सच्ची और अच्छी कविताएँ मनुष्य के बेहतर जीवन का व्याकरण रचती हैं। अच्छी पंक्तियाँ सूक्तियों के रूप में प्रकट होकर हमारे दैनन्दिन जीवन को नई चेतना देती है। कवि अपने आस पास के जीवन को जितना पढ़ता है उतनी ही सार्थक अनुभूति उसकी कविताओं से प्रकट होती है। वरिष्ठ कवि यतीन्द्रनाथ राही के गीत भी अपने नैसर्गिक प्राकृतिक बिम्बों के कारण अधिक पठनीय और आकर्षक बन गये हैं। हवा का यह सुन्दर बिम्ब देखें -
यों हवा छूकर चली/संकेत में/कुछ कह गयीफूटकर रस निर्झरी सी/ छलछलाकर बह गयी।
ऐसे सहज और गंभीर अर्थबोध देने वाले बिम्ब किसी साधक कवि के पास ही मिल सकते हैं। 'हो गया है प्राण कोकिल' शीर्षक गीत की ये पंक्तियां पढ़कर अचानक बसंती हवा के अनेक बिम्ब और कविताएँ याद हो आती हैं। कविवर यतीन्द्रनाथ राही की कविताई से मेरा सम्पर्क कुछ दिन पूर्व उनके निराला पर केन्द्रित खण्डकाव्य 'महाप्राण' को पढ़ते हुए हुआ। प्रस्तुत कृति 'अँजुरी भर हरसिंगार' उनका गीत संग्रह है। इस कृति में कवि के इक्यावन गीत संग्रहीत हैं। आदरणीय देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी के आदेश और राही जी का आग्रह था कि मैं इन गीतों पर अपनी टिप्पणी लिखूँ सो प्रस्तुत हूँ। असल में राही जी के इन गीतों की खुशबू और उनका देसीपन ही उनकी मौलिकता है। कवि की ईमानदार अभिव्यक्ति में कवि का चेहरा झाँकता है। इन अधिकांश गीतों में नैसर्गिक सुगन्ध के साथ मानवीय चेतना की सार्थक ध्वनियाँ भी रेखांकित करने योग्य है। कवि की भाषा में छायावादी शिल्प की अनेक भंगिमाएँ भी दृष्टव्य हैं -
और तुम आए मलय की/शांत शीतल गंध से
प्राण में गहरे उतरते/राग रंजित छंद से
लय-विलय होते गये हम/ द्वैतत से अद्वैत में
स्वर्ग अपने रच लिए थे/पत्थरों में रेत में
भोर रूपा साँझ सोना/रात मधुवंती हुई
हो गया है प्राण कोकिल/देह बासंती हुई।
असल में यह पूरा का पूरा शृंगार गीत ही बहुत मनोरम है। नैसर्गिक सौन्दर्य और रोमानियत हिन्दी की विशेषता रही है। यतीन्द्रनाथ राही के कई गीतों में इसी नैसर्गिक प्रेम की छटा आकर्षित करती है। प्रेम होता है तो जीवन और जगत के प्रति गहरी आस्था का बोध स्वयमेव प्रकट होता जाता है। वास्तव में प्रेम ही आदिम कविता है। करुणा, वेदना, ओज, आक्रोश आस्था आदि सारे भाव प्रेम की ही विभिन्न प्रतिक्रियाएँ हैं। प्राचीन कवि और काव्यशास्त्री भोज ने तो शृंगार को ही सभी रसों और भावों का मूल बताया है। ये भाव प्रेम के प्रभाव या अभाव के कारण ही उत्पन्न होते हैं। यह प्रेम ही हे जो मनुष्य को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की चिर यात्रा की ओर चलने के लिए विवश करता है।
मुझे लगता है कि राही जी भी इसी निसर्ग के प्रेम के पथिक हैं। कवि के इन गीतों में अतीत स्मरण के साथ ही लोक चेतना और जातीय चेतना के विविध रंग देखने को मिलते हैं। जातीय चेतना ही जीवन के प्रति आस्था और विश्वास पैदा करती है। छन्दसिद्ध कवि राही जी के इन गीतों में अच्छे गीत की तमाम विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। लोक जीवन का एक चित्र देखें -
आयेंगे तो याद कभी वे/छप्पर के औसारआंगन की माटी की खुशबू/ममता और दुलार
