गुरुवार, 1 मई 2025

गीतों के तैरते शिकारे- कृष्ण भारतीय

 

लगभग आधी शताब्दी से भी अधिक समय से साहित्य क्षेत्र में सक्रिय श्री कृष्ण कुमार भसीन अर्थात कृष्ण भारतीय अपने गीतों, नवगीतों और गज़लों के माध्यम से उपस्थिति देते रहे हैं। अपनी पहली कृति नवगीत संग्रह, ‘हैं जटायु से अपाहिज हम’ के माध्यम से साहित्य क्षेत्र में सक्रिय होने के बाद कृष्ण भारतीय अब अपना तीसरा नवगीत संग्रह है लेकर उपस्थित हुए हैं।‘गीतों के तैरते शिकारे’ शीर्षक से अपने नए नवगीत संग्रह की विषयवस्तु और शिल्प के द्वारा भारतीय जी ने जो प्रस्तुति दी है वह उनकी निरंतरता और विकास को दर्शा रही है। 

हिन्दी की गीतात्मक सर्जना में जो अराजकता उत्पन्न हो गयी है और अधिकांश गीतकार अपनी रचनाओं को नवगीत कहकर प्रस्तुत कर रहे हैं, उनके बीच किसी वरिष्ठ नवगीतकार का अपने समृद्ध लेखन को लेकर प्रकट होना रचनात्मक और समीक्षात्मक स्तर पर आकर्षित करता है। यह अराजकता रचनात्मक लेखन में ही नहीं बल्कि मूल्याँकन के क्षेत्र में भी दीख रही है जहां मूल्याँकन रचनाकेन्द्रित न होकर व्यक्तिकेन्द्रित होता जा रहा है। कहीं-कहीं यह प्रवृत्ति विधागत स्तर पर भी देखने को मिलती है जहाँ तथाकथित मुख्यधारा के पद्य-साहित्य में छान्दसिक सर्जना को दुराग्रह और उपेक्षा भाव से देखा जाता है और छंदमुक्त कविता को ही पद्य का वास्तविक साहित्य कहने के प्रतिमान गढ़ लिए गए हैं। ऐसे में आज का नवगीत लेखन कथ्य, शिल्प, वैचारिकी और समय-सापेक्षता के द्वारा तथाकथित मुख्यधारा को हर क्षेत्र में चुनौती दे रहा है। 

कृष्ण भारतीय का लेखन भी अपने समय, परिवेश, घटनाक्रम और सामाजिकता की प्रतिक्रिया मात्र नहीं है बल्कि तात्कालिकता से भविष्य की ओर इंगित करता हुआ दस्तावेज है। कृष्ण भारतीय स्वयं को किसी संकुचित दायरे में नहीं रखना चाहते। उनकी सोच में वैश्विक परिदृश्य के विभिन्न घटनाक्रम और उनसे उत्पन्न निष्कर्षों पर लेखन करना अधिक उचित है उन्होंने अपने प्रस्तुत संग्रह 'गीतों के तैरते शिकारे' में 64 नवगीतों को स्थान दिया है। अपने गीतों के बारे में और अपने समसामयिक लेखन के लिए उनका मानना है कि आज की रचनाकार के सामने विषयों की कोई कमी नहीं है। कथ्य की विविधता के वर्तमान में कार्यरत रचनाकारों के सामने विश्व परिदृश्य के साथ इतने अधिक विषय हैं कि उसे पारंपरिक गीत की काल्पनिक उड़ानों से विमुख होकर यथार्थ के धरातल पर सर्जना करने के विपुल अवसर उपलब्ध हैं। अपने संग्रह की भूमिका में कृष्ण भारतीय स्वयं लिखते हैं :

 ''गीत काल्पनिक उड़ानों से विमुख जीवंत कथ्यों के विश्लेषणात्मक स्वर हैं। आशंकाओं के बादल आच्छादित हैं जो बरसात की शीतल फुहार नहीं बारूद की ओलावृष्टि करते हैं। हर दिन नई आपदा सृष्टि को चुनौती देने पर आसन्न है। गीत को अब कथ्य की तलाश नहीं करनी पडती, नयी सामाजिक, मानवीय चुनौतियाँ स्वयं सृजनकर्ता के सम्मुख खड़ी हैं। 

