शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

खिड़कियाँ खोलो- ओम प्रकाश तिवारी

बोधि प्रकाशन, जयपुर के सौजन्य से प्रकाशित ओमप्रकाश तिवारी का कविता-संग्रह खिड़कियाँ खोलो हाथों में है। प्रस्तुत संग्रह नवगीतकार की पहली पुस्तक है। किन्तु, इस पहले संग्रह से ऐसा अनुमान कदापि नहीं लगा लेना चाहिये कि पाठक के तौर पर हम किसी नये रचनाकार की सोच के नन्हें परिन्दों की 'तुतलाती उड़ानों’ का गवाह बनने जा रहे हैं। ओमप्रकाशजी ने अपने पहले संग्रह में बेशक तनिक समय लिया है, किन्तु इस संग्रह से गुजरने के बाद इस बात की आश्वस्ति होती है कि आपने न केवल मनोयोग से आवश्यक तैयारी की है, बल्कि प्रस्तुतियों की संप्रेषणीयता के अन्यान्य पहलुओं पर अपनी समझ को केन्द्रित रखा है।

 काव्य की इस विधा के प्रति ओमप्रकाशजी के लगाव का विस्तार जितना क्षैतिज है, साहित्यिक समझ, विशेषकर वैधानिक, निर्विवाद रूप से उतनी ही गहरी है। इस तथ्य का अनुमोदन करते हुए इसी संग्रह की भूमिका में डॉ॰ रामजी तिवारी खुले मन से स्वीकारते हैं - आपकी काव्य की सृजन-साधना बहुत पहले से चली आ रही है। सहज बोलचाल की भाषा का काव्यात्मक प्रयोग कवि की रचनाशक्ति को प्रमाणित करता है। इसी भूमिका में एक स्थान पर डॉ॰ रामजी तिवारी कहते हैं - ओमप्रकाशजी अपनी कविताओं का उपजीव्य चतुर्दिक व्याप्त परिवेश से ग्रहण करते हैं। जो भी घटना, प्रसंग या व्यक्ति आपकी सृजनशील संवेदना को आंदोलित करता है, वही उनके लिए संप्रेष्य बन जाता है।

मुझे एक पाठक के तौर पर ई-पत्रिका अनुभूति के माध्यम से पहले भी ओमप्रकाश जी की कुछ रचनाओं से गुजरने का अवसर मिला है। हरबार आपकी प्रस्तुतियों से पाठक-मन चौंका है। संग्रह के 'स्वकथ्य’ में अभिव्यक्ति-अनुभूति की सम्पादक पूर्णिमा वर्मन का आभार मानते हुए उन्होंने स्वीकारा भी है - वेबपत्रिका 'अनुभूति’ के जरिए मेरी कविताओं के प्रकाशन का सिलसिला शुरु हुआ। इसे स्वीकरना अन्यथा न होगा कि, बिना अधिक शोर-शराबा के ओमप्रकाश जी सतत कार्यरत रहने वाले रचनाकर्मियों में से हैं।

आप सामाजिक विसंगतियों के प्रति अत्यंत संवेदनशील तथा प्रतिकारी दिखते हैं। नवगीतों में प्रयुक्त होने वाले शब्दों तथा तदनुरूप बिम्बों के प्रति आपकी तार्किक ग्राह्यता आग्रही प्रतीत होती है। यह बार-बार महसूस होता है कि आपके नवगीत परंपराओं की सकारात्मकता तथा अनुभूत वर्तमान के विभिन्न आयामों को संप्रेषित करने के क्रम में अपनी सचेत अनुभूतियों को साझा करने के लिए अपने आस-पास के उर्वर वातावरण में अनायास उपलब्ध, किन्तु, सक्षम बिम्बों और शब्दावलियों का चयन करते हैं। नवगीतों का वैधानिक मूल इसी व्यवहार का हामी रहा भी है। क्योंकि नवगीत का स्वरूप कभी वायव्य रहा ही नहीं है। यथार्थ को प्रस्तुत करने के क्रम में नवगीत कोई समझौता नहीं करते।

आपके गीतों का स्वर रह-रह कर व्यंग्यात्मक हो जाता है। इस तथ्य को रेखांकित करते हुए डॉ॰ रामजी तिवारी इस संग्रह की भूमिका में कहते हैं - विसंगति और विद्रूप व्यंग्य के अधिष्ठान हैं। श्री तिवारीजी का स्वर भी समय-सापेक्ष होने के कारण अनेक अवसरों पर व्यंग्यात्मक हो गया है। व्यंग्य का स्वर अभिव्यक्ति को धारदार बनाता है।
इन पंक्तियों से इस तथ्य को बखूबी समझा जा सकता है -
कलावती के गाँव पधारे राजाजी!
धूल उड़ाती आयीं दो दर्जन कारें
आगे-पीछे बन्दूकों की दीवारें
चमक रहा था चेहरा जैसे संगमरमर
गूँज रही थीं गगन फाड़ती जयकारें
धन्य हो गया
दुखिया का दरवाजा जी!

