मंगलवार, 1 जुलाई 2025

मुखर अब मौन है- डॉ. मधु प्रधान

 

छायावादी भावधारा के जिन साहित्यकारों ने नववगीत के लिए उर्वर सृजन भूमि तैयार करने में प्राण-प्राण से प्रयास किए उनका साहचर्य और उनसे प्रेरणा पाने का सौभाग्य मधु प्रधान जी को मिला है। विरासत को सहेज कर, वर्तमान से जूझने और भविष्य का आशीष-अक्षत से तिलक करने का भाव मधु जी की गीति रचनाओं की प्राणशक्ति रहा है। गीत और छंद की आधारभूत समझकर  नवगीतों के कलेवर को शिल्प सौष्ठव से सुसज्जित कर जीवन में प्राप्त दर्द और पीड़ा को पचाकर मिठास लुटाने के जीवट और पुरुषार्थ का पर्याय मधु जी हैं। पद्मभूषण नीरज जी ने ठीक ही कहा है- "उनके (मधु जी के) भीतर काव्य-सृजन की सहज क्षमता है इसीलिए अनायास-अप्रयास उनके गीतों में बड़े ही मार्मिक बिंब स्वयं ही उतरकर सज जाते हैं।"

छायावादी गीत परंपरा में पली-बढ़ी मधु जी ने सौंदर्यानुभूति को जीवन-चेतना के रूप में अपने गीतों में ढाला है। मधु जी के नवगीत साँस के सितार पर राग और विराग के सुर एक साथ जितनी सहजता से छेड़ पाते हैं वह अनुभूतियों को आत्मसात किये बिना संभव नहीं होता। उनका मानस जगत कामना और कल्पना को इतनी एकाग्रता से एकरूप करता है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अंतर नहीं रह जाता। स्मृतियों के वातायन से झाँकते हुए वर्तमान के साथ चलने में असंगति और स्मृति-भ्रम का खतरा होता है किंतु मधु जी ने स्मृति-मोह (नास्टेलजिया) से बचते हुए पूरी निस्संगता के साथ गतागत के बीच  संपर्क-सेतु बनाते हुए कथ्य के साथ न्याय किया है-

"मेरे मादक / मधु गीतों में / तुमने कैसी तृषा जगा दी। / मैं अपने में ही खोई थी / अनजानी थी जगत रीति से / कोई चाह नहीं थी मन में / ज्ञात नहीं थे गीत प्रीत के / रोम-रोम अब / महक रहा है / तुमने सुधि की सुधा पिला दी।"

सुधियों की सुधा पीकर पीड़ा से बेसुध होता कवि-मन सुध-बुध के साथ सहज-स्वाभाविक समन्वय स्थापित कर पाता है। मधु जी के गीतों में छायावाद (''वे सृजन के / प्रणेता, मैं / प्रकृति की / अभिव्यंजना हूँ , कौन बुलाता / चुपके से / यह मौन निमंत्रण / किसका है, तुम रहे / पाषाण ही / मैं आरती गाती रही, शून्य पथ है मैं अकेली / हो रहा आभास लेकिन / साथ मेरे चल रहे तुम'' आदि) के साथ कर्म योग (''मोह का परिपथ नहीं मेरे लिए / क्यूं (क्यों) करूँ मुक्ति का अभिनन्दन / मैं गीत जन्म के गाऊँगी, धूप ढल गयी, बीत गया दिन / लौट चलो घर रात हो गई'' आदि) का दुर्लभ सम्मिश्रण दृष्टव्य है। वे अभाव से भाव-संसार की सृष्टि में प्रवेश कर समय की आँखों में आँखें डालकर विषमताओं को ललकारती हैं। नारी का सर्वाधिक असरकारक हथियार होता है। मधू जी आँसू बहाती नहीं आँसू का अर्चन करती हैं  - ''दिखी किसी की सजल आँख तो / मेरे भी आँसू भर आये / पीड़ा की थपकी / पाकर ही / मन के बोल अधर पर आये / फिर भी पत्थर / नही पसीजे / आँसू का अर्चन जारी है''। 