सोच, चिंतन के मापदंड सकारात्मकता के साथ जीने के पल हैं। विरोध की लंबी लड़ाई को समय का आश्वासन चाहिए। आपदावादी नई नई चुनौतियाँ क्या ये अवसर दे रही हैं हमें? बाकी तो विद्वान चिंतकों का शोधकाल है। ''

यों तो मुक्तक काव्य होने के कारण हर गीत स्वयं में स्वतंत्र कथ्य को लिये होता है। संग्रह के गीतों को और कृष्ण भारतीय की वैविध्यपूर्ण सोच को दृष्टिगत रखते हुए उनका केंद्रीय तत्व उनकी अपनी समझ, सोच और अपना सामाजिक, राजनैतिक, वैश्विक परिदृश्य के भारतीय जनमानस पर होने वाले असर को माना जा सकता है। उसे ही गीतों के माध्यम से व्यक्त करना कृष्ण भारतीय ने अपने लेखन का उद्देश्य माना है। जहाँ समयगत यथार्थ के बहुत से बिन्दुओं पर उन्होंने सहमति व्यक्त की है वहीं बहुत से बिन्दुओं पर असहमतियों को भी व्यक्त करने का उन्होंने अवसर नहीं छोड़ा है। बहुत सी आपत्तियाँ हो सकती है जिन्हें गीतों में सहज रूप से व्यक्त करना भी कृष्ण भारतीय अपना दायित्व समझते हैं। कृष्ण भारतीय केवल विरोध के लिए विरोध में ही नहीं बल्कि एक सकारात्मक और प्रतिपक्ष के प्रवक्ता के तौर पर स्वयं को व्यक्त करते हैं। उनका केवल नकारात्मकता को व्यक्त करना ही उद्देश्य नहीं बल्कि फैली हुई सकारात्मकता को भी सृजन का विषय बनाना है। संग्रह के अंतिम गीत से पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए मैं उनके लेखन की बानगी प्रस्तुत करता हूँ। उनका गीत 'खिले धूप इसकी थोड़ी चर्चा कर लो’ की ध्रुव पंक्तियाँ में उनकी वैचारिकी का संकेत देती है:
'सुबह शाम क्या काली रातों का रोना-
 खिले धूप इसकी थोड़ी चर्चा कर लो’

 इसी गीत में वो आगे लिखते हैं,
‘जंग लगे चिंतन हैं,
सभी विमर्शों के-
सूरज ने कुछ राहु ग्रसने बैठे हैं 
गलबहियाँ डाले इक,
दूजे की हँसकर-
भानमती के कुनबे देखो ऐंठे हैं  
सिंहासन के भूखों जिस पर टिका हुआ-
उस अनूप धरती की भी चर्चा कर लो।’

इसी तरह के उनके अनेक गीत हैं जो उनकी वैचारिकी को प्रकट करते हैं। उनका ‘नज़रिया है परखने का’ शीर्षक का गीत उनकी दृष्टि को और स्पष्ट रूप से प्रकट कर रहा है। गीत की पंक्तियाँ देखिए-
‘तुम्हारे चिंतनों में बस- अँधेरे ही अँधेरे हैं
हमारी सोच में तो- जुगनुओं के भी कबीले हैं।
नजरिया है परखने का- यही तो फर्क है भाई।’

इसी गीत में वे आगे कहते हैं, कि 
‘अगर है रात काली तो- सजग दिनमान भी तो है
हरेक मज़हब की अपनी इक सजी दुकान भी तो है
जो तुम सोचो जो तुम चाहो- कभी वो हो नहीं सकता
नकारा सोच या चिंतन- सभी कहा वो नहीं सकता
प्रशस्ति तुम अंधेरों की- हमें तो सूर्य भाता है 
नजरिया है परखने का-
यही तो फर्क है भाई‘

