प्रस्तुत संग्रह - ‘पंख का नुचना’ से गुजरते हुए हम पाते हैं कि कवि का सम्वेदना संसार व्यापक है। उसमें वैविध्य है। किसी एक या गिनी-चुनी धुनों पर आलाप लेता या क़वायद करता, हम उसे नहीं पाते हैं। सम्वेदनात्मक तरलता के साथ सहज रूप से अपने ‘आस-पास’ से टकराते, बतियाते हुए पाते हैं।
‘पंख का नुचना’ शीर्षक से प्रस्तुत संग्रह में सात गीत हैं। इन गीतों में एक बड़े कैनवास को लेकर भी वार्तालाप है और जीवन के अलग-अलग पहलुओं से सीधी-सीधी टकराहट भी। पंख के इस नुचने का दंश कहीं परित्यक्ता पत्नी झेलती है, तो कहीं दलित की पीड़ा उसमें मर्मांतक तरीक़े से कराहती है। कहीं आमजन इस विभीषिका का शिकार है, तो कहीं मूल्यधर्मी चेतना इसकी पीड़ा, संत्रास को झेलती है।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि भिन्न-भिन्न प्रकार की दारुण, विपरीत परिस्थितियों में आज का समय भिन्न-भिन्न संदर्भों में दुःख, दर्द, हताशा, निराशा झेलता है। इन सब का अंकन, प्रस्तुतिकरण लगभग सब रचनाकार करते हैं, तो फिर सुभाष वसिष्ठ का अपना ऐसा क्या है कि जिसके चलते इन निहायत सीधे-सादे और सहज रूप से पकड़ में आ जाने वाले संदर्भों को एक खास धजा प्राप्त हो जाती है। असल में, ऊपर जिन-जिन संदर्भों की बात हमने की है, उन सब संदर्भों की नियति एक है -- पंख का नुचना।
संग्रह का पहला ही गीत -- ‘पंख का नुचना’ ध्यान खींचता है। यह गीत अपने समय की त्रासदी को व्यक्त करता है। विस्तार का यह क्षेत्र फैला हुआ है -- दिक् दिगन्त तक और वह भी खुलकर अर्थात् ऐसा परिवेश जहाँ कबूतर के पंख नुचते हैं, पंख नोंचने का कार्य खुलकर होता है, इसका विस्तार और फैलाव जैसे अन्तहीन है। ये पंक्तियाँ इस विभीषिका की भयावहता को इंगित करती है।
‘लौट कर आये नहीं आखर’ गीत भी आकर्षित करता है। प्रस्तुत संग्रह के अधिकांश गीत दो चरणों में समाप्त किये गये हैं। अधिकांश में दो-दो अन्तरे लिखे गये हैं। दो अन्तरों में बहुधा गीत पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता। यह कमी खलती है। किन्तु इस गीत में जिस प्रकार गीत का समापन किया गया है, उसके चलते यह पूर्णता भी प्राप्त करता है। गीत का प्रारम्भ इस तरह होता है --
एक युग बीता
अभी तक
लौट कर आये नहीं आखर!
पहली बात तो यह है कि - ‘एक युग बीता’ नाम के वाक्यांश से फिर कवि जैसे एक आह सी भरता है। ‘एक’ शब्द से एक ओर तो, ए......क...... जैसी ध्वनि का निर्माण होता है, और दूसरी ओर इसके साथ ‘युग बीता’ जोड़कर एक प्रकार की विवशता बेचारगी, जीवन की सीमाओं, विकल्पहीनताओं का रचाव कवि कर डालता है। युग बीत जाता है और जो लौटकर नहीं आ पाता वह ‘आखर’ है। तो, समझना यह है कि यह आखर क्या है? रोजमर्रा के जीवन को चलाने भर के लिए जिस-जिस चीज या चीजों की आहुति दी जाती है, वह सब इस ‘आखर’ में शामिल है। इस आखर का सम्बन्ध कबीर के ‘ढाई आखर’ से यदि हम जोड़ें भी तो खींचतान करनी पड़ेगी। ‘ढाई आखर’ (कबीर) की व्यंजना प्रेम तक है। इस ‘आखर’ की व्यंजना अनेकवर्णा है। इसमें वह सब शामिल है जो व्यक्ति स्तर पर, सामाजिक स्तर पर, आदि आदि पर छूट जाता है, टूट जाता है, जब कोई रोजमर्रा की जरूरतों के लिए ‘बाहर’ जाता है। यह ‘बाहर’ भी कमाल का शब्द-प्रयोग है।
