मंगलवार, 27 नवंबर 2018

ओझल रहे उजाले - विजय बागरी

विजय बागरी जैसे कलमकार जो नवगीत को गीत का वारिस मानते हुए दोनों को अभिन्न देखते, मानते और साँस-साँस में जीते हैं, अपनी रचनाओं से प्रमाणित करते हैं कि नवगीत वैचारिकता अपने समय को जीते हुए गीत से, गेयता पग-पग, डग-डग हर दिन गुनगुन करते लोकगीत से ग्रहण करता है। नवगीत छंद को कथ्य, लय और शैली के समायोजन से आवश्यकतानुसार बनाता-अपनाता है। इसीलिये नवगीत पारंपरिक छंदों के समान्तर विविध छंदों का सम्मिश्रण भी मुखड़े और अंतरे में स्वाभाविकता, सहजता और अधिकारपूर्वक कर पाता है।

विजय बागरी का वैशिष्ट्य अपने परिवेश, प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सजग और संवेदनशील होना है। उनकी गीति रचनाएँ कपोल कल्पना से दूर स्वभोगे अथवा अन्यों द्वारा भोगे हुए को साक्षी भाव से ग्रहण किये गए अनुभवों से नि:सृत हैं। विजय ग्राम्य और नागर दोनों अंचलों से जुड़े हैं इसलिए उनकी दृष्टि के सामने सृष्टि का व्यापक रूप अपनी छटा बिखेरता है। वे जी द्वारा श्रम का शोषण होते देखकर चुप न रहकर अपनी कलम से शब्द-वार करते हैं-

आँखों में घड़ियाली आँसू
बगुले करते जाप।
रंग बदलते- गिरगिट देखे 
आसमान में साँप।

चमक-दमक, कीकर की लगती
जैसे हो सागौन।

मौसम गुंडा- गर्दी करता
आदमखोर हवाएँ।
संवेदन की लाशें ढोतीं
कपटी शोकसभाएँ।

श्रम सीकर के हरे घाव पर
लेपन करते लौन।

विजय का युवा मन समस्याओं को सुलझाने की प्रयास करता है और समाधान के रास्तों पर अवरोधों को देखकर कुंठित नहीं होता, वह व्यवस्था परिवर्तन का उद्देश्य लेकर कमियों को निडरता से इंगित करता है-

समाधान के दरवाजे पर
लटक रहे हैं ताले।

जिरह पेशियाँ, कूट दलीलें
ढोती रोज कचहरी।
कैद फाइलों की कारा में
अर्जी गूँगी-बहरी।

छद्म गवाही देनेवाले
गुंडे डेरा डाले।

सजी वकीलों की दूकानें
प्रतिष्ठान पंडों के।
बड़े-बड़े दफ्तर फरेब के
लहराते झंडों के।

मुंशी चपरासी लगते हैं
जैसे जीजा-साले।

जीवन के दरवाजे पर ताले लटकने के साथ-साथ दफ्तर की खिड़की भी बंद हो तो स्थिति बद से बदतर और गंभीर हो जाती है-

जीवन के दफ़्तर की खिड़की
कब से नहीं खुली।

हठधर्मी के ताले लटके
सदियाँ बीत गईं।
मनुहारें करतीं आँखों की
झीलें रीत गईं।

खुसुर-फुसुर कर रहीं कुर्सियाँ
मेजें मिलीं-जुलीं।

दीवारों पर शीश पटकती
मन की उथल-पुथल।
संदूकों में बंद अपीलें
कुंठित अगल-बगल।

टूट रही बूढ़ी साँसों की
हिम्मत नपी-तुली।

तमाम विसंगतियों और विडंबनाओं के बावजूद ज़िंदगी दर्द का दस्तावेज मात्र नहीं है, उसमें अन्तर्निहित आनंद की अनुभूतियाँ उसे जीने योग्य बनाये रखती हैं। विजय इस जीवनानंद को नवगीत का अलंकार बनाते हैं-

एक बदरिया अँगना उतरी
छानी मार रही किलकारी।

कोयल मंगल- गान सुनाती
अमराई में रास रचाती।
चौमासे की- शगुन पत्रिका
बाँच रही पुरवा लहराती।

बट-पीपर आलिंगन करते
पाँव-पखार रही फुलवारी।

भींज रही पनघट पे गोरी
उर अनुरागी चाँद-चकोरी।
ताँक-झाँक कर रही बिजुरिया
नैन मटक्का चोरा-चोरी।

