प्रत्येक पुस्तक किसी व्यक्ति के संपूर्ण जीवन का सार होती है। जीवन भर के उसके अनुभवों, उनसे उपजी अनुभूतियों और प्रति उत्तर में उसके अपने समाधानों का निचोड़ होती कही जा सकती है उसकी किताब। आज जो किताब मेरे हाथ में है उसका शीर्षक है 'लौट आया मधुमास। यह जम्मू की बेटी ओर प्रवासी लेखिका शशि पाधा जी का चौथा काव्य संग्रह है।
मधुमास यानी नायक-नायिका का केलि काल। जब वे दोनों ही प्रकृति के संपूर्ण सौंदर्य और रस का असीम पान करते हैं। परंतु यह केवल मधुमास नहीं, लौट आया मधुमास है। शीर्षक में ही एक लंबे सफर के तय हो जाने का संकेत मिलता है -कि यह किसी लोकाचार से अबोध व्यक्ति का केलि काल नहीं है, बल्कि यह जीवन पथ पर सुघढ़ता से आगे बढ़ रहे एक परिपक्व व्यक्ति के सुंदर समय का उसके पास फिर से लौट आना है।
कवयित्री जम्मू की बेटी हैं, सैन्य अधिकारी रहे जनरल केशव पाधा की पत्नी हैं और आत्मनिर्भर अपने परिवार को गरिमा से संभाल रहे बच्चों की माँ भी हैं। कवयित्री जिम्मेदारियों और अनुभवों का एक लंबा सफर तय कर चुकी हैं। रिश्तों के धरातल पर भरी हुई झोली, सौंदर्य की माप में असीम आंचल और सम्मान की दृष्टि से भी कोई कम नहीं है उनका वितान। फिर यह बेचैनी क्यों? मैं यह मानती हूँ कि कविता या गीत सिर्फ आनंद का ही स्रोत नहीं है, बल्कि यह कवि की बेचैनियों की भी उपज है। निश्चित रूप से कविता स्वांत: सुखाय है, लेकिन यह सिर्फ स्वांत: सुखाय ही नहीं है, इसके और भी कई प्रयोजन है। जब हम इन प्रयोजनों की खोज करते हैं तब सिद्ध होता है कि इस किताब को क्यों पढ़ा जाना चाहिए? हिंदी के असीम संसार में 'लौट आया मधुमास की यह दस्तक क्यों खास है?, इसका संधान करने की मैंने यह छोटी सी कोशिश की है।
प्रस्तुत पुस्तक कवयित्री का चौथा काव्य संग्रह है। इससे पहले वे पहली किरण, मानस मंथन और अनंत की ओर शीर्षक से तीन काव्य संग्रह पाठकों के सुपुर्द कर चुकी हैं। प्रस्तुत संग्रह में सत्तर गीतों ने स्थान बनाया है। इनमें नए सरोकारों से जुड़े, नई भाषा और बिंब प्रयोग से बुने गए नवगीत भी शामिल हैं।
इसे मैं कवयित्री का अपने जीवन का चौथा फेरा कहूँगी। पिछले तीन फेरों में वे अनुगामिनी बनी सौंपे गए अनुभवों को अपने अनुभवों में समाहित करते हुए आगे बढ़ रहीं थीं। जबकि अब चौथे फेरे में आगे बढऩे की जिम्मेदारी उनकी है। अब वे अपनी निज अनुभूतियों से जीवन को देख रही हैं और इन दृश्यों को अपने साठोत्तरी नायक को नवल मधुमास की सौगात के रूप में सौंपती जा रहीं हैं। उनके पास केवल शब्द ही नहीं स्वर और ताल भी हैं। ये सब निधियाँ कवयित्री ने प्रकृति से ही पाईं हैं। यहाँ स्त्री ही प्रकृति है और प्रकृति ही नायिका है। वही धूप की ओढऩी ओढ़ती है, वही तारों की वेणी सजाती है, पीली चोली में सजती है, तो वही माँग पर चंदा टाँकती है।
पहले ही गीत में अपने कौशल, अपनी दृष्टि और अपने सामथ्र्य को पुख्ता करती नायिका नायक से कहती हैं-
'' मैं तुझे पहचान लूँगी
लाख ओढ़ो तुम हवाएँ
ढाँप दो सारी दिशाएँ
बादलों की नाव से
मैं तुम्हारा नाम लूँगी
रश्मियों की ओट में भी
मैं तुझे पहचान लूँगी
एक और अनुच्छेद है -
''हो अमा की रात कोई
नयनदीप दान दूँगी
पारदर्शी मेघ में
मैं तुझे पहचान लूँगी
प्रस्तुत संग्रह में प्रकृति तो अपने भरपूर सौंदर्य के साथ है ही, अपने देस अर्थात जम्मू (भारत) से दूर होने की पीड़ा भी है। वहीं बेटी, पत्नी और माँ के तीन फेरों की तीन जिम्मेदारियों के समय को उन्होंने कैसे निभाया इसके सूत्र भी हैं। रिश्तों के टकराने, और कभी बँध जाने के अलग-अलग अनुभव भी हैं। इन अनुभवों से गुजरते हुए उनमें जो बड़प्पन आया है, उसी का विस्तार है इस गीत में - जिसका शीर्षक है बड़े हो गए हम -