एक सीधा-सादा अर्थ घर से बाहर, क़स्बे, शहर, गाँव से बाहर है, तो सूक्ष्मता में इसका अर्थ आदम जात के ‘इन्सान’ का भी छूट जाना है। जरूरतों के चलते, आदम जात का, ऐसा बहुत कुछ ‘बाहर’ का रास्ता देख लेता है, जो उसके ‘इन्सान’ को कमजोर कर देता है। ‘आखर’ जब ‘बाहर’ चला जाता है या निकाल दिया जाता है तो आदमी के पास जो बच रहता है, उसे कवि ने -- संविदाओं, ज्ञापनों, पत्रों का निठुर गीत गायन कहा है -- बेवजह ही/बॉस की फटकार के धोये/धूल खाती/फाइलों अम्बार में खोये/संविदाओं, ज्ञापनों, पत्रों -- /निठुर से गीत गाकर। यह ‘गीत’ लिरिक या सांग नहीं है। यह ‘गीत’ ऑब्सैसन है -- जिसे लोक भाषा में राग अलापना या विराग हो जाना कहते हैं।
इस गीत की भाषा पर गौर करें तो एक गीत में तीन प्रकार की भाषा देखने को मिलती है -- एक युग बीता/अभी तक/लौट कर आये नहीं आखर। यहाँ जैसे एक फकीराना अंदाज में कोई गुहार सी लगा रहा है या जैसे आकुलता-व्याकुलता का मारा कोई सहज जीवन फकीर हो उठा है। आगे दोनों अंतरों की भाषा रोजमर्रा की दफ्तरी जिंदगी की छोटी कुर्सी-मेज की है;.. तो अन्त/समापन में किसी दार्शनिक की (भाषा) -- नदी नाले/हर तरह के/गिरे/खारा हो गया सागर।
दफ्तरी जिंदगी के संदर्भ से गीत को समझना अपेक्षया सरल तो हुआ है, किन्तु संदर्भ के विशेष हो जाने से कैनवास सीमित हो गया है। यदि गीत का रचाव थोड़ा भिन्न हो गया होता तो अपने विस्तार में, अपनी व्यापकता में यह और अधिक विविध वर्णा हो गया होता। फिर भी इतना तो कहना ही होगा कि नदी-नाले गिरते गिरते सागर के खारा हो जाने की प्रक्रिया में नैरन्तर्य है। ऐसा नैरन्तर्य जो आदमी को ही चट कर जाता है। गीत उस पीड़ा को भी दर्ज करता है, जिसके चलते पैशन और प्रोफेशन का अन्तराल मारक हो जाता है, जानलेवा-खारेपन की सीमा तक। एक प्रकार से नदी नाले के गिरते गिरते सागर के खारे हो जाने की कहानी इसी पीड़ा की महागाथा है।
क्यों घबराये मन’ अलग तरह का, अपनी तरह का गीत है। इस गीत में सुभाष वसिष्ठ का रचनाकार अपने एक बेहद निजी, रंग बल्कि रंगत में मुखर और स्पष्ट होकर हमारे सामने आता है।
क्यों घबराये मन/ओ रे/क्यों घबराये मन!
पी ले मुश्किल/जर्रा जर्रा/जी ले और तपन!
यह रंगत, यह अंदाज सुभाष वसिष्ठ के रचनाकार का अपना है, अलग तरह का। मन को सँभालने का यह अंदाज एकदम जोगिया है। लगता है जैसे कोई जोगी, कोई फकीर इकतारे पर गाता हुआ, मन को सम्बोधित करता हुआ, जमाने को सँभाल रहा है। दीन दुखी को सहारा दे रहा है। इस स्वर में कातरता है, लेकिन ढाँढस का रंग भी है। ‘ओ रे’ शब्दों में सूफियाना अंदाज है, किसी कलन्दर की बेफिक्र धज है, आम जन को..पीड़ित को..दुखी को पुकारता स्वर है -- आह्वान के साथ। जो अर्थ प्रच्छन्न है, वह यह है कि मुश्किलों का आना तो जारी रहेगा, अतः स्वयं को सँभालने का तरीका है -- उसे गटक जाना। लेकिन इसका अर्थ समूचे गीत में मुश्किलों के सामने घुटने टेकना कहीं नहीं है। जर्रा-जर्रा पी लेने का आशय केवल चीजों को, विपर्यय को, मन पर न लेने भर से है। यह मन कोई वेदान्ती मन नहीं है, बल्कि सम्वेदना का घर है और कवि इसी सम्वेदना के संरक्षण का आह्वान करता है। ‘‘ओ रे’’ का सम्बोधन, इस मन से अपनापा स्थापित करता है और जागरण का-सा सन्देश भी वहन करता है।
मन में लिखा जेठ है, पगले
मन में ही सावन
का वही अर्थ है जिसे लोक-व्यवहार में मन के हारे हार है, मन के जीते जीत कहा जाता है। अन्तिम अन्तरे में कलन्दरी स्वर में भाव-भाषा का सुन्दर मिलन दिखाई देता है।
बहता पानी ये जिनगानी
लहरें रुख का गान