मधु जी के लिए नवगीत केवल विसंगति-वर्णन नहीं है। वे नवगीत के माध्यम से समन्वय और सामंजस्य के सोपानों का चरणाभिषेक करती हैं- 

''आस्था के इस सफर में / शूल भी हैं, फूल भी हैं / हैं बहुत / तूफान लेकिन / शान्त सरिता कूल भी हैं / सीख लें सुख-दुख निभाना।''

'सीख लें सुख-दुःख निभाना' जैसे जीवनोपयोगी संदेशों ने मधु जी की गीति रचनाओं को समाजोपयोगिता से समृद्ध किया है। हिंदी साहित्य विशेषकर नवगीत, कहानी, व्यंग्यलेख और लघुकथाओं जैसी विधाओं को वामपंथी विचारधारा के कैदी रचनाकारों ने सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं, अतिरेकी वर्ग संघर्षों हुए शोषण आदि तक सीमित रखने का दुष्प्रयास किया। सम विचारधारा के अनुनायी समीक्षकों ने इन विधाओं के विधान को भी अपनी वैचारिक मान्यताओं के अनुरूप ढालकर कृतियों का मूल्याङ्कन और कृतिकारों को श्रेष्ठ बताने के निरंतर प्रयास किए। इस आँधी में सनातन मूल्यपरक सर्वकल्याणकारी साहित्य रचनेवाले रचनाधर्मी उपेक्षित किए जाने से आहत हुए। कई ने अपनी वैचारिक राह बदल ली, कुछ ने सृजन से न्यास ले लिए किन्तु मधु जी तूफान में जलती निष्कंप दीपशिखा की भाँति मौन संघर्ष करती हुई सृजनरत रहीं। पारिवारिक संकट भी उनके सृजन-पथ को अवरुद्ध नहीं कर सके। मधु जी ने सृजन को अपनी जिजीविषा की संजीवनी बन लिया। नमन तुम्हें मेरे भारत (राष्ट्रीय भावधारा परक गीत संग्रह), आजादी है सबको प्यारी (बाल गीत संग्रह) तथा माटी की गंध (कविता संग्रह) जैसी नवगीतेतर कृतियों में भी मधु जी जमीन से जुड़ाव की यथार्थपरकता को, जो नवगीतों की मूलशक्ति है, दूर नहीं होने दिया। वे साहित्यिक पत्रों को प्रतीकों के रूप में उपयोग करते हुए कहती हैं- 'होरी के आँगन में फागुन / रूपा के माथे पर रोली / चौक अँचरती झुनिया का सुख / नन्हें की तुतली सी बोली / बिना महाजन का मुँह जोहे / काज सभी सरते देखे हैं'। नमन तुम्हें मेरे भारत गीत संग्रह से उद्धृत ये काव्य पंक्तियाँ शोषण मुक्त होते समाज का शब्द-चित्र प्रस्तुत करता है। इसी संकलन में 'अनछुई राहें बुलातीं / टेरता है इक नया पल', 'जीवन है अमलतास तरु सा / जो कड़ी धूप में है खिलता', 'खेत जोतते हीरा-मोती / घर में दही बिलोती मैया', 'कितनी विषम परिस्थितियाँ हों / पर हम हार नहीं मानेंगे।', 'उठ सके न कोई आँख इधर / प्राणों में ऐसी शक्ति भरो' आदि गीत पंक्तियाँ संकेतित करती हैं कि मधु जी नवगीत को बदलते देश-समाज के साथ कदम से कदम मिलकर उड़ने वाला गीत-पाखी मानती हैं। नवगीत को परिभाषित करते हुई मधु जी लिखती हैं- 'वेदना की कोख से जन्मे हुए नवगीत को / पाँव के छाले छुपाकर मुस्कुराती प्रीत को / स्नेह का प्रतिदान दे सुधि में बसाना चाहते हैं / चेतना के गीत गाना चाहते हैं'। स्पष्ट है कि मधु जी नवगीत को वेदना से जन्मा, दर्द छिपाकर प्रीत बिखेरता, चेतना संपन्न गीति रचना मानती हैं।

