शब्द पानी हो गए अवनीश त्रिपाठी के ४८ नवगीतों का संग्रह है। इन गीतों में सामाजिक विद्रूपताओं और विखंडनवादी शुष्क जटिल अनुबंधों को तोड़ने के लिए ग्राम्य प्रकृति का अंचल काव्यानुभूति की संवेदना परक तरलता को बल मिलता दिखाई देता है। वरिष्ठ समीक्षक ओम निश्चल जी कहते हैं– गाँव में वक्तव्य नहीं होता, बतकही होती है। बतरस का यह सौंदर्य ब्रज की गलियों में सदियों से छितराया हुआ है, ‘आधुनिकता के ऐन्द्रिय सौंदर्य के बीच गाँव रह रह कर अवनीश की कविता पर चाँदी के वर्क की तरह मौजूद है।’
रिक्त और क्षुब्ध मन के साथ चलते और जीवन की प्रत्येक कठिनाई को निर्लिप्त भाव से सहते आम आदमी की वेदना परक असहजता ग्रामीण मन को जिस भाँति विचलित करती है, उसे अवनीश त्रिपाठी के गीतों में बहुत गहरी संवेदना के साथ महसूस किया जा सकता है। —“गीत पल छिन ज़िंदगी के साथ ही चलता रहा
खेत में खलिहान में बस तल्खियां उगती रहीं
गीत घुघूर घंटियों में अनवरत ढलता रहा।”
उनके गीतों में सत्ता का उन्माद आम जन के जीवन से रत्ती रत्ती ख़ुशियाँ छीनने को किस प्रकाऱ उद्धत है, कौन सा आकाश हमारा है और कौन सी धरती का टुकड़ा हमारा इस पर कैसा प्रमाद है, उत्सव की हर तारीख़ किस प्रकार अपने इतिहास में आक्रोश विक्षोभ और विध्वंस छुपाए हुए है इसे वे बड़े ही सशक्त रूप से आकार देते हैं—
“हर उत्सव में शामिल हैं जब विच्छेदन की काली तिथियाँ
धरती पर रहने वालों तुम तब भी क्या आकाश गढ़ोगे
सत्ताओं की गिद्ध दृष्टि में लाशों की गिनती बाक़ी है
सोचो समझो जानो बूझो क्या तुम ज़िंदा बचे रहोगे।”
मन और तन का सुंदर दर्पण वास्तव में प्रेम ही होता है, चुप्पियाँ ही जहाँ वाचाल होती हैं—“कर्पूरी रातों में संदल परछाईं रतनार / सगुन पंछियों की आहट पर खोल दिया मन द्वार / होंठ सिले रह गये सुमन के चुप बैठी कचनार।” प्रेम के कुछ सुंदर चित्र उनके गीतों में देखने को मिलते हैं। रचनाकार का संवेदनशील मन कहीं ना कहीं विस्मित है, कि नायिका का त्वरित संचालित मन कितना सुघड़ कलाकार है, उसे समझ भी नहीं आया तब तक गीत रचे जा चुके थे, सावन और आषाढ़ सा भीगा भीगा मादकता ओढ़े मन तरल अनुभूतियों को जीने भी लगा, शब्दों का आडंबर व्यर्थ हैं इस पटल पर! संयोग की कथा रात और दिन में नये रसपगे अध्याय भी रचने लगी—
“तुम सलीक़े से उतर कर याद में
छंद नयनों से नया लिखने लगीं
मैं अभी तक अर्थ भी समझा नहीं
और वंचक शब्द पानी हो गए
मन हुआ आषाढ़ तन सावन हुआ
गुदगुदी पुरवाइयाँ करने लगीं
रात भर हमने कथानक जो बुने
भोर तक पूरी कहानी हो गए।”
बन्द खिड़की की व्यंजना से रचनाकार शुष्क अनुभूतियों को, देह को दंश देते घटना क्रम को उसके क्रूरतम पीड़ा के रहस्य को घटता हुआ समझ जाता है—“बंद खिड़की पर कई हैं प्रश्न लेकिन / सभ्यता की आँख में चुभते नहीं है / अलगनी दीवार कमरे चुप सभी हैं / जानते हैं क्या हुआ / कहते नहीं है।” सामाजिक विषमताओं से भरी इस दुनिया में प्रश्न ही प्रश्न हैं, बहुत से तो ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर सदियाँ खोज रहीं हैं लेकिन वे मिले नहीं अभी तक, रोज़ नये समीकरण बनाती बिगाड़ती आज की राजनीति किसी तानाशाह की मानिंद लोकतंत्र को चलाती है—“सोशल दीवारों पर चिपके / कई दिनों से हैं विज्ञापन / सुनता हूँ आपात काल है / प्रश्न खड़े सब चार हाथ के / उत्तर पहुँच गये हैं बावन / सुनता हूँ आपात काल है।” दुःख कभी कह कर नहीं आता, पर भाग्यहीन के घर से वह कभी जाता भी नहीं है, समय की निरंतर प्रतिकूलता उस व्यक्ति पर कितनी भारी पड़ती है जो बरसों से आस लगाये बैठा हो, कि उसके भी दिन कभी बहुरेंगे— “अवसर वादी हर सवाल के उत्तर हुए फ़िज़ूल/ उगने को आतुर हैं फिर से दुख के हरे बबूल/ समझौतों के नाम रहे कुछ थके हुए प्रस्ताव/ युद्धों की चिंता में फिर से हरे हुए हैं घाव/ सिरहाने से पैताने तक समय हुआ प्रतिकूल।”
