अनामिका सिंह का नवगीत-संग्रह ‘अँधेरा कुछ तो होगा दूर’ हिंदी गीत परंपरा में एक ऐसा हस्तक्षेप है जो गीत को केवल भावनात्मकता तक सीमित न रखकर उसे सामाजिक यथार्थ का दर्पण बना देता है। हिंदी साहित्य में नवगीत के आरंभिक स्वरूप से ही यह अपेक्षा रही है कि वह बदलते हुए समय के साथ अपनी ज़िम्मेदारी निभाए। इसी कारण इसे पुरानी गीतधारा का पुनर्जन्म कहा गया। यह पुनर्जन्म भावनाओं की कोमलता को बनाए रखते हुए समाज के कठोर यथार्थ से टकराने की मांग करता है। अनामिका का यह संग्रह उसी टकराव और संवेदना की परिणति है।
अनामिका सिंह के नवगीत-संग्रह का शीर्षक ‘अँधेरा कुछ तो होगा दूर’ अपने आप में आशा और संघर्ष दोनों का प्रतीक है। शीर्षक को देखते ही पाठक के सामने यह प्रश्न उठता है कि यह अँधेरा किसका है और इसे दूर करने की संभावना किस आधार पर है। यह अँधेरा जीवन की निराशा का रूपक है, पर साथ ही इसमें संभावना का द्वार खुला है। कवयित्री मानती हैं कि भले ही अँधेरा विराट लगे, पर उसकी नियति है हट जाना। यह विश्वास ही पूरे संग्रह का केंद्रीय भाव है। संग्रह के अनेक गीत शीर्षक की इस भावना की पुष्टि करते हैं। उदाहरण के लिए, जब वह लिखती हैं- ‘मौन रहना हम सभी का अब भयानक है, तो यह अँधेरे से बाहर आने का आह्वान है। यहाँ मौन अँधेरे का प्रतीक है और आवाज़ उठाना उजाले की ओर बढ़ने का प्रयास। अनामिका अपने गीतों के आयुध से बड़ी निपुणता से समय के अंधेरों से लड़ती हुई रोशनी की अभिकामना लिए समरारूढ़ हैं। विश्वास से लबलेज भी हैं कि अंधेरा दूर होगा ही। कवयित्री समय की विभीषिकाओं से उदिग्न नहीं होती बल्कि सुखद संभावनाओं के सपने बुन रही हैं। सचमुच रचनाओं की दीर्घ जीविता उसके आशावान बने रहने में ही है। इसीलिए वह कहती है--
आज करेगा तय
हर कल का कैसा होगा भोर
शिक्षा से अपनापा कर लो
बदले जीवन शोर
एक राह यह दिलवाएगी
तुमको विजय जरूर
अंधेरा कुछ तो होगा दूर
स्त्री की पीड़ा का अँधेरा भी संग्रह में अनेक बार आया है। ‘औरत लगती एक देह भर सबने साधी देह निशाना। ’ यह पंक्तियाँ उस अँधेरे का साक्षात चित्रण हैं जिसमें स्त्री को जीना पड़ता है। परंतु शीर्षक का आश्वासन यहाँ भी उपस्थित है-स्त्री के संघर्ष और प्रतिरोध के चलते यह अँधेरा स्थायी नहीं रहेगा। अनामिका के गीतों में एक साथ समय का जहां कोलाहल है वहीं दूसरी ओर पाखंड और रुढियों के खिलाफ विकलता भी है जिसे वह तोड़ना चाहती है।निम्न पंक्तियों में सामाजिक जड़ता की पराकाष्ठा पर कठोर प्रहार करती हैं--
कटु शंकाएँ चढ़ीं नीम पर
चले अनय के दाँव
नग्न घुमाता है पगली को
डायन कहकर गाँव
स्त्री विमर्ष का यह स्वर इस संग्रह में अनेक रूपों में अत्यंत मुखर और प्रतिरोधी है। अनेक गीत स्त्री-जीवन की यातनाओं और उसकी अस्मिता के संघर्ष पर केंद्रित हैं। नवगीतकारों ने हमेशा स्त्री को केवल करुणा की वस्तु नहीं, बल्कि प्रतिरोध का प्रतीक भी माना है। अनामिका के यहाँ यह प्रतिरोध बार-बार मुखर होता है।
‘बिना नागा हो रहे हैं
हर बरस ही पाँव भारी
साथ में ताकीद, अबकी
जनम देना पूत-दारी।’
यह चित्रण उस पितृसत्तात्मक सोच को उजागर करता है जिसमें स्त्री को केवल संतानोत्पत्ति का साधन मान लिया गया है। इसी तरह ‘केवल मादा’ में स्त्री के प्रति समाज की विकृत दृष्टि सामने आती है- ‘औरत लगती एक देह भर