सामान्यत: बालगीत और नवगीत दो भिन्न विधाएँ मानी जाती हैं। मधु जी ने बाल गीतों में नवगीतीय तत्वों का सम्मिश्रण किया है। तथाकथित प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक जिस आजादी का महत्त्व बताने के लिए नवगीतों में जमीन-आसमान एक कर देते है उसे ही मधु जी गागर में सागर की तरह संक्षिप्तता, सहजता तथा सरलता अहित इस प्रकार गीतित करती हैं कि बाल मानस बिना किसी कठिनाई के आजादी का महत्त्व ग्रहण कर सके- 'पिजरे का तुम द्वार हटाओ / मुझको आजादी दिलवाओ / रोज सवेरे मैं आऊँगी / तुमको गीत सुना जाऊँगी / सबसे सुंदर सबसे न्यारी / आजादी है सबको प्यारी' -(आजादी है सबको प्यारी पृष्ठ १०)

नवगीत में जमीन से जुड़ाव और यथार्थ को अनिवार्य माननेवाले 'यद्यपि मेरी देह खड़ी है / ईटों के जंगल में / पर मेरे रोम रोम में / अंतर में बसी है / उस माटी की गंध / जहाँ मेरा बचपन गुजरा है' जैसी काव्य पंक्तियों में मधु जी नवगीत के तत्वों को कविताओं में ढालती हैं। घर की ओर लौटते हुए पंछियों का समूह, धरती कभी बंजर नहीं होती, गांधारी कभी मत बनना, सपने तो टूटते ही हैं जैसी अभिव्यक्तियाँ मधु जी की कविताओं में नवगीततीय तत्वों की उपस्थिति संकेतित करती है। नकारात्मक ऊर्जा को नवगीतों की पहचान माननेवालों से मधु जी शालीनतापूर्वक कहती हैं- 'तुम देख रहे बस काँटों को / मैं गीत फूलों को दुलराऊँगी' तथा 'नीरव मरघट में शांति कहाँ / मंदिर में दीप जलाऊँगी'।     

मधु जी रचित 'मुखर अब मौन है' प्रथम कृति है जिसमें गीत की नवगीतीय भंगिमा पूरी जीवसंतता के साथ उपस्थित है। विश्ववाणी हिंदी के गीति काव्य की छायावादी विरासत को सहेजने-सम्हालने ही नहीं जीनेवाली वरिष्ठ गीतकार डॉ. मधु प्रधान की बहु प्रतीक्षित कृति है मुखर अब मौन है । छायावादी भावधारा को साहित्यकारों की जिस पीढ़ी ने प्राण-प्राण से पुष्पित करने में अपने आपको अर्पित कर दिया उनका साहचर्य और उनसे प्रेरणा पाने का सौभाग्य मधु जी को मिला है। मधु जी के इन गीतों में यत्र-तत्र मधु की मिठास व्याप्त है। जीवन में प्राप्त दर्द और पीड़ा को पचाकर मिठास के गीत गाने के लिए जिस जीवट और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है वह मधु जी में है। पद्मभूषण नीरज जी ने ठीक ही कहा है- "उनके भीतर काव्य-सृजन की सहज क्षमता है इसीलिए अनायास-अप्रयास उनके गीतों में बड़े ही मार्मिक बिंब स्वयं ही उतरकर सज जाते हैं।"

छायावादी गीत परंपरा में पली-बढ़ी मधु जी ने सौंदर्यानुभूति को जीवन-चेतना के रूप में अपने गीतों में ढाला है। उनका मानस जगत कामना और कल्पना को इतनी एकाग्रता से एकरूप करता है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अंतर नहीं रह जाता। स्मृतियों के वातायन से झाँकते हुए वर्तमान के साथ चलने में असंगति और स्मृति-भ्रम का खतरा होता है किंतु मधु जी ने पूरी निस्संगता के साथ कथ्य के साथ न्याय किया है-

