आज नैसर्गिक जीवन-बोध को कविता की नागरिकता मिलना कठिन हो गया है। आज लेखन में भी शहरी जमीन की कीमत बढ़ गई है और आरण्यक संस्कृति आत्म-निर्वासन झेल रही है। कविता में भी वनों का संहार जारी है। प्रेम और प्रकृति प्रगतिशील कविता के लिए अजनबी हो गए हैं। इस परिदृश्य में पथराई झीलों को अपने आंसुओं से सींचने वाले राजेन्द्र गौतम जी ने हमारे चालू रचना समय का एक विपर्यय रचा है और शिला खंड में पर्यवसित , चिर शापित प्रकृति-प्रमदा को पुनर्नवा कर एक नया सृजन-संस्कार दिया है। संवेदना की पंखुरी जब मुरझा गई और जब सीवान जलने लगे तो कन्धों का भार बदल कर कवि पल भर सुस्ताने लगता है। यही नवगीत के पल हैं। जीवन-संघर्षों की थकान मिटाने के लिए हम नवगीत की गोद में पल भर विश्राम करते हैं, ताकि अगले चरैवेति के लिए नयी ऊर्जा प्राप्त कर सकें। यह पलायनवादी दृष्टि नहीं है। क्योंकि यहाँ लू के थपेड़ों से दहकते छन्दों का साक्षात्कार है---
पिघला लावा भर लाई
यह जाती हुई सदी,
हिरनों की आंखों में बहती
भय की एक नदी।
झीलों, तालों से
तेजाबी बादल उठते हैं,
इस जंगल में आग लगी है,
बरगद जलते हैं।
भुने हुए कबूतर शाखों से टप्-टप् चू पड़ते हैं और सुलगते नीड़ इस स्वाहात्व के लिए समिधा बन जाते हैं। फन्तासी शैली में ग्रीष्म के तांडव के बहाने कवि समय के उत्ताप को अपनी संवेदना की शिराओं में महसूस करता है और एक संवेद्य तापमान का रचाव अक्षरा संस्कृति में ढल जाता है। इन प्रकृति-चित्रों की संश्लिष्ट संरचना में युगबोध और उसकी पीड़ा अन्तर्संग्रथित हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि नई सदी में यह लावा कुछ अधिक तीव्रता से बह रहा है और निरीह तथा भोले जन और बुद्धिजीवी उस भय से अधिक संक्रमित हैं। संस्कृत और हिन्दी कविता में षड्ऋतु वर्णन और बारहमासा-निरूपण की एक प्रशस्त परम्परा रही है। जायसी ने ऋतु-परिवर्तन के सापेक्ष मानव-मन के बदलावों और उस पर पड़ने वाले प्रभावों का बड़ा प्रभावोत्पादक वर्णन किया है--
बरसै मघा झकोरि झकोरी। मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी।।
मघा नक्षत्र में झकझोर कर अजस्र वर्षा हो रही है और नागमती के नेत्र छाजन की तरह टपक रहे हैं। ऋतुओं के सामंजस्य में मानव जीवन के विपर्यास को नए प्रत्यय और नये काव्य-मुहावरे में राजेन्द्र गौतम जी ने सान्द्रता के साथ चित्रित किया है। यह समूचा नवगीत संग्रह ऋतु गीतों के सांस्कृतिक परिवेश से आवेष्टित है। यह एक आधुनिक ऋतु संहार या संहिता है। जहाँ बरगद जल रहे हैं, एक विराट सांस्कृतिक ध्वंस, मूर्ति-ध्वंस और मूल्य-ध्वंस के उत्तर आधुनिक परिदृश्य में व्यापक आकाश की तरह नील नीरद के स्वप्न संजोने वाले राजेन्द्र जी उसी अग्नि शिखा से दहकते छंद लिखते हैं और अनुष्टुप छंद के माध्यम से स्वस्ति-पाठ रचते हैं। नंगे तलवों जिन्दगी की जमीन पर चलते हुए और अंधेरे से आंगन को लीपते हुए ज्योति-कथा लिखने की यह उद्यमिता स्पृहणीय है। संस्कृत साहित्य में प्रकृति-सौन्दर्य के सर्वाधिक उदात्त और संश्लिष्ट बिम्ब मिलते हैं। आरण्यक संस्कृति को पुरस्कृत करने के कारण मनुष्य और प्रकृति का अद्भुत साहचर्य वहाँ घटित होता है। रामकथा या शाकुन्तल का प्रस्थान-बिन्दु भले ही अयोध्या और हस्तिनापुर हो, मुख्य कथा पुष्पित-पल्लवित तो वन प्रान्तर में ही होती है। कालिदास के काव्य-संसार में अधिकांशतः प्रकृति के कोमल पक्ष का चित्रण मिलता है, किन्तु भवभूति के उत्तररामचरित में प्रकृति के रौद्र रूप का भी उसी तन्मयता से अंकन हुआ है। राजेन्द्र जी के यहाँ दोनों रूपों का साहचर्य संलक्षित होता है -----
ठहरती आंख में कब तक नमीं उन अमलतासों की?
