रविवार, 1 सितंबर 2024

आइने अँधरा गए - राम निहोर तिवारी

राम निहोर तिवारी का नवगीत संग्रह आईने अँधरा गए उनकी सहज रचनाधर्मिता का प्रतीक है। वे कबीरमार्गी विचारधारा के अनुगामी हैं, उनकी भाव समाधि गहरी और गंभीर है। उनकी भावप्रवण अनुभूतियों के अंतिम शिखर को छू कर लौटी हुई, चेतना के पंख जब समय के खुले अधखुले पन्नों पर खुलते हैं, तो एक थरथराहट सी होती है, और दर्ज होता है, एक ज़मीनी एहसास से लबरेज़ शब्दों का नायाब तर्जुमा, जिसकी मधुर मद्धम सुवास से हम अभी तक नितांत अनजान थे। बेहद सरल और सहज भाषा में उनके नवगीतों की रचना बार बार अपनी ओर खींचती है—
‘झीनी बीनी फटी चदरिया फिर-फिर धोने में
फूट गया घट बार-बार के छाछ बिलोने में
उलट बासियों की काँवर ले निरगुन भटक रहा
सगुण साधने वालों की आँखों में खटक रहा
कंधे थके संस्कारों के ख़ुद को ढोने में’

गीत वास्तव में हमारे अन्तर्नाद की वीणा है, शब्द शक्तियों में व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियाँ काव्य की वह महत्वपूर्ण शब्द शक्तियाँ हैं, जिनसे काव्य का अद्भुत सौंदर्य शास्त्र और कला पक्ष निर्मित होता है, सहृदय के लिए अभिधा की उक्ति अधिक प्रभाव पूर्ण नहीं होती, जबकि लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्तियाँ काव्य में सरसता, प्रभुविष्णुता एवम् चमत्कार उत्पन्न करके दीर्घ समय के लिए भावक को रससिक्त करने में पूर्ण समर्थ होती हैं। हिन्दी जगत के लिए उदाहरण प्रस्तुत करती निम्नांकित यह रचना अद्भुत रूप से प्रभावित करती है, अपने अप्रतिम शब्द सामर्थ्य के कारण– ‘सर्वनाम के सम्मुख सहमीं जोड़े हाथ खड़ी संज्ञाएँ बिना विशेषण वैशिष्ट्यों का अभिनंदन कर रहीं क्रियाएँ। विच्छेदित हो रहीं सन्धियाँ विग्रह से विचलित समास हैसंशय ग्रस्त समय का प्रत्यय मन विसर्ग का उपन्यास है। कर्म हीन कर्ता के हिस्से सकल पदारथ की सुविधाएँ‘आज का समय जितना क्रूर है, उतना ही अश्लील भी, संवेदनशून्य है, तो उत्पीड़क और दुर्दांत हिंसक भी! शास्त्रीय स्थापनाओं से भी बहुत अपेक्षा नहीं है, बाजार और राजनीति हर जगह अपने पंख फैली रही है। इन परिस्थितियों में दुनियावी और बाजारू संस्कृति से निराश कवि मन यह भी कह उठता है- ‘सूरज की टोह व्यर्थ है‘

‘चिरंजीवी जल्पकों का सुयश गायन कर रहीं है सुर्ख़ियाँ अख़बार की 
भूख के हाथों बिकी बाज़ार में सिर उठाती चेतना प्रतिकार की 
सगुन निरगुन की चदरिया ओढ़ कर 
काँख में बीजक दबाए चल रहा 
वक़्त बौने बोध के निहितार्थ पर
उलट बाँसीं व्यंजना को छल रहा 
साखियों की ओट लेकर वंचनाएँ भिन्न लोकाचार की‘

वास्तव में सच को जीवन में बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है, थका हारा मन बस पछतावे की भाषा में फिर कह ही उठता है– ‘फटी पुरानी चौबन्दी का रोज़ रोज़ धोना / भीतर भीतर साल रहा है हरिश्चंद्र होना / अर्थ हीन हो गया लोकहित कालकूट पीना’। दमित चेतना और दमित महत्वाकांक्षाएँ अक्सर निर्वाक हो जाती हैं– ‘राह रोके जल जलधि से कौन जाने कब थमेगा सिलसिला अनुनय विनय का / हस्तगत उपलब्धियों में मेमनों की है कहानी / दमित पीढ़ी की निशानी भेड़ियों के हाथ अब भी / शंख उद्घोषित विजय का’

