मंगलवार, 3 मई 2011

कहो सदाशिव - यश मालवीय

नये मनुष्य की प्रतिष्ठा आधुनिक युग की चेतना का प्रेरणादायी प्रतीक है तथा विसंगति का दंश और संगति के लिये छटपटाहट नयी कविता की पहचान। कहो सदाशिव ! यश मालवीय का प्रथम गीत संकलन है, जिसका समर्पण वात्सल्य की भूमि पर खड़े होकर आकाश का स्पर्श करता है - पिता रूप में, जो रचे बसे हैं गीतों में, काव्य के विषय में उमाकांत मालवीय का जीवन व्यापी अनुभव था- गीत एक अनवरत नदी है, किंतु तन्मयता को रेखांकित करते हुए वीरेंद्र मिश्र आगाह करते है -

गीत है पढ़ो झूम लो, सिर्फ मुखड़ा पढ़ो चूम लो
तैरना दो समय की नदी, डूबने का निमंत्रण न दो

इसमें संदेह नहीं कि मैने कहो सदाशिव के हर गीत कथन को आत्मीयता के साथ सुनने और समझने की चेष्ठा की है, मुझे समृद्धि का अनुभव हुआ है, मैं मान लेता हूँ कि समय की नदी में डूबने का निमत्रण यश को मिला पर उसने किया क्या कि अभी तक उसके  ‘हाथ ऊपर दिख रहे है’

डूबते गहरी नदी
हाथ ऊपर दिख रहे हैं
हम कि शायद
आज के इस दौर पर
कुछ लिख रहे हैं।

दौर में की जगह दौर पर का अहसास यह बताता है कि यश की काव्यानुभूति पूरे दौर को तटस्थ होकर देखने की शक्ति भी रखती है। मैं की जगह हम का प्रयोग भी यही बताता है कि कवि अपने को अकेला नहीं मान रहा है। अपने आस पास की ज़िंदगी की जड़ें जितनी ऊपर दिखती हैं उससे अधिक धरती के भीतर हैं, जिसका उसे अनुभव है।

जिसकी जड़ को पता नहीं हो,
वही शाख बरगद होती है

काले दुःस्वप्नों के बीच हाथों में पड़े छालों को भूल कर जब कवि नाव का सहारा लेता है तो ‘समय की नदी‘ समस्याओं की नदी बन जाती है, यश के इन गीतों में गहरा सन्नाटा सच्चाईयाँ संजोता हुआ दिखाई देता है ऐसी सच्चाइयाँ जो संगति से अधिक विसंगति को बोध कराती है, अनेक चिंतक मानते है कि भारतीय जीवन स्वभावतः उत्सवधर्मी है पर कवि ‘उत्सव है जीना‘ कहकर भी देखता है लोग जहर घूट घूट पीना सीख रहे है। इस संग्रह में व्यंग्य का स्वर मुखरित हो चुका है। साही समृति के काव्य पाठ में जो कविता यश जी ने चुनी थी वह इसका प्रमाण है -

कमरों में कामरेड बैठे है
सड़को पर खून बह रहा है
जंगलों में गीत बह रहे है
कितना कुछ शब्द सह रहा है
और अंत में वह स्वयं कहते है -

बदलेगा यह सब कुछ बदलेगा
मूर्ख है कौन कह रहा है

बदलाव की बेचैनी को आधुनिक कविता की पहचान मैने ही कहा था पर यश जी का अंतर्मन उसकी निरर्थकता को पार करते हुए शब्द की सहन - शक्ति के कगार पर पहुँच गया है।
इन कविताओं में व्याप्त चित्र चेतना ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया है, क्योकि, मुझे ‘परा’ से ‘पश्यन्ति’ वाणी अधिक आकर्षित करती है आँधियों में भी दीयों के चित्र उकेरने का साहस किया है वह महादेवी जी का ही नहीं मेरे भी आशीर्वाद का अधिकारी है अनेक कवितायेँ ताल ले स्वर की डोर के सहारे नए दौर में शब्द सागर थाहने को अग्रसर दिखाई पडती है, क्योकि उन्हें माए तुकों नए समीकरण तथा नए भंगिमाओं की तलाश है यह तलाश कहीं कहीं तुक शैथिल्य भी पैदा करती है जिससे लगता है की कवि कारीगरी तक अपने को सीमित नहीं मानता।

