शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

शब्द वर्तमान -जयप्रकाश श्रीवास्तव

भारत के ह्रदय प्रदेश नर्मदांचल में आधुनिक हिंदी (खड़ी बोली) अपने शुद्धतम रूप में बोली-लिखी जाती है। इस अंचल के रचनाकार प्रचार-प्रसार को महत्व न दे, रचनाकर्म को स्वांत: सुखाय अपनाते रहे हैं। फलत:, वे चर्चा में भले ही न बने रहते हों किंतु रचनाधर्मिता में हमेशा आगे रहे हैं। जयप्रकाश श्रीवास्तव इसी परंपरा के रचनाकार हैं जो कहने से अधिक करने में विश्वास करते हैं। मन का साकेत गीत संग्रह (२०१२) तथा परिंदे संवेदना के गीत-नवगीत संग्रह (२०१५) के बाद अब जयप्रकाश जी शब्द वर्तमान नवगीत संग्रह के साथ गीत संसद में दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। वे नरसिंहपुर जिले की लोक परंपरा और शिक्षकीय भाषिक संस्कार की नींव पर आम आदमी की व्यथ-कथा की ईटों में आशा निराशा का सीमेंट-पानी मिश्रित मसाला मिलते हुए जिजीविषा की कन्नी से नवगीत की इमारत खड़ी करते हैं।

जय प्रकाश जी के नवगीतों में समसामयिक समस्याओं से आँखें चार करते हुए दर्द से जूझने, विसंगतियों ले लड़ने और अभाव रहते हुए भी हार न मानने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। इन नवगीतों में मानव मन की जटिलता है, संबंधों में उपजता-पलता परायापन है, स्मृतियों में जीता गाँव, स्वार्थ के काँटों से घायल होता समरसता का पाँव, गाँव की भौजाई बनने को विवश गरीब की आकांक्षा है, विश्वासों को नीलाम कर सत्ता का समीकरण साधती राजनीति है, गाँवों को मुग्ध कर उनकी आत्मनिर्भरता को मिटाकर आतंकियों की तरह घुसपैठ करता शहर है। जयप्रकाश जी शब्दों को शब्दकोशीय अर्थों से मिली सीमा की कैद में रखकर प्रयोग नहीं करते, वे शब्दों को वृहत्तर भंगिमाओं का पर्याय बना पाते हैं। उनके गीत आत्मलीनता के दस्तावेज नहीं, सार्वजनीन चेतना की प्रतीति के कथोकथन हैं। इनकी भाषा लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता तथा उक्ति वैचित्र्य से समृद्ध है

''कल मिला था
शहर में इक गाँव
सपनों की लिए गठरी''

सपनों को खुला आकाश न मिलकर गठरी मिलना ही इंगित करता है कि सपनों को देखनेवाले गाँव हालत चिंतनीय ही हो सकती है-

"आँखों में नमी ठहरी
सत्ता हो गई बहरी"

और अंतत:
"लाँघता झूठ की देहरी।"

बुभुक्षति किं न करोति पापं.... विडम्बना यह कि शहर के हाल भी बेहाल हैं-

"तुम्हीं बताओ
शहर कहाँ है?
अभी यही था
गया कहाँ है?
घर सारे बन गए दुकानें
कुछ तो बोलो
आम आदमी
आखिर क्यों
लाचार यहाँ है?....
चौपट सारी हुई व्यवस्था
मूक-बधिर
कानून जहाँ है।"

इतना ही होता तो गनीमत होती।
हद तो यह कि जंगल की भी खैर नहीं है-

"लिख रहा मौसम कहानी
दहकते अंगार वन की
धरा बेबस
जन्मती हर ओर बंजर
हवाओं के
हाथ में बुझे खंजर"

और अंतत:

"यह चराचर जगत फानी
बन गया समिधा हवन की।"