बहुत दिनों के- बाद दिखी हैं
धरती की आँखें कजरारी।

रस को नवगीत का प्राणतत्व माननेवाले विजय नीरसता को किनारे कर सरसता की गगरी नवगीतों की पंक्ति-पंक्ति में उड़ेलने की सामर्थ्य रखते हैं-

मेरे गीत, तुम्हारे मन की
गलियों से जब गुजर रहे थे।
कर सोलह- श्रृंगार सुहाने
सपन सलोने सँवर रहे थे।

अधर-अधर- दोहा चौपाई
नज़र-नज़र कुण्डलिया रागी।
धड़कन-धड़कन राग बसंती
कल्याणी कविता अनुरागी।
कंठ-कंठ से कलकंठी के
सरगम के स्वर उतर रहे थे।

विजय के नवगीतों में मौलिक बिंबों की छटा देखते ही बनती है-

सूरज की बूढ़ी आँखों में
गहन मोतियाबिंद हुआ
खेल रही है धवल चाँदनी
अँधियारे के साथ जुआ।

भिनसारे का कुटिल कुहासा
धुआँधार तेजाबी है।
मलय पवन के, नैंन नशीले
अटपट चाल शराबी है।

मौसम की मादक नीयत से
टपक रहा जैसे महुआ। 

आधुनिक समाज में छद्म मुखौटा लगाने का प्रचलन इतना बढ़ गया है कि खाने से अधिक फेंकनेवाले भुखमरी पर पोथियाँ भरे जा रहे हैं जबकि भुखमरी की कगार पर खड़ा कर दिया गया आम जन तमाम अभावों से घिरा हुआ होकर भी पर्व-त्यौहार का आनंद ले-दे पाता है। विजय
'आजकल कितनी विकल है 
सभ्यता की नव सदी'
'लिख रहा  इतिहास गोया
रुग्णता की नव सदी' और
'हो रही  पत्थर ह्रदय
स्वच्छंदता की नव सदी'
लिखकर विसंगतियाँ मात्र उद्घाटित नहीं करते अपितु
'कब पुजेगी उल्लसित
उत्कृष्टता की नव सदी'
लिखकर मुखौटों को उतारकर अकृत्रिमता की प्रतिष्ठा किये जाने का आव्हान भी करते हैं। नवगीत में मैंने अपने नाम या उपनाम का प्रयोग उनके शब्दकोशीय अर्थ में किया है। 'चुप्पियों के गाँव में' शीर्षक नवगीत में विसंगतियों को उद्घाटित करने के साथ विजय ने भी अपने नाम / उपनाम का प्रयोग अंतिम पंक्ति में किया है। कवि के नाम या उपनाम को रचना में प्रयोग करने की यह परंपरा लोकगीतों तथा भक्ति काव्य से होते हुए उर्दू ग़ज़ल में 'तखल्लुस' के रूप में अपनाई गयी।

थरथराते मौसमी मनुहार के
गीत घायल चुप्पियों के गाँव में।
चूम रहे काँटे, अँधेरों के कुटिल
दिन दहाड़े, रौशनी के पाँव में।
ऋतुमती पछुआ हवा-आसक्त उर
सिद्धपीठों के पुजारी हो गए।
सभ्यता के आचरण बगुलामुखी
संस्कारों के शिकारी हो गए।
राजमहलों के उजाले भी 'विजय'
आजकल षड्यंत्रकारी हो गए।

