देश में अराजकता नाग के फन की तरह मुह बाये खड़ी है, मानवीय संवेदनाएँ तार तार हो रही हैं। गरीबों के बदहाल जीवन की व्यथा को कवि ने जैसे साक्षात पन्नों पर उतार दिया है। वाणी में उपजी संवेदना, गीतों को समृद्ध करती है। आंचलिक भाषा और शब्दों से गीत के प्रवाह में कोई रुकावट नहीं आती। कई स्थानों पर भाषा का खुरदुरापन गीतों को एक विशेष स्वर प्रदान करता है। कवि-ह्रदय की संवेदना से निकली वाणी अन्तःस्थल को छूती है।
सड़कों पर अक्सर दिख जाने वाले भीख माँग कर जीवन यापन करते, गरीबों के दर्द से उपजी संवेदनाओं को अत्यंत मार्मिकता से व्यक्त किया है। संकलन का प्रथम गीत ह्रदय को विह्वल करता है।
१
आ गयी मंगतिन
उसे हम दें अट्ठन्नी या रुपईया
जो विसंगति है
हमीं से दी गयी है
वंचितों की ये दशा
करुणामयी है
लोग क्या जाने
कोई तो निकले अरे दईय्या
२
प्यासों के घर पानी
कैसी बातें करते हो
पानी का अधिकारी सागर
पानी की अधिकारी नदियाँ
रेगिस्तान के नसीब में
अब तक आई सूखी सदियाँ
हे गरीब तुम कल मरते थे
अब भी मरते हो
३
मालधनी के काम सभी
विपरीत हुए
पेट जियाता रहा
मगर खुशहाली नहीं मिली
मालधनी को कभी भरी सी
थाली नहीं मिली
मालधनी के दिन मिर्ची
से तीत हुए
४
हर सुबह उठना समय को
ताकना फिर
एक कोल्हू बैल वाला
हाँकना फिर
झूठे वचनों पर चलती
है सारी आबादी
हम ही क्यों करतें अपने
जीवन की बर्बादी
नीति, नियम, सिद्धांत बेतुके
लगते हैं सबको
जो भी लय मार सगे से
लगते हैं सबको
चोला बदले है पहने है
भगवा या खादी
संग्रह के अनेक गीतों में यह कहने का सफल प्रयत्न किया गया है कि समाज ढोंगी और पाखंडी लोगों की भीड़ से अटा पड़ा है, धर्म अधर्म की परिभाषाएँ बदल गयी हैं, माफिया के आगे लोगों के घुटने झुके हुए हैं, समाज के पालनहारों की क्षमता पर सवालिया निशान उठ रहे हैं, कर्मठ समाज की तस्वीर बदलने लगी है और डर के साए में जीवन व्यतीत करने के लिए मनुष्य जैसे बेबस हो रहा है। समाज की विसंगतियों की परतों को खोलते बेबाक गीतों की इस बानगी को देखें। ये गीत समय और परिस्थितियों के सामने घुटने नहीं टेकते अपितु संघर्ष का सकारात्मक सन्देश प्रदान करते हैं।
एक माफिया बैठा है
सब हाथ जोड़कर खड़े हुए हैं।
१
ये क्या हुआ समय को
संबंधों में भय घोल रहा है
सभी आदमी सुनने वाले
एक आदमी बोल रहा है
कोई पक्ष विपक्ष नहीं है
स्वत्वहीन सब धड़े हुए हैं।
२
जब हम सुबह उठेंगे
भारी होगा मन
दिन जड़ता में बीतेगा
रातें होंगी उन्वन
हर कोशिश के आगे
पानी माँग रहा जीवन
३
अब डालर चलता है
रूपया पैसा बेकार हुआ
इनकी अर्थनीति से ही
भारत का बंटाधार हुआ
४
सूचनाएँ हर तरह से
कर रहीं गुमराह हमको
समाचारों से सभी
अखबार करते बेबफाई
शब्द लगते हैं ख़रीदे
अर्थ में है लगी काई
दृश्य प्रायोजित हुए फिर
क्यों इन्हीं की चाह हमको।
रमाकांत के गीत राष्ट्रीय भावना से भी ओत प्रोत हैं, उपेक्षित और समाज के हर पहलू को सफलता पूर्वक चित्रित करते हुए। कुछ गीत जुझारू प्रकृति के हैं जिनमें समाज में व्याप्त विडम्बनाओं पर करारा प्रहार है। कुछ गीतों में राष्ट्रीय मुददों को भी उठाया गया है। सामाजिक, राजनितिक, सांस्कृतिक, व्यवहारिक, अनेक प्रकार की पृष्ठभूमि से उठाए गए विभिन्न मुद्दे इन गीतों में पाठको से संवाद करते हैं। नवगीतों में ताजगी और सादगी की गज सकारात्मक उर्जा के साथ विद्यमान है। सम्रद्धि की नयी तलाश व सुख की कामना है। कवि की वाणी समाज के बदलाव की उम्मीद का दीपक प्रज्ज्वलित किये हुए है।
आत्महंता समय के
ये गीत हैं नवगीत है
उसी पेड़ की छाया में हैं
उसी पेड़ को काट रहे हैं
मज़बूरी है नहीं कोई
मगरूरी व्यापी है
ऐसी चाल चलन वाला
सब जीवन पापी है
खुद तो भोग रहे हैं
निर्दोषों को भी कुछ बाँट रहे हैं
सपने टूटे, फिर भी सपनों
का सत बाकी है
संघर्षों की अकथ कथा में
साथ नहीं कोई
हारे तो हारे हम
निर्मल दृष्टि नहीं कोई
एक एकाकी निर्ममता को
बहुमत बाकी है
रमाकांत के गीतों में वर्तमान की पारदर्शी झलक है तो भविष्य की जनचेतना की चिंगारी भी है। गीतों में कई आंचलिक और देशी शब्दों का प्रयोग भी हुआ है, ये शब्द गीतों की लय को बाधित नहीं करते, अपितु पाठक को उसकी पृष्ठभूमि से जोड़कर देशी एहसास का तड़का लगातें है। बघारे, खातन, छप्पन, माँगती। चलताऊ, निकम्मे, घुड़की , डिटर्जन्ट जैसे आम बोलचाल के शब्दों को भी गीतों में प्रयुक्त किया है, फिर भी गीतों में उबाऊ पन नहीं है। कुल मिलाकर रमाकांत का यह संग्रह पाठक को विद्रूपताओं व विसंगतियों को समझ कर सचेत करने में सक्षम होगा, एक अच्छे नवगीत संग्रह हेतु रचनाकार को हार्दिक बधाई ।
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गीत- नवगीत संग्रह - बाजार हँस रहा है, रचनाकार- रमाकांत, प्रकाशक-अनुभव प्रकाशन, ई – २८, लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाजियाबाद – ५ , प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये १४०/-, पृष्ठ-१०३ , समीक्षा - शशि पुरवार। ISBN- 978-93 84773-05-2
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