दहकते छंद लिखतीं गुलमुहर की शोख डालें हैं ,
यहाँ तो बांटती अंगार हैं शाखें पलाशों की।
किन्तु जब पलाश वृक्ष में नये पलाश या किसलय आते हैं तो वह समय तो वसन्त का होता है। प्रचंड ग्रीष्म की दाहकता का वहाँ अभाव होता है। उसकी सौम्य सुषमा का अनुपम चित्रण माघ ने किया है -----
नवपलाश पलाशवनं पुर: स्फुट पराग परागत पंकजम्।
फिर क्या आशय है? ग्रीष्म ऋतु में सौन्दर्य बोधक उपादान भी अग्नि दान करते प्रतीत होते हैं। वैसे भी पलाश का वैभव अग्नि वृक्ष का बिम्ब उपस्थित करता है। जबकि बादल अवकाश पर जा चुके हैं और हर गली-बाजार में लावा पिघल कर बह रहा है, बरगद की पीठ पर लपलपाती लू के बेरहम सांटे पड़े हैं। रेत पर रक्त की रेखा खींचते पग पगडण्डी को स्वेद कणों से सींच रहे हैं। ऐसे में नीम के हरे पत्ते सारे घाव पूरते हैं। यही काम तो कविता भी करती है। मनोचिकित्सा या मानसिक परिष्कार कविता का एक विशिष्ट प्रयोजन है। कविता हवा की तरह सबकी सांकल या कुण्डी बजाती रहती है। जो किसी के आने की आहट से भरा होता है। भ्रम भी एक अलंकार है। परिणामी क्रान्ति-चेतना की दूरसंवेदी ध्वनियाँ आशावाद का एक नया संस्करण रचती हैं। जैसे रेत के विस्तार में करील के ठूंठ गणदेवता की कालजर्जर देह में ठुंकी हुई कीलों का आभास देते हैं। सीवान के कान में सुबकती पथराई झीलों की पीड़ा से द्रवित होकर मेघदूत आ गए हैं। जब से हवाओं ने मौसम की आवाज सुनी है, तभी से थिर सरोवर में हलचल होने लगी है और हमारे भीतर का भाव- मौसम भी बदल गया है । कहाँ तो चिकनी मछली सी मुट्ठी से पहचान फिसल रही थी और कहाँ आज ---
मेघ गम्भीरा नदी पर यों झुका आकुल हुआ,
कूल मानो मिल गया, उसकी असिंचित प्यास को।
यह प्यास कुछ अधिक सान्द्रता के साथ अज्ञेय के 'सावन मेघ' में मौजूद है -----
भूमि के कंपित उरोजों पर झुका सा,
विशद, श्वासाहत, चिरातुर।
यहाँ पर्वत ही पृथ्वी के उरोज या पयोधर हैं। अन्यत्र अज्ञेय का ही एक बिम्ब है ----
सो रहा है झोंप अंधियाला नदी की जांघ पर।
इन दोनों यौन-बिम्बों को मिला दें तो उसे एक पावन प्रेम की प्रतिष्ठा राजेन्द्र जी ने दी है। फिर क्या था! रेशमी फुहारों का आंचल उड़-उड़ जाता। आकाशी झरनों या तन्मय भुजबन्धों से रसवन्ती रागिनी मुखरित हो उठी और स्मृति-मंजूषा से संश्लेष और विश्लेष के मधुर चलचित्र मानस-पटल पर सरकने लगते हैं---
धुंधलाते वर्णों के,
कुछ बिसरे छंदों के
स्वप्न-पटल बुनती हैं,
खुली हुई बांहों की
रेशम सी रागिनियां।
आज कविता के जीवन का यह छंद तिरोहित हो गया है। अब देवेन्द्र शर्मा इन्द्र के बादल नहीं बरसते। रीति कवि सेनापति और सुमित्रानंदन पंत की प्रकृति अपने आत्यन्तिक क्षरण के बावजूद राजेन्द्र जी के काव्य-संसार में सुरक्षित है। यहाँ तत्सम के पड़ोस में तद्भव मौजूद है और भाषा में एक नमनीयता, प्रासादिकता और मार्दव विद्यमान है। युगबोध पार्श्व गीत सा गूंजता रहता है-
डल से लोहित तक ये बादल खबरें ही बरसाते।