विजय के इन नवगीतों की भाषा बुंदेलखंड के कस्बों में प्रयुक्त हो रही आम बोलचाल की भाषा है। आधुनिक हिंदी का शुद्ध स्वरूप इनमें दृष्टव्य है। यह भाषा खड़ी हिंदी, बुंदेली, संस्कृत, देशज, उर्दू तथा अंगरेजी शब्दों के यथावश्यक शब्दों के मेल-जोल से बनती है जिसमें व्याकरणिक नियम हिंदी के प्रयोग किये जाते हैं। विजय ने अंगरेजी शब्दों का प्रयोग (अपवाद नैट-चैट, टी. वी., मोबाइल) नहीं किया है। यह उनका वैशिष्ट्य है। संस्कृत निष्ठ शब्दों में स्वच्छंद, उद्घोष, निर्वासन, उल्लसित, कुम्भज, उदधि, गन्तव्य, मर्माहत, अहर्निश, विहंगम, अगोचर, अविरल, अभ्युत्थान, प्रहर्षित, हेमवर्णी, अंतर्व्यथा, निदाघ, नयनोदक, स्वस्तिवाचन, अंतर्तिमिर, शब्दातीत, तमासावृत्त, संसृति, प्रभंजन, संकल्पनाएँ, प्रक्षालित, प्रनिपतों, पुलकावली, वल्लरियाँ आदि हैं। देशज बुन्देली शब्द अवाँ, होरा, चौमासा, खुसुर-फुसुर, भिनसारा, बतकहाव, बदरिया, भींज, बिजुरिया, बखर, माटी, नेंगचार, बूँदाबारी, चिरैया, बिलोना, कुठारी, भिनसारे, पहरुए, बिछुआ, दुपहरिया, टकोरे, छतनारी, परपंच, लगैया, को है, समुहानी, सपन, बौराने, ठकुरसुहाती, कमरिया, ओसारे, गठरिया, धुंधुवाती, नदिया, राम रसोई, चौंतरा, रामजुहारें आदि गले मिलते हुए कथ्य को सरस और ह्रदयग्राही बनाते हैं।

उर्दू शब्द इम्तिहान, दफ्तर, नजरें, ज़हर, दुआ-सलाम, वक्त, सैलाब, परवाज़, रौशनी, ज़िंदगी, गर्द-गुबार, तेजाबी, नुक्ताचीनी, सरेआम, मशहूर, पनाह, नागवार, दस्तूर, सबक, मगरूर, गुस्ताखी, बगावत, अदावत, मासूम, निशाना, दिल, अरमानों, नासूर, जिगर, गाफिल, सिरफिरे, मातमपुरसी, नफरत, फ़कीर, तस्वीर, दागी, महबूब, बड़ा, मुनादी, अहसासों, हुकूमत, पर्दाफाश, फरेबी, हलाकान, मगरूर, तहकीकातों, तबाही, सवालों, बाज़ार, आबरू, तनहाइयों, शोखियाँ वगैरह हमारी गंगो-जमुनी विरासत को आगे बढ़ाते हैं। इस कृति के गीतों-नवगीतों में हिंदी के व्याकरण नियमों का पालन उचित ही किया गया है। उर्दू शब्दों के बहुवचन हिंदी व्याकरण के अनुसार हैं। जैसे- नजरें, अरमानों, अहसासों, तहकीकातों, सवालों, शोखियाँ आदि। कथ्य की सरसता में जन की जुबान पर चढ़े मुहावरों यथा- छाती पर होरा भूँजना, नैन मटक्का, घर का भेदी लंका ढाए, ठिकाने लगाना, जंगल में मंगल आदि वृद्धि की है।

इस दशक के नवगीतकारों की भाषा शैली में पूर्ववर्तियों की तुलना में दो नए रुझान बहुलता से शब्द-युग्मों का प्रयोग तथा शब्दावृत्तियों का प्रयोग देखने में आ रहे हैं। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में मैंने शब्द-युग्मों तथा शब्दवृत्ति के प्रयोग किए हैं। इससे कथ्य के भाषिक-प्रवाह, लयात्मकता, सरसता तथा लोकरंजकता में वृद्धि होती है। विजय के नवगीत भी इन रुझानों से युक्त हैं। इस कृति में प्रयोग किये गए शब्द युग्मों में कुछ पारंपरिक किंतु अनेक सर्वथा नवीन हैं।