सबने साधी देह निशाना।’ ये पंक्तियाँ आज के सामाजिक यथार्थ की निर्मम सच्चाई को उजागर करती हैं।
पर्यावरण और प्रकृति के संदर्भ में भी यही दृष्टि मिलती है। नदी के वक्ष पर प्रदूषण का अँधेरा है, पर कवयित्री का भरोसा है कि जीवन की धारा इतनी सहज और प्रबल है कि अँधेरा स्थायी नहीं हो सकता। संग्रह के आरंभिक नवगीत ही जीवन और प्रकृति के द्वंद्व को सामने लाते हैं। ‘बह रही है एक नदिया’ में नदी को जीवनदायिनी शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो सदियों से समाज की धड़कन बनी रही है, किन्तु आधुनिक सभ्यता ने उसी को प्रदूषित और घायल कर दिया।
‘इस नदी को इस सदी ने
पूज कर दीं यातनाएँ
कर प्रदूषित पढ़ रही है
वक्ष पर शगुनी ऋचाएँ।’ नदी यहाँ केवल भौतिक धारा नहीं है, बल्कि मनुष्य की संवेदनाओं और उसके अस्तित्व का प्रतीक है। पर्यावरणीय संकट और सांस्कृतिक विस्मृति दोनों को यह गीत एक साथ उद्घाटित करता है।
राजनीतिक विडंबना और लोकतंत्र की गिरती साख भी संग्रह की एक बड़ी चिंता है।, लोकतंत्र और पत्रकारिता की विद्रूपता को रेखांकित करते हुए कवयित्री कहती हैं-
‘पत्रकारिता हुई बेहया
लोकतंत्र के मुँह पर गाली
कर सत्ता की अंध चाकरी
अर्थी अपनी स्वयं निकाली।’
इन पंक्तियों में आज के मीडिया और राजनीति की मिलीभगत का चित्रण है। यह स्वर केवल व्यंग्य नहीं है, बल्कि हमारे लोकतंत्र की बुनियादी कमियों की ओर इशारा करता है। ऐसे गीतों के माध्यम से नवगीत सिर्फ आत्माभिव्यक्ति नहीं रह जाता, बल्कि सामाजिक हस्तक्षेप का साधन बन जाता है। ये पंक्तियाँ गहरे अँधेरे को उद्घाटित करती हैं, किंतु शीर्षक का विश्वास यही है कि इस अँधेरे के बावजूद कुछ होगा जो इसे दूर करेगा।
सांप्रदायिकता और हिंसा के विषय पर भी कवयित्री ने तीखा प्रहार किया है। ‘धर्मों की जब बात चली तो / पत्थर डंडे बोले।’ धर्म की आड़ में चल रही हिंसा का यह चित्रण आज की वास्तविकता को सीधा छूता है। ‘छुट्टे आदमखोर’ में यह स्वर और प्रखर है-‘जीवन खूँटे से बाँधे हैं / छुट्टे आदमखोर।’ ऐसे प्रतीक आज के समाज की क्रूरता और अमानवीयता को उजागर करते हैं। संग्रह में न्याय और अन्याय का प्रश्न भी बार-बार उठता है। ‘मौन रहना हम सभी का / अब भयानक है।’ यह पंक्तियाँ सामूहिक चुप्पी के खतरे को सामने लाती हैं। अन्याय के सामने मौन रहना केवल कायरता नहीं बल्कि अपराध बन जाता है। इसी तरह ‘खड़ा सच कोने में लाचार’ गीत में वह लिखती हैं-
‘झूठ का फलता कारोबार /
खड़ा सच कोने में लाचार।’ यह यथार्थ आधुनिक समाज में सत्य की पराजय का प्रतीक है।
‘झूठ का फलता कारोबार /
खड़ा सच कोने में लाचार।’ यह यथार्थ आधुनिक समाज में सत्य की पराजय का प्रतीक है।
प्रेम और आत्मीयता का पक्ष भी संग्रह में कम महत्वपूर्ण नहीं है। ‘परस तुम्हारा जादू टोना / छू मंतर हो गई उदासी / एक तुम्हारे आ जाने से।’ यह प्रेम का कोमल और आत्मीय स्वर है जो जीवन की निराशा और उदासी के बीच आश्वस्ति का प्रकाश रचता है। इसी तरह ‘सजन ने रचे प्रीति के छंद’ में प्रेम की सरसता और निकटता व्यक्त होती है। यह संतुलन संग्रह को केवल प्रतिरोध का दस्तावेज़ बनने से बचाता है और जीवन की समग्रता को सामने लाता है। छू- मंत्र हो गई उदासी
एक तुम्हारे आ जाने से