"मेरे मादक / मधु गीतों में / तुमने कैसी तृषा जगा दी। / मैं अपने में ही खोई थी / अनजानी थी जगत रीति से / कोई चाह नहीं थी मन में / ज्ञात नहीं थे गीत प्रीत के / रोम-रोम अब / महक रहा है / तुमने सुधि की सुधा पिला दी।" सुधियों की सुधा पीकर बेसुध होना सहज-स्वाभाविक है।

मधु जी के ये गीत साँस के सितार पर राग और विराग के सुर एक साथ जितनी सहजता से छेड़ पाते हैं वह अनुभूतियों को आत्मसात किये बिना संभव नहीं होता।

"प्राणी मात्र / खिलौना उसका / जिसमें सारी सृष्टि समाई ... आगत उषा-निशा का स्वागत / ओस धुले पथ पर आमंत्रण पर मन की उन्मादी लहरें

खोज रहीं कुछ मधु-भीगे क्षण / किंतु पता / किसको है किस पल / ले ले समय / विषम अंगड़ाई।"

उनके गीतों में छायावाद (वे सृजन के / प्रणेता, मैं / प्रकृति की / अभिव्यंजना हूँ , कौन बुलाता / चुपके से / यह मौन निमंत्रण / किसका है, तुम रहे / पाषाण ही / मैं आरती गाती रही, शून्य पथ है मैं अकेली / हो रहा आभास लेकिन / साथ मेरे चल रहे तुम आदि) के साथ कर्म योग (मोह का परिपथ नहीं मेरे लिए / क्यूं (क्यों) करूँ मुक्ति का अभिनन्दन / मैं गीत जन्म के गाऊँगी, धूप ढल गयी, बीत गया दिन / लौट चलो घर रात हो गई आदि) का दुर्लभ सम्मिश्रण दृष्टव्य है।

काव्य प्राणी की अन्तश्चेतना में व्याप्त कोमलतम अनुभूति की ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति है। इसमें जीवन के हर उतार-चढ़ाव, धूप-छाँव, फूल-शूल, सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इस तरह होती है कि व्यक्ति का नाम न हो और प्रवृत्ति का उल्लेख हो जाए। कलकल और कलरव, नाद और ताल, रुदन और हास काव्य में बिंबित होकर 'स्व' की प्रतीति 'सर्व' के लिए ग्रहणीय बनाते हैं। मधु जी ने जीवन में जो पाया और जो खोया उसे न तो अपने तक सीमित रखा, न सबके साथ साझा किया। उन्होंने आत्मानुभव को शब्दों में ढालकर समय का दस्तावेज बना दिया। उनके गीत उनकी अनुभूतियों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि वे स्वयं अनुपस्थित होती हैं लेकिन उनकी प्रतीति पाठक / श्रोता को अपनी प्रतीत होती है। इसीलिये वे अपनी बात में कहती हैं- "रचनाओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण कारक होते हैं जो सृजन को जमीन देते हैं और उनका पोषण करते हैं। वे बीज रूप में अंतस में बैठ जाते हैं और समय पाकर अंकुरित हो उठते हैं।"

रचनाकार की भावाकुलता कभी-कभी अतिरेकी हो जाती है तो कभी-कभी अस्पष्ट, ऐसा उसकी ईमानदारी के कारण होता है। अनुभूत को अभिव्यक्त करने की अकृत्रिमता या स्वाभाविकता ही इसका करक होती है। सजग और सतर्क रचनाकार इससे बचने की कोशिश में कथ्य को बनावटी और असहज कर बैठता है। 'काग उड़ाये / सगुन विचारे' के सन्दर्भ में विचारणीय है कि काग मुंडेर पर बैठे तो अतिथि आगमन का संकेत माना जाता है (मेरी अटरिया पे कागा बैठे, मोरा जियरा डोले, कोई आ रहा है)।

"कहीं नीम के चंचल झोंके / बिखरा जाते फूल नशीले" के संदर्भ में तथ्य यह कि महुआ, धतूरा आदि के फूल नशीले होते हैं किंतु नीम का फूल नशीला नहीं होता। इसी प्रकार तथ्य यह है कि झोंका हवा का होता है पेड़-पौधों का नहीं, पुरवैया का झोंका या पछुआ का झोंका कहा जाता है, आम या इमली का झोंका कहना तथ्य दोष है।