‘फूटे घट की जल यात्राएँ’ शब्दों की गहन अर्थवत्ता और महती प्रसार की संभावनाओं से ह्रदय की संपूर्ण अभिव्यक्ति और रससिक्तता कितनी सहजता से हो जाती है, देखें पंक्तियाँ– ‘बिखरे छंद बंद रचना के अनुबंधित बिखरी मात्राएँ / जीवन भर करते आये हम फूटे घट की जल यात्राएँ‘। निहोर जी की रचनाओं में एक स्पष्टता देखने को मिलती है, बहुत प्रखरता से, वे संस्कार और परंपरा को अधिक महत्व तब नहीं देते जब उनके समक्ष मानव जीवन ही संकटग्रस्त हो– ‘परंपराओं का अंधापन पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है / ग्वाल बाल गोरस को तरसें हवन कुंड में घी जलता है। राजनैतिक विमर्श का कड़वा पाठ उन्होंने खूब पढ़ा है, वे नहीं चाहते, कि खोखले विमर्श जीवन के यथार्थ से बड़े हों जायें, और जीवन उसकी चकघिन्नी बन कर उसकी दया पर जीवित रहने को बाध्य हो—
‘अंधे राजा बधिर सलाही गूँगे दरबारी  
सदा सुहागिन राजनीति की शकुनि से यारी  
बदला वक्त पाठ्यक्रम बदला बदल गई पोथी 
नैतिकता के अनुमोदन की बातें हैं थोथी 
लाज बेच घर चला रही है बेवा लाचारी‘

वास्तव में यथार्थवादी साहित्यकार सच को अपने शब्दों की धार से इतना पैना बना देता है, कि वह सीधे व्यवस्था के ह्रदय में चोट करता है , व्यंग्य उसका दूसरा हथियार है, सत्ता और समाज दोनों ही जब बहरे हों जाएँ तो उन्हें नगाड़े बजा कर भी जगाना पड़ सकता है, कोई भी सजग साहित्यकार सत्य को विकृत नहीं करता, वरन उसे संघर्ष की भट्टी में तपा कर चौबीस कैरेट का स्वर्ण बना देता है, जिसका मूल्य सदियों तक कम नहीं होता ! वह खरा दोना उसका साहित्य ही हो सकता है– ‘कोयल की अमराई कौवे के नाम बंधु इस व्यवस्था को कोटिशः प्रणाम / अपराजित अंधियारा निगले आकाश / तेल दिया बाती का खंडित विश्वास / सूरज को डाँट रही बड़बोली शाम।‘ इस व्यवस्था में समाज का हर वर्ग सुखी नहीं है, यह व्यवस्था एक ख़ास वर्ग को ही सारी सुख सुविधाएँ मुहैया कर सकती है, उसे परवाह नहीं है उघड़ी पीठ वालों की, बेरहम इस व्यवस्था को ही क्यों न ख़त्म कर दिया जाये— 
‘पीड़ा उघड़ी फ़र्श क्षत छप्पर व्यथा किससे कहें  
साँप का सूँघा समूचा घर व्यथा किससे कहें  
घन सघन संकेत हैं लय के  
हो गये पर्याय दिन भय के  
रात डायन भाँजती खप्पर व्यथा किससे कहें’

