सोमवार, 18 मई 2015

नींद कागज की तरह- यश मालवीय

यश मालवीय का नवगीत-संग्रह ’नींद कागज़ की तरह’ अपनी अंतर्वस्तु और अपने सहज शिल्प के कारण पाठकों का ध्यान अवश्य खींचती हैं। नवगीत-संग्रह में सम्मिलित कुल ६५ रचनाएँ पठनीय तो हैं ही, एक बड़े समुदाय तक पहुँच पाने तथा अनुमोदन ले पाने में सक्षम भी हैं। यश मालवीय को जानने वाले जानते हैं कि उनकी रचनाएँ किन परिस्थितियों का प्रतिफल रही हैं। या, उनका रचनाकार किन परिस्थितियों का साक्षी रहा है। इस संग्रह से गुजरते हुए सहज ही एक जुझारू रचनाकार की काल-जीवी रचनाओं से सामना होता है।

प्रकृति किसी संवेदनशील मनस को कुछ और दे या न दे उसे भाव-संप्रेषण हेतु सार्थक संज्ञाएँ अवश्य देती है, और साथ ही देती है उन संज्ञाओं के मर्म को बूझ सकने की तार्किक किन्तु अत्यंत भावमय समझ। इन संज्ञाओं का बिम्बात्मक प्रयोग कथ्य की तथ्यात्मकता को और गहन करती है। यश मालवीय के लिए इस बात को समझना सहज है। कारण, यही उनकी रचना-परम्परा का मूल है। गीतधर्मिता आरोपित कर नहीं सीखी जा सकती, न ही सिखायी जा सकती। बल्कि यह धमनियों में बहते हुए रक्त के साथ घुली होती है। अलबत्ता, आगे चल कर कोई गीतकार गीति-व्यवस्था के साँचे को व्यवस्थित करता हुआ दीखता है। अपने को उनके अनुसार लगातार ढालता जाता है। इन विन्दुओं की कसौटी पर ही ’नींद कागज़ की तरह’ की रचनाओं को देखा जाना अधिक उचित होगा। बल्कि कहा जाय तो इसी आधारभूमि पर नवगीतों का देखा जाना उचित भी है। इसे संदर्भ में लेते हुए यश मालवीय की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं - बाँधता है घड़ी / लेकिन वक़्त का बीमार है / ये हमारे दौर का फ़नकार है / .. / है कई चेहरे कि जिनमें / एक भी अपना नहीं है / आग ठण्ढी है, किसी भी / आग में तपना नहीं है / बन्द दरवाज़े सरीखा / या कि चुप दीवार है / ये हमारे दौर का फ़नकार है ..
या फिर, थहा न पाती / कि पत्थर हुई फूल की थाली / खाने को बस बची रह गयी / माँ-बहनों की गाली / होली-दीवाली भी घर में / सेंध लगाने आये / चिढ़ा रहा मुँह चावल, साधो / अरहर आँख दिखाये / हमें ले रहे अपनी ज़द में मँहगाई के साए..

यश मालवीय के पास जो दृष्टि है उसकी पहुँच कई बार तो व्यंग्य की देहरी तक जाती है। रागात्मक संवेदना की तीव्रता को प्रकट करना उनके लिए सहज भी रहा है। देखिये, वे कितनी सरलता से कुछ विरोधाभासी शब्दों का सहारा लेते हैं और संवाद का वातावरण तैयार करते हैं - अपना चिमटा गाड़े बैठे हैं / बस्ती मगर उजाड़े बैठे हैं / कैसे ये साधू बैरागी हैं / भीतर-भीतर पानी आगी हैं / पोथी-पत्रा फाड़े बैठे हैं / .. / पढ़ें फ़ातिहा बस दरग़ाहों पर / मूर्ति लगी बस चौराहों पर / सारा समय पछाड़े बैठे हैं

सटीक शब्दावलियों और ठेठ मुहावरों की समृद्धि तथा आधुनिकबोध यश मालवीय के नवगीतकार को आवश्यक पैनापन देते हैं - एक आँख का हँसना देखा एक आँख का रोना / शादी वाला कार्ड / पत्र का कटा हुआ सा कोना !
ऐसे ठेठ ज़मीनी मुहावरे संग्रह में जगह-जगह पर महीनी से बुने गये हैं। यही नवगीतों की भाषा के बल भी हैं।