'मेरे बिखरे बालों में तुम / हरसिंगार ज्यों लगा रहे हो' के सन्दर्भ में पारंपरिक मान्यता है कि हरसिंगार, जासौन, कमल आदि पुष्प केवल भगवान को चढ़ाए जाते है। इन पुष्पों का हार मनुष्य को नहीं पहनाया जाता। बालों को मोगरे की वेणी, गुलाब के फूल आदि से सजाया जाता है।

मधु जी का छंद तथा लय पर अधिकार है, इसलिए गीत मधुर तथा गेय बन पड़े हैं तथापि 'टु एरर इज ह्युमन' अर्थात 'त्रुटि मनुष्य का स्वभाव है' लोकोक्ति के अनुसार 'फूलों से स्पर्धा करते (१४) / नए-नए ये पात लजीले (१६) / कहीं नीम के चंचल झोंके (१६) / बिखरा जाते फूल नशीले (१६) के प्रथम चरण में २ मात्राएँ कम हो गयी हैं। यह संस्कारी जातीय पज्झटिका छंद है जिसमें ८+ गुरु ४ + गुरु का विधान होता है।

केन्द्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा निर्धारित वर्तनी मानकीकरण के प्रावधानों का पालन न किए जाने से अनुस्वार (बिंदी) के प्रयोग में कहीं-कहीं विसंगति है। देखें 'सम्बन्ध', 'अम्बर' तथा 'अकंपित'। इसी तरह अनुनासिक (चंद्र बिंदी) के प्रयोग में चूक 'करूँगी' तथा 'करूंगी' शब्द रूपों के प्रयोग में हो गयी है। इसी तरह उनके तथा किस की में परसर्ग शब्द के प्रयोग में भिन्नता है। उद्धिग्न (उद्विग्न), बंधकर (बँधकर), अंगड़ाई (अँगड़ाई), साँध्य गगन (सांध्य गगन), हुये (हुए), किसी और नाम कर चुके (किसी और के नाम कर चुके), भंवरे (भँवरे), संवारे (सँवारे), क्यूं (क्यों) आदि में हुई पाठ्य शुद्धि में चूक खटकती है।

डॉ, सूर्यप्रसाद शुक्ल जी ने ठीक ही लिखा है "जीवन सौंदर्य की भावमयी व्यंजन ही कल्पना से समृद्ध होकर गीत-प्रतिभा का अवदान बनती है.... मानस की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द-सामर्थ्य की एक सीमा तो होती है, जहाँ वाणी का विस्तार भाव-समाधि में समाहित हो जाता है... इस स्थति को ही 'गूँगे का गुड़' कह सकते हैं। 'मुखर अब मौन है' में जिस सीमा तक शब्द पहुँचा है, वह प्रिय स्मृति में लीन भाव समाधी के सूक्ष्म जगत का आनंदमय सृजन-समाहार ही है जिसमें चेतना का शब्दमय आलोक है और है कवयित्री के सौंदर्य-भाव से प्रस्फुटित सौंदर्य बोध के लालित्य का छायावादी गीत प्रसंस्करण।"

