'पंगा' होने तक तो ठीक है किंतु जब' दंगा' होने लगे तो आदमी की बिसात क्या, चाँद-तारे तक रोने लगते हैं-
झकझोरते प्रश्न करते, चाँद तारे
वे प्रश्न करते हैं और उत्तर खोजते हैं। ईश्वर करुणावतार है या निष्पक्ष-निर्मम न्यायाधीश? संसार में हर एक को अपना पक्ष ही न्याय का पक्ष प्रतीत होता है। न्याय वही जो मेरे मन में, स्नेह सभी कुछ देना चाहे
विष बहा, भट्टी-जहाँ में, मादक नशीले जाम
प्रकृति देखो सिसकती।
कृष्ण का बहुआयामी चरित्र विविध गीतों में विविध प्रसंगों में प्रयुक्त हुआ है किंतु कहीं भी पिष्टपेषण या पुनरावृत्ति दोष नहीं है। पौराणिक चरित्रों और मिथकों के माध्यम से प्रवृत्तिगत विशेषण विस्तार में जाए बिना हो जाता है। गीतकार केवल विसंगति-वर्णन तक सीमित नहीं है, वह सकारात्मक प्रवृत्तियों को भी केंद्र में रखता है। हरिहर जी का संवेदनशील मन 'श्रम' के महत्ता जानता और यह मानता है की जो श्रम नहीं करता वह विलासी बनकर जग-जीवन पर भार हो जाता है।
''बीच-बीच में रस का जायका देती हुई ’गुझिया बन कर है तैयार’, ’मोहित हूँ, तुझ में देख रहा’, ’पतंग एक प्यार है’ जैसी कविताएँ भी हैं।’ 'कंदील बालो’ कुछ वैसे ही भाव से शांतिमय क्रांति का आह्वान करती है। फ्रायड मनुष्य के अंदर जानवर को ढूँढ कर प्रेम के रहस्य की आधी सच्चाई देखता है पर ’धनुष-बाण तेरे घुस आते’ स्वयं अज्ञानी ग्वाला होते हुए भी अपने प्रेम में राधा के दर्शन करता हुआ स्वयं को धन्य महसूस करता है। हमारे शास्त्रों में सामाजिक अवचेतन मन के ऐसे ही बिम्ब हैं जो हजारों वर्षों तक युग के अनुरूप नये नये अर्थ से समाज को पुनर्जीवित रखने की सामर्थ्य रखते हैं।''
विश्ववाणी हिंदी के सम-सामयिक
साहित्य में हर किसी को इस संक्रमण काल में घाट रही घटनाओं का साक्षी होना पड़ रहा
है। यह सुयोग और दुर्योग दोनों है। सुयोग इसलिए कि साहित्य को लगभग हर दिन या अधिक
सटीक हो कहें हर पल अपनी सामर्थ्य और जिजीविषा को श्रवहित के निकष पर कसना पड़ रहा
है, दुर्योग इसलिए कि जितनी अधिक और
जैसी विकराल घटनाएँ इस दौर में घट रही हैं वैसी पूर्व काल में कभी नहीं घटीं। इन
घटनाओं को रेखांकित करना और भाषा देना साहित्यकार का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य होना
चाहिये। वे मानते हैं कि न्यायान्याय का द्वन्द ही माया है। माया इतनी प्रबल कि मायापति को भी नहीं छोड़ती तो शेष की क्या बिसात?
बरगलाती रिसती गिरती, मदमस्ती दामन में छाई
दीप जलता, गुझिया बनकर है तैयार, ग्रीष्म बाला, मोहित हूँ, शंखनाद क्रांति का, तमन्ना तलवार की, कंदील बालो आदि गीत नवता का जयघोष करते हैं। नवगीतों को नकारात्मकता के विकराल पंजे से निकाल कर सकारात्मकता के संसार में जाना अब आवश्यक हो गया है। हरिहर जी ने जहाँ-तहाँ हास्य, श्रंगार, वीर आदि रसों की झलक गीतों में समेटी है, उसे और विस्तार मिलना चाहिए। सभी ९ रसों को नवगीतों में सँजोया जाए तो नवगीत नवजीवन पा सकेगा। हरिहर जी इस दिशा में सचेष्ट हैं, यह संतोष का विषय है।
'प्रश्न खुद बैताल था' शीर्षक सार्थक है। बैताल की कहानियों का बैताल जिस तरह बार-बार राजा के कंधे पर सवार हो जाता है, वैसे ही सामयिक प्रश्न गीतकार के मनस को झिंझोड़ते हैं। प्रश्नों से उलझते-सुलझते मन की ऊहा-पोह ही इन गीतों का कलेवर है। हरिहर जी प्रसंगानुकूल सहज-सरल भाषा का प्रयोग करते हैं। उनका शब्द चयन सटीक है। मुझे पूरा विश्वास है कि हरिहर जी के ये नवगीत पाठक- दरबार में सराहा जाएगा।
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नवगीत संग्रह- प्रश्न खुद वेताल था , नवगीतकार- हरिहर झा, समीक्षक- संजीव वर्मा सलिल , प्रकाशक- सी-१२२, सेक्टर १९, नोयडा- २२०१३०१, कवर- पेपर बैक, पृष्ठ- १२८, मूल्य-५.६ A$ (आस्ट्रेलियन डॉलर),  
ISBN- .978-81-19527-57-1

 
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