पुरवैया की छुअन/देह में भर जाती सिहरन/
रसधारों के गीत/झमाझम बरसाते सावन
प्राणों में जब रस घोलेगी/नदिया की छल-छल
लौटैंगे/पांखी मुंडेर के/आज नहीं तो कल।
और देखें -
उड़ो जब तक पंख हैं/विस्तार है व्यापक गगन का
साँस में जब तक तुम्हारी/वेग है जाग्रत पवन का
कल किसी नक्षत्र पर/पढ़कर तुम्हारा नाम कोई
कीर्ति की गाथा नई/निश्चित दिशाओं पर लिखेगा।
जीवन्तता और प्रगति की कैसी अद्भुत पंक्तियाँ हैं ये। मनुष्य मात्र को प्रेरणा देने वाली अद्भुत पंक्तियाँ हैं। एक एक शब्द से आशा की किरणें फूटती सी लगती हैं। राजी जी के गीतों में यह सदाशयता वाला आस्था का भाव बखूबी उभरता है -
यह अमावस की निशा काली/न जाने क्या करे
एक दीपक तुम जगाओ/एक दीपक हम धरें।
यह जो दीप जगाने की परम्परा है उसे आज के कवि को राही जी से समझना सीखना चाहिए। जो कवि अपने को, लोक को जानता है वही गीत लिख सकता है। बल्ब या ट्यूब ऑन करने वाली, पश्चिम का अन्धानुकरण करने वाली फैशनपरस्त नई पीढ़ी को कवि हमारी संस्कृति की बारीकियाँ समझाते हुए आगे बढ़ता है। सच्चा कवि अपनी संस्कृति का प्रवक्ता होता है। एक सांस्कृतिक बिम्ब देखें -
लिपे पुते गोबर के आँगन/छाँव नीम की पीपल पावनचौके चौबारों की छबियाँ/रांगोली की भावाकृतियाँ
दीप होलिका सावन कजरी/घट भर पनघट-अधजल गगरी
पीछे टूट गयी हैं जितनी/मोरपंखिनी सुधि सौगातें
कितनी कही अनकही बातें।
अंजुरी भर हरसिंगार के इन गीतों को पढ़ना मेरे लिए जगाये हुए दीपक की रोशनी में नहाने जैसा एक सुखद अनुभव रहा। इसके अतिरिक्त रही जी के इन गीतों में नवगीत के तेवर भी साफ तौर पर देखे जा सकते हैं। नए छन्द नई विषय वस्तु और नई जमीन के कुछ गीत भी अच्छे बन पड़े हैं। एक उद्धरण देखें -
बिग बजारू सभ्यता/उन्मुक्त यह वैश्वीकरण
तुम खरीदो या बिको/सब मुक्त हैं अपने चयन
राग अपने वाद्य अपने/कौर किसको पूछता है?
है बहुत मुश्किल समझना/कौन किस पर थूकता है
श्लीलता के पाठ/आदम ने लिखे/सो पढ़ लिए
जिन्दगी के रूप/हमने गढ़ लिए।
हरसिंगार का एक ही फूल वातावरण को सुवासित करने के लिए पर्याप्त होता है, यहाँ तो राही जी हरसिंगार के फूल से अँजुरी भरे हुए हैं, ये गीत अपनी खुशबू से मन-प्राण को गहरे तक सुवासित ही नहीं, देर तक संवादित भी करते हैं। आशा है सुधी गीतप्रेमी पाठकों को घर आँगन के ये गीत अच्छे लगेंगे। अंतत: समकालीन हिन्दी कविता में राही जी के इन गीतों का मैं हृदय से स्वागत करता हूँ। फोन पर यही राही जी की खनकती आवाज़ का जादू है कि मुझे उनकी चौरासी वर्ष की आयु का अनुमान ही नहीं होता। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह राही जी को दीर्घायु करे। नयी पीढ़ी को अभी उनसे बहुत कुछ सीखना समझना है।
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पुस्तक : अँजुरी भर हरसिंगार, गीतकार : यतीन्द्रनाथ राही, मूल्य : १२५ रुपये, प्रकाशक : ऋचा प्रकाशन १०६ शुभम् ७ नं. बी.डी.ए. मार्केट, शिवाजी नगर भोपाल- १६ समीक्षा लेखक : भारतेन्दु मिश्र, प्रथम संस्करण-२०१०
यह तो राही जी ने पुस्तक की भूमिका के लिए लिखवाया था। किताब में इसी प्रकार छापा भी गया है।
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