रविवार, 26 जुलाई 2015

पीली धुंध नीली बस्तियों पर- योगेन्द्र दत्त शर्मा

निरन्तर रचनाशीलता को बनाये रखकर सृजनरत रचनाकारों में योगेन्द्र दत्त शर्मा ऐसा नाम है जो अपने नव्यतम चौथे नवगीत संग्रह 'पीली धुंध नीली बस्तियों पर 'को लेकर अपने नव-प्रयोगों द्वारा छन्द को बचाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हैं। 'नवगीत दशक -३' के प्रमुख नवगीतकार योगेन्द्र जी इस संग्रह तक आते-आते कथ्य को बड़ी सतर्कता से शैल्पिक प्रयोगों में बाँधकर पूरी प्रखरता से उपस्थित हुए हैं। संग्रह में ७५ गीतों को स्थान दिया गया है जो अपने आप में स्वतंत्र इकाई होते हुए भी कथ्य के एक केंद्रीय तत्व समकालीन यथार्थ पर सार्थक प्रतिक्रिया द्वारा संगुम्फित हैं किन्तु अलग-अलग भी ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। 

योगेन्द्र दत्त शर्मा जी ने नवगीत संग्रह में प्रयुक्त यथार्थ के प्रासंगिक बिन्दुओं में समसामयिक, ऐतिहासिक, पौराणिक तथा मिथकीय सन्दर्भों का प्रयोग करते हुए समकालीन यथार्थ को व्यक्त करने का सफल प्रयास है। हर रचना में गीतकार अपने आप से प्रश्न करता हुआ उत्तर के लिए पाठक को सोचने के लिए बाध्य करता है। यहाँ विकल्पहीनता नहीं बल्कि समय का बहुआयामी विद्रूपित यथार्थ है जिसका किसी एक विकल्प से मुकाबला नहीं किया जा सकता। पूरे नवगीत संग्रह को समग्रता में समझने के लिए उन स्थितियों तक आएँ जिनमे आज का भूमंडलीकृत नागरिक जीवन की आपाधापी में फंस कर स्वयं से ही असंतुष्ट होकर स्वयं से ही प्रतिस्पर्धा कर रहा है और असफल होने पर आज के निराशा, हताशा, अवसाद, ऊब, उकताहट और असंतोष जैसे युगीन रोगों से जूझ रहा है। आज का यथार्थ अपनी तीव्रता में अतीत की स्मृतियों के भयावह यथार्थ से भी अधिक गहन और तीव्र है और उसकी अनुभूतियों की लय भी विगत की अनुभूतियों से अधिक सशक्त है तथा जब नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन और सांस्कृतिक प्रदूषण का ख़तरा बढ़ता जा रहा है तब निरंतर जटिल होते समयगत यथार्थ को योगेन्द्र दत्त शर्मा द्वारा अपने नवगीत संग्रह 'पीली धूप नीली बस्तियों पर' की रचनाओं में बहुत सफलता से अभिव्यक्त किया गया है। 

योगेन्द्र जी ने संग्रह की भूमिका के शीर्षक को भी 'फीके रंगों का शापित उत्सव 'नाम देकर, जीवन में रंगों की महत्ता और संवेदनशील मन पर रंगों के पड़ने वाले प्रभाव को इंगित किया है, ''आदमी की संवेदना की नीली बस्तियों पर उदासी की पीली धुंध छाती जा रही है। उसकी बाह्य दृष्टि धूसर हुई जा रही है तो अंतर्दृष्टि मटमैली !'' और फिर सवाल करते हैं, ''क्या यही है हमारी नियति? क्या ऐसे ही रंगोत्सव का सपना संजोया था हमने ?'' फिर दृढ़ता से कहते हैं, नहीं ! एकदम नहीं ! हमें अपनी सांस्कृतिक पहचान पर जमीं धुंध को साफ़ करना होगा। उसे चमकाना होगा।'' और अपने इसी उद्घोष के साथ संग्रह की रचनाओं के कथ्य, शिल्प, भाषा, भाव और संवेदनात्मक यथार्थ के चित्रण में अपने नए-नए रचनात्मक प्रयोगों को लेकर उपस्थित हैं। 