गाँवों में अभी भी थोड़ी बहुत हरियाली और मनुष्यता बची हुई है, जल जंगल ज़मीन भी शेष है, शुद्ध पर्यावरण भी कुछ-कुछ साँसे ले रहा है, इसलिए गाँव में रहने का अभ्यस्त मन शहरों की आपाधापी से, चीखते चिल्लाते शोरगुल करते वातावरण से मुक्त होकर बार-बार वही गाँव में जाना चाह रहा है, शहरों में ग़रीब मज़दूरों को महँगाई ढंग से रोटी भी नहीं खाने देती, आये दिन बलात्कार और घिनौने दुष्कर्म देखकर हृदय दो टूक हुआ जाता है, घायल गौरैया का रूपक बहुत अच्छा बन पड़ा है यहाँ—
“महानगर की मनमानी से ऊब चुका है गाँव
खींच रही महँगाई डायन झोपड़ियों की खाल
अर्बन बिल्डिंग ऊँची-ऊँची रूलर है बेकार
घायल गौरैया की चीखें सुनता सारा गाँव।”
अवनीश जी की रचना की अंतर्वस्तु है आम जन जीवन की त्रासदी। आज इस विडंबना पूर्ण आस्थाहीन समाज के दोहरे चेहरे इतने गुंजलकों में गुँथ चुके हैं, कि उन्हें अलग अलग करके सबकी निशानदही करना असंभव है, कृत्रिम ज्ञान के जमाने में जहाँ सूचनाओं से और नक़ली चेहरों से ही आम राय बनती हो, और रातोंरात सत्ताएँ पलट जाती हों, सिर्फ़ झूठ को क्रमबद्ध तरीक़े से फ़ैलाने से ही। वहाँ किसी तरह के न्याय और सिद्धांत की उम्मीद करना ही बेमानी है, इस चुग़लख़ोर समय में हम सत्य को रोज़ ही नीलाम होते देखते हैं—“उम्मीदों की पगडंडी पर केवल राम जुहारी है / आश्वासन के बौने चेहरे आरोपों के साये में / शब्दों के राडार जुड़ गये अपने और पराये में / वर्तमान में संघर्षों का हर चाणक्य मदारी है।”
संस्कृतियों का भी अजब घाल मेल है आज की दुनिया में! रचनाकार स्तब्ध है बदले समीकरणों के इस दौर में—“शब्द सभी कृष्ण हुए अर्थ हुए पार्थ / आस्था के बीच खड़े निर्झर संवाद / संयम के साथ बहा मोह का निनाद / जाग रहे बुद्ध मगर सोया सिद्धार्थ।” राजनीति अब अपना ध्येय साधती है, चुनावी वायदे सब बाढ़ के पानी की भाँति उतर जाते हैं। बेकल जनता रोज़ सरकारों के बदलने से भी अपना भाग्य बदलता कभी नहीं देख पाती—
“भूखे प्यासे व्याकुल पीड़ित लंबी राहें
नाप रहे हैं
धाकड़ सत्ताओं का बिच्छू डंक मारने में माहिर है
लोकतंत्र के संधिपत्र में क्या है यह सब जग ज़ाहिर है
संविधान की राजनीति में जाने कितने
पाप रहे है”
श्रीकृष्ण तिवारी इसे प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं—“घर आँगन जलता जंगल है,/ दरवाजे साँपों का पहरा/ बहती रोशनियों में लगता/ अब भी कहीं अँधेरा ठहरा।”
अवनीश त्रिपाठी एक श्रेष्ठ समीक्षक उत्कृष्ट और बिम्बधर्मी तरल संवेदना के युवा नवगीतकार है ‘शब्द पानी हो गये’ युवा चेतना का एक नया तेवर है, आजकल देखने में आ रहा है, कि युवा नवगीतकार नवगीत के मानकों को, नवगीत के संविधान को अपना सर्वोत्तम दे रहे हैं, जीवन मूल्य साहित्य और रचनाकार दोनों के लिए सबसे अधिक आवश्यक है, आम जन से भी बहुत अधिक उसे नैतिकता और व्यवहार के सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण करना है, उसे जीवन बोध और सामाजिक बोध के मध्य कोई दोहरी रेखा नहीं खींचनी है, बल्कि जीवन के वास्तविक बोध को अंजलि भर-भर सामाजिक विसंगतियों पर उलीचना है, उम्मीद है कि यह रचना और उसके अमृत-मय भाव कलश अवश्य ही मंगल सृजन का नव उत्साह भरेंगे जन मानस में।
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नवगीत संग्रह- शब्द पानी हो गए, नवगीतकार-अवनीश त्रिपाठी, परिचय- डॉ. रंजना गुप्ता, प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नोयडा, कवर- पेपर बैक, पृष्ठ- १२०, मूल्य- रु. २४९,
ISBN : 978-81-976575-4-2

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