बहता पानी और जिनगानी ये शब्दावली तो नितान्त जोगिया रंग की हैं। लहरें रुख का गान -- में यद्यपि लहर का रूपक सूफियाना भी है, दार्शनिक भी, तथापि लहरों को रुख का गान कह कर कवि एक नया अर्थ प्रस्तुत करता है --समाज में व्याप्त उस प्रवृत्ति को उजागर करता है, जहाँ मुँह-देखी ही व्यवहार है, रिवाज है। भँवर में तिरना -- इसीलिए कभी आसान नहीं होता। लेकिन जब लहर भी एक प्रकार से भँवर-चक्र की तरफदार हो तो स्थिति भयंकर हो जाती है -- एकदम दारुण। यहाँ आकर यह गीत अपने तमाम कलन्दरी, जोगिया फकीराना, सूफियाना अंदाज के बावजूद नवगीतात्मकता को धारण कर लेता है। यह इस गीत की उपलब्धि है।
यों तो अपने सभी गीतों में कवि अपने समय से मुठभेड़ कर रहा है, किन्तु उसके रंग-ढंग, ढब, धज, तेवर आदि भिन्न हैं। ‘ढहा नहीं हूँ’ नामक गीत में समय से कवि सीधी-सीधी मुठभेड़ चुनौती के लहजे में करता है। इस गीत की ख़़ूबसूरती अद्भुत आत्म-विश्वास और स्वर की, संकल्प की, दृढ़ता तो है ही, उसके साथ-साथ लघु ध्वनियों की लघु शब्दावली, छोटे-छोटे वाक्यांश/वाक्य रचनाकार द्वारा प्रस्तुत चुनौती को गहराई और तीव्रता प्रदान करते हैं। कथ्य के अनुरूप और कथ्य के तेवर के अनुरूप भाषा और सम्प्रेषण का यह रचाव गीत को विशिष्ट सौन्दर्य प्रदान करता है। यह बात इसी गीत में ही नहीं, बल्कि उनके कुछ अन्य गीतों में भी पाई जाती है।
ढहा नहीं हूँ
ढह न सकूँगा
इस श्रेष्ठ की प्राप्ति और आकाशीमुख कल्लों का उगना कार्य की सिद्धि है। आगे वाले अंतरे में इन परिणामों का ही अधिक विस्तार है। केवल विस्तार ही नहीं है, चीजों के बदलने को लेकर अगले परिवर्तनगामी परिणाम में गति भी लक्षित होती है क्योंकि कवि पुष्पन, पल्लवन की बात करता है, जिसके चलते रंग-ढंग में प्रकृति नाच उठेगी, भविष्य खिल उठेगा-खुलकर। दोनों चरणों की क्रमिक सोपानिकता -- वह भी गति के साथ बढ़ती हुई, परिणाम तक जाती हुई, गीत को पुष्ट करती है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सुभाष वसिष्ठ का रचनाकार तरल मगर सान्द्र सम्वेदना की नाजुक प्रस्तुति का रचनाकार है। अनुभूतिजन्य को कोई भाव-सूत्र जैसे उनकी झील में कोई कंकड़ फेंक देता है। राग, रस और तरल सम्वेदना में रची-बसी, पगी यह झील जैसे झनझना उठती है, कभी-कभी कराह की सीमा तक। यह झनझनाहट, यह कराह, खुली आँख से अपनी आधुनिक चेतना के साथ अपने आस-पास, अपने जीवन-वास्तव में होकर गुजरती है -- कन्धे से कन्धा रगड़ती, बैठती, बतियाती। इस बतकही में वह अलग-अलग रंगों में, ढंगों से, अपने इस जीवन-वास्तव को ढाँढस बँधाती है। कभी उसे ‘उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्यम्वरान्निबोधत’ के लहजे में पुकारती है -- आह्वान के साथ, तो कभी उसकी कराह का मार्मिक स्वर बन जाती है। लगता है -- यह झनझनाहट, कराह ही शब्द, लय, धुन, राग सब कुछ अख़्तियार कर लेती है, उनके गीतों में।
--------
नवगीत संग्रह- पंख का नुचना, नवगीतकार- सुभाष वसिष्ठ, समीक्षक- वेद प्रकाश शर्मा ‘वेद’, प्रकाशक- लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, ४६३७/२०, शॉप नं.-एफ-५, प्रथम तल, हरि सदन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२, कवर- हार्डबाउन्ड, पृष्ठ- ८०, मूल्य- रु. २२५, ISBN- 978-81-970289-9-1

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
क्या आपने यह पुस्तक पढ़ी है? यदि हाँ तो उसके विषय में यहाँ टिप्पणी करें। उपरोक्त समीक्षा पर भी आपके विचारों का स्वागत है।