गुरुवार, 1 नवंबर 2018

समय है संभावना का - जगदीश पंकज

‘समय है संभावना का’ अपने समय को, अपने परिवेश को और जनमानस को स्‍वर देने वाली और उनका सच्चे अर्थों में प्रतिनिधित्व करने वाली ऐसी सशक्त काव्य कृति है, जिसमें कड़वे सच को बोलने का और व्यवस्था से प्रश्न करने का साहस कवि के सत्य के प्रति समर्पण को रेखांकित करता है। इसे पढ़कर महाकवि ‘दिनकर’ की उन पंक्तियों का बरबस ही स्‍मरण हो आता है जो उन्‍होंने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री से कही थीं- ‘जब जब राजनीति के कदम डगमगाएँगे, तब तब साहित्‍य उसे सँभालेगा’। ‘समय है संभावना का’ को साहित्‍य के इसी प्रयास की एक कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।

आज राजनीति ने व्यवसाय का रूप ले लिया है। एक ऐसा व्यवसाय, जिसको झूठ से ऊर्जा मिलती है, गति मिलती है, मजबूती मिलती है। जो जितना अधिक झूठ बोलकर जनता को भ्रमित कर ले वह राजनीति में उतना ही अधिक कामयाब है। लेकिन जगदीश पंकज के गंगू को इसका इल्म नहीं है :

राजा जी अपने वादों से कितने दिन फरमाएँगे
गंगू पूछ रहा है भैया अच्छे दिन कब आएँगे
और
खाता तो खुल गया बैंक में पैसा कब तक आएगा
भाषण के लंबी वादों को पूरा कौन कराएगा (‘राजा जी अपने वादों से’)

गंगू को यह मालूम नहीं है कि इस तरह के प्रश्न करने पर क्या-क्या आक्षेप सुनने पड़ सकते हैं। आज वातावरण में नारों का बोलबाला है। झूठ को ऊँची आवाज में उठाकर, सच को डराने और दबाने का प्रयास किया जा रहा है। झूठ की गर्जना इतनी ऊँची है कि सच का आत्मविश्वास डगमगा जाए। इसी षड्यंत्र को उजागर करते हुए कवि कहते हैं:

हर पुरानी बाँसुरी में फूँक मारो
फिर सजाओ झूठ का नक्कारखाना
किसी तूती की नहीं आवाज आए
इस तरह होता रहेगा गाना बजाना (‘अब सदन में अट्टहासों को सजाओ’)

किन्‍तु इसमें नक्कारखाने में भी कवि अपना कवि-धर्म पूरी निष्ठा से निभाता है। वह निषिद्धों की गली के नागरिक के प्रति अपने कर्तव्य से पूरी तरह भिज्ञ है। कवि का लक्ष्य वीआईपी संस्कृति से हटकर उस व्यक्ति के सरोकारों को उठाना है:

जो रूके सीवर लगा है खोलने में
तुम जहाँ पर गंध से ही काँपते हो
दूरियों को नापता चढ़कर शिखर तक
तुम जहाँ दो पाँव रखकर हाँफते हो
मैं उसी की मौन भाषा बोलता हूँ
प्राणपण से दन दनाते रोष में भी
ताप मैं भरता रहूँ आक्रोश में भी (‘ताप मैं भरता रहूँ आक्रोश में भी’)

कवि जगदीश पंकज जब समाज के शोषित और निषिद्धों की गली के अंतिम नागरिक की पीड़ा गाते हैं, तो मुझे उनमें निराला, प्रगतिवाद और कार्ल मार्क्स के दर्शन होते हैं।

आज का एक कड़वा सच यह है कि एक मिशन के रूप में उन लोगों के मान सम्मान और देश हित में दिए गए योगदान को कमतर साबित करने का सुनियोजित प्रयास किया जा रहा है, जिन्होंने निस्वार्थ भाव से देश की सेवा की है। साथ ही ऐसे लोगों को राष्ट्रनायक के रूप में प्रतिपादित करने का भी प्रयास किया जा रहा है जिनका स्वतंत्रता आंदोलन या भारतीय समाज सुधार जैसे किसी क्षेत्र में कोई विशेष योगदान नहीं रहा है। इस पर कवि जगदीश पंकज की चिंता ‘आ गया अंधी सुरंगों से’ में इस प्रकार प्रकट होती है:

जो कभी आदर्श के मानक रहे थे
उन शहीदों को भुलाया जा रहा है
फिर नए इतिहास के संशोधनों से
अब तमस निश-दिन सजाया जा रहा है

लेकिन सच तो सच है। उसे बहुत देर तक छुपाया नहीं जा सकता, धमकाया नहीं जा सकता, ड़राया नहीं जा सकता।