अपने एक गीत 'बची एकरसता' में योगेन्द्र जी आज के यथार्थ का इस प्रकार उल्लेख कर रहे हैं, ''अजब है उमस से भरा खुश्क मौसम /न बादल छँटे हैं, न बारिश हुई है !/घिरी जा रही एक पीली उदासी/हवा बंद है, कुन्द वातावरण है /यहाँ से वहाँ तक निराशा, हताशा /नसें तोड़ता धुंध का आवरण है /हुआ स्वप्न घायल, हुई साँस ओझल /कहाँ खो गया वह नशा जादुई है !'' 

इसी के साथ 'बादलों में चांद' शीर्षक गीत में असहाय ख़ामोशी घायल स्वरों को कांख में बांधकर खुद ही खोलती है, ''यह थका उन्माद, पीली धुंध/ नीली बस्तियों पर /एक गाढ़ी नींद हावी है /नशीली मस्तियों पर ''। और 'गुम सफर में ' कह दिया की इस अँधेरे गुम सफर में दिन के अहसास घुन गए हैं, ''एक खालीपन पसरता/मौन हर पल का /अखरता /चुप्पियों के इस पहर में/चुभ रहे खामोश तिनके !'' 

'सोनचक्र कीच में धंसा' में मोह भंग की स्थिति होने पर सब कुछ ही बदला लगने लगता है और अपनी सामर्थ्य को पुनः आकलित करना पड़ता है, ''थके हुए घोड़ों की टापें/अब कैसे क्षितिजों को नापें /वल्गाओं में समय कसा है !/खंडित संकल्प, प्रार्थनाएँ /आँखों में बुझती संध्याएँ /दंशित अभिशप्त हर ऋचा है !'' 

'मन.…नदी का.… धार का' गीत में व्यक्त किया, ''बर्फ -सा जमता हुआ अहसास, /फिर जाने कहाँ खोने लगा !/……… घाट पर ठहरा हुआ मन /रिक्तताओं का कलुष धोने लगा !'' 'खामोश वन-पथ' में गीतकार अपने समय को देख कर कहता है कि जैसे सब कुछ रुक गया है। जहाँ तक भी दृष्टि जाती है दूर तक वनपथ खामोश है और बहते हुए नदी-झरने थम गए हैं शायद समय का रथ रुक गया है, ''ओढ़ ली आकाश ने सहसा /भंगिमा गुमसुम तथागत की। जम गयी मद्धिम कुहासे में /सुर्खियाँ, दिन की इबारत की। ''

 हम आजकल जहाँ पर हैं वह कबन्धों का का शहर है और रंगों-गंधों वाला शहर कहीं बहुत पीछे छूट गया है। आदमी भौंचक, हतप्रभ -सा सहमा हुआ है उसकी सूनी निगाहों में बीमार निर्वासन जड़ा हुआ है।इस बदलते परिदृश्य को 'कबन्धों का शहर 'में व्यक्त किया है, ''गायब हुई कर्पूर सी/हर बोध से संवेदना /कैसे अटल में जा धँसी /आलोकधर्मी चेतना/बेताल को लादे हुए /यह छिले कन्धों का शहर !'' 

ऐसा नहीं है कि नवगीतकार को केवल नैराश्य के ही दृश्य दीख रहे है, वह प्रकृति के उल्लासमय रूप को देख कर आनंदित भी होता है, 'वसंती दिन उगा ' में आह्लाद को व्यक्त करते हुए, ''चीरकर कुहरा /वसंती दिन उगा /खिलने लगा !/फिर हमारी चेतना का /हिम शिखर गलने लगा !... एक कस्तूरी हिरन-सा फिर समय/चलने लगा !'' इसी के साथ 'फागुनी रंग' और 'खुशबुओं का काफिला' शीर्षक के गीतों में इसी आह्लाद को आगे बढ़ाया है तथा 'कामायनी', 'पुष्पधन्वा', 'मनु' और 'इला' जैसे मिथकीय पत्रों के नामों का भी यथायोग्य प्रयोग किया है। 