मन-मतंग, हरा-भरा, धूल-धूसरित, सावन-भादों, दीन-हीन, खेतों-खलिहानों, राग-द्वेष, मान-मनौती, बाहर-भीतर, उथल-पुथल, सज-धज, पल-छिन, साँझ-सकारे, मेल-मुलाकातें, व्यथा-कथा, खेत-खलिहान, घात-प्रतिघात, नेट-चैट, राम-रसोई, सुचिता-सच्चाई, रात-दिन, देह-पिंजरे, प्राण-पंछी, सुर-ताल, उमड़-घुमड़, दादुर-चातक, लपक-झपक, शब्द-अर्थ, लोक-लाज, हेल-मेल, रंग-बिरंगी, माया-मृग, मन-गन, तर्क-वितर्क, खंडन-मंडन, खेल-खिलौने, धरती-अम्बर, चाँद-सितारों, नदिया, पनघट, भूख-प्यास, चाँद-चकोरी, ताक-झाँक, चोरा-चोरी, मेघ-मल्हार, काल-कवलित, संगी-साथी, कुटुम-कबीले, पल-छिन, हरी-भरी, कोर-किनारे, हँसी-ठहाके, ठौर-ठिकाने, मन-मधुबन, सोलह-श्रृंगार, सपन-सलोने, दोहा-चौपाई, दुखी-निराश, सरित-सरोवर, उमड़-घुमड़, दर्द-पीर, वयःकथा, गुना-भाग, रिश्ते-नातों, हर्ष-उल्लास, गर्द-गुबार, पुष्कर-पुण्डरीक, तुलसी-चौरे, विषय-वासना, नून-तेल, माखन-मिसरी, धक्का-मुक्की, भीड़-भाद, हाथा-पाई, ताना-बना, लुटे-पिटे, सृष्टि-दृष्टि, संत-कंत, गीत-प्रीत, नेह-गह, हेल-मेल, भूखी-प्यासी, हेरा-फेरी, जोड़-घटना, ज्ञान-ध्यान, पूजा निष्ठा, मन-मंदिर, रंग-भंग, छल-छंद, कुआँ-बावली, लू-लपट, भूखी-प्यासी, तट-तरुवर, मथुरा-काशी, माघ-पूस, जोगन-बैरागन, नाप-तौल, हँसी-खुशी, चाल-चलन, सुख-शांति, चाँद-तारे, घात-प्रतिघात, महकी-चहकी, कपट-कौशल, माघ-पूस, खात-बिछौना, छल-बल, संझा-बाती, गाँव-शहर, दावानल-पतझर, हानि-लाभ, सुख-दुःख, चहल-पहल, भूल-भूलैंया, नोंक-झोंक, रुदन-मुस्कान, छल-छंद-चतुरी, वर्ष-मास-दिन, सत्यं-शिवं-सुन्दरं आदि-आदि शब्द युग्म कथ्य की अर्थवत्ता तथा वाचिक सौन्दर्य की वृद्धि कर रहे हैं।

यह कृति शब्दावृत्तियों के प्रयोग की दृष्टि से भी समृद्ध है। शब्दावृत्ति से आशय किसी शब्द के दो बार प्रयोग करने से है। ऐसा कथ्य पर अतिरिक्त जोर देने के लिए किया जाता है। इससे उत्पन्न पुनरावृत्ति अलंकार भाषिक तथा वाचिक सौन्दर्य वर्धक होता है।

विजय ने अधर-अधर, नज़र-नज़र, धड़कन-धड़कन, कंठ-कंठ, लहर-लहर, अंग-अंग, छंद-छंद, रोम-रोम, किरण-किरण, अंग-अंग, गात-गात, कण-कण, पात-पात, पोर-पोर, पनघट-पनघट, धड़कन-धड़कन, पोर-पोर, फूँक-फूँक, लहर-लहर, घाट-घाट, कली-कली, दर-दर, धार-धार, लौट-लौट, पल-पल, चुपके-चुपके, रात-रात, करवट-करवट, शब्द-शब्द, उलट-उलट, अभी-अभी, जनम-जनम, सहते-सहते, कदम-कदम, कहीं-कहीं, किराचा-किराचा, सर-सर, पोर-पोर, जन-जन, चेहरे-चेहरे, तौबा-तौबा, प्रश्न-प्रश्न, अक्षर-अक्षर, क्रंदन-क्रंदन, सींच-सींच, कुहू-कुहू, चुपके-चुपके, बूँद-बूँद, घाट-घाट, तिनका-तिनका, गली-गली, घर-घर, ऊँचे-ऊँचे, रिमझिम-रिमझिम, पोर-पोर, मंद-मंद, पट्टा-पट्टा, क्या-क्या, कभी-कभी, चूर-चूर, कण-कण, साँय-साँय, माखन-मिसरी, चाल-चरित्र आदि शब्दावृत्तियों का सार्थक-सटीक प्रयोग कर गीति रचनाओं को अर्थवत्ता प्रदान की है।

युवा नवगीतकार अपने परिवेश और पर्यावरण के प्रति सचेत है। नवगीतों में वट, पीपल, अमराई, कचनार, केतकी, सरसों, हरसिंगार, पलाश, मोगरा, मंजरियाँ, फुलवारी आदि अपनी सुषमा यथास्थान बिखेर रहे हैं। कोयल, चिरैया, मैना, दादुर, चातक, बैल आदि पात्र ग्राम्यांचली परिवेश को जीवंत कर रहे हैं। यह नवगीतकार अपनी अभिव्यक्ति सामर्थ्य के बल पर कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की पारंपरिक विरासत को सम्हाल सका है।