तुम भी बहलाने आए थे
लेकर अपने झाँझ-मँजीरे
नई तान में गान बाँधकर
जहर सुनाया धीरे-धीरे
तुमने जो शीशे दिखलाए
वे सब निकले अंधे दर्पण
नहीं किसी भी चिंगारी के
आगे झुक कर किया समर्पण (‘हमने अंगारे चूमे हैं’)

किसी अंधे दर्पण को शीशा मानने से साफ इनकार करता हुआ कवि ‘जो कहा तुमने’ में साफ घोषणा कर देता है कि वह किसी और के सत्‍य को तब तक सत्‍य मानने को तैयार नहीं हैं जब तक उसे अपनी कसौटी पर कस कर नहीं देख लेता:

झूठ दोहराया गया विज्ञापनों में जो निरंतर
सत्य को विश्वास को हर पल निकलता जा रहा है
जो कहा तुमने, वही है सत्य कैसे मान लें हम
जब हमारे कान में सीसा पिघलता जा रहा है

जब तक साहित्य गरीब, मजदूर, किसान तथा शोषितों और पीड़ितों की व्यथा की बात नहीं करता, तब तक उसे सच के धरातल से दूर ही माना जाएगा। इस कसौटी पर भी ‘समय है संभावना का’ एक बेहतरीन कृति है :

रखता रहा रात भर पट्टी, पानी की घरनी के माथे
काफी तड़के आँख खुली तो, सोचा लाऊँ जल्द कमा के
साथ दवा के दूध चाहिए घर में जाऊँ कुछ तो लेकर
रिक्शा लेकर चला रामफल खड़ा हुआ जा चौराहे पर (‘रिक्‍शा लेकर चला रामफल’)

लगता है साहित्य सृजन की यात्रा में कवि को संभवत: कभी धारा के साथ बहने का, बहती गंगा में नहाने का यानि व्‍यवस्‍था के लिए सुविधाजनक लेखन का निमंत्रण मिला है। यह भी संभव है कि कभी खुद कवि के मन में यह विचार भी आया हो कि आराम का रास्ता भी चलकर देखा जाए, सदैव संघर्ष और विरोध से कुछ हासिल नहीं होता। इन्हीं भावों को ‘नदी कहने लगी मुझसे’ में कवि ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है:

जरा आकर लगा गोता कहाँ बैठा किनारे पर
तनिक अठखेलियाँ कर ले लहर के मुक्त धारे पर
लगा ड़ुबकी तुझे बस आँख मुँह ही बंद रखने हैं
खुशी से तैर ले खुलकर मगर मेरे इशारे पर

भारतीय समाज में एक विचारधारा विशेष को इतनी आक्रामक मुद्रा में पहले कभी नहीं देखा गया जितनी वह समकालीन परिवेश में दिखाई देती है। ‘समय है संभावना का’ में कवि जगदीश पंकज की दृष्टि इस विसंगति पर भी पड़ी है। ‘घोषणा है बंद कर दो’ में कवि के शब्‍द देखिए

हो रहा अवरुद्ध यातायात एक तरफा चलन से
हर तरफ निरुपाय सा असहाय सा पैदल पथिक है

यह जो निरूपाय सा या असहाय सा पैदल पथिक है वह वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में मतदान की एक इकाई भर बनकर रह गया है। उसकी विडंबना यह है कि वह नारों से खुश हो जाता है, भले ही उसकी समस्या जस की तस बनी रहे। पंक्तियाँ देखिए -

अनवरत चिंतन शिविर पर प्रश्न हो पाया ना हल
आदमी की भूख पर चर्चा चली है आजकल
तंत्र का निष्कर्ष सत्ता ही नहीं दोषी प्रजा भी
है प्रमाणित सूत्र जनता दे रही खुद को सजा भी

आजकल यह आदमी भूख से परेशान नहीं होता। उसे खाने में नफरत मिल जाती है, क्रोध मिल जाता है, ईर्ष्‍या मिल जाती है या क्षेत्रवाद, जातिवाद और सम्‍प्रदायवाद का निवाला मिल जाता है तो वह तृप्त हो जाता है। ‘कुछ जटिलताएँ उकेरें’ में कवि इसी विडंबना की ओर इशारा करते हुए कहता है:

हम उनींदे नींद में चलकर कहीं भरमा गए हैं
कहाँ से चलकर, कहाँ हो कर, कहाँ पर आ गए हैं
शब्द के निहितार्थ में हर छल छिपा है
सार्थक संवाद कुछ जम सा गया है