सरकारों का भय जनता में होना बहुत नाइंसाफ़ी है, लोकतंत्र एक भीड़ का नाम नहीं एक सुव्यवस्था और सबकी समानता, समरसता का नाम है, फिर ये ऊँच नीच का खेल कौन खेलता है? ‘जनपद में सरकार गढ़ी की / जहाँ जहाँ सिर गये उठाये पड़ी दुनाली मार गढ़ी की / कुशल क्षेम अपनी यदि चाहो / किए चलो मनुहार गढ़ी की / सावधान कुत्तों से ख़तरा चढ़ो न सीधी यार गढ़ी की / बोलो जय जयकार गढ़ी की।’ यह बंजारा साहित्यकार दुख और सुख के पलड़े दोनों को सम भाव से उठाये हुए जीवन यात्रा पर निकल पड़ा है, इसके सामर्थ्य से दिशाएँ भी डोल रहीं है, क्योंकि एक कवि का ही यह सामर्थ्य तो हो सकता है, कि वह चुनौतियों को भी चुनौती दे सके, पर उसे कभी भी कोई निंदा या प्रशंसा उसे उसके सन्मार्ग से नहीं डिगा सकती— ‘सुख जितने भी मिले सभी दुख के हरकारे हैं / इच्छावन के भूले भटके हम बंजारे हैं / प्यास बुझाते कहाँ समंदर सातों खारे हैं।‘ समय का आईना आज अंधा हो गया है, निर्णय लेने की या न्याय करने की क्षमता उसमे नि:शेष हो चुकी है, अब कैसे कौन किसे राह दिखाए ! संकल्प और विकल्प के भी रास्ते अंधे हो चुके है, राहगीर रास्ते से भटक रहा है– 
‘आईने अंधरा गये हैं न्याय नामुमकिन 
जियें कैसे 
रात के आतंक का अनुवाद लगता दिन 
जियें कैसे  
सभ्यता के पाँव लम्बे रास्ते सँकरे 
मेमनें हम ज्यों कसाई हाथ के बकरे  
मौत के मुँह में फँसे क्षण कटें पल छिन गिन 
जियें कैसे’

रामनिहोर जी की चिंता है, कि वे आज भी ज़िंदगी रूपी मठ में रहने के तौर तरीक़े नहीं सीख पाए, क्योंकि उन्हें कुटिलता और कूटनीति दोनों ही नहीं आती ! जीवन के संघर्ष इतने कठिन रहे, कि उनकी उम्र भी रेशा रेशा घिस चुकी है, सहते सहते जीवन पर्यंत दुःख का ताप-- ‘जीवन बीता सीख न पाये मठ मन्दिर के तौर तरीक़े / गर्भ ग्रहों में बिछते बिछते रेशे रेशे हुए दरी के / अपना कुछ हिसाब ऐसा था हर के हुए न हुए हरी के।‘ राजनैतिक विमर्श कवि का सर्वप्रिय शग़ल है, कवि सरकारों के सामंती रवैये से खीज कर व्यंग्य की शरण में चला जाता है, और फिर व्यंग्य के नुकीले तीरों से वह राजनैतिक अनाचार का परदा तार तार करना चाहता है— ‘शिलालेख अपने माथे का बाँच रहा है राम भरोसे / प्रजातंत्र के सिंहासन पर सामंती सरकार झेल कर / रहवर की रहमार झेल कर युग शापित श्रद्धा की झोली / टाँच रहा है राम भरोसे।’ 

कवि समाज की अन्याय पूर्ण वितरण प्रणाली से बेहद ख़फ़ा है , किसी को मन भर तो किसी को तोला भर राशन ! किसी को जीवन भर की सुख सुविधा, तो किसी को जीवन भर का नर्क – ‘हरे भरे अधिनायक हैं क्यों सूखा जन गण मन / लोकतंत्र से पूछ रहा है पीढ़ी का बचपन / मुखिया को घर बैठे हासिल सबकी सब सुविधा / आम आदमी भोग रहा क्यों अंत हीन दुविधा।‘ समय का दर्पण सब कुछ देख रहा है, पर उसकी आँखें बंद हैं, या उसने जानबूझ कर आँखें बंद कर ली हैं, व्यवस्था छिन्न भिन्न है, नैतिकता अनैतिकता में बदल गई है, कदाचार ने सदाचार की जगह घेर ली है, ऐसे परिवेश में दम घुट रहा है — 
‘बहुरूपिये बैताल समय के अनगिन बिंब जिये
सब कुछ देख रहा है दर्पण आँखें बंद किए 
नैतिकता के कदाचार के हैं अभियोग लगे  
सहमे लगे सूत्र जीवन के फिरते भगे भगे  
कहाँ करें फ़रियाद फ़ैसले बेच रहे बनिये’