या फिर, परिवारों में अपनी अहम मौजूदग़ी बना चुके टीवी चैनलों पर ये पंक्तियों को देखें -
चाहे जितना चैनल बदलो
दिखता सिर्फ बवाल।
ज्योतिष पारंगत सुन्दरियाँ
दिखें पलटतीं ताश
कहीं खिलाये निर्मल बाबा
हमें समोसा-सॉस
कथा बाँच कर पीट रहे हैं
लोग दनादन माल।

कविकर्म को भले ही आज सामाजिक विसंगतियों पर सपाट ढंग से रपट प्रस्तुत करने जैसा कोई कार्य समझ लिया जाता हो। परन्तु, कवि समाज का सबसे जागरूक नागरिक हुआ करता है। इस क्रम में जागरूक कवि समाज को उसके अनुत्तरदायी व्यवहार पर लताड़ भी लगाता है -
पाँच बरस तक हरदम रोना
वोटिंग के दिन जम कर सोना
अगर गये भी मत देने तो
जात-पाँत के नाम डुबोना
लेकिन हमको नेता चाहिये
बिल्कुल जिम्मेदार!

ओमप्रकाशजी की भाषा चटक है। उसमें देसी मुहावरों तथा लोकोक्तियों का समीचीन तथा सार्थक प्रयोग रचनाओं को धारयुक्त कर देता है। सिवई में नींबू निचोड़ा जाना; चने का लोहे में तब्दील हो जाना, मुँह में दही जमना आदि मुहावरों का प्रयोग देखते ही बनता है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि आपकी रचनाओं में नवगीतात्मकता वैधानिक रूप से समस्त स्वीकार्य विन्दुओं को संतुष्ट करते हुए उभर कर आयी है। मानवीय मन के उल्लास या संत्रास तथा परिवर्तनजन्य स्थितियों-परिस्थितियों को प्रस्तुतियाँ समान रूप से अभिव्यंजित कर रही हैं। गीतों में गेयता वस्तुतः शब्दों के विन्यास में सुगढ़ मात्रिकता के कारण संभव हो पाती है। मात्रिकता के कारण ही गीत सरस तथा कर्णप्रिय होते हैं। रागात्मकता के आयाम में रह कर प्रयोगधर्मिता को दिया जाता सम्मान, यही तो नवगीत का प्रयास तथा हेतु हुआ करता है। वैसे, जहाँ अनुभूति-संप्रेषण में प्रयुक्त छन्द, लय, तान, शैली, तथा संवेदना-संप्रेषण में नव्यता हो, नवगीत संभव हो जाता है। संग्रह की इन पंक्तियों से इस तथ्य को समझा जा सकता है –
चेहरा पीला आटा गीला
मुँह लटकाये कंत
कैसे भूखे पेट ही गोरी
गाये राग वसंत।
मंदी का है दौर
नौकरी अंतिम साँस गिने
जाने कबतक रहे हाथ में
कब बेबात छिने
सुबह दिखें खुश, रूठ न जायें
शाम तलक श्रीमंत!

ओमप्रकाशजी अपने आस-पास के जीवन-प्रवाह को महसूस ही नहीं करते हैं, बल्कि उसी को मानो जीते हैं। आम-जन के दैनिक क्रियाकलापों, उसके सुखों-दुखों को, उसकी कोमल भावनाओं को, उसके समाज की विसंगतियों को खूब बूझते हुए, उनमें समरस रहते हुए, अपने गीतों में उभारते हैं। आपका पहला संग्रह गीतकार के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं, यथा, वैयक्तिक, सामाजिक, मानवीय, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक आदि, को परखने के क्षण उपलब्ध कराता है। तभी तो यह तथ्य निर्विवाद रूप से सामने आता है कि आप जहाँ अपने बहुआयामी अनुभवों की दृष्टि से घटनाओं और उसके कारकों को परखते हैं, वहीं इस भूभाग की समृद्ध परंपराओं के उज्ज्वल पक्ष को सहज स्वीकार करने-करवाने के आग्रही भी हैं। पर्व-त्यौहारों, समाज, मौसम आदि से विन्दु उठा कर सहज मानवीय आग्रहों को शाब्दिक करना आपकी भविष्य की रचनाओं के प्रति और आश्वस्त करता है। बसंत के आलोक में आपकी ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
दस प्रपंच में उलझा है मन
काहे का वैराग रे!
हाथी-घोड़े-ऊँट सवारी
महँगी-महँगी मोटर-गाड़ी
ठाट-बाट पेशवा सरीखे
राजा लगते भगवाधारी
सिर्फ गेरुए वस्त्र पहनना
कहलाता न त्याग रे!