जय प्रकाश जी के नवगीतों का मुखड़ा और सम वजनी पंक्तियाँ सार कह देती हैं, अंतरा तो उनका विस्तार जैसा होता है-

"उड़ मत पंछी
कटे परों से
बड़े बेरहम गिद्ध यहाँ के
(अंतरा)
तन से उजले
मन के काले
बन बैठे हैं सिद्ध यहाँ के
(अंतरा)
सत्ता के
हाथों बिकते हैं
धर्मभ्रष्ट हो बुद्ध यहाँ के
(अंतरा)
खींच विभाजन
रेखा करते
मार्ग सभी अवरुद्ध यहाँ के।

अब अंतरे देखें तो बात स्पष्ट हो जायेगी।

१.
नोंच-नोंच कर
खा जायेंगे
सारी बगिया
पानी तक को
तरस जायेगी
उम्र गुजरिया
२.
हकदारी का
बैठा पहरा
साँस-साँस पर
करुणा रोती
कटता जीवन
बस उसाँस पर
३.
तकदीरों के
अजब-गजब से
खेल निराले
तदबीरों पर
डाल रहे हैं
हक के ताले।

नवगीत लेखन में पदार्पण कर रही कलमों के लिए मुखड़े अंतरे तथा स्थाई पंक्तियों का अंतर्संबंध समझना जरूरी है। विदेश प्रवास के बीच बोस्टन में लिखा गया नवगीत परिवेश के प्रति जयप्रकाश जी की सजगता की बानगी देता है-

तड़क-भड़क है
खुली सड़क है
मीलों लंबी खामोशी है।

जंगल सारा
ऊँघ रहा है
चिड़िया गाती नहीं सवेरे
नभ के नीचे
मेघ उदासी
पहने बैठे घोर अँधेरे

हवा बाँटती
घूम रही है
ठिठुरन वाली मदहोशी है।

जयप्रकाश जी ने मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग कम किंतु कुशलता से किया है-

"मन का क्या है
रमता जोगी, बहता पानी
कभी हिरण सा भरे कुलाँचे
कभी मचलता निर्मल झरना"
या "मुर्दों की बस्ती में
जाग रहे मरघट हैं"

"सुविधा के खाली
पीट रहे ढोल हैं
मंदी में प्रजातंत्र
बिकता बिन मोल है"

"अंधों के हाथ
लग गई बटेर
देर कहें या इसको
कह दें अंधेर" आदि।

उक्ति वैचित्र्य के माध्यम से इंगितों में बिन कहे कह जाने की कला इन नवगीतों में सहज दृष्टव्य है- सपनों की गठरी, झूठ की देहरी, अक्षर की पगथली, शब्दों के जंगल, अर्थों के बियाबान, युग का संत्रास, सभ्यता के दोराहे, संस्कार मीठे से, अँधेरों की लम्बी उम्र, सूर्य के वंशज, हौसलों के सहारे, चल की महफिल, मँहगाई की मार, संबंधों का बौनापन, अपनेपन के वातायन, हरकतों का खामियाजा, साँसों का व्यापार, चाँद की हँसुली, देह के आल्हाद, शब्द के शहतीर, वन के कारोबार, मस्तियों की गुलाल, चाँदनी के गाँव आदि दृष्टव्य हैं।

भूमिका में ख्यात नवगीतकार और समीक्षक डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' ने ठीक ही आकलन किया है- "यहाँ समूचा युग प्रतिबिंबित है।" नवगीत का कथ्य समसामयिक आदमी के दर्द और पीड़ा, समाज में व्याप्त विसंगतियों और पारिस्थितिक विडंबनाओं, न जीने न मरने देने वाली मारक परिस्थितियों आदि के बीच से उठाया जाता है। जीवन संघर्ष, आशा-निराशा, भटकाव-अटकाव आदि नवगीत को सचाई का आईना बना देती हैं।

नवगीत आधुनिक युग बोध और पारंपरिक लोक चेतना के सम्मिलन से उपजे क्रिया व्यापार और उसके परिणाम पर संवेदनशील मन की प्रतिक्रिया है। नवगीत व्यक्ति में उपजा समष्टि बोध है, जय प्रकाश जी के नवगीत इसकी पुष्टि करते हैं-

"उठ रहा है
धुआँ चारों ओर से
आग ये कैसी लगी है?"