योगेन्द्र जी अपने उत्कृष्ट गीत 'मुट्ठियाँ कसता कबूतर ' में उस षड़यंत्र के बारे में सवाल करते हं् कि, ''कौन है जो पेड़ पर बैठा हुआ/टहनी हिलाता है!/पेड़ आखिर क्यों /खड़ा खामोश रह -रह थरथराता है !… चल रही बस कान-कानों में /अजब सी फुसफुसाहट/पल रहा षड्यंत्र कैसा /हर तरफ है कुलबुलाहट /मुट्ठियाँ कसता कबूतर दूर बैठा तिलमिलाता है !'' लेकिन निराश नहीं है गीतकार और तमाम ताने सुनाने के बावजूद जीवन की नंगी सच्चाई से लड़ाई के लिए रोज नए सपने बुनता है। 'बुनता हूँ सपने' में, ''चीजों से/ जुड़ता हूँ/ बेहद गहराई से /लड़ता हूँ /जीवन की/नंगी सच्चाई से / हर कडुवे अनुभव पर /अपना सर धुनता हूँ /… इन सपनों से ही मैं /राह नई चुनता हूँ !'' 

 'आधुनिकता की लहर में ' शीर्षक नवगीत में वर्तमान समय में व्यक्त किया है कि आधुनिकता के नाम पर बहुत परिवर्तन हुए हैं लेकिन इस आधुनिकता की लहर में गाँव शहर में खो गए हैं, जिन्दगी मोबाइलों पर और फाइलों पर रेंगती है, नेट और कम्प्यूटरों का युग विसंवादी स्वरों का युग बन गया है। साइबर कैफ़े तो खुले लेकिन जीवन के रंग धुल गए जिससे संवेदना औरशील, संस्कृति, चेतना के दिन लद गए हैं, '' आधुनिकता की लहर में/गाँव फिर खोये शहर में !... दिन लदे संवेदना के /शील, संस्कृति, चेतना के /गाँव, घर सबको नमस्ते /कल मिलें शायद सफर में !'' 
'विपरीत ध्रुवों पर' गीत में व्यवस्था के संचालकों को साफ़ -साफ़ कहते हैं, ''जो राह मेरी थी नहीं /इस राह पर ही तुम चले / कैसे सिमटती दूरियाँ /मिटती कहाँ से फासले/ मैं एक ध्रुव पर था, मगर/विपरीत ध्रुव तुमने चुना !'' 

योगेन्द्र जी ने भूमिका में रंगों के सांस्कृतिक महत्व और विरासत का समुचित उल्लेख किया है और सांस्कृतिक बिखराव के इस दौर में जीवन के रंगहीन होते जाने पर चिन्ता व्यक्त की है।साथ ही रंगों के सम्मोहन में बंधने में तैयार नहीं हैं और यह व्यवस्था हमें रंगान्धता के कगार पर ला खड़ा कर रही है। उसी सत्य को 'रंगों से बचता है' गीत में व्यक्त किया है, ''मन अक्सर /इन्द्रधनुष रचता है /फिर जाने क्यों/ उसके रंगों से बचता है !...स्वप्निल अहसासों पर /बिजली-सी/कौंध-कौंध जाती है /रागारुण छवियों/आकृतियों को /पथरीले पांवों से/ शिला रौंद जाती है / कुचले रंगों में से पीला-सा दर्द/फिर कसकता है !'' 
गीतकार सचेत करते हुए कहता है कि जो आग सीवान पर थी वह अब घर तक आ गयी है, ''बीमार मूल्यों की शिला /बस पीठ पर ढोते रहे /अपना कफ़न बुनते हुए /बेकार खुश होते रहे /यह आत्मघाती मुग्धता /अब और भी गहरा गई !'' इस भयावह स्थिति में आमजन दिग्भ्रमित सा होकर विस्मित है जिसे, 'दिग्भ्रमित-सा आम जान गीत में उकेरा है, ''राजा नपुंसक और /रानी भी हुई है बदचलन /रखकर रेहन पर राज्य को /सब मंत्रिगण खुद में मगन ! विस्मित, चकित सारी प्रजा/किस पाप की है यह सजा /भयभीत है हर नागरिक ज्यों सिंह के आगे अजा /ठहरी ध्वजा/करती सतत/कमजोर क्षण का आकलन !'' 

