मधु जी के ६१ गीतों के संग्रह ’’आहटें बदले समय की’’ में नवगीत के इन्द्रधनुषी रंग उभरते दिखाई देते हैं, हम उन्हें अपनी लेखनी की वस्तु बनाकर उसे मूल्यबद्ध करना उपयुक्त समझते हैं ’आहटें बदले समय की’ शीर्षक से गीत की नवता का बोध होता है जहाँ समय और जीवन से संगति बनाते हुए गहरी अनुभूति को संप्रेषणीय बनाया गया है। मधु की काव्य-यात्रा बैसवारा की उर्वर धरती से है जहाँ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, महाप्राण निराला, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, तोरन देवी लली, शिवमंगल सिंह सुमन जैसे गीतकारों ने हिन्दी कविता को आधार प्रदान करते हुए उसे समृद्ध बनाया है। वही धरती, मधु के नवगीतकार की भी है जिसने भोपाल के प्राकृतिक पर्यावरण में सॉस भरकर नये सुर निकाले हैं आदर्श शिक्षक की सुपुत्री, ने आदर्श शिक्षिका होने का गौरव भी प्राप्त किया है।
मधु संग्रह की भूमिका में स्वयं लिखती हैं - बैसवारे की साहित्यिक उर्वर भूमि एवं लोक परिवेश के संस्कारों के कारण कविता के बीज तो बचपन से ही मन में अंकुरित होने लगे थे जो कालेज तक आते-आते जमीन पकड़ने लगे।’ वह कवयित्री की संवेदना की सचाई ही उसकी लेखकीय ईमानदारी को उजागर करती है। डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र जी, इस संग्रह की भूमिका में लिखते हैं कि ’’नदी के एकांत तट पर उड़ती टिटहरियों के बोल जिसने नहीं सुने, उसने प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य का साक्षात्कार नहीं किया। जाने क्यों, मधु का मन नदी के तट पर ज्यादा रमता है। नदी तट, चिड़ियाँ, पंख, नीड़, अमराई- ये कुछ ताने-बाने हैं, जिनसे बया पक्षी की भाँति वह अपनी कविता बुनती है, कविता उसके लिये बया का घोंसला है, जिसमें वह अपना नितांत एकान्त समय बिताती है’’ किन्तु मेरा मानना है कि समय के घोंसले’ में मधु का बया-मन पंख खोलकर कभी प्रफुल्लता प्रकट करने के लिये गान करता है और कभी कल्पना के अनन्त आकाश की दूरियाँ तय करते हुए कविता की मंजिल की तलाश करता है। जो भी हो, मधु में वैभव-लोक है नये सपनों की भोर उसके पास है घोसले की तरह झूलने का अदम्य साहस जो काटों में भी अपनी कलात्मक सौंदर्य क्षमता का परिचय कराते हुए अपने अस्तित्व बोध के प्रति विशेष जागरूक है।
रचनाधर्मी ही है जो वक्त की अनुभूतियों को कैद करने की सामर्थ्य रखता है। भले ही उसके हाथ कभी शंख और कभी सीपियाँ लगे। वही तो सीपी है जो अपने गर्भ में मोतियों को आकार देती है। वे मोती जिनके संपर्क में रहने पर हर उजड़े मन को शांति मिलती है। मधु की कविता की सीपी के मोती किसी भी मन की उलझन को अपनी लय के स्पर्श से सुख शांति प्रदान करने में समर्थ हैं। गीत की तटीय पहचान ही इस बात में है कि वे गहन अनुभूति की आँच से तपे हुए शब्द लेकर जीवन के अर्थ को खोलने में कहीं प्रस्तुत होते हैं। वहाँ ताप भी है प्यास भी है, लय भी है राग भी है, साथ ही व्यष्टि की वह संवेदना है जो समष्टि के रहस्य को भी खोल कर प्रकृति और पुरूष के एकत्व के सत्य का भान करा दे।
मधु जी ने गीत से नवगीत तक की विजय-यात्रा की है। पारम्परिक गीतों के प्रेम सौंदर्य, प्रकृति, संस्कृति, सामाजिक चिंता, राजनीतिक पर्यावरण और जीवन-दर्शन इत्यादि को नवगीत ने नयी व्यन्जना प्रदान की हैं। भाषा में नये आंचलिक और युग-संदर्भित शब्द, अर्थ की तरलता, लय का प्रवाह और नये मुहाविरों की अर्थान्विति के धरातल विशिष्टता लेकर उभरे है। भाव-सौंदर्य की गोद में भी नया यथार्थ, कल्पना का भोलापन, उद्वेग और संवेदना की प्रस्तुति, पीड़ाजनित अभाव, टूटन, विघटन एवं मर्म भेदी-दृष्टि ने गीत को नवता भरे नवगीत के पाले में उतार दिया है। मधु जी इस विकास क्रम में अपनी पहुँच बनाते हुये नयी संवेदना की धरती पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही हैं। यथा-
इस तरह की बानगी ’’दादी माँ,’ ’चक्र समय का,’ ’बोझ सदी के ढोये’, जैसे गीतों का अंर्तमन खोलकर देखी जा सकती है। जहाँ एक ओर इस संग्रह के गीतों में प्रगतिशील विचारों की स्वीकृति है तो दूसरी ओर मानव मनोविज्ञान की आस्था के तात्विक विवेचनों की दशाओं की संगतियाँ हैं। मनुष्य की वे संवेदनाएँ जो प्रकृति प्रदत्त एवं मानव रचित जगत के सौंदर्य के प्रति समर्पित होती हैं अथवा सामाजिक विकृतियों और असमानताओं के आधारबिन्दु - आंतक, भ्रष्टाचार, जातीय असंगतियाँ, मानवीय दुर्बलताएँ, वैश्विक छलछदम, पारिवारिक विद्रूपताएँ, दलगत विद्रोह इत्यादि के आडम्बरों और द्वन्द्वों की परिसीमाओं से उठे उतार - चढ़ाव को किन्ही न किन्ही अर्थों में हम मधु के गीतों में पाते हैं, यही मधु की प्रतिति और कला-कौशल की सफलता है।
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नवगीत संग्रह- आहटें बदले समय की, रचनाकार- मधु शुक्ला, प्रकाशक- पहले पहल प्रकाशन, भोपाल, प्रथम संस्करण-२०१५, मूल्य- २०० रु. , पृष्ठ-११० , परिचय- डॉ. ओमप्रकाश सिंह, ISBN- 978-93-92212-70-3