिंदी जगत के सुविज्ञ पाठकों द्वारा निश्चित ही समादृत होगा। तथा कामना करता हूँ, आदरणीय 'राही' जी स्वस्थ रहते हुए शतक पार करें और सर्जनारत रहते हुए अपनी परवर्ती नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करते रहें और अपने कोष से नए-नए मोतियों को निकालकर आशीर्वाद देते रहें।
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गीत-नवगीत संग्रह- रेत पर प्यासे हिरन, गीतकार : यतीन्द्रनाथ राही, मूल्य : १५० रुपये, पृष्ठ संख्या-१५२, प्रकाशक- ऋचा प्रकाशन १०६ शुभम् ७ नं. बी.डी.ए. मार्केट, शिवाजी नगर भोपाल- १६, समीक्षा - जगदीश पंकज, प्रथम संस्करण-२०१४


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