नवगीत वैयक्तिक पीड़ा का सामान्यीकरण है-

"रात चटकी
चूड़ियों सी
धुला काजल
नहीं लौटा
गया जबसे
दूत बादल
पिया के
जाने कहाँ है ठाँव
बेबस मन हुए हैं।"

साधारण दृश्य को असाधारण संवेदना के साथ अभिव्यक्त करने में जयप्रकाश जी का सानी नहीं है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार "अनुभव का अनुभव होना अनुभूति है।" लघुकाय, खंडित, अमूर्त और देखकर अदेखे किये गए बिंब के माध्यम से संवेदना को अधिक मार्मिक और तीक्ष्ण बनाते हैं ये नवगीत-

"सर्द तन्हाई
बुझाने बर्फ कूदी
धूप पोखर में
लिपटकर सपने
आँखों से झरे
पात पीपल के
खदकने से डरे
देख धुंधलापन
सड़क ने आँख मूँदी
शहर ठोकर में।"

नवगीतों में अल्प विराम, अर्ध विराम, विस्मय बोधक चिन्ह आदि की अपनी उपादेयता होती है किन्तु जयप्रकाश जी पदांत में पूर्णविराम के अतिरिक्त अन्य किसी विराम चिन्ह का प्रयोग नहीं करते। भँवरे के स्थान पर भंवरे का प्रयोग त्रुटि पूर्ण है।
प्राकृतिक आपदाओं के समय से गगन विहारियों द्वारा आसमान से जन-विपदा का जायजा लेना जले पर नमक छिड़कने की तरह प्रतीत होता है-

"दुखती रग पर
हाथ धरकर
पूछते हैं हाल
पीठ पर चढ़
हँस रहा है
आज भी बैताल
आँसुओं से
लड़ रहे हैं जंग
सपने आँख में ठहरे।

'शब्द वर्तमान" के नवगीत केवल व्यथा-कथा नहीं हैं, उनमें लोक मंगल भी परिव्याप्त है। इस दृष्टि से ये गीत अधिक पूर्ण हैं-

अनगिनत किरणें सजा
थाल में लाई उषा
धरा का मंगल हुई।
लिपे आँगन धूप से
पक्षियों के मधुर गान
हो गया तम निर्वासन
दिशाएँ सब दीप्तिमान
अर्ध्य सूरज को चढ़ा
प्रकृति उज्जवल हुई।

तुम कहाँ हो शीर्षक गीत श्रृंगार समेटे हैं-

गीत मन के द्वार
देने लगे दस्तक
तुम कहाँ हो?
शब्द आँखों से
चुराकर ले गये सपने
अक्षरों की अँगुलियाँ
मंगल लगी लिखने
उचारे हैं साँसों ने
स्वस्तिक के अष्टक
तुम कहाँ हो?

संकीर्णतावादी समीक्षक ऐसे प्रयोगों को नवगीत न माने तो भी कोई अंतर नहीं होता। नवगीत सतत नयी भाव-भंगिमाओं को आत्मसात करता रहेगा। जय प्रकाश जी के ये नवगीत परिवर्तन की आहट सुना रहे हैं।
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गीत नवगीत संग्रह- शब्द वर्तमान, रचनाकार- जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, सी ७६ सुदर्शनपुरा औद्योगिक क्षेत्र विस्तार, नाला रोड, २२ गोदाम, जयपुर ३०२००६, प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. १२०, पृष्ठ- १२८, समीक्षा- आचार्य संजीव वर्मा सलिल, आईएसबीएन क्रमांक- 

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