अपने एक गीत ‘कागज़ का बना एक पुल है’ मैं कृष्ण कहते हैं :
‘कागज़ का बना एक पुल है- कंधे पर भीड़ है लदी।
ख़तरा है बहुत ठीक नीचे- बहती है आग की नदी।’

समय के परिवर्तन से विचारों में परिवर्तन होता है परिस्थितियाँ व्यक्ति की सोच को बदलती है। संग्रह में ’जहाँ पेड़ सूखे, पत्थर, रेतीले टीले हैं’, एक अच्छा गीत है जिसमें कृष्ण भारतीय कहते हैं :
‘वो भी था परिवेश कि रीते थे - पर भरे-भरे  
अब भौतिक सुख लदे कहीं अंदर- पर डरे डरे
पहले फक्कडपन, शाहीशन, था व्यवहारों में-
आज ठहाके ओठों के अंदर हैं- मरे-मरे  ‘

स्वतंत्रता के बाद ७० साल बाद लिखे गये गीत की पंक्तियाँ कृष्ण भारतीय की उस सोच को प्रदर्शित करती है जिसमें इतना समय बीतने के बाद भी आम आदमी के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया भूख, गरीबी, बेबसी आम आदमी के सामने उसी प्रकार खड़ी हुई है। अपने गीत ‘बता कोई बात हुई’ में कृष्ण कहते हैं:
‘सत्तर साल हुए श्रम करते- फिर भी भूखे मर गये गंगाराम।
बता कोई बात हुई ?
इक बिटिया वो भी अनब्याही, हर खटके पर डर गए गंगाराम।
बता कोई बात हुई ?’

इसी गीत में भारतीय आगे कहते हैं:
‘राजाजी तो गद्दी पाकर सच में फूल गये 
व्यथा बेबसी परजा की तो जड़ से भूल गये 
जो भी सोचे सपने सारे ही- प्रतिकूल गये 
कितने गंगा राम मरे फाँसी- पे झूल गये’

कृष्ण भारतीय का कवि न्याय के पक्ष में चिड़िया के माध्यम से आवाज़ उठाते हुए अपने गीत “पंख नोचो, जान ले लो” में कहते हैं :
‘पंख नोचो जान ले लो प्यास से मारो इसे,
किन्तु चिड़िया न्याय की ख़ातिर सदा चिल्लाएगी।’

आगे कहते हैं :
‘देखना ये क्रोध चिड़ियों का फटेगा एक दिन
सैकड़ों की भीड़ इस भूलोक- पर मड़राएगी 
गिद्ध-चीलों-बाज की जो गर्दनें-  अकड़ी है आज 
इन सभी की गर्दनें सब, रौंद डाली जायेंगी  
और यदि थोड़े कबीले चील के बच भी गए
सात पुश्तें भी उन्हीं की याद कर थर्राएँगी।’

साहित्यकार अपने समय का प्रतिपक्ष होता है और अपनी समय-सापेक्षता से हटकर नहीं चल सकता। कृष्ण भारतीय अपनी गीत ‘कृष्ण हूँ मैं’ में महाभारत के पात्रों के माध्यम से पूरा परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं और वर्तमान राजनीति पर प्रहारक कटाक्ष करते हुए कह रहे हैं:
‘साजिशों में लाख के घर भी जलेंगे-
सत्य है दण्डित कड़ा वनवास होगा:
सत्य को ये दंश, सहना ही पड़ेगा 
मौन का भी एक अज्ञातवास होगा  
कृष्ण हूँ मैं इन्द्रप्रस्थ अब पाण्डवों को ही मिलेगा-
मैं समय सापेक्ष मैं तुमको मिलूँगा कृष्ण हूँ मैं!
जब महाभारत कभी दोहराएगा-
मैं समय सापेक्ष मैं तुमको मिलूँगा।’