संकलन के सभी गीत मधु जी के उदात्त चिंतन की बानगी देते हैं। इन गीतों को पढ़ते हुए महीयसी महादेवी जी तथा पंत जी का स्मरण बार-बार हो आता  है - 'कोई मुझको बुला रहा है / बहुत दूर से / आमंत्रण देती सी लहरें / उद्वेलित करतीं / तन-मन को / शायद सागर / का न्योता है / मेरे चिर प्यासे / जीवन को / सोये सपने जगा रहा है / बहुत दूर से' अथवा 'भूल गए हो तुम मुझको पर / मैं यादों को पाल रही हूँ या 'कहीं अँधेरा देख द्वार पर / मेरा प्रियतम लौट न जाए / देहरी पर ही खड़ी रही मैं / रात-रात भर दिया जलाये / झंझाओं से घिरे दीप को / मैं यत्नों से संभाल रही  हूँ' आदि में प्रेम की उदात्तता देखते ही बनती है। मधु जी का यह गीत संग्रह नयी पीढ़ी के गीतकारों को अवश्य पढ़ना चाहिए. भाषिक प्रांजलता, सटीक शब्द चयन, इंगितों में बात कहना, 'स्वानुभूति' को 'सर्वानुभूति' में ढालना, 'परानुभूति' को 'स्वानुभूति' बना सकना सीखने के लिए यह कृति उपयोगी है। श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार मधु जी की रचनाएँ नई पीढ़ी के लिए मानक की तरह देखी जाएँगी, इसलिए उनका शुद्ध होना अपरिहार्य है।

यह निर्विवाद है कि 'नवगीत' में 'गीत' होना ज़रूरी है। जन सामान्य किसी भी गुनगुनाई जा सकनेवाली शब्द रचना को गीत कह लेता है। संगीत में किसी एक ढाँचे में रची गई समान उच्चार कालवाली कविता जिसे ताल में लयबद्ध करके गाया जा सके, वह गीत की श्रेणी में आती है, किन्तु साहित्य के मर्मज्ञों ने गीत और कविता में अन्तर करने वाले कुछ सर्वमान्य मानक तय किये हैं। छन्दबद्ध कोई भी कविता गाई जा सकती है पर उसे गीत नहीं कहा जाता। गीत एक प्राचीन विधा है जिसका हिंदी में व्यापक विकास छायावादी युग में हुआ। गीत में स्थाई और अंतरे होते हैं। स्थाई और अन्तरों में स्पष्ट भिन्नता होनी चाहिये। प्राथमिक पंक्तियाँ जिन्हें स्थाई कहते हैं, प्रमुख होती है, और हर अन्तरे से उनका स्पष्ट सम्बन्ध दिखाई देना चाहिये। गीत में लय, गति और ताल होती है। इस तरह के गीत में गीतकार कुछ मौलिक नवीनता ले आये तो वह नवगीत कहलाने लगता है।

राजेन्द्र प्रसाद सिंह (१९३०-२००७) ने बतौर संपादक लिखा था : "नयी कविता के कृतित्व से युक्त या वियुक्त भी ऐसे धातव्य कवियों का अभाव नहीं है,जो मानव जीवन के ऊंचे और गहरे, किन्तु सहज नवीन अनुभव की अनेकता, रमणीयता, मार्मिकता, विच्छित्ति और मांगलिकता को अपने विकसित गीतों में सहेज संवार कर नयी ‘टेकनीक’ से, हार्दिक परिवेश की नयी विशेषताओं का प्रकाशन कर रहे हैं । प्रगति और विकास की दृष्टि से उन रचनाओं का बहुत मूल्य है, जिनमें नयी कविता की प्रगति का पूरक बनकर ‘नवगीत’ का निकाय जन्म ले रहा है । नवगीत नयी अनुभूतियों की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार होगा, जिसमें अभिव्यक्ति के आधुनिक निकायों का उपयोग और नवीन प्रविधियों का संतुलन होगा ।”