समयगत विद्रूपताओं को व्यक्त करते हुए योगेन्द्र जी ने अपने नवगीतों में अनेक नए छान्दसिक प्रयोग किये हैं। इस संग्रह में भी नवीन प्रयोगों के कई गीत संकलित हैं। यहाँ प्रयोग के लिए प्रयोग वाली स्थिति नहीं है बल्कि इन गीतों में शिल्प और कथ्य का सफल सामंजस्य और उत्कृष्ट प्रस्तुति दृष्टव्य है तथा इस सब के बावजूद गीत अपनी सम्प्रेषणीयता में भी सशक्त हैं। संग्रह के के नवगीत, 'उतरा है ज्योति-पर्व', डूबते हैं शब्द', बुनता हूँ सपने', 'पर्वती अँधेरे', 'प्यास से बेचैन मन', 'पारा कहाँ है', आँख मत नटेर', 'पथराई हुई हलचल', 'घर हो गया लापता', 'रात भुतहा', 'अनमना स्वीकार', आह! डूबा दिन...', और ये बादल रीते हैं' आदि अपने शैल्पिक प्रयोगों के उत्कृष्ट उदहारण हैं। 

ऐसे वातावरण में जब हर और सन्नाटा है और वैफल्यग्रस्तता फैली हुई है तब गीतकार स्वयं को खोजने के लिए पाठक को सोचने के लिए कह रहा है। अपने गीत, 'खुल सके तो खुल' में स्वयं को खुलने के लिए प्रोत्साहित करता है और अपने आप से बाहर निकल कर आने की सलाह देता है, ''खुल सके तो खुल!/जरा-सा /खुल सके तो खुल!/बंधु मेरे!बंद होकर /यों न रह व्याकुल !/खुल कि खुलने और खिलने में नहीं अंतर /मुक्तिकामी चेतना का /मुक्त बहिरंतर /एक पल का ही सतत विस्तार/मन्वंतर /……इस तरफ तम है, गुफा है/राह भी संकुल!/खुल सके तो खुल!!'' 

योगेन्द्र दत्त शर्मा जी ने अपने समसामयिक यथार्थ को सफलता से प्रस्तुत नवगीत संग्रह में अभिव्यक्त किया है और समाधान के लिए किसी वाद विशेष के आग्रह या दुराग्रह का निरूपण नहीं किया है और पाठक को अपना निर्णय स्वयं करने को स्वतंत्र छोड़ा है। प्रस्तुत संकलन कथ्य, शिल्प, भाषा, आशय और सम्प्रेषणीयता के बिन्दुओं पर एक उत्कृष्ट रचनाओं का समुच्चय है जो पठनीय, संग्रहणीय, उद्धरणीय तथा हर प्रकार से छान्दस काव्य के नव्यतम प्रतिमानों को स्थापित करती हुई आश्वस्तिकारी उत्तम कृति है जिसे ‘समसामयिक यथार्थ के छान्दसिक शब्द-चित्र’ कहा जा सकता है। 
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गीत- नवगीत संग्रह - पीली धुंध नीली बस्तियों पर, रचनाकार- योगेन्द्र दत्त शर्मा, प्रकाशक- ज्योतिपर्व प्रकाशन, इंदिरापुरम ग़ाज़ियाबाद -२०१०१२ ,  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये १९९/-, पृष्ठ- ११६, ISBN ७८.९३.९२२ १२.३६.९  समीक्षा - जगदीश पंकज।

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