जिस लिहाज से ओमप्रकाशजी ने ज़िन्दग़ी को अपनी रचनाओं में उकेरा है, वे विभिन्न अनुभवों की अतुल्य समृद्धि के धनी न हों, यह हो ही नहीं सकता है। सीखे और समझे हुए को साझा करना मानवीय कर्तव्य का सबसे सकारात्मक पहलू है। विशद अनुभूत को साझा करने में भाषा अक्सर स्वतंत्र हो जाती है, अंदाज़ फक्कड़ हो जाता है। राजनीति का हालिया दौर इसी कारण बार-बार आपकी संवेदना को झकझोरता है। समाज और तंत्र में व्यापी अव्यवस्था से आपकी संवेदना अपनी दृष्टि नहीं फेरती। यही तो एक सचेत साहित्यकार का समाज के प्रति दायित्वबोध है -
महामहिमजी न्याय चाहिये!
ऐसे ज़ुल्म जबर्दस्ती का अब हमको पर्याय चाहिये।
या फिर,
कर्ज़ लेकर  फ्लैट-बँगला, कर्ज़ से ही कार है
जो बचे वो कर समझ कर काटती सरकार है
किस तरह सपने सजाऊँ?

हताशा, उत्साह या अपेक्षाओं को विवेचित करने के क्रम में ओमप्रकाशजी इसके मूल कारणों को बूझने का प्रयास करते हैं। इसका कारण आपकी आध्यात्मिकता ही हो सकती है। आध्यात्मिकता व्यक्ति और समाज को झूठे दिलासों के आवरण नहीं दिया करती, जैसा कि अपने समाज में एक स्कूल द्वारा बहुप्रचारित कर इसकी अवधारणा पर ही सायास आघात किया जाता है। बल्कि यह आध्यात्मिकता ही है जो आम-जन को सफलता और असफलता को स्वीकारने की चैतन्य क्षमता देती है। आपकी पंक्तियों के माध्यम से हम पौराणिक पात्रों के आधुनिकीकरण को समझने का प्रयास करें -
यूँ ही नहीं राम जा डूबे सरजूजी के घाट!
दिनभर राजपाट की खिटखिट जनता के परवाने
मातहतों का कामचोरापा, फिर, धोबी के ताने
लोग समझते राजाजी तो भोग रहे हैं ठाट!

संग्रह की रचनाओं से गुजरते हुए यह महसूस होता है, कि क्लिष्ट विसंगतियों के विरोध को सहज शाब्दिक स्वरूप मिला है। कई-कई बार तो कथ्य की स्पष्टता इतनी मुखर हो जाती है कि प्रस्तुतियों की पंक्तियों में सपाटपन का भ्रम हो जाता है। इसके प्रति ओमप्रकाशजी को सचेत रहना होगा। उधर, आग्रही पाठकों को प्रस्तुतियों के ये अंदाज़ समझने भी होंगे। यह अवश्य है कि हमारे आस-पास पसरे विस्तृत जीवन के कई-कई आयाम हैं, जिनकी अवगुंठित पँखुड़ियाँ आने वाले समय में आपके नवगीतों का रूप धरे एक-एक कर खुलती जायेंगीं। संग्रह में गीत की संप्रभुता पूरी धमक के साथ द्रष्टव्य है। यह अवश्य है कि कई रचनाओं के कथ्य में ही नहीं, बल्कि रचनाओं की शैली में भी दिख रही पुनरावृतियों के कारण 'वही-वहीपन’ हावी हो गया है। बिम्बों का उन्मुक्त इंगित तथ्य की तो सार्थक विवेचना करता है, परन्तु, कई बार तार्किकता छूट भी जाती दिखी है। कहना अनुचित न होगा, कि 'काली’ के साथ 'महिषासुर’ आना उचित नहीं लगता। यहाँ 'रक्तबीज’ को उद्दृत करना था। मात्रा के अनुसार दोनों शब्द 'षटकल’ हैं। 'रक्तबीज’ शब्द के तौर पर 'विषम पर विषम’ की अनिवार्यता को संतुष्ट भी करता है।

अलबत्ता, नवगीतकार ओमप्रकाशजी के इस पहले संग्रह से ही भरपूर विश्वास बना है। नवगीत का संसार आपके रचनाकर्म से और समृद्ध होगा, इसमें दो राय नहीं है।
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गीत- नवगीत संग्रह - खिड़कियाँ खोलो, रचनाकार- ओमप्रकाश तिवारी, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, बोधि प्रकाशन, एफ ७७- करतारपुरा इंडस्‍ट्रीयल एरिया, बाइस गोदाम, जयपुर ३०२००६, प्रथम संस्करण- २०१२, मूल्य- रूपये ९०/-, पृष्ठ- १२०, समीक्षा लेखक- सौरभ पांडेय

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