रोज विमानों से गिरती हैं, रोटी की अफवाहें,
किन्तु कसे हैं सांप सरीखी तन लहरों की बाहें।
अन्तरिक्ष से चित्रित हो हम विज्ञापन बन जाते।।
किस दड़बे में लाशों का सबसे ऊँचा स्तूप था, यह गिद्ध - दृष्टि खोजती रहती है। कुछ किस्मत वाले लोग मर कर ही सुर्खियों में आ पाते हैं। जो भीषण गर्मी से बच गये, वे बाढ़ में बह जाते हैं और शेष शीतलहर में ठंडे हो जाते। बाढ़ की विभीषिका और तज्जन्य प्रभावों का बड़ा मार्मिक अंकन हुआ है। राहत और बचाव कार्य सीमित उपचार बन कर रह जाते हैं। अब गिद्धों को भी मृत्यु की नजर लग गई है और सम्पूर्ण जैव-सांस्कृतिक विविधता संकट में है। जब तम की घटाएँ सृष्टि के आदिम किनारों को लील जाती हैं, तब कविता के किरण-पांखों पर उड़ता हास दिगन्तों में फैल जाता है और स्वर्ण से आखर परा लिपि में कुछ ऋचाएँ आंक जाते हैं, जिनके अर्थ चिनगी बनकर राख में भी दिपदिपाते रहते हैं -----
रात आती प्रेतिनी सी है,
मुर्दनी जब मौन की छाती,
व्योम के गन्धर्व तब आकर
शाश्वती वीणा बजाते हैं।।
इस प्रकार शान्त, किन्तु क्रान्ति गर्भा दिशाओं में मेघ के स्वर में बिजली के फूल खिल जाते हैं। यहाँ बरबस प्रसाद याद आते हैं जो कामायनी के अपरूप लावण्य की दीप्ति को उत्कीर्ण करने के लिए दामिनी को स्थिरता प्रदान करते हुए गुलाबी रंग के द्वारा उसके तेज को शमित और सन्तुलित करते हैं। और यह सौन्दर्य की शाश्वती वीणा बजती रहती है। जब पावस की काली रात का पर्दा उठता है तो द्यौलोक के उद्गीथ सा ज्योति का शुभ्र निर्झर बह निकलता है और शारदी सरोवर में शतदल खिल उठते हैं और बूढ़े गगन के भाल से चन्दन का तिलक पुंछ जाता है। ओस कणों से सिक्त दूर्वा दल हमारे मन को आर्द्रता प्रदान करते हैं। उषा सुनहले तीर बरसने लगती है। जब यह रागिनी मंत्रबिद्ध होकर भटक जाती है और सूर्यमुखी गीतों की पदचापें गुमसुम हो जाती हैं, तब शिथिल पवन-पंखों पर तिरती बोझिल सांस अवरुद्ध होने लगती है और वृन्तों से बिछुड़े दिन समय की धारा में फूल की तरह बह जाते हैं। इस बहाव और थमाव के विरोधाभास को लाक्षणिक भाषा में शिशिर की सांझ और प्रभात में कवि मूर्त करता है ---
किरणपंखी रागिनी उड़ती न अब कोई,
बह रही हर ओर कुहरिल मौन की ठंडी नदी।
वर्जनाएं सुन शिशिर की थम गया इतिहास,
त्रस्त होकर सृष्टि का ज्यों जम गया हर श्वास।
थरथराती टहनियाँ हिम की सुगन्धों से लदी।
फड़फड़ाते पर नहीं, उड़ते कपोतों के,
क्रान्ति वाही स्वर रुके हैं, मुखर स्रोतों के।
बर्फ के नीचे सहम कर दब गई पूरी सदी।।
सदी को केन्द्र में रखकर सदियों के अन्तराल में किरणपंखी रागिनी उड़ान भरने के लिए प्रतिबद्ध है। नये पल्लव धारण करने की वृक्ष की पुरानी आदत है। इन्हीं अर्थों में नवगीत अर्वाचीन पुष्प का प्राचीन आसव छलकाता रहता है। आत्मा की रक्तवाही शिराओं का संचार जब अवरुद्ध होने लगता है, तब कविता के अलाव के अलावा जीवन का तापमान कहाँ आश्वासन पा सकता है!