आजके गीति-संप्रेषणों में असहाय जीवन का भावुक लिजलिजापन या आँसुओं के अतिशय आलोड़न का यदि औचित्य नहीं दिखता तो उसका बड़ा कारण आजका अति व्यस्त दौर तथा आत्मविश्वासी समाज की स्वयं को लेकर आश्वस्ति भी है। इस तरफ कवि के इंगित देखें - आँखों के रेशे-रेशे रतनारे होते / मुट्ठी में ही सारे चाँद-सितारे होते / खिलते प्यार-प्रणाम / बहुत अच्छा लगता है इस अदम्य आश्वस्ति को ’हमें पता है’ शीर्षक से सम्मिलित हुए नवगीत में देखें - हमें पता है / कुआँ कहाँ, कब खाई है ? / लिखते जाना भी तो / एक लड़ाई है / सबकुछ मिलता / सम्वेदन के घर जाकर / शब्द बता देते हैं / धीरे से आकर / ढाल कहाँ है, कैसी कहाँ चढ़ाई है ?
संवादों में अपनी बात कहना आत्मविश्वस्ति का अन्यतम प्रारूप तो है ही, विद्रूप से उभरे व्यंग्य का भी वाहक है - दाँतों में फँसी है सुपारी / जीभ वहीं जा रही, तिवारी ! / ध्यान वहीं है जगे विकलता / मन का भी सच / धू धू धू जलता / छटपटा रही सुबह हमारी

भूमण्डलीकरण के युग में सबसे ज्वलन्त मुद्दा पर्यावरण-प्रदूषण का है। इसे मानवीय संत्रास का प्रिज्म बनाना नवगीतकार की सम्वेदनशील दृष्टि को उभार कर सामने लाता है। ’पेड़ का क्या हो भला अब ?’ की पंक्तियों में देखें - दाँत काटे की जहाँ रोटी रही हो / उन्हीं डालों में परस्पर असहमति है / पेड़ का क्या हो भला हो अब ? / पत्तियों में है अजब-सी सुगबुगाहट है / जड़ों तक पहुँचा हुआ विद्रोह है / सिरफिरी-सी हवाओं के हवाले अब / हरेपन का सघनतम व्यामोह है / फटे कागज़ तरीखे हैं पात पीले / पतझरों के हाथ लम्बे / फँस रहा है फिर गला अब !

कहना न होगा ’नींद कागज़ की तरह’ नवगीत-संग्रह नवगीत के प्रतिमानों के सापेक्ष अडिग दिखता है। लेकिन हकीकत यह है कि यह संग्रह अनुभूति-समृद्धि के बावज़ूद कई-कई अवसानों की पोटली-सा बँधा हुआ हमारे सामने आता है। मनुष्य की जिजीविषा की आवृतियाँ मात्र दहलाती हुई अभिव्यक्तियों से उजागर नहीं होतीं। मनुष्य का दुर्निवार संघर्ष ही उसकी जिजीविषा की आवृतियों की प्रामाणिकता को नियत करता है। जो बात इस संग्रह से गुजरते हुए बार-बार उभर कर आती है, वह है कवि का अपने आसपास की विसंगतियों और विकृत मनोदशा के समक्ष मात्र दर्शक बन कर रह जाना। इस भाव को इन पंक्तियों के माध्यम से महसूस करें - रास्ते हैं पुरख़तर / ख़तरे से खाली कुछ नहीं / हर तरफ़ हैं हादसे, होली-दिवाली कुछ नहीं / आग की लपटों घिरा है, / नर्म मिट्टी का घड़ा / वासना के एक अंधे मोड़ पर है सच खड़ा / इस तरह से औरतों की बात करना छोड़िए / है नहीं कुछ द्रौपदी औ’ आम्रपाली कुछ नहीं / आरती की ही तरह / इज़्ज़त उतारी जा रही / हाँफती हैं मोटरें / उनकी सवारी जा रही / बीच संसद शान से बैठे हुए हैं रहनुमा / जाम सड़कों पर लगा, गुण्डा-मवाली कुछ नहीं !
या फिर, धर्म पर भारी हुए से / मौत के मेले जुड़े हैं / डरे पंछी, और / हेलिकॉप्टर केवल उड़े हैं / सिर्फ़ लाठीचार्ज करती हुई / ख़ाकी वर्दियाँ हैं / एम्बुलेंसों के उठे से शोर में / चीखें दबी हैं / अजनबी है भीड़ सारी / और लाशें अजनबी हैं / रोशनी के नाम पर बस / लाल-पीली बत्तियाँ हैं।