× ×××
भादो आंखें जेठ हुआ मन
आस अमावस ठहरी
कहाँ लिखाऊँ प्रेम मुकदमा
जाऊँ कौन कचहरी
प्रकृति और मौसम के चित्रण भी संग्रह को विशेष बनाते हैं। ‘बहुरे फिर कोहरे के दिन’ में ठंड और निर्धनता का गहरा चित्रण है-‘लगी पेट में आग उबलकर / झरे आँख का जल। ’ वहीं ‘शीत ने पारा जमाया’ में सर्दी और भूख से जूझते जनजीवन का चित्र उभरता है-‘भूख ने कर दी मुनादी / झोपड़ी की आँत सिकुड़ी। ’ ऐसे गीत आधुनिक नवगीत की उस विशेषता को स्पष्ट करते हैं जिसमें प्रकृति केवल सौंदर्य का प्रतीक न रहकर सामाजिक यथार्थ का अंग बन जाती है।
सांस्कृतिक चेतना और समरसता भी इस संग्रह में विशेष रूप से उभरती है। ‘भिन्न-भिन्न गणवेश हमारे / भिन्न-भिन्न हैं बोली / लेकिन सब हमजोली। ’ यह गीत भारतीय समाज की विविधता और उसकी एकता को व्यक्त करता है। समकालीन समय में जब साम्प्रदायिकता और विभाजन की राजनीति बढ़ रही है, तब ऐसे गीत भारतीय संस्कृति की वास्तविकता और उसकी गहरी जड़ों को याद कराते हैं।
संग्रह में वृद्धावस्था, विस्थापन और श्रमिक जीवन की त्रासदियाँ भी अंकित हैं। ‘जीवन के अनुभव झुर्री में / कर्मठता की खान’ और ‘पिता के दुख बहुतेरे हैं’ जैसे गीत बुजुर्गों की पीड़ा, उपेक्षा और उनके संघर्ष को सामने लाते हैं। ये गीत उस यथार्थ की ओर संकेत करते हैं जिसे साहित्य अक्सर उपेक्षित कर देता है। यह शुभ सूचक है कि अनामिका के गीत तात्कालिक प्रश्नों से मुठभेड़ करते हुए नए भाव शब्दों के साथ समय के अमंगल का विकट चित्र खीचती है---
बारूदी चल रही हवाएँ
विकट अमंगल है!
× ×××
मानवता की खोज व्यर्थ
धंस गई रसातल है
××××
शाखों पर पंछी आकुल
दशसत में जंगल है।
भाषा और शिल्प की दृष्टि से अनामिका सिंह का लेखन सहज और संगीतमय है। उनकी भाषा में लोकजीवन की गंध है, किंतु उसमें आधुनिक चेतना भी है। ‘ढिबरी, ‘तुतलिया, ‘तुलसी चौरा’ जैसे लोक-प्रतीक और ‘बारूदी संजाल, ‘फूलझड़ी, ‘कोहरा’ जैसे समकालीन प्रतीक साथ-साथ चलते हैं। यही संगम नवगीत को जीवंत और समयानुकूल बनाता है। इस नवगीत-संग्रह ‘अँधेरा कुछ तो होगा दूर में शिल्प, छंद, रस और अलंकार की दृष्टि से एक समन्वित प्रयोग दिखाई देता है, जो नवगीत की परंपरा को जीवंत और प्रासंगिक बनाता है। अधिकांश गीत लोकलय पर आधारित हैं, जिनमें स्वाभाविक छंद और सहज गति है। कुल मिलाकर ‘अँधेरा कुछ तो होगा दूर’ हिंदी नवगीत की परंपरा में एक महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक संग्रह है। यह समय की गवाही देता है, समाज की विसंगतियों को उजागर करता है, स्त्री की आवाज़ को मुखर करता है, पर्यावरणीय संकट की ओर इशारा करता है, प्रेम और समरसता का उत्सव रचता है और सबसे बढ़कर आशा का दीप जलाता है। अंधकार चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, यह संग्रह हमें भरोसा दिलाता है कि ‘अँधेरा कुछ तो होगा दूर।’
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नवगीत संग्रह- अँधेरा कुछ तो होगा दूर, नवगीतकार- अनामिका सिंह, समीक्षक- अवनीश त्रिपाठी और उदय शंकर सिंह उदय, प्रकाशक- बिम्ब-प्रतिबिम्ब सृजन संस्थान, फगवाड़ा, पंजाब, कवर- हार्डबाउन्ड, पृष्ठ- ११८, मूल्य- रु. ३५०, ISBN- 978-93-48161-90-1
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