'सूरज ना पूछे
उगने से पहले
ना रुकती हवाएँ
उड़ने से पहले
कड़ी धूप झेली
कड़े हो गए हम
बड़े हो गए हम।
प्रकृति के नाना रूपों के सौंदर्य से सजे इन गीतों में धूप, छाँव, भोर, रात, सूर्य, रश्मियाँ, चाँद, चाँदनी बार-बार स्थान बनाते हैं। खास तौर से धूप के विविध रूप सर्वाधिक आकर्षक बन पड़े हैं। संभवत: धूप-छाँव और दिन-रात की इस आँखमिचौली की वजह कवयित्री का एक ऐसे देश में होना है जहाँ प्रकृति की चाल, दिन रात की चहलकदमी उसकी अपनी मातृभूति की प्राकृतिक चाल से अलहदा है। यहाँ दिन, तो वहाँ रात और वहाँ रात, तो यहाँ दिन। जैसे सूरज-चंदा इस परदेसन से आँख मिचौली खेल रहे हैं, हँसी ठिठौली कर रहे हैं। उस देश में जहाँ वर्ष का अधिक समय ठंडा, बर्फ में छुपा बीतता है, वहाँ वे आँखें मूँदती हैं तो उन्हें अपने देश की षट ऋतुएँ महसूस होती हैं।
खिड़कियों में घुटी रहने वाली भावनाएँ धूप के सतरंगी दहलीजें लाँघ जाना चाहती हैं। चाँदनी को अंजुरि के दोनो में पी लेना चाहती हैं। वे प्रकृति को अपनी बाहों में समेट लेना चाहती हैं पर बीच में बाधा है दूर देश की। वे हर घड़ी, पल, क्षण अपने देश की ऋतुओं को, प्रकृति के मनोहारी चित्रों को याद करती हैं और अपने मन के लिए सौंदर्य की मेखला बुनते हुए मनोहारी गीत रचती हैं। जिनका पाठ तो रसपूर्ण है ही, उनका गान भी चित्त को मोह लेने वाला है। मूलत: वे प्रकृति की कवयित्री हैं पर इसी संग्रह में उनके संकल्प गीत भी दिखते हैं, तो अध्यात्म की ओर बढ़ते हुए संपूर्ण रागात्मकता से विरक्त होने के संकेत भी मिलते हैं।
एकाकी चलती जाऊँगी
'संकल्पों के सेतु होंगे
निष्ठा दिशा दिखाएगी
साहस होगा पथ प्रदर्शक
आशा ज्योत जलाएगी
विश्वासों के पंख लगा मैं
नभ में उड़ती जाऊँगी
राहें नई बनाऊँगी।
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एक अन्य स्वर पहचानिए खोल दे वितान मन शीर्षक गीत में -
''कल की बात कल रही, आज भोर हँस रही
हवाओं के हिंडोल पे, पुष्प गंध बस रही
उड़ रही हैं दूर तक, धूप की तितलियाँ
तू भी भर उड़ान मन ,
खोल दे वितान मन।
कभी-कभी चलते-चलते क्षण भर को हौसला थकता भी है। इन थके हुए क्षणों में भी वे अपने प्रयास नहीं छोड़ती हैं। फिर भी समाधान हो यह जरूरी तो नहीं -
''बँधी रह गईं मन की गाँठें
उलझन कोई सुलझ न पाई
बन्द किवाड़ों की झिरियों से
समाधान की धूप न आई
सन्नाटों के कोलाहल में
शब्द बड़ा लाचार देखा।
ना थीं कोई ईंट दीवारें - शीर्षक से रचित इस गीत का शीर्षक संभवत: कुछ अलग रहा हो। इस गीत में सर्वाधिक लिखी गई पंक्ति है - 'मौन का विस्तार देखा। वही इस रचना का मूल स्वर भी है। पर यह थकान उनका स्थायी भाव नहीं है, बल्कि उनकी मूल प्रवृत्ति तो आगे बढ़ते जाने की है। यही तो उन्होंने अपनी माँ और अपनी प्रकृति माँ से भी सीखा है। यही मूल वह अपने साथी और आने वाली पीढिय़ों को भी सौंपती हैं -
जल रहा अलाव -
'दिवस भर की विषमता
ओढ़ कोई सोता नहीं
अश्रुओं का भार कोई
रात भर ढोता नहीं
पलक धीर हो बँधा
स्वप्न भी होंगे वहीं।
अपना देस, उसका सौंदर्य और प्रकृति के बिंब कवयित्री की स्मृतियों में ही नहीं बल्कि महसूस करने वाली इंद्रियों में भी साँस लेता है। तभी तो परदेस में जब हिमपात होता है, तो उसकी नीरवता को तो वे महसूस करती ही हैं, लेकिन श्वेत वर्णी दिशा-दशाओं के माध्यम से अपने कुल देवताओं को मनाने का दृश्य रचती हैं।
हिमपात गीत से -
'जोगिन हो गईं दिशा-दशाएँ
आँख मूँद कुल देव मनाएँ
मौन हुआ संलाप चुपचाप-चुपचाप!