और राजनीतिज्ञों पर कटाक्ष करते हुए कृष्ण भारतीय अपने एक नवगीत में कहते हैं कि
‘भीड़ के हक में ये जो, चिल्ला रहे हैं 
ये ठहाके भी लगाते जा रहे है।

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इन मुखौटों को मसीहा मत समझना-
ये सियासत के खिलाड़ी हैं समझ लो 
गर टटोलोगे मिलेगा सिर्फ तिनका-
चोर की मक्कार दाढ़ी में समझ लो
ये जो चौपड़ है इसे ललचा रही है-
ये संभलकर गोटियाँ बैठा रहे है।

आध्यात्मिक और तपस्वी होने का ढोंग करने वाले तथाकथित संतों पर भी प्रहारक टिप्पणी करते हुए कृष्ण भारतीय कहते हैं :
‘गंगा के तट पर संतों ने साफ कहा-
हूँ तप, पर आध्यात्मिक नहीं, सियासी हूँ!
वो दधीचि अब कहाँ कि जिनके बज्र बने-
अब हरिद्वार पटा है कलुषित पंडों से 
लहुलुहान खुद्दारी के, टखने टूटे
बीच सड़क पिटकर, गुंडों के डण्डों से
और सियासत भोलेपन का ढोंग किए
हँसती है मैं चंट चतुर अय्याशी हूँ!’

संग्रह के नवगीतों से अनेक उदाहरण दिए जा सकते है जो भारतीय की परिपक्व सोच और समृद्ध लेखन की पुष्टि करते हैं जहाँ कथ्य की विविधता है वहीं पर शिल्प के भी अच्छे प्रयोग हैं। भाषा के स्तर पर कहीं-कहीं पर हमें गुणवत्ता का शिथिल रूप देखने को मिलता है जो कृष्ण भारतीय की मातृभाषा के प्रभाव को दर्शाता है। फिर भी इस अनगढता से अर्थ और आशय को समझने में बहुत कठिनाई नहीं होती। सहज बोधगम्य शैली में रचे गये ये गीत कृष्ण भारतीय के परिपक्व सोच को व्यक्त करने में तो सफल रहे है।

बहुत कुछ कहा जा सकता है इस नवगीत संग्रह के गीतों के बारे में। इस संग्रह के गीत पाठक का ध्यान आकर्षित करते हैं। वैसे हर पाठक की अपनी अलग दृष्टि और विवेक होता है। फिर भी जो नवगीत मुझे अच्छे लगे उसमें, ‘लोग कैसी जी रहे हैं’, ‘बाबूजी! अब क्यों चौड़े में’, 'ऊपर-ऊपर नदी बर्फ की’, ‘बोलो मेरे राम’, 'जहाँ पेड़ सूखे, पत्थर, रेतीले टीले हैं’, 'बताओ! हम कहीं ठहरे कहाँ हैं’, ‘भाप का सुलगा शहर है', ‘झोंपड़ी की बेटियाँ शहज़ादियाँ हैं’, ‘इन हमामों में सभी नंगे खड़े हैं’, 'मैं तुझसे भी चार गुणा अभिलाषी हूँ’, 'प्रार्थना के फूल चुभते हैं’, ‘ओठों पर ताले लटका ले’, 'यक्ष के आधिपत्य में है झील’ आदि भी अपनी विषय वस्तु और शैली के कारण मुझे अधिक अच्छे लगते हैं। संक्षेप में कहा जाए तो कृष्ण भारतीय का यह संग्रह ‘गीतों के तैरते शिकारे’ एक पठनीय, विवेचनीय और विमर्शनीय है।

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नवगीत संग्रह- गीतों के तैरते  शिकारे, नवगीतकार- कृष्ण भारतीय, समीक्षक- जगदीश पंकज, प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, २१२ए, एक्सप्रेस व्यू अपार्टमेंट, सुपर एम आई जी, सेक्टर ९३, नोएडा २०१३०४, कवर- हार्डबाउन्ड, पृष्ठ- १३२, मूल्य- रु.२४९, ISBN- 978-93-92617-90-4

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