लोगों की मानसिकता इतनी गंदी और नीच प्रकृति की हो चुकी है, कि पीठ पर वार करने के लिए अब कोई मुँह भी नहीं छुपाता, सामने सत्कार करने वाले ही पीठ पीछे छुरा घोपे रहें हैं– सामने सत्कार पीछे / पीठ पर ख़ंजर / हो रही संवेदनाओं की धरा बंजर / चेतना को डस गई है, स्वार्थ की साँपिन जिये कैसे’। पीढ़ियों का शोक लेकर कलम अब उठती नहीं, रचना कार असहाय हो चुका है, उसका दर्द मात्र उसका दर्द नहीं है, वह तो संपूर्ण मानवता की सेवा के लिए प्रतिबद्ध ही है– ‘कालपत्र पर लिखेगी पीढ़ी अपनी भूल / उपवन में केवल बचे नागफनी के शूल / कटे पेड़ वर्षा घटी जल पहुँचा पाताल / फिर भी अंधे स्वार्थ का बदला नहीं ख़याल / मौसम पल में हो गया जीवन के प्रतिकूल’। 

सरकारों की नीतियों ने आमआदमी के सिर पर बहुत तगड़ा वार किया है, कोई इससे बच नहीं पाया– ‘वक्त सुबह की उम्मीदों पर फेर गया पानी / किसको यहाँ लोक की चिंता तंत्र नवाबी है / स्वार्थ सिद्ध साधक साधन का मंत्र प्रभावी है / तिल तिल तेल निकाल रही अधिनायक की घानी’। कवि कहता है, कि उजाले हार जाते हैं, तो मायूस मत होइए, कल का सूरज फिर नई उम्मीद के साथ उगेगा, और शाम फिर से नई सुबह में बदल जाएगी, बस थोड़ी सी पेशगी और बाक़ी है अंधेरे की— 
‘उजियारे की हार देख कर मौन नहीं रहिए 
अख़बारों के खोजी खबरी संपादक चुप हैं  
बड़बोली सत्ता के आगे सबके होठ सिए  
बस थोड़ा सा और अंधेरा जी लें पीर पिये’

जबरन खुश दिखने की होड़ लगी है , लोग ठोकरें खा खा कर भी मुस्करा रहें हैं, आपकी मुस्कान में चेहरे की शिकन को छुपाने की नाकाम कोशिशें भी जारी हैं— ‘तुष्टि का चश्मा चढ़ाये सुबह से एक अंधा सुख भटकता शाम तक / ज़िंदगी के आख़िरी आयाम तक / शब्द जालों में फँसे रह जाएँगे / पाँव पहुँचेंगे नहीं परिणाम तक’। ‘आपकी ख़िदमत में’ व्यंग्य से नहाए हुए शब्द और तीर सी चलती भावों की मारक शैली, पूरा का पूरा शमा निहायत क़रीने से और शराफ़त से मुक्तकों के छोटे छोटे पत्थर मार रहा है– ‘फूल कर गुलाब हो गये /बंधु लाजवाब हो गये / वक्त क्या कबीर का गया / दोगले नवाब हो गये’

निर्गुण पंथ के राही निहोर जी ज़िंदगी का कड़वा सच भी खूब जानते हैं, उन्हें पता है, कि सच बोलने की क्या सजा मिलती है यहाँ— ‘निरगुन बानी बोल के देख / फिर ख़ुद को ख़ुद तोल के देख / टूटेंगे काशी के मानक / मगहर का सच बोल के देख’। उर्मिला के बहाने, सीता के बहाने सूर्पनखा के बहाने रचनाकार ने पारंपरिक मिथकों को भी तोड़ने में या उन पर प्रहार करने में जरा भी संकोच नहीं किया, उनकी बेबाक़ लेखनी कबीर की भाँति हर ग़लत का प्रतिवाद करती रहती है– ‘सभासदों का मौन समर्थन न्याय कहाँ का / लक्ष्मण का अंधा अनुवर्तन न्याय कहाँ का / दया सिंधु कौशिल्या नंदन राम सगर्भा / सीता का वन में निष्कर्षण न्याय कहाँ का।‘ राम को भी सीख देते हुए कहते हैं, कि आप स्वयं अपनी ग़लतियों के प्रायश्चित करें, और फिर नई प्रतिस्थापनाएँ करें–
‘अपने आगे अपनी गलती गुनो राम जी
धुनी धुनाई रूई दुबारा धुनो राम जी
भूल चूक लेनी देनी के कारण फिर से
रामराज’ की नई चदरिया बुनो राम जी‘ 