‘पहचान अक्षर की’ शीर्षक कविता मुझे निराला संदर्भी अपनी कविता की यह पंक्ति याद दिला गई।
दृष्टि तीखी ज्यों समय पर कर रही हो व्यंगपंडित इला चन्द्र जोशी ‘व्यंग्य’ से कहीं अधिक सही व्यंग को मानते थे कदाचित उक्त पंक्ति में मैंने भी उसी मान्यता को अपनाया है।

सामान्यतया नै कविता को अंदर स्टेटमेंट की कविता माना गया है क्योकि सही शब्द के खोज के प्रति उसका झुकाव औरों से अधिक हो गया था यूरोपीय चिंतकों को भी यह नयेपन की पहचान परितोषप्रद लगी क्योकि वहाँ भी पिछली कविता “ओवर स्टेटमेंट” से ही पहचानी जाती थी भारतीय कविता इस सन्दर्भ में उससे भी आगे थी और अब भी है। गीत कविता या नवगीत इस विषय में अपवाद नहीं है, किन्तु उसका स्वभाव नई कविता से भिन्न है यह मैं जानता हूँ की मेरा अनुभव अन्य नए काव्य संग्रह पर आधारित है जो प्रसिद्ध हुए है, ‘कहो सदाशिव’ विशेष को सामान्य और सामान्य को विशेष बनाने में उतना सजग नहीं है जितना अपेक्षित है, निजी अनुभव को सभी का अनुभव मान लेना इतना सहज नहीं है, जितना लगता है। हर स्थिति, विशेष स्थिति का पर्याय बन जाती है यह भी विचारणीय हो जता है। फिर भी कविता का स्वभाव कवि को प्रेरित करता है की वह जिसे सम्बोधित्त कर रहा है उससे उसका जन्म जनम का नाता है भाषा और अभिव्यक्ति की अनेकमुखी कठिनाई को जीतने का संकल्प ही तो उसे सार्थक कवि बनाता है “कवि वही जो अकथनीय कहे” मेरा निजी अनुभव रहा है।

अविस्मरणीयता तथा प्रतिभा दीप्ति किसी भी कविता को अभिव्यक्त के इतर विधाओं से विशेष बना देती है, इस नाते “कहो सदाशिव” की पंक्तियाँ अलग तरह का अस्वाद देती हैं, जीने का विशुद्ध स्वीकार भिन्न स्टार प्रदान करती हैं“पाँव से लिपटी प्रथाएँ तोड़ आये”, “गीत संस्कृति है समन्वय की”, “बधिक कहाँ सुनता है चीखें”, “आईने भी खून से तार हैं”, “धड़ नहीं हैं दूर तक बिखरे हुए सर हैं”, “नींद की चादर कुतरता स्वप्न का मृग”, “कुछ तो जी लें बिलावजह”, “चिड़ियों के पंखों बारूद भरा है”, “चित्र भय से टाँगती दीवार सूनी सी”, “लिखे पसीना गीत पसलियों पर”, “झनझनाता बांस का जंगल घना”, “है सरोवर आँख में हम स्वप्न तिरती मछलियों के”, “सभ्यता की लाश कोहरा देहरी पर धर गया है”, और न जाने ऐसी ही कितनी पंक्तियाँ इस संग्रह को विशेष बनाती हैं, कहीं कहीं पूरे गीत खराद पर चढे दिखाई देते हैं। “अखबार”, “कालबेल” और “पंचर” जैसे दैनन्दिन शब्द जीवन की साधारणता की याद दिलाते हैं पारिवारिक संबंधों को मानवीय सरोकार के रूप में देखा गया है, पर उनमें जो ऊष्मा है वो तिरोहित नहीं हुई है अनेक शब्द प्रयोग चौंकाने वाले हैं पर उन्हें इस संग्रह की पहचान नहीं कहा जा सकता है क्रान्ति का ठंडा पड़ता अहसास ही मुख्य है इसमें।
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पुस्तक : कहो सदाशिव, गीतकार : यश मालवीय, मूल्य : १३० रुपये. ISBN : 81-85377-26-x, प्रथम संस्करण-१९९२, प्रकाशक : आशु प्रकाशन ११४३/३१ पुराना कटरा इलाहाबाद २११००२ समीक्षा लेखक : जगदीश गुप्त (संडे मेल २५ -३१ दिसंबर १९९४ से साभार)

1 टिप्पणी:

  1. डा० जगदीश गुप्त द्वारा लिखी गई समीक्षा को पुनः प्रकाशित करने से नवगीतकारों को इस दिशा में बहुत गहराई तक नवगीत को समझने का अवसर मिलेगा। ऐसी ऐतिहासिक समीक्षाएँ पाठशाला के लिये बहुत लाभप्रद हैं।

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