एक श्रेष्ठ कृति अपने देशकाल और वातावरण को स्वयं में समेटे होती है। ‘समय है संभावना का’ इस लिहाज से एक बेहतरीन कृति है। इसकी रचना का काल वह काल है जब समाज गुण-दोष की उपेक्षा करके समर्थन के लिए समर्थन और विरोध के लिए विरोध में रत रहा है। समाज में लोग पहले पक्षकार बन जाते हैं और उसके बाद मुद्दे का समर्थन या विरोध करते हैं। वस्‍तुत: मुद्दे का समर्थन या विरोध नहीं होता अपितु उसे उठाने वाले व्‍यक्ति को देखकर उसका समर्थन या विरोध होता है। इस प्रक्रिया में देश हित, समाज हित, नैतिकता या मानवता जैसे मूल्यों की भी सरेआम उपेक्षा की जा रही है। यही सच्चाई ‘लोग गा रहे चार्वाक को’ में इस प्रकार सामने आती है:

हर अवसर के प्रायोजक है, हर अवसर के हैं चारण भी
उत्सवधर्मी संत साथ हैं, कारण और बिना कारण भी
घुमा रहे विपरीत दिशा में, सारे मिलकर समय चाक को
कैसे दुर्दिन लोग गा रहे, संकट में भी चार्वाक को

किंतु जो सजग हैं, जो जीवित हैं और जो निरपेक्ष हैं वे गुण दोष के आधार पर निर्णय बदलते हैं। यही लोग परिवर्तन लाते हैं। अंध समर्थन और अंध विरोध जड़ता लाता है। जागरूकता परिवर्तन लाती है, प्रश्न पूछती है और फिर परिवर्तन लाती है। ‘झुकी कमर टूटी कंधों से’ में यही जागरूकता इन शब्दों में व्यक्त की गई है:

उचक उचक कर देख रहे हम, बदला कुछ भी नहीं दूर तक
उपदेशों को सुनते सुनते, संयम के भी कान गए पक
हाँफ रहे हो किस विकास की, दंभ मिली कीचड़ में सनकर
झुकी कमर टूटे कंधों से, कितनी दूर चलें हम तन कर

आज लोकतंत्र का चौथा स्तंभ खेमों में बंटा हुआ प्रतीत होता है। जनता के हितों का प्रहरी, पार्टियों और सरकारों के पक्ष या विपक्ष में प्रचार में व्यस्त है। विशुद्ध पत्रकारिता का घोर अभाव दिख रहा है। ‘समय है संभावना का’ में जगह-जगह पर इस विद्रूप को रेखांकित किया गया है। ‘जल्दी से आलस्य उतारो’ की यह पंक्तियां देखिए:

बिका मीडिया फेंक रहा है, मालिक की मंशा परदे पर
और साथ में बेच रहा है, बाबाओं के भी आडम्‍बर
अगर नहीं सो रहे उठो अब, अपने मुँह पर छींटे मारो
जाग गए हो अगर समय से, जल्दी से आलस्य उतारो

जब समाज में युगों से स्थापित मूल्यों को तोड़ने का कुचक्र चल रहा है, सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता जैसे मानवीय गुणों को आरोप और अवगुण की तरह प्रस्‍तुत किया जा रहा है और इन्हें एक गाली के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, एक वर्ग विशेष का आधिपत्य स्थापित करने के लिए सुनियोजित प्रयास चल रहे हैं और इस कुचक्र में जनमानस फँसता हुआ दिखाई दे रहा है, तो अपने पारंपरिक और सामाजिक मूल्‍यों की याद दिलाना कवि का कर्तव्‍य बन जाता है। ‘पानी लगा क्यों सूखने’ में कवि इसी कर्तव्‍य का पालन करते हुए प्रश्न करता है:

पानी लगा क्यों सूखने, अपने पुराने ताल का
कुछ हो रहे हैं अतिक्रमण, कुछ घट रहा है क्षेत्रफल
कुछ दीखता षड्यंत्र सा, भू माफियाओं का दखल
बदला गया इतिहास कुछ, बदले गए अभिलेख भी
झुठला रहे संदर्भ के, जितने मिले उल्लेख भी

चारों ओर प्रगति की चर्चा है। पोस्टर, बैनर और विज्ञापनों में जब प्रगति का पहिया बड़ी तेजी से घूम रहा है, तभी देश का किसान आत्महत्या कर रहा है, मजदूर बेरोजगार हो रहा है, व्यापार मंदी की चपेट में है। इस विरोधाभास को बड़ी खूबसूरती से चित्रित किया गया है ‘अट्टहास कर रहा अँधेरा’ में। देखिए यह पंक्तियाँ:-

किस ने कैसे दिए जलाए अट्टहास कर रहा अँधेरा
किस प्रकाश के अभिनंदन में किसने कितना धुआँ बिखेरा