नवगीतों का सबसे सशक्त पहलू मनुष्य के संघर्ष के साथ बनी उसकी संलग्नता है। यह तथ्य इस संग्रह से एकदम नदारद तो नहीं है, किन्तु, प्रखरता के साथ उभर कर सामने आता हुआ नहीं दिख पाता है। शब्द-चित्रों के माध्यम से हुआ कोई काल-जीवी वर्णन कालजयी वर्णन तभी हो सकता है जब नवगीतकार संप्रेषण के प्रस्तुतीकरण में समाधान के विन्दु भी इंगित करता चले। इस तौर पर कहा जाय तो तमाम समस्याओं का ज़िक्र अवश्य हुआ है, लेकिन उनके निदान हेतु कोई सार्थक प्रयास नहीं दिखता, या ऐसा कुछ है भी तो नगण्य है। इस विषाक्त प्रतीत होते दौर में क्या कोई आशा की किरण नहीं बची है ? भावनाओं के उबाल के अलावा यदि समाधान के विन्दु नवगीतकार नहीं देगा तो ऐसी किसी हताश अभिव्यक्ति का प्रयोजन क्या ? इन मायनों में नवगीत और नवगीतकार की दृष्टि क्या है यह जानना अधिक आवश्यक है। नवगीत यदि गद्यकविताओं की लयात्मक प्रस्तुति मात्र रह जायें, जहाँ विद्रूपता और आपसी व्यवहारों को लेकर जुगुप्साकारी वर्णन हैं, तो फिर साहित्य का हेतु आमजन रह भी पायेगा क्या ? प्रत्येक नवगीत में संज्ञा से चेतना का और व्यक्ति का समाज से आंतरिक सम्बन्ध अभिव्यक्त होना चाहिये। यह सम्बन्ध नवगीतों में जितना अधिक गहन होगा, नवगीत उतना ही अर्थपूर्ण होगा। समस्याओं के संकेत ही नहीं समाधान या सकारात्मक दृष्टिकोण भी आजके समय की मांग है। यानी, अर्थवत्ता का व्यापक स्वरूप रचनाओं में हो और यही नवगीत-प्रस्तुति की गुणवत्ता हो। नवगीत की विधा मध्यवर्गीय क्लिष्ट मनोदशाओं को शाब्दिक करती है। इसने आजकी आस्था-अनास्था ऊब, घुटन, कुण्ठा, संत्रास, कशमकश, आत्मीय सम्बन्धों को धकियाता अबूझ व्यामोह, सम्बन्धों में पारस्परिक अजनबीपन, जैसे आधुनिकतावादी जीवन मूल्यों को आधार-भूमि बनाया है। यह सारा कुछ यश मालवीय के पास भी है। लेकिन आजके क्लिष्ट दौर में इस नवगीतकार से पाठक-समाज अपने कन्धों पर सकारात्मक थपकी भी चाहता है।

यश मालवीय के नवगीतों की काव्यभाषा सहज किन्तु बेहद कसी हुई होती है। काव्यात्मकता में कलावाद का वैसा आतंक नहीं होता। फिर भी, कहन में लालित्य से कोई बिगाड़ भी नहीं दिखता। नवगीतों की विशेषताओं में भी आकारगत संक्षिप्तता, सटीक शब्द-चयन, मुहावरे-कहावत, बिम्ब, प्रतीक और संकेतों के चुनाव में प्रयोगधर्मी सतर्कता अवश्य दीखती है। ये सारे तत्त्व यश मालवीय के नवगीत के केन्द्र में सदा से रहे हैं और आज भी पूरी आवश्वस्ति के साथ विद्यमान हैं। प्रस्तुति का संवाहक या हेतु स्वयं रचनाकार नहीं होता, उसका अधिकारी होता है समाज। और, नियंता होती है व्यापक जनता। यश मालवीय को इस तथ्य का भान है, इसकी आश्वस्ति इस संग्रह के कई नवगीत देते हैं - फूट-फूट कर रोने वालो / हँसो कि जैसे सुबह हँस रही / किरनों का इक जाल कस रही / माना दुख है बहुत मगर कब / फूलों ने खिलना छोड़ा / प्यार कर रहे जो आपस में / कब हिलना-मिलना छोड़ा / फूट-फूट कर रोने वालो / हँसो कि जैसे धूप हँस रही / धारा में कहीं धँस रही ..

ऐसी प्रतीति को व्यापक बनाना सजग रचनाकार का महत्त्वपूर्ण दायित्व है।
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गीत- नवगीत संग्रह - नींद कागज की तरह, रचनाकार- यश मालवीय, प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, ९४२, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद - २११००३। प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ-११२ , समीक्षा- सौरभ पांडेय।

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