प्रकृति के रंगों से सजी एक और सुंदर रचना है 'हरा धरा का ताप' जेठ महीने की झुलसी पाती जब अंबर ने पाई तो उसने अपनी गठरी में बँधी नेह की बूँदे धरा पर उड़ेल, उसका ताप हर लिया है। धरती को अकसर आकाश या सूर्य को मीत बनाने के कई बिंब कवियों ने रचे हैं पर यहाँ कवयित्री सागर को धरती का और बादल को अम्बर का मीत बताती हैं। इस मित्रता में सहचर्य है। साथ-साथ हर रिश्ते की रीत निभाने का मूक वचन भी है। देखें -
''धरती-सागर, अम्बर-बादल
बरसों के हैं मीत
हर पल अपना सुख-दुख बांटें
रिश्तों की हर रीत
जीवन एक परतीय नहीं होता, इसकी कई परतें और कई आयाम होते हैं। यही वजह है कि एक लेखक कभी एकालाप के अनुभवों का गान करता है, तो कभी सामूहिक सौहार्द के आह्वान के गीत लिखता है। यह तभी संभव है जब आपमें जीवन को कई आयाम से देख सकने की दृष्टि का विकास हो चुका हो। दृष्टि का यही विकास लेखक को लगातार अलग-अलग विषयों पर लिखने को प्रेरित करता है। वह कभी निज अनुभूतियों को स्वर देता है, तो कभी बाह्य अनुभूतियों अर्थात अपने आसपास घटित हो रही घटनाओं पर कलम चलाता है। वे प्रकृति की संतानों के द्वेष को देख कर दुखी है। बेटियों के साथ हो रहे अत्याचार पर शस्त्र उठा लेने का आह्वान भी करती हैं। द्रौपदी की सी पीड़ा झेल रही बेटियों के लिए वे सृष्टि के पालनहार कान्हा से सीधा संवाद करती हैं। साथ ही प्रकृति के साथ असभ्य खिलवाड़ कर रहे मनुष्य को चेताती भी हैं कि अब भी नहीं रुके तो ये पशु, ये देवदार केवल किताबों के चित्र रह जाएँगे।
अपनी पीड़ा को समेटते हुए व्यथित मन में वे कहती हैं
कि मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ -
'जहाँ देखो भवनों के पर्वत खड़े हैं
ये मौसम ना आने की जिद पे अड़े हैं
घुलती रही हर नदी आँख मींचे
बहती रहीं रात भर वेदनाएँ
मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ।
पर कवि कोई साधारण मानव भर नहीं है। वह केवल वही नहीं बता रहा कि क्या है, वह समाधान रूप में यह भी बता रहा है कि क्या होना चाहिए। वह सृजनकर्ता है। वह अपनी इच्छित दुनिया रचने का सामथ्र्य रखता है। इसी सुंदर दुनिया को रचते हुए कवयित्री प्रस्तुत स्वर के विपरीत स्वर का गीत रचती हैं - दीवानों की बस्ती -
''उलझन की ना खड़ी दीवारें
ना कोई खाई रिश्तों में
मोल भाव ना मुस्कानों का
ले लो जितना किश्तों में
खुले हाथ बिकती हैं खुशियाँ
भर लो झोली सस्ती में।
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एक भारतीय नागरिक और सैन्य अधिकारी की पत्नी होते हुए वे चिंतित हैं और चेतावनी के स्वर में कहती हैं-
''सरहदों पे आज फिर
आ खड़ा शैतान है
रात दिन आँख भींचे
सोया हिंदुस्तान है।
वहीं वर्ष २०१६ में भारतीय सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक के बाद गर्वोन्नत सैन्य अधिकारी की पत्नी त्वरित भावों से उपजा गीत 'अचूक प्रहार रचती हैं।
'गर्वित जन-जन मुदित तिरंगा
सही समय, आघात सही।
रह गए कायर छिपते-छिपाते
रस्ता कोई सूझा ना
वीर सेनानी की मंशा का
भेद किसी ने बूझा ना।