शासन को दूरदर्शी नीतियाँ बनाते समय दूरगामी दृष्टिकोण और बहुआयामी प्रभावों का विधिवत अध्ययन कर लेना चाहिए, तब हम रोजमर्रा की जरूरतों के आधार पर नीतियों में दैनिक स्तर पर परिवर्तन और यूटर्न के साक्षी बने हैं। हमने शासन को जिद की हद तक जाकर अपने निर्णयों का औचित्य सिद्ध करते हुए देखा है। जनता की इस पीड़ा को कवि ने ‘प्यास लगी तो लगे खोजने’ में इन शब्दों में प्रकट किया है:

मन आया तो कूच कर दिया
करने को शिकार दल बल से
नहीं आज की तैयारी थी
सोचा नहीं करें क्या कल से
भौंचक है अब रथ के पहिए
कहाँ फँस गए हैं दलदल में
प्यास लगी तो लगे खोजने
पानी बियाबान जंगल में

लोकतंत्र में जनता नई आशा के साथ सत्ता परिवर्तन करती है, परंतु बार-बार उसको निराशा ही हाथ लगती है। चेहरे बदलते हैं, प्रतीक बदलते हैं किंतु जनता का भाग्य नहीं बदलता। ऐसे में साहित्यकार ही साहस करता है शासक के समक्ष प्रश्न खड़ा करने का। ‘समय है संभावना का’ लगभग हर पृष्ठ पर सत्ता से सवाल पूछने का दस्तावेज है। ‘दीवारों पर लिखी इबारत’ की ये पंक्तियाँ कितनी सटीक हैं:

मुकर रहे हो आज उसी से
कल जो कहा ठोककर सीना
छप्‍पर, छान झोंपड़ी का क्यों
मुश्किल किया तुम्‍हीं ने जीना
झूठी चकाचौंध फैलाई
दिखा-दिखाकर नकली हीरे
दीवारों पर लिखी इबारत
बाँच रहे हम धीरे धीरे

इसलिए कवि व्यवस्था परिवर्तन चाहता है। व्यवस्था परिवर्तन के लिए वह आमजन को जागृत करना चाहता है, उन्हीं का आह्वान करते हुए वह कहता है

निष्‍ठुर समय द्वार पर आकर बजा रहा साँकल
आज चुनौती नहीं सुनी तो मुश्किल होगी कल

किंतु संभावनाओं का समय है और इसलिए कवि विपरीत परिस्थितियों में भी निराश नहीं है। वह आम जन की समझ के प्रति आश्वस्त है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक नए युग की उम्मीद रखता है। इसलिए वह लोगों की चेतना को आवाज देता है

देश निरंकुशता का अभिनय देख रहा
देख रहा झूठे जुमलों को वादों को
देख रहा जनतंत्र विवश मतदाता को
और बदलते हुए नित्य संवादों को
केवल निर्वाचन तक सीमित कर डाला
चतुर भेड़ियों के दल ने सिंहासन को
आओ मिल षड्यंत्रों का आकलन करें
आओ अपने लोकतंत्र को नमन करें

श्री जगदीश पंकज की रचनाओं को पढ़ते हुए मानस पटल पर एक ऐसी छवि बनती है, जो उन्हें व्यवस्था से लड़ने वाले योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित करती है, सच के समर्थन में पूरी शक्ति से खड़े होने वाले कलमकार के रूप में चित्रित करती है। व्यवस्था का समर्थन करना, सत्ता की जय-जयकार करना और बहाव के साथ बहना, बहुत सरल, बहुत सुगम और बहुत सुखद होता है, इसके विपरीत व्यवस्था के विरोध या सत्ता की आलोचना का मार्ग बेहद दुर्गम है, मुश्किल और काँटों से भरा है। श्री जगदीश पंकज ने साहित्य सृजन की यात्रा में इस मुश्किल राह को ही चुना है। सच्चा कलमकार सच से समझौता नहीं करता। उसके लिए कलम का धर्म ही सर्वोच्च होता है। इस धर्म को निभाने के लिए वह धारा के विपरीत तैरने से भी गुरेज नहीं करता। ‘समय है संभावना का’ में श्री जगदीश पंकज पृष्‍ठ दर पृष्‍ठ एक सच्चे साहित्यकार का धर्म निभाते हुए, आंधियों के विपरीत बहुत ही मजबूत कदमों के साथ चलते हुए दिखाई देते हैं।
-------------------------------------
गीत नवगीत संग्रह- समय है संभावना का, रचनाकार- जगदीश पंकज, प्रकाशक- ए.आर.पब्लिशिंग कं., दिल्ली -110032 , प्रथम संस्करण संस्करण, मूल्य- रु. २००, पृष्ठ- १२८, समीक्षा- डॉ. ईश्‍वर सिंह तेवतिया, आईएसबीएन क्रमांक- 978-93-86236-76 -0 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

क्या आपने यह पुस्तक पढ़ी है? यदि हाँ तो उसके विषय में यहाँ टिप्पणी करें। उपरोक्त समीक्षा पर भी आपके विचारों का स्वागत है।