‘गीतांगिनी’ के सम्पादकीय में राजेंद्र प्रसाद सिंह ने नवगीत के पाँच विकासशील तत्व जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व-बोध, प्रीति-तत्व और परिसंचय बताए हैं। ‘नवगीत’ के पूर्व गीतों में दर्शन की प्रचुरता थी- जीवन दर्शन की नहीं; धर्म, नैतिकता और रहस्य की निष्ठा का स्रोत था- व्यावहारिक आत्मनिष्ठा का नहीं; व्यक्तिवादिता थी- व्यक्तित्व-बोध नहीं, प्रणय-शृंगार था,-जीवनानुभव से अविभाज्य प्रीति-तत्व नहीं, तथा सौंदर्य एवं मार्मिकता के प्रदत्त प्रतिमान थे,- प्रेरणा की विविध विषय-वस्तुओं के परिसंचय का सिलसिला नहीं। निराला ने अपनी एक रचना में इस ओर संकेत करते हुए कहा है- नव गति, नव लय, ताल, छंद नव। यही आगे चलकर नवगीत की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ मानी गईं। नवगीत में कथ्य, भंगिमा, बिंब, उपमान, प्रतीक और शब्द को नवता की कसौटी मानते हुए रचनाओं को परखा जाना चाहिए। आवश्यक नहीं कि एक नवगीत में इन सभी तत्वों की नवता लेकिन कुछ नवता ज़रूरी है। नवगीत में पारंपरिक पर नव छंद को वरीयता दी जान चाहिए पर पारंपरिक छंद को वर्जित नहीं मन जा सकता। छंद में बहाव हो लय का सौंदर्य हो, ताकि गीत में माधुर्य बना रहे। इस निकष पर मधु जी के द्वितीय नवगीत संकलन 'गीत विहग उतरे' पर दृष्टि डालना रोचक है।

मधु जी के शब्दों में 'लय तो जीवन के साथ जुड़ी है, श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह  में लय समाहित है। ..... काव्य सृजन में सब कुछ समाहित हो जाता है प्रेम, वत्सल्य, वियोग, वितृष्णा और घायल मन का दर्द, अभाव में घटते लोगों की उसाँसें भी।' स्वाभाविक है कि मधु जी के नवगीत यही सब समाहित किए हों। इस संग्रह के गीतों में हृदय की सघन संवेदना, आनुभूतिक तरलता, भाषी सरलता और बैंबिक स्पष्टता सहज दृष्टव्य है। इन गीतों का रसपान करते समय अभिव्यक्ति की सीपियों में अनुभूति के मोती आभा बिखेरते मिलते हैं। इन नवगीतों को वैचारिक प्रतिबद्धता की तुला पर तोलना निरथक व्यायाम होगा। इनमें जीवन का मांगल्य भाव प्रतिष्ठित है। ये नवगीत वातायन से दिखते खंडित आकाश को नहीं, गिरी शिखर से दिखते अनंत नीलकाश को पंक्ति-भुजाओं में समेटे हैं। वैयक्तिक-पारिवारिक और सामाजिक जीवन फलक पर घटित होती ऊँच-नीच को शब्दित करते मधु जी के नवगीत प्रकृति के आँचल मरण प्रेम और पीड़ा की अठखेलियाँ समेटे हैं। नातों की सच्चाई, सत्ता की निरंकुशता, राजनैतिक-सामाजिक जियावाँ में मूल्य-ह्रास, कृषकों-श्रमिकों का शोषण, साक्षारों में व्याप्त असंतोष, कर्तव्य भाव की न्यूनता आदि विविध दृश्य इस संग्रह को सम-सामयिक परिदृश्य का आईना बनाते हैं। 

कवयित्री पाखंडियों से सचेत करते हुए कहती है- 'रेत-रेत हो / रही जिंदगी / देख रहे सब एक तमाशा / छुरी छिपाये / वधिक हाथ में / बोल रहे संतों की भाषा / सावधान हो / स्वर के साधक / सर्पों ने बदला है बाना'। 

समाज और परिवार में हो रहा विघटन मधु जी की चिंता का केंद्र है- 'रिश्तों में अब / शेष नहीं हैं मर्यादाएँ / शेष मात्र हैं ताने-बाने ॥। धूप ढाल गई / दोपहरी में / कुदरत जाने क्या है ठाने? ॥। कैसे सिलें / फटी कथरी को / बिखर गए हैं ताने-बाने? ... हुआ भीड़ में गुम अपनापन / खोज रहा अपनी पहचानें'।

पर्यावरणीय प्रदूषण और प्राकृतिक आपदा गीतकार को व्यथित करती हैं। वह अमिधा में अपनी अनुभूतियाँ व्यक्त करती है- 'रूठकर मत जा रे / बदरा रूठकर / दरकता है हिय धरा का / अधूरी है चिर पिपासा / म्लान मुख अवसाद घेरे / आज तो ठहरो जरा सा / सब्र का न बाँध टूटे / बिखर जाए ना रे कजरा'। 