यह त्वरित भाव था, जिस भाव में उस समय लगभग पूरा देश गर्वोन्नत हो रहा था। लेकिन यह न अंत था, न समाधान। शुभ की स्थापना की राह में हिंसा समाधान हो भी कैसे सकती है। यह तो गांधी का देश है। यहाँ की मिट्टी में युद्ध के नहीं बुद्ध के संस्कार हैं। गर्वोन्नत होकर सैन्य कामयाबी पर गीत रचने वाली यह कवयित्री जम्मू की बेटी भी तो है। जो जानती है कि गोली कहीं से भी चले, सूनी तो किसी माँ की गोद ही होती है। तोपों के मुँह इस ओर हों या उस ओर लहूलुहान तो सीमा ही होती है। सीमांत गाँवों के रुदन और पीड़ा को महसूस करते हुए वे कुछ अंतराल पर एक और गीत रचती हैं, 'सीमाओं का रुदन
ये एक माँ का रुदन है, जिसने राजनीतिक बिसात पर प्यादे की तरह इस्तेमाल हो रहे अपने लाल खोए हैं और लगातार खो रही है। वह कहती है,
''जहाँ कभी थी फूल क्यारी
रक्त नदी की धार चली
बिखरी कण-कण राख बारूदी
माँग सिंदूरी गई छली
शून्य भेदती बूढ़ी आँखें
आँचल छोर भिगोती हैं
सीमाएँ तब रोती हैं।
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यह मधुमास एक-दूसरे को जानने की दैहिक अनुभूतियों का समय नहीं है, बल्कि संपूर्ण सृष्टि, मौजूदा परिवर्तनों, अपने समय और उसकी चुनौतियों को अपनी परिपक्व दृष्टि में तौलने का समय है। जहाँ निजी जिम्मेदारियों से ऊपर उठकर कवयित्री समष्टि के अपने दायित्वों की पहचान करती और करवाती हैं। अनुभवों के बीज मंत्र सौंपते हुए वे संकल्प राह पर प्रतिबद्ध रहने का पाठ पढ़ाती हैं। कहन की शैली तो ध्यान खींचती ही है, कुछ शब्दों के अभिनव बिंब भी याद रह जाते हैं जैसे हाथ से हाथ की, मेखलाएँ गढें अथवा हठी नटी सी मृगतृष्णा, कितना नचा रही।
पुरवाई, अखुँयाई, धूप, साँझ, सूर्य, रश्मियाँ, गठरी, गाँठें ये ऐसे शब्द हैं जो गीतों में अलग-अलग बिंब विधान के लिए प्रयोग किए गए हैं और जिन्होंने गीतों को अलंकृत भी किया है। कवयित्री प्रयोग से भी नहीं चूकतीं, उनका अपना व्याकरण है। वे गीत के सौंदर्य में अभिवृदिध करने हेतु शब्दों को मनचाहे अंदाज में बरतती हैं। यथा - पतझड़ का पतझार , रेखा का रेख, आभा के लिए आभ, इंद्रधनुष के लिए इंद्रधनु। फूलों से लदी लताओं, घुँघरुओं से सजी झाँझरों और हवाओं संग उड़ते रंगों के इन गीतों में कुछ ऐसे शब्द प्रयोग भी मिलते हैं, जो तमाम रागात्मकता से विकृत होकर कहीं किसी की प्रतीक्षा, किसी वैराग और अध्यात्म की ओर संकेत करते हैं। जैसे मन मोरा आज कबीरा, बंजारन, योगिनी, जोगिन आदि। संभवत: यह उनके अगले काव्य संग्रह के बीज हैं। जिनके लिए उनकी कलम अपने अनुभवों से ही स्याही सोखेगी। इसी शुभाकांक्षा के साथ इस पत्र को विराम देती हूँ। वैश्विक सुख की कामना में सब और सौंदर्य का आह्वान करती कवयित्री के ही शब्दों में -
''कहीं किसी भोले मानुष ने
जोड़े होंगे हाथ
विनती सुन अम्बर ने कर दी
रंगों की बरसात।
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गीत नवगीत संग्रह- लौट आया मधुमास, रचनाकार-शशि पाधा, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. २५०, पृष्ठ- १२८, समीक्षा- योगिता यादव
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