-पंख थकावट ओढ़े / बैठे, परवाजें संकट में -पारिस्थिक विवशता
-धूप पसीना पोंछ रही में विरोधाभास
-चटनी-रोटी / खाते-खाते गयी ज़िंदगी ऊब में निराशा
-बीजों से / जब अंकुर फूटे /खेतों ने शृंगार किया तथा उम्मीदों की / खोल -खिड़कियाँ / मुखरित हुईं मचाने में आशावाद
-उठ भिनसारे / विहग-स्वरों ने / गीतों का गुंजार किया तथा छलक उठे प्यासे -अधरों से / प्रीति पेय, नवगीत तुम्हारे में शृंगार
-रौशनी के तामसी / बरताव पर, मैं चुप रहूँ में दुविधा
-नेताओं के / बतकहाव से / झरने लगे बताशे में राजनैतिक हलचल
-हेरा-फेरी / के चक्कर में / चोरों के सरदार में सामाजिक वातावरण
-खोटे सिक्के / चाल-चलन से / हुए बहुत मगरूर में सटीक बिम्बात्मकता
-बेशर्मी की / मोटी खालें / सत्ता का दस्तूर में शासन के प्रति घटती जनास्था -वक्त छोड़कर / चला गया कुछ / तहकीकातें नयी-नयी में राजनैतिक भ्रष्टाचार -रात काटती / जलती बीड़ी / टूटा छप्पर, टाट-बिछौना में ग्रामीण विपन्नता
-रोज दिहाड़ी / मारी जाती / सरे-आम छल-बल से में श्रमिक शोषण
-चले शहर की / ओर गाँव की / पगडंडी के पाँव में ग्रामीण पलायन
-कहीं-कहीं / छल-छंद-चातुरी / भला करे भगवान् में पारंपरिक भाग्यवादिता
-दहक रही है / अंगारों में / मधुमासी तरुणाई में युवाओं के समक्ष उपस्थित विषम परिस्थितियाँ
-बदल रही / चिन्तन की भाषा / मूल्यों का अनुवाद में सतत बदलते मूल्य -कितनी बरसातों / ने आकर / पूछा कभी हिसाब में प्रकृति की उदारता
-नैट-चैट / टी. वी., मोबाइल / का जूनून, लादे सर पर / राम-रसोई / अंतर्पुर तक / विज्ञापन की गिद्ध नज़र में हावी होता बाजारवाद
-उमड़-घुमड़ / कर बदरा छाए / नाचन लागे मोर में ऋतु-परिवर्तन
-बंदनवार / सजें गीतों के / आभूषित अनुप्रास से में लोक की उत्सवधर्मिता -ज़िंदगी ही/ जिंदगी का / आखिरी पैगाम में जिजीविषा शब्दित होकर पाठक को रचनाओं से एकात्मकता स्थापित करने में सहायक है।

यह संग्रह समय-साक्षी गीति-रचनाओं (गीत-नवगीत) का गुलदस्ता है जिसमें नाना प्रकार के पुष्प अपने रूप, रंग, सुरभि की नैसर्गिक छटा से पाठक को मंत्र-मुग्ध कर जीवन की विषमताओं के चक्रव्यूह से उपजी पीड़ा और दर्द के संत्रास को सहने, उससे बाहर निकलने के आस्था-दीप को जलाये रखने तथा अभिमन्यु की तरह जूझने की प्रेरणा देता है। नर्मदांचली लोक जीवन की सहज-सरस बानगी समेटे गीत-पंक्तियों से स्वस्थ्य जन-मन-रंजन करने की दिशा में कलम चलाता युवा रचनाकार अपनी भाषिक सामर्थ्य, शैल्पिक कौशल, छान्दस नैपुण्य तथा अभिव्यक्ति क्षमता से अपने उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। मुझे भरोसा है कि यह कृति वरिष्ठों से शुभाशीष, हमउम्रों से समर्थन और कनिष्ठों से सम्मान पाकर विजय की कलम से नयी नवगीत संकलनों के प्रागट्य की आधार शिला बनेगी।
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गीत नवगीत संग्रह- ओझल रहे उजाले, रचनाकार- विजय बागरी विजय, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन एच ५५, सेक्टर २३, राजनगर, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. २५०, पृष्ठ- १५१, समीक्षा- आचार्य संजीव सलिल, आईएसबीएन क्रमांक- 

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