गाँवों से लगातार शहरों की ओर होता पलायन आर्थिक ताना भले ही जोड़ दे पर पारिवारिक बाना तो अस्त-व्यस्त हो ही जाता है। श्वास-प्रश्वास की तरह ग्राम्य और नागर दोनों परिवेशों की आनुभूतिक समृद्धता संपन्न मधु जी पीपल के वृक्ष के माध्यम से मन की व्यथा-कथा कहती है- 'ठहर जो / ओ! प्रवासी / तनिक पीपल छाँव में / कौन जाने कल यहाँ / हम हों न हों / हो रहे हैं खंडहर घर / रेत सी झरने लगी है / नोना लगी दीवार भी /  आह सी भरने लगी है / अब दिया जलता नहीं / वीरानियाँ हैं गाँव में / आह सी भरने लगी है / खेत हरियाले बिके सब / ईंट-पत्थर उग रहे / आ गए हैं बाज, दाना / पंछियों का चुग रहे / जल रही संवेदना / कंकड़ चुभे हैं पाँव में / कौन जाने कल / यहाँ हम हों न हों।' 

पारिस्थितिक विषमता जीवन को रसहीन करती जाती है। समय-चक्र ठिठककर देखता रहता है और कोयल की कूक हर्ष के स्थान पर दर्द को गाती है- 'मौसम सब / रसहीन हो गए / ऐसा चला वक्त का पहिया / सभी ठौर पर ठिठक गए हैं / हवा चली कुछ ऐसी / सब के सब अपने में ठिठक गये हैं / जो मंसूबे बाँध चले थे / पात ढाक के तीन हो गये / कोयल कूक रही पर लगता / दर्द किसी का है दुहराती / टूट-टूट कर बिखर रही है / बहुत दिनों से मिली न पाती / खोया मीठापन / कूपों का / खारे कुछ नमकीन हो गए'।

लोकतंत्र में लोक पर तंत्र हावी हो, आश्वासन की मदिरा युवा को बेबस कर बेसहारा कर दे तो आग लगने की संभावना होती है। नवगीतकार का ऐसी स्थिति में चिंतित होना स्वभावैक है- 'बदल गया है / मौसम का रुख / सूखे खेत चटकती धरती / नगर-नगर में, गली गली में / प्यास-प्यास का शोर मचा है / पर बादल से / जल के बदले / आश्वासन की मदिरा झरती / सपने थे आँखों में पर अब / मात्र बेबसी छलक रही है / गिरवी खुशियाँ / कुंठाओं में / सांसें अपराधों सी चलतीं / आक्रोशों की पौध बढ़ रही / मुरझाई आस्था की बालें / कहीं व्यवस्था / सुलग न जाए / युवा मानों में / आग मचलती'।

नवगीतकार मधु प्रधान का वैशिष्ट्य तमाम विसंतुयों, कमियों, अभावों आदि को स्वीकारते हुए भी आशा के आकाश को कम न होने देना है। उनके नवगीत निराश पर आशा की जय बोलते हैं, जीवन में रस घोलते हैं- 'कब तक रोयेंगे बीते को / चलो नये प्रतिमान गढ़ें हम' कहते हुए मानवीय जिजीविषा को नव राह और नव लक्ष्य दिखाते हैं ये नवगीत- 'माना कठिन समय है लेकिन, फिर भी कुछ तो सुविधाएँ हैं / लेकिन कदम बढ़ाते डरते / मन में कैसी द्विविधाएँ हैं / ठिठकें नहीं पैर अब बढ़कर / नए नए उपमान गढ़ें हम'।

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नवगीत संग्रह- मुखर अब मौन है, रचनाकार- डॉ. मधु प्रधान, प्रकाशक- वी.पी.पब्लिशर्स डब्लू २, ८६२ बसंत विहार, नौबस्ता, कानपुर, मूल्य- रु, २५०, ----, पृष्ठ- १९२, परिचय- संजीव सलिल, ISBN: ----

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