आज के स्वार्थी मनुष्य को लक्ष्य करके रामनिहोर जी मारक व्यंग्य करते हैं, कि सारी धरती का प्राकृतिक अवदान आपके लिए ही है, आप ही भोक्ता हो, आप ही नियंत्रक और आप ही आप के विनाश के कारक भी– ‘तरुवर बाग बहार आपकी ख़िदमत में / निर्झर नदिया नार आपकी ख़िदमत में/ अपलक पलक बिछाए बैठी धरती का / सारा कारोबार आपकी ख़िदमत में’। व्यंग्य किस तरह शब्दों को धारदार शक्ति देता है, काव्य की प्रभुविष्णुता क्षमता और प्रभावोत्पादकता कितने हज़ार गुना बढ़ जाती है, यह बेहद अद्भुत है– ‘सरकारों की नीतियों को भाषा के आवरण में लपेट कर पटकी देना भी उन्हें खूब आता है, ये तो काव्य का सबसे सामान्य और प्रचलित रूप है, जिसे हम व्यंग्य कहते है– 
‘फैले पंख कतर देते हैं राजा हैं 
अपने मन की कर लेते हैं राजा हैं  
दान दक्षिणा ले चुनाव की बैतरणी 
बिन तरणी के तर लेते हैं राजा हैं’ 

करुण अभिव्यंजना और उसमें मार्मिकता का निर्वाह कितनी सफल अभिव्यक्ति है। मनुष्य कुछ ऐसे स्वभाव साथ में लाया है, जो उसे कभी भी पूरी तरह मनुष्य बनने नहीं देते, स्वार्थी, मतलबी होना, दूसरों की प्रगति से ईर्ष्या, चारित्रिक दोषों से भरपूर यह निर्मिति कहीं न कहीं उसे तबाह ही करती है , फिर भी उसका अधिकार पूर्ण रवैया अहंकारी तेवर कभी कम नहीं होते– ‘पर हद में उड़ान आपकी हद में हो / धरती आसमान आपकी हद में हो / आप प्रश्न पत्रों की बात करते हैं / सारा इम्तिहान आपकी हद में हो‘। थका हारा कवि मन अब विदा चाहता है, इन जंजालों से, पीड़ा के छालों से, बेतुके सवालों से, और दुनियायावी चोचलों से भी पूर्ण मुक्ति— ‘बेसुरों के सुर में सुर को मिलाते / बहुत थक गए दर्द हम गाते गाते / अगर उसने चाहा दुबारा मिलेंगे / नमन आपको बंधुवर जाते जाते’

रामनिहोर जी के काव्य में निहित जीवन दर्शन नीतिगत वैशिष्ट्य, संस्कृति संरक्षण के साथ ही, संत पथ की सरलता, भक्ति वांगमय की समरसता और प्रगति वादी काव्य के अर्वाचीन तत्व भरपूर मात्रा में मिलते हैं, कथ्य इनका भारतीय समाज और भारत का राजनैतिक परिदृश्य है, जहाँ कहीं भी विसंगतियाँ है, वहाँ इन्होंने भरपूर वार किया है, इनकी कलम से जो कटाक्ष रूपी वाण निकलता है, वो सीधे लक्ष्य को भेद जाता है, और उन असंस्कृत चोटिल निर्मितियों को, अधिक देर तक सहेजने की भी आवश्यकता नहीं है, और रामनिहोर जी जैसे गीतकारों को तो बस एक खुला आकाश चाहिए, जो भारतीय परंपरा की नींव को और भी अधिक ऑक्सीजन दे सके, फल सके, फूल सके, इसके लिए वे अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने को भी कबीर की तरह तैयार हैं। रामनिहोर जी की रचनात्मकता का, जो बेहद ध्यानाकर्षित करता है, वह है रससिक्त छांदसिकता! क्योंकि छन्द का निर्वाह और बात है, और उसमें दक्षता और बात है। दोनों में बड़ा अन्तर है, दक्षता योग्यता की पराकाष्ठा है, जिसके कारण भावक का मन पूर्ण रूप से कविताई के आनंद में रस्मग्न हो जाता है, और उसे पूर्ण काव्यानंद की प्राप्ति होती है, जो बहुत कुछ पुष्ट छंदआश्रित है! 

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नवगीत संग्रह- आइने अँधरा गए, नवगीतकार-राम निहोर तिवार, परिचय- डॉ. रंजना गुप्ता, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर, कवर- पेपर बैक, पृष्ठ- १४०, मूल्य- रु. १५०, ISBN-10. 9355366833 ·
ISBN-13. 978-9355366832 

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