यद्यपि अपनी चेतनता के बन्द कपाट किए हूँ,
पलकों में वह सांझ शिशिर की
फिर भी घिर - घिर आती।
पास अंगीठी के बतियाती बैठी रहतीं रातें।
दीवारों पर कांपा करती लपटों की परछाईं,
मंद आंच पर हाथ सेंकते राख हुई सब बातें।
यादों के धब्बों-सी बिखरी शेष रही कुछ स्याही,
आंधी, पानी, तूफानों ने लेख मिटा डाले वे,
जिनकी गंध कहीं से उड़ कर अब भी मुझ तक आती।।
कालिदास की दीपशिखा की परछाईं और नेह की निशानी की कस्तूरी-गंध उड़ कर आज भी हमारी घ्राणेन्द्रियों तक आती हैं और उन्हें संतृप्त करती हैं। इतिहास बहुत कम लोगों को अपनी स्याही प्रदान करता है। राजेन्द्र जी किसी ऐतिहासिक क्षण में सार्वकालिक समय को मूर्त करते हैं और कविता की सनातन संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखते हैं। वे किताब में दबी सूखी रंगीन पंखुरियों की छुवन से अब भी सिहर उठते हैं। दूरागत वृद्ध हवा की थकी आलापें सुनकर उनके सिवान ऊंघने लगते हैं और स्वप्न-सृष्टि का रसायन काव्यात्मक परिवेश रचता है। यहाँ प्रकृति के मानवीकरण से अधिक मनुष्य का प्रकृतिकरण परिलक्षित होता है। अंगीठी के पास बैठकर रातें बातें करती हैं। यह विशेषण विपर्यय अलंकार मात्र नहीं है, समय के सीमांत का विपर्यय रचता हुआ समय से व्यापक संवाद का साक्षी बनता है। कहीं-कहीं विन्यास का विपर्यय भी भाव का अलंकार बन जाता है ---
पाखियों का झुण्ड हमसे अलविदा कह जा रहा।
डूबती नौका किरण की, खो गए नभ के किनारे,
ज्योति-खग के पंख टूटे, दूर तकते मौन तारे।
आस का डूबा सफीना याद मन को आ गया।
पर्वतों के पार से जब रात ने पग आ पसारे,
लिखे जो हर पात पर थे, मिट गये वे लेख सारे।
रक्तवर्णी किसलयों को तिमिर-दंश जला गया।।
यहाँ ज्योति--खग के पंख टूट जाने का रूपक युग की तमिस्रा के काले रंग में सारे रंगों के डूब जाने के अद्वैत वाद का सूचक है। किन्तु झुण्ड जानवरों का होता है, पाखियों का नहीं। पंत जी ने पर्यायवाची शब्दों में भी भिन्न अर्थ-संवेदना का साक्षात्कार किया था। हर शब्द की स्वतंत्र इयत्ता है। अलविदा शब्द भी संदेहास्पद है। क्योंकि यही पक्षी कल फिर लौटेंगे। भाव-परिसर मं् छाया हुआ कुहरा छंटेगा और कुहासे के उस पार मधुमास की गुलाबी धूप के अक्षर खिलेंगे। और वृद्ध पीपल के पात भी चिकना जाएंगे। सृजन का संकल्प लेकर प्रमदा दिशाएँ सौरभ-गर्भित हो जाती हैं और फिर शहतूत की हरी झुकी हुई डालें हमारे हाथों में आ जाती है। शेफाली झरने लगती है। रेशमी हवाएँ लयवन्ती हो उठती हैं। चीड़-वनों में चांदनी उतर आती है और आम भी बौरा जाते हैं। सपाटबयानी के विरुद्ध सांकेतिक व्यंजना मुखरित हो उठती है और मदन तत्सम भाषा में आदिम गंधगीत गा उठता है ---
नाभि - गंध छूटी हिरणों की।
सुरभि - लुब्ध उन्मत्त भ्रमर - दल,
पीत - श्याम वर्णों की हलचल।
लगे चहकने नवगीतों के
प्रीति - मुग्ध खग - शावक रोमिल।
नृत्य - मग्न हैं, तरु तरुणों से,
पहन माल सुमनों - पर्णों की।।
छायाद्रुमों में पतझड़ के पश्चात् नयी कोंपलें फूट आती हैं। तरुण तरु झूमने लगते हैं। सौन्दर्य और प्रेम का साहचर्य एक नये रोमांच की सृष्टि करता है। नयी शक्ति शिव को माल्यार्पण करती है। चिर प्यास को अवकाश प्राप्त होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि राजेन्द्र गौतम सुमित्रानंदन पंत के आनुवांशिक उत्तराधिकारी हैं जो प्राकृतिक परिदृश्य को कविता में जिलाए रखने के लिए प्रतिश्रुत हैं और नवगीत को अगीत बनने से रोकने के लिए खड़े हैं। उनकी कविता सामाजिक रोगों के विरुद्ध एक टीका है। आशा है, मौसम की यह आवाज आने वाले